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केन्द्र-राज्य सम्बन्ध (Centre-State Relations)
संविधान के द्वारा भारत में एक संघात्मक शासन की स्थापना की गई है और संघात्मकता के अनुकूल संघ और इकाइयों (राज्यों) के बीच शक्ति का विभाजन किया गया है। भारतीय संविधान के अन्तर्गत संघ और राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन निम्न रूपों में किया जा सकता है-विधायी सम्बन्ध, प्रशासकीय सम्बन्ध, वित्तीय सम्बन्ध तथा न्याय सम्बन्ध ।
विधायी सम्बन्ध (Legislative Relations)
संविधान के अनुच्छेद 245 से 255 तक भारतीय संविधान में केन्द्र-राज्य सम्बन्धों का उल्लेख किया गया है। सन् 1935 के अधिनियम में तीन सूचियों का समावेश किया गया था, संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची तथा स्वाधीन भारत के संविधान में भी शक्ति-वितरण की ये तीनों सूचियाँ हैं-
(1) संघ सूची- इसमें साधारणतः वे विषय रखे गये हैं, जिनका महत्त्व अखिल भारतीय है या जो राष्ट्रीय महत्त्व के हैं और जिन पर केवल संघीय सरकार ही कानून बना सकती है। इस सूची में कुल 97 विषय हैं जिनमें से कुछ ये हैं— भारत की सुरक्षा, देशीयकरणा, सैन्य, अस्त्र-शस्त्र तथा गोला बारूद, परमाणु शक्ति, वैदेशिक सम्बन्ध, राजनयिक सन्धियाँ, रेलें, देशीय जल-मार्गों पर जहाजरानी तथा नौ परिवहन, वायु मार्गों, डाक व तार, टेलीफोन व बेतार, मुद्रा निर्माण, लोक ऋण, विदेशी ऋण, भारत का रिजर्व बैंक, विदेशी व्यापार, ऐतिहासिक स्मारक, भारत का सर्वेक्षण, संघीय लोक सेवाएँ, संसद व राष्ट्रपति के निर्वाचन, सर्वोच्च न्यायालय का गठन, जनगणना, शान्ति निकेतन, सीमा शुल्क तथा, निर्यात शुल्क, निगम कर, उत्पादन शुल्क, सम्पदा शुल्क, समाचार पत्रों के क्रय-विक्रय पर कर, अलीगढ़, बनारस व उस्मानिया विश्वविद्यालय आदि। इन पर कानून बनाने का एकमात्र अधिकार संसद को दिया गया है।
(2) राज्य सूची- राज्य सूची में 66 विषय हैं। स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप इन विषयों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से व्यवहार की आवश्यकता के कारण ही इन्हें राज्य सूची में रखा गया है। भारत में संघात्मक सिद्धान्त कहाँ तक लागू किये गये हैं। इसका निर्णय राज्य सूची जेल तथा में उल्लेखित विषयों से अर्थात् राज्यों की विधायी शक्ति के क्षेत्र से भली प्रकार हो सकता है। राज्य-सूची के कुछ प्रमुख विषय ये हैं सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस, न्याय प्रशासन, सुधारालय, स्थानीय शासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य और सफाई, मादक पेय, शिक्षा, पुस्तकालय, अजायबघर, कृषि, सिंचाई, पशु-पालन, मछली व्यवसाय, अस्पताल व औषधालय, जंगली पशुओं की रक्षा, ग्राम सुधार, सार्वजनिक निर्माण कार्य, गैस, गैस-निर्माण, समाचार-पत्रों को छोड़कर अन्य वस्तुओं पर बिक्री कर, विज्ञान पर कर, व्यापार कर, वस्तुओं की उत्पत्ति और उनका वितरण, नाटकघर आदि ।
