ब्रिटिश काल (औपनिवेशिक काल) में भारत में लोक सेवाओं के उद्भव एवं विकास का विस्तृत वर्णन कीजिए।
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ब्रिटिश काल में लोक सेवा का उद्भव एवं विकास (Origin and Development of Public Services During British Period)
ब्रिटिश काल में लोक सेवा का उद्भव एवं विकास – मुगलकालीन लोक सेवा का स्वरूप नागरिक के साथ-साथ सैनिक प्रवृत्त का था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में इसका स्वरूप लूटपाल पर आधारित हो गया। क्लाइव, वारेन हेस्टिंग तथा कार्नवालिक ने लोक सेवा में महत्वपूर्ण सुधार किए। 1781 की केन्द्रीकरण योजना के अनुसार राजस्व मण्डल की स्थापना हुई। 1787 में एक अन्य योजना के अन्तर्गत जिलाधीश, मजिस्ट्रेट तथा न्याय प्रशासन का कार्य एकीकृत किया गया। आगे चलकर सत्ता की सीमाओं को परिभाषित किया गया, अपीलीय व्यवस्था की पद्धतियाँ निर्मित की गयी और राजस्व, पुलिस तथा दीवानों एवं फौजदारी न्याय के क्षेत्रों में भारतीय लोक-सेवाओं की स्थापना की गयी। साथ में इनके चयन तथा प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। जब कम्पनी के राजनैतिक कार्यों में वृद्धि हुई तब लॉर्ड क्लाइव ने ‘कवेनेण्टेड’ तथा ‘अकवेनेण्टेड’ के रूप में सेवाओं के दो विभाग कर दिये। उसने कम्पनी के कर्मचारियों को एक प्रतिज्ञा पत्र भरने के लिए बाध्य किया जिसमें उनकी सेवा की शर्तों का उल्लेख और निजी व्यापार न करने, घूस या उपहार न लेने आदि अनेक नियमों का उल्लेख था। कम्पनी के असैनिक कर्मचारियों को प्रतिज्ञाबद्ध नागरिक सेवा का नाम दिया गया। राबर्ट क्लाइव तथा वारेन हेस्टिंग के द्वारा उठाये गये कदमों से लोक सेवा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सुधार नही हुए। इसे ठीक करने के लिए लॉर्ड कार्नवालिस (1785-1793) ने भारत की प्रशासनिक सेवा में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। उसने कर्मचारियों के व्यापार करने पर पाबन्दी लगायी। साथ में उनके वेतन में पर्याप्त वृद्धि की गयी जिससे उन्हें हानि न हो। पदोन्नति के लिए वरिष्ठता के सिद्धान्त की मान्यता दी गयी। इन सुधारों से नागरिक सेवा में ईमानदारी और कार्यकुशलता की वृद्धि हुई। लॉर्ड वेलेजली ने अपने प्रशासकों का बड़ी सावधानी से चयन कर उन्हें कोई विलियम कॉलेज में प्रशिक्षण हेतु भेजा। अपने शासनकाल (1798-1805) के दौरान लॉर्ड वेलेजनी ने कर्मचारियों के प्रशिक्षण पर विशेष जोर दिया। इन्हे भारत की भाषाओं, कानून और इतिहास की शिक्षा देने के लिए कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गयी और यहाँ प्रशिक्षण प्राप्त करना अनिवार्य किया गया। किन्तु कम्पनी के डायरेक्टर वेलेजली के इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। उन्होंने कलकत्ता के स्थान पर 1813 में इंग्लैण्ड में हेलिवरी में एक कॉलेज की स्थापना की। इसका पढ़ाई का स्तर उच्चकोटि का था। यह महाविद्यालय 1850 के दशक तक बना रहा।
