कृष्ण भक्ति काव्य की दार्शनिक पृष्ठ भूमि
भारतीय धर्म साधना के क्षेत्र में शंकराचार्य के अद्वैतवाद के सिद्धान्त की प्रतिक्रिया स्वरूप अनेक धार्मिक संप्रदायों की स्थापना हुई जिनका उद्देश्य शंकर के मायावाद का खंडन करके भक्ति का प्रचार करना था। सोलहवीं शताब्दी में स्थापित संप्रदायों में विशेष रूप से जहां तक कृष्ण भक्ति साहित्य का सम्बन्ध है, वल्लभ का पुष्टि मार्ग, चैतन्य का गौड़ीय, स्वामी हित हरिवंश का राधा- वल्लभी तथा स्वामी हरिदास का सखी संप्रदाय है। इन संप्रदायों में पुष्टि मार्ग को छोड़कर शेष सभी संप्रदाय साधना पक्षी थे और उनमें कोई विशेष दार्शनिक विवेचन नहीं था । किन्तु बाद में इन संप्रदायों में भी दार्शनिक भित्ति को सुदृढ़ बनाने का प्रयास जारी रहा। कृष्ण-भक्ति साहित्य पर विशेषतः वल्लभ के पुष्टि मार्ग तथा हित हरिवंश के राधावल्लभी संप्रदाय का प्रभाव पड़ा।
ब्रह्म- वल्लभ के अनुसार ब्रह्म के अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं है और अनेक देवी-देवता उसी के चित्त और सत् के अंश हैं। ब्रह्म आनन्दमय है, प्रकृति जीव तथा अनेक देवी-देवता उसी ब्रह्म के काल, क्रम और स्वभाव के अनुसार प्रकट होने वाले रूपान्तर हैं। श्रीकृष्ण का नाम भी ब्रह्म है, वह नित्य है। वल्लभ का यह सिद्धांत शुद्धाद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। चैतन्य के अचित्य भेदाभेदवाद के अनुसार परम तत्व एक है और वह अनन्त शक्तियों का आगार है। उसकी शक्तियां अचित्य हैं, क्योंकि उसमें एकसाथ ही पूर्ण एकत्व और पृथकत्व तथा अंशभाव और अंशी भाव विद्यमान रहते हैं। सभी संप्रदायों के अनुसार ब्रह्म सगुण है और पूर्ण रसमय है जो साक्षात् कृष्ण है। सभी संप्रदाय वालों ने कृष्ण को भगवान मानकर उनमें मानवीय गुणों का आरोप किया है। श्रीकृष्ण का धाम गोलोक है जो नित्य और आनन्द स्वरूप है। गोपी, गोप, यमुना, वन, वृक्ष, लता, कुंज आदि कृष्ण से अभिन्न हैं। इनमें अंशांशीभाव है। सभी संप्रदायों ने कृष्ण और राधा को अपना इष्टदेव माना है। वल्लभ संप्रदाय में बाल गोपाल की उपासना पद्धति चलाई गई थी किन्तु स्वामी विट्ठलनाथ के समय राधा की महत्ता बढ़ गई। राधावल्लभी तथा चैतन्य मत में राधा को अधिक महत्ता प्रदान की गई। सभी संप्रदायों में प्रेमाभक्ति को अत्यधिक महत्व दिया गया है।
कृष्ण भक्ति का एकमात्र आधार प्रेम- प्रेम को सभी संप्रदाय वालों ने अत्यधिक महत्व दिया है। प्रेम के सामने कर्मकांड के विधि-निषेध केवल उपेक्षणीय ही नहीं बल्कि अतिक्रमणीय भी हैं। कृष्ण के प्रति प्रेम जब अदम्य आसक्ति के रूप में उत्पन्न हो जाय तब सांसारिक विषय-विलासादि के प्रति विरक्ति स्वतः पैदा हो जाती है। इस प्रकार इन वैष्णवों के प्रेम में प्रवृत्ति और निवृत्ति का एक अद्भुत अथच कलात्मक सामंजस्य हुआ है। कृष्ण के प्रति किया गया प्रेम रति है जो कि भक्तों के स्वभाव भेद पर निर्भर