(3) समवर्ती सूची– इस सूची में स्थानीय और राष्ट्रीय दोनों महत्व के 47 विषय सम्मिलित हैं। इस सूची में निम्न प्रमुख मदें शामिल हैं— फौजदारी कानून व व्यवहार प्रणाली, हैं निवारक निरोध, विवाह और विवाह-विच्छेद, दिवालियापन तथा ॠण शोध क्षमता, पागलपन, ठेके और साझेदारी, मजदूर संघ आर्थिक तथा सामाजिक नियोजन, सामाजिक सुरक्षा और बीमा शरणार्थियों की सहायता, पुनर्वास, खाद्य पदार्थों में मिलावट, रोजगार और बेरोजगारी, विधि, औषधियाँ, जन्म-मरण के आँकड़े, श्रम कल्याण, मूल्य नियन्त्रण, कारखाने, बिजली, समाचार-पत्र, पुस्तकें तथा मुद्रणालय आदि ।
अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Power)
जिन विषयों का वर्णन उक्त तीनों सूचियों में नहीं है, उन सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार संघ सरकार को प्रदान किया गया है। यही केन्द्र की अवशिष्ट शक्तियाँ भी कहलाती हैं। अमेरिका में अवशिष्ट शक्तियाँ राज्यों को प्राप्त हैं। इस सम्बन्ध में भारत में कनाडा के संविधान का अनुसरण किया गया है। कनाडा में भी अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ केन्द्र में निहित हैं। भारत में इस व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्र ऐसे कर लगा सकता है जिनका राज्य और समवर्ती सूचियों में उल्लेख नहीं है।
राज्य सूची के विषयों पर संसद की शक्ति- सामान्यतया राज्यों के विधान मण्डलों को राज्यों को समस्त विषयों पर अधिनियम बनाने का अधिकार है, परन्तु राज्यों के इन अधिकारों पर कुछ प्रतिबन्ध भी हैं। संविधान में कुछ ऐसी दशाओं का उल्लेख किया गया है कि इन विषयों पर अधिनियम बनाने का अधिकार भारतीय संसद को प्राप्त हो जाता है जो इस प्रकार है-
(1) राज्य सूची का विषय राष्ट्रीय महत्व का होने पर- यदि राज्य सभा के दो-तिहाई (2/3) सदस्य यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेते हैं कि राज्य सूची में उल्लिखित कोई विषय राष्ट्रीय महत्व का हो गया है तो उस पर अधिनियम बनाने का अधिकार भारतीय संसद को प्राप्त हो जाता है। इसकी मान्यता केवल एक वर्ष तक रहती है। यदि राज्य सभा इसको पुनः पास कर देती है, तो उसकी अवधि में एक वर्ष की वृद्धि और हो जायेगी। इनकी अवधि समाप्त होने के उपरान्त भी यह 6 महीने तक प्रयोग में आ सकता है।
(2) संकटकालीन उदुघोषणा होने पर-संकटकालीन उद्घोषणा से कार्यकाल में राज्य की समस्त विधायनी शक्तियों पर भारतीय संसद का अधिकार हो जायेगा। इस उद्घोषणा की समाप्ति पर छः महीने तक यह नियम पूर्ववत् चलता रहेगा।
(3) राज्यों के विधान-मण्डल की इच्छा प्रकट करने पर- यदि कोई दो राज्य अथवा दो से अधिक राज्यों के विधान-मण्डल यह इच्छा प्रकट करते हैं और प्रस्ताव के रूप में अपनी इच्छा को व्यक्त कर देते हैं, तो राज्यों के लिये समस्त विषयों पर अधिनियम बनाने का अधिकार भारतीय संसद को प्राप्त हो जाता है। राज्य के विधान-मण्डल इनमें न कोई संशोधन कर सकते हैं और न उनको पूर्ण रूप समाप्त ही कर सकते हैं।
(4) किसी विषय पर विदेशी राज्यों से सन्धि- यदि संघ सरकार ने विदेशी राज्यों से किसी प्रकार की सन्धि की है अथवा उसके सहयोग के आधार पर किसी नवीन योजना का निर्माण किया है तो उसका पालन करने के लिए संघ सरकार को सम्पूर्ण भारत के सीमा क्षेत्र के अन्तर्गत पूर्णतया हस्तक्षेप और व्यवस्था करने का अधिकार होगा।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट कि भारत में साधारणतया संघीय संसद तथा राज्यों की व्यवस्थापिकाओं के कार्य क्षेत्र संविधान द्वारा विभाजित हैं, लेकिन विशेष परिस्थितियों में संघ सरकार द्वारा राज्य सरकार के कार्य क्षेत्र का अतिक्रमण किया जा सकता है।
प्रशासकीय सम्बन्ध (Administrative Relations)
संविधान के भाग 11 के दूसरे अध्याय में अनुच्छेद 256 से 263 तक केन्द्र राज्य प्रशासनिक सम्बन्धों की चर्चा की गई है। केन्द्र को राज्यों की तुलना में अधिक कर्त्तव्य और दायित्व सौंपे गये हैं। संविधान की धारा 73 के अनुसार, केन्द्र की कार्यपालिका अथवा प्रशासनिक शक्तियों का विस्तार उन विषयों तक सीमित है जिन पर संसद को विधि-निर्माण की शक्ति प्राप्त है। इसी तरह अनुच्छेद 162 के अनुसार, राज्यों की प्रशासनिक शक्तियों का विस्तार उन विषयों तक सीमित है जिन पर राज्य विधान मण्डल को कानून बनाने का अधिकार है पर साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जिन विषयों पर राज्य विधान-मण्डल और संसद दोनों को विधि-निर्माण की शक्ति प्राप्त है उनमें राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ संघ की उन कार्यपालिका शक्तियों से परिसीमित रहेंगी जो या तो संविधान द्वारा अथवा किसी संसदीय विधि द्वारा प्रदत्त हैं।
भारत में संघ और राज्यों के बीच प्रशासनिक सम्बन्ध निर्धारित करने वाले उपबन्धों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-—(क) राज्यों के ऊपर संघीय नियन्त्रण के उपाय, (ख) राज्यों में परस्पर सामंजस्य ।
(क) राज्यों के ऊपर संघीय नियन्त्रण के उपाय- संकटकाल में केन्द्रीय सरकार का राज्य सरकार के ऊपर पूर्ण नियन्त्रण रहता है। साधारण काल में यद्यपि राज्य सरकारों को अपने क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त रहती है फिर भी केन्द्रीय सरकार कुछ सीमा तक उन्हें नियन्त्रित करती है। नियन्त्रण के निम्नलिखित साधनों को अपनाया गया है
(1) राज्य सरकारों को निर्देश-अनुच्छेद 256 के अनुसार, राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग होगा कि वह संसद द्वारा निर्मित विषयों के अनुकूल हो। संघीय कार्यपालिका को यदि वह आवश्यक समझे तो इस सम्बन्ध में राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश देने का अधिकार प्राप्त है। ऐसा उपबन्ध इसलिए किया गया है कि संसद द्वारा पारित विधियों के क्रियान्वयन के मार्ग में कोई बाधा न पहुँचे।
अनुच्छेद 257 में उपबन्धित किया गया है कि प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का इस प्रकार प्रयोग होना चाहिए जिससे संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में बाधा या प्रतिकूल प्रभाव न पड़े तथा संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को ऐसे निर्देश देने तक विस्तृत होगा, जो भारत सरकार को उस प्रयोग के लिए आवश्यक दिखायी दे ।
उल्लेखनीय यह है कि अनुच्छेद 356 संघीय कार्यपालिका को उसके निर्देशों को लागू करने के लिए बाध्यकारी शक्ति प्रदान करता है। इसके अन्तर्गत राज्य सरकार द्वारा निर्देशों का पालन न किये जाने पर राष्ट्रपति संकटकाल की उद्घोषणा कर राज्य के शासन को अपने हाथ में ले सकता है।