करता है। कृष्ण-भक्ति साहित्य में दैन्य भाव की भक्ति को महत्व नहीं दिया गया है। कृष्ण-भक्त अपने भगवान से अधिकाधिक ममता और घनिष्ठता का सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है, अतः वह दैन्यपूर्ण वचनों से सन्तुष्ट नहीं रहता । स्वभाव-भेदानुसार यह प्रेम कृष्ण भक्तों में वात्सल्य, सख्य और माधुर्य इन तीनों रूपों को धारण कर लेता है। प्रेम का चरम रूप माधुर्यमयी भक्ति में है, क्योंकि इनमें भक्त और भगवान में कोई व्यवधान रह ही नहीं जाता।
माधुर्य भाव का स्वरूप- कृष्ण की माधुर्य भाव की भक्ति का प्रतिपादन सभी संप्रदायों में हुआ। पर उनके स्वरूप में थोड़ा बहुत अन्तर विद्यमान है। निम्बार्क संप्रदाय में कृष्ण की राधा और गोपियों के साथ की गई लीलाओं का विशद चित्रण है, किन्तु उनका यह माधुर्य भाव स्वकीया प्रेम तक सीमित है और इसमें संयोग को अधिक महत्व दिया गया है। चैतन्य संप्रदाय ने परकीया प्रेम में माधुर्य भाव की परम परिणति मानी है। उनका कहना है कि जो तीव्रता परकीया प्रेम में है वह स्वकीया प्रेम में नहीं। प्रेमानुभूति की अनुरंजकता, विविधता और नित्य नवीनता की दृष्टि से भी परकीया प्रेम अधिक अनुकूल पड़ता है। चैतन्य के इस परकीया प्रेम का इतना व्यापक प्रसार हुआ कि आगे चलकर वल्लभ संप्रदाय वालों ने भी परकीया भाव को अपना लिया। राधावल्लभी संप्रदाय में परकीया भाव की अस्वीकृति है। उनके अनुसार निकुंज लीला का नित्य वृन्दावन-रस नित्य मिलन रूप में मिलता है। राधावल्लभी संप्रदाय के अनुसार राधा और कृष्ण नित्य विहार लीला में लीन रहते हुए एक-दूसरे के सुख के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। राधा वल्लभी संप्रदाय को छोड़कर अन्य सभी संप्रदायों ने विरह को भी अत्यंत महत्व दिया है, क्योंकि विरह में प्रेम की तीव्रता और अतीन्द्रियता सहज सुलभ है। उसमें मानसिकता की प्रधानता है और मांसलता का अभाव है। कृष्ण भक्तों ने इस परकीया भाव में किसी प्रकार की अश्लीलता एवं अनैतिकता की कल्पना करना व्यर्थ ही होगा। वस्तुतः परकीया भाव आदर्श प्रेम का प्रतीक मात्र है। राधा-कृष्ण एवं गोपियां वास्तव में एक-दूसरे से अभिन्न हैं। लौकिक दृष्टि से देखने पर उसमें स्वकीया भाव ही दृष्टिगोचर होगा। डॉ० बजेश्वर वर्मा के शब्दों में- “वस्तुतः पति तो एकमात्र कृष्ण ही है, उनसे भिन्न जो भी है, चाहे वह लीला के हेतु स्वयं राधा या गोपियां हों, या माधुर्य भाव को अपनाने वाले उनके अंश रूप स्त्री-पुरुष भक्तगण, वे सब उन्हीं प्रियतम कृष्ण की प्रेमिकायें हैं। स्पष्ट है कि प्रेम का यह स्वरूप सर्वथा अतीन्द्रिय तथा अलौकिक है। लौकिक अर्थ में वह जितना निक्रिष्ट और गर्हित है भक्ति के संदर्भ में उतना ही परिष्कृत और उदात्त है।”