(2) राज्य सरकारों को संघीय कृत्य सौंपना- अनुच्छेद 258 में निर्धारित शर्तों के अनुसार, संघ राज्यों को अपने कुछ प्रशासनिक कृत्य हस्तान्तरित कर सकता है तथा राज्य, संघ को अपने कुछ प्रशासनिक कृत्य सौंप सकते हैं। संघीय सरकार द्वारा राज्य सरकारों को अपने प्रशासनिक कृत्य सौंपे जाने पर इन कृत्यों को सम्पन्न करने में जो भी खर्च होगा, उसका वहन संघीय सरकार करेगी।
(3) अखिल भारतीय सेवाएँ- संविधान संघ तथा राज्य सरकारों के लिए अलग-अलग सेवाओं की व्यवस्था करता है, लेकिन कुछ ऐसी सेवाओं की भी व्यवस्था है जो संघ तथा राज्य सरकारों के लिए सामान्य हैं, उन्हें अखिल भारतीय सेवाएँ कहते हैं। अनुच्छेद 312 के अनुसार, राज्य सभा, उपस्थित तथा मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा प्रस्ताव पास कर किसी नवीन अखिल भारतीय सेवा का निर्माण कर सकती है।
(4) सहायता अनुदान- संसद राज्यों की आवश्यकतानुसार सहायता व अनुदान भी दे सकती है। अनुदान देते समय संसद राज्यों पर कुछ शर्तें लगाकर उनके व्यय को भी नियन्त्रित कर सकती है।
(5) अन्तर्राज्यीय परिषद्- अनुच्छेद 263 के अनुसार राष्ट्र हित सार्वजनिक हित के उद्देश्य से अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना कर सकता है। परिषद् की स्थापना निम्नलिखित कार्यों के सम्पादन हेतु की जाती है-(अ) राज्यों के पारस्परिक झगड़ों की जाँच कर उन पर परामर्श देने के लिए। (ब) संघ तथा राज्यों या राज्यों के सामान्य हित पर अन्वेषण के लिए, जैसे—कृषि, सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि। (स) अन्तर्राज्यीय विषयों से सम्बन्धित नीतियों तथा कार्यों के समन्वय के लिए।
(ख) राज्यों में परस्पर सामंजस्य- संघीय इकाइयाँ अपने क्षेत्र में लगभग पूर्ण सत्ताधारी होती हैं लेकिन एक ही राज्य की इकाइयाँ होने के कारण ये एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक् नहीं रह सकतीं और इनमें पारस्परिक सहयोग आवश्यक होता है। भारतीय संविधान के अन्तर्गत इकाइयों में पारस्परिक सहयोग स्थापित करने के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये गये हैं-
(1) संघीय क्रियाओं, अभिलेखों तथा न्यायिक कार्यवाहियों को मान्यता प्रदान करना- संविधान के अनुच्छेद 245 के अनुसार, प्रत्येक राज्य का क्षेत्राधिकार उसकी सीमा तक सीमित है। अतः यह भय है कि एक राज्य, दूसरे राज्य की सार्वजनिक क्रियाओं, अभिलेखों तथा न्यायिक निर्णयों को मान्यता प्रदान न करे। इस स्थिति को दूर करने के लिए अनुच्छेद 261 में यह व्यवस्था की गयी है कि भारत राज्य क्षेत्र में सर्वत्र संघ की और प्रत्येक राज्य को सार्वजनिक क्रियाओं, अभिलेख एवं न्यायिक कार्यवाहियों को पूरा विश्वास एवं मान्यता प्राप्त होगी।
(2) अन्तर्राज्यीय नदियों या नदी के जल सम्बन्धी विवादों का निर्णयन- संविधान के अनुच्छेद 262 के अनुसार, संसद को अधिकार है कि वह विधि द्वारा किसी अन्तर्राज्यीय नदी अथवा इनके जलों के प्रयोग, वितरण या नियन्त्रण के सम्बन्ध में किसी विवाद को न्यायिक निर्णय के लिए रख सके। व्यवहार के अन्तर्गत संसद के द्वारा सन् 1956 में ‘अन्तर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम’ (Inter-State Water Disputes Act) पारित किया गया है, जिसके अन्तर्गत अन्तर्राज्यीय नदी जल विवादों को हल करने के लिए एक ‘न्यायाधिकरण’ (Tribunal) की व्यवस्था की गयी है। इस न्यायाधिकरण में एक अध्यक्ष व दो अन्य सदस्य होंगे, जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में कार्य कर रहे न्यायाधीशों में से नियुक्त किया जायेगा।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संघ व राज्यों के मध्य प्रशासनिक सम्बन्धों का अध्ययन करने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रशासनिक क्षेत्र में केन्द्र का राज्यों पर प्रभावी नियन्त्रण है।
वित्तीय सम्बन्ध (Financial Relations)
वित्तीय क्षेत्र में संघ व राज्यों के मध्य सम्बन्धों का विश्लेषण निम्नवत किया जा सकता है-
संघीय आय के साधन- संघीय सरकार को आय के अलग-अलग साधन प्राप्त हैं। इन साधनों में कृषि आय को छोड़कर अन्य आय पर कर, सीमा शुल्क, निर्यात शुल्क, उत्पादन शुल्क, निगम कर, कम्पनियों के मूलधन पर कर, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति शुल्क आदि प्रमुख हैं।
राज्यों की आय के साधन- वित्त के क्षेत्र में राज्य सरकारों की आय के साधन भी अलग कर दिये गये हैं। उनमें भू-राजस्व, कृषि आय कर, कृषि भूमि का उत्तराधिकार तथा भू-सम्पत्ति शुल्क, मादक वस्तुओं पर उत्पादन कर, बिक्री कर, यात्री कर, मनोरंजन कर और दस्तावेज कर आदि प्रमुख हैं।
व्यय की प्रमुख मदें – संघीय शासन के व्यय की मुख्य मदें सेना, परराष्ट्र सम्बन्ध आदि हैं, जबकि राज्य शासन के व्यय की मुख्य मदें पुलिस, कारावास, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा स्थानीय स्वशासन आदि हैं।
राज्यों को वित्तीय सहायता- क्योंकि राज्यों की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपर्युक्त साधन पर्याप्त नहीं समझे गये, इसके लिए संघीय शासन द्वारा राज्यों की वित्तीय सहायता की व्यवस्था की गयी है, जो इस प्रकार है
पहले प्रकार के कर ऐसे हैं जो केन्द्र द्वारा लगाये और वसूल किये जाते हैं, पर जिनकी सम्पूर्ण आय राज्य को बाँट दी जाती है। इस प्रकार के करों में प्रमुख रूप से उत्तराधिकार कर, सम्पत्ति कर व समाचार पत्र कर आदि आते हैं।
दूसरे के प्रकार के कर वे हैं जो केन्द्र निर्धारित करता है किन्तु राज्य एकत्रित करते और अपने उपयोग में लाते हैं। स्टाम्प शुल्क कर ऐसा ही कर है। केन्द्र-शासित क्षेत्र में इन करों की वसूली केन्द्रीय सरकार करती है।
तीसरे प्रकार के कर वे हैं जो केन्द्र द्वारा लगाये और वसूल किये जाते हैं, पर जिनकी शुद्ध आय संघ व राज्यों के बीच बाँट दी जाती है। कृषि आय के अतिरिक्त अन्य आय पर कर प्रमुख रूप से इसी प्रकार का कर है।
राज्यों को अनुदान- संविधान के अनुच्छेद 275 के अनुसार, जिन राज्यों के सम्बन्ध में संसद विधि द्वारा उपबन्धित करे, उन राज्यों को अनुदान दिया जायेगा। इनके द्वारा राज्य उन विकास योजनाओं को क्रियान्वित करने में समर्थ हो सकते हैं जो अनुसूचित आदिम जातियों के कल्याण तथा उन्नति अथवा अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासनिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए आवश्यक हों। अन्य कार्यों के लिए भी केन्द्र के द्वारा राज्यों को अनुदान दिया जा सकता है।