प्रेमा-भक्ति में साधन-निरपेक्षता- काव्य-भक्ति का एकमात्र विश्वास है कि समस्त चेतना राममय तथा कृष्णमय हो जाना सच्चा ज्ञान है और यह ज्ञान प्रेमलक्षणा भक्ति के द्वारा भक्तों के लिए सुलभ है, ज्ञानियों के लिए नहीं। ज्ञानियों के ज्ञान के लिए वैराग्य का होना अनिवार्य है, किन्तु पुष्टिमार्गी भक्त को यह सब कुछ प्रभु के अनुग्रह से सहज सुलभ है। कृष्ण-भक्तों के निकट प्रेम का पंथ ही बड़ा है, उसके सामने जप, तप, योग तुच्छ है। यही कारण है कि कृष्ण भक्ति में वेद, मर्यादा, कर्मकांड के विधि-निषेधों तथा दूसरे बाह्याचारों की अवहेलना की है। यह दूसरी बात है कि कलान्तर में कृष्ण भक्ति में अनेक प्रकार का कर्मकांड विकसित हो गया।
सत्संग तथा गुरु महिमा – मध्ययुग के अन्य भक्ति-संप्रदायों की भाँति कृष्ण भक्ति सम्बन्धी संप्रदायों में सत्संगाचरण पर बहुत बल दिया गया है। कृष्ण-भक्ति के अन्तर्गत हरि विमुखें, असाधुओं और अभक्तों के परित्याग का उपदेश दिया गया है। कृष्ण-भक्ति संप्रदायों में गुरु महिमा का भी खुलकर वर्णन किया गया है। वल्लभ संप्रदाय में नन्ददास ने वल्लभ तथा विट्ठलनाथ की भगवान मानकर स्तुति की है। राधावल्लभी संप्रदाय में हितहरिवंश को ही हरि रूप माना गया है। आगे चलकर इनके विग्रहों की पूजा भी होने लगी। गुरु की कृपा से भक्त साधना में प्रवेश पाता है तथा वह उसमें दृढ़ भाव से संकल्पशील रहता है।
निवृत्ति और प्रवृत्ति का समन्वय- मूल रूप में यह भक्ति संप्रदाय निवृत्ति प्रधान होते हुए भी प्रवृत्ति का पोषक रहा है। कृष्ण भक्ति का उद्देश्य है सर्वात्मना अपने-आपको कृष्णार्पण करना। मनोविकारों और इन्द्रियों की सभी प्रवृत्तियों को कृष्णोन्मुख करने के लिए कृष्ण लीलाओं का अधिकाधिक वर्णन किया गया है तथा मन्दिरों में राधा कृष्ण की मूर्तियों का साज-श्रृंगार किया गया है। मन, आँखों तथा कानों के आकर्षण के लिए मुरली की अवतारणा की गई है। अपने मन को विषय-वासना से हटाने के लिए कृष्ण नाम का स्मरण, उनकी लीला और गुणों का गान किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक प्रकार से नवधा भक्ति कृष्ण भक्ति के अंतर्गत आ जाती है। कृष्ण-भक्ति और उनके साहित्य का महत्व बतलाते हुए डॉ० बजेश्वर लिखते है- “कृष्ण भक्ति का यह रूप जिस साहित्य के माध्यम से उद्घाटित हुआ है उसमें हिन्दी कृष्ण भक्ति साहित्य का अन्यतम स्थान है। कृष्ण-भक्ति की प्रकृति में ही जीवन के आध्यात्मिक और इहलौकिक पक्षों का जो अदभुत सम्मिश्रण है, उसमें मध्यकालीन हिन्दी कृष्ण भक्ति साहित्य को जहाँ धर्म संप्रदायों के अंतर्गत अत्यंत सम्मानित उच्च, धार्मिक साहित्य होने का गौरव मिला, वहाँ दूसरी ओर उसने सहज ही लोक की सामान्य भावनाओं का उन्मुक्त प्रकाशन करके जन-साधारण के हृदय में भी ममतापूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया। यही कारण है कि संप्रदायों के तत्वावधान में रचे जाने पर भी उसमें संकीर्णता और कट्टरता का प्रायः एकान्त अभाव है।”
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