वित्त आयोग- संविधान के अनुच्छेद 280 के अन्तर्गत वित्त आयोग सम्बन्धी प्रावधान है। इस आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
अनुच्छेद 280 के अनुसार वित्त आयोग मुख्यतः निम्नलिखित विषयों पर अपना प्रतिवेदन राष्ट्रपति को प्रस्तुत करता है-
(क) संघ और राज्यों के बीच उन करों की शुद्ध प्राप्तियों के वितरण के सम्बन्ध में जो संघ एवं राज्यों में विभाजित होते हैं अथवा होंगे और राज्यों के बीच ऐसे करों की प्राप्ति के उस अंश से वितरण के बारे में जो राज्यों को प्राप्त हों।
(ख) भारत की संचित निधि में से राज्यों के राजस्व के लिये सहायक अनुदान देने में किन सिद्धान्त पर चला जाये, इस बारे में।
(ग) अन्य और भी जो विषय राष्ट्रपति, सुव्यवस्थित वित्त व्यवस्था के हितों में उनके बारे में आयोग को सौंपे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संघ व राज्यों के मध्य वित्तीय सम्बन्धों के आधार पर केन्द्र का राज्यों पर प्रभावी नियन्त्रण स्थापित हो गया है।
न्यायिक सम्बन्ध (Judicial Relations)
संघ व राज्यों के मध्य संविधान ने न्यायिक सम्बन्धों की स्थापना की है। भारत में एकल न्याय व्यवस्था है। राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति महामहिम राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय की शरण ली जा सकती है। न्यायालयों को उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों का अनिवार्यतः पालन करना होता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी लेख सम्पूर्ण देश व विधि के प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है। राज्यों के पारस्परिक विवादों का निपटारा भी सर्वोच्च न्यायालय ही करता है। एकल न्यायिक प्रणाली ने भारत में एकता का संचार किया है।
संविधान के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों के बीच सम्बन्धों की जो व्यवस्था की गयी है और व्यवहार में इन दोनों पक्षों के बीच सम्बन्ध किस प्रकार से संचालित होते रहे हैं, उसके आधार पर मि. गेई (Gae) लिखते हैं कि “उचित रूप में ही यह कहा जा हैं सकता है कि संविधान न तो पूर्ण रूप में संघात्मक है और न ही एकात्मक, वरन् यह तो इन दोनों ही संरचनाओं का मिश्रण है, यद्यपि इसका झुकाव एकात्मक ढाँचे की अपेक्षा संघात्मक ढाँचे की ओर अधिक है।”
केन्द्र-राज्य मतभेदों को दूर करने सम्बन्धी कुछ सुझाव (Some Suggestions for Removing Conflict between Centre and States)
संविधान विशेषज्ञों, राजनीतिक टीकाकारों, समीक्षकों, विरोधी दलों, अनेक शिक्षा शास्त्रियों, गैर-काँग्रेसी राज्य सरकारों द्वारा केन्द्र-राज्य मतभेदों के दूर करने की दिशा में मुख्यतः निम्नलिखित सुझाव दिये जाते रहे हैं—
(1) भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक किन्तु आत्मा से एकात्मक है। अतः इसे आत्मा से भी संघात्मक बनाया जाये। इसके लिये आवश्यक है कि समवर्ती सूची के विषयों का पुनर्विभाजन इस प्रकार हो कि शक्ति विभाजन का सन्तुलन राज्यों के पक्ष में हो जाये।
(2) राज्यों को कुछ लचीले वित्तीय स्रोत प्रदान किये जायें ताकि उनकी आय बढ़ सके। इस दिशा में कुछ कदम उठाये गये हैं, लेकिन अभी इस सम्बन्ध में बहुत अधिक किया जाना शेष है। स्वयं राज्यों को भी अपने वित्तीय साधनों में वृद्धि तथा अपने प्रशासनिक व्यय में मितव्ययिता के लिये सम्भव प्रयत्न करने चाहिये।
(3) केन्द्र के पास राज्यों को विवेकानुसार अनुदान देने की शक्ति न रहे।
(4) वित्त आयोग को स्थायी संस्था के रूप में परिवर्तित किया जाये और इस आयोग का परामर्श केन्द्र के लिये बन्धनकारी होना चाहिये ।
(5) योजना आयोग को स्वायत्त संवैधानिक स्तर प्रदान किया जाये।
(6) राज्यों की आर्थिक समस्या को सुलझाने के लिये भी एक स्थायी किन्तु गैर-राजनीतिक समिति गठित की जाये जो केन्द्र व राज्यों के मध्य आर्थिक समन्वय का कार्य करे।
(7) अनुच्छेद 263 के अनुसार, अन्तर्राष्ट्रीय परिषद् (Inter-State Council) को स्थापित किया जाये जो राष्ट्रपति को सलाह देने का कार्य करे।
(8) राष्ट्रपति एवं राज्यपाल सम्बन्धी संवैधानिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन करके उनकी शक्तियों में इस प्रकार की वृद्धि की जाये कि वे बिना किसी विवशता के स्व-विवेक से काम कर सकें।
(9) किसी व्यक्ति को केवल एक बार ही राज्यपाल नियुक्त किया जाये, रिटायर होने पर न तो उसे लाभ का पद दिया जाये और न उसे राजनीति में भाग लेने के लिये स्वतन्त्र छोड़ा जाये। राज्यपाल को हटाने के लिये भी महाभियोग की व्यवस्था होनी चाहिये। राज्यपाल पद पर योग्यतम व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिये।
(10) राष्ट्रपति के परामर्श के लिये एक समिति बनायी जाये, जिसके परामर्श पर राज्यपालों, न्यायाधीशों, योजना आयोग के सदस्यों आदि की नियुक्ति हो ।
(11) केन्द्र, राज्य-सूची के विषयों में बिल्कुल हस्तक्षेप न करे। राज्य सूची के विषयों सम्बन्धी कार्यक्रम लागू करने, उन पर धन व्यय करने आदि का पूरा उत्तरदायित्व राज्य सरकारों पर रहे।
(12) प्रशासन, वित्त और विधायी सभी क्षेत्रों में केन्द्रीय नियन्त्रण की व्यवस्थाएँ शिथिल की जायें ।
(13) अखिल भारतीय सेवा के जो अधिकारी राज्य सेवा में रहें उन पर पूरा नियन्त्रण राज्य सरकार का हो ।
(14) अन्तर्राज्यीय परिषद् की स्थापना के अलावा प्रत्येक राज्य के लिये एक संवैधानिक सलाहकार समिति की स्थापना हो, यह समिति संघीय प्रश्नों पर राज्य को परामर्श दे।
(15) संविधान के अनुच्छेद 249 पर पुनर्विचार किया जाये।
निष्कर्ष- संविधान के प्रावधानों व राजनीतिक प्रक्रिया के आंकलन के पश्चात् यह कहा जा सकता है कि केन्द्र या संघ-राज्य सम्बन्धों ने केन्द्र को अत्यन्त शक्तिशाली बना दिया है। तथा राज्यों की स्थिति नगरपालिका परिषदों जैसी हो गयी है, जिसके कारण लगातार राज्यों की स्वायत्तता की माँग उठती रहती है। यही कारण है कि आलोचक भारतीय राजनीतिक प्रणाली को संघात्मक की अपेक्षा एकात्मक अधिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में गठित किये गये सरकारिया आयोग ने अपने प्रतिवेदन में अनेक सुधारात्मक सुझाव दिये थे।
वास्तव में आज आवश्यकता इस बात की है कि संघ व राज्यों के मध्य सम्बन्धों का निर्धारण इस ढंग से हो जिसमें संघवाद की विशिष्टता भी बनी रहे व आपातकाल में राष्ट्र की एकता व अखण्डता की रक्षा भी की जा सके। इसके लिए स्वस्थ परम्पराएँ स्थापित किये जाने की नितान्त आवश्यकता है।
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