1830 में चार्टर ऐक्ट पारित हुआ इसमें यह व्यवस्था की गयी कि इसके सभी कर्मचारियों की भर्ती सब व्यक्तियों के लिए समान रूप में खुली। प्रतियोगिता पद्धति के आधार पर की जायेगी। भारतीय लोक सेवाओं के इतिहास में 1854 सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जबकि लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता में एक समिति का गठन हुआ। इस समिति ने आई.सी.एस. के लिए जो सिफारिशें की थीं व न्यूनाधिक रूप में आज भी भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के गठन और कार्यप्रणाली की आधारशिला है। सन् 1858 में कम्पनी के शासन के स्थान पर ब्रिटिश क्राउन की सरकार की स्थापना ने ‘प्रशासन तन्त्र’ को सरकार बना दिया। नागरिक सेवाएँ अपने विशेषाधिकार रूपी सुदृढ़ दुर्ग में पूर्णतः सुरक्षित थीं और लोकमत के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। इस मनोवृत्ति का परिणाम यह निकला कि भारतीय प्रशासन में उच्च सेवाओं के भारतीयकरण की माँग की गयी। साथ में सेवाओं में सुधार की भी माँग की गयी। सन् 1886 में भारत के वायसराय लॉर्ड डफरिन द्वारा चार्ल्स एचिसन की अध्यक्षता में एक आयोग स्थापित किया।
एचिसन आयोग ने सुझाव दिया कि कवेनेण्टेड तथा अकवेनेण्टेड सेवाओं के अन्तर को समाप्त कर इनके स्थान पर सामान्य सेवा को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाये- प्रथम, भारतीय नागरिक सेवा; द्वितीय, प्रान्तीय सेवा, तृतीय, अधीनस्थ सेवा। प्रथम श्रेणी की सेवाओं की भर्ती के लिए इंग्लैण्ड में प्रतियोगी परीक्षाएँ आयोजित की जायें जिनमें भारतीय एवं यूरोपीय प्रत्याशी भी बैठ सकें। अन्य दो प्रकार की सेवाओं में प्रान्तीय स्तर पर भर्ती की जाये तथा इनमें भारतीय ही लिये जायें। परीक्षा में बैठने की अधिकतम आयु 23 वर्ष तक बढ़ा दी गयी। आयोग ने भारत और इंगलैण्ड में एक साथ परीक्षा के आयोजन का विरोध किया।
1912 में लॉर्ड इस्लिग्टन की अध्यक्षता में एक आयोग की स्थापना की गयी। इसके प्रतिवेदन में भारत और इंग्लैण्ड में एक साथ परीक्षाएँ आयोजित करने, एक चौथाई पद भारतीयों के लिए सुरक्षित रखने तथा नियुक्ति व पदोन्नति दोनों से पदों को भरने की बात कही गयी थी । सन् 1918 में भारतीय शासन के सुधारों के लिए “मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड” रिपोर्ट तैयार की गयी। इसमें नागरिक सेवा के सम्बन्ध में तीन महत्वपूर्ण सिफारिशें की गयीं-
(i) नागरिक सेवा की परीक्षा इंग्लैण्ड और भारत में एक साथ ली जाये।
(ii) भारतीय नागरिक सेवा में भारतीयों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रारम्भ में वरिष्ठ पदों में से एक-तिहाई पदों के लिए भर्ती भारत में की जाये। प्रति वर्ष इसमें डेढ़ प्रतिशत भारतीयों की संख्या बढ़ाई जाती रहे।
(iii) आई.सी.एस. के अधिकारियों के वेतनमान, निवृत्ति, वेतन और समुद्रपार के भत्तों में वृद्धि की जाये।
1919 के भारत शासन अधिनियम में केन्द्रीय सेवाओं की भर्ती के लिए लोक-सेवा आयोग गठित करने की व्यवस्था की गयी। इस समय एक नागरिक सेवा में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को भी स्वीकार कर लिया गया। 1919 के भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत प्रदत्त आंशिक उत्तरदायी सरकार के अनुरूप ये सेवाएँ अपने को नहीं बना सकी थीं।
सन् 1924 में भारत में एक उच्च लोक-सेवा विषयक शाही योजना की नियुक्ति की गयी, जिसके अध्यक्ष लॉर्ड ली थे। इसलिए यह योजना “ली आयोग” के नाम से भी जाना जाता है। इसका सम्बन्ध लोक-सेवाओं से था। आयोग ने सिफारिश की कि लोक सेवा आयोग के कार्य दो प्रकार के हो : (क) लोक-सेवाओं के लिए भर्ती करना तथा भर्ती के लिए उपयुक्त योग्यताओं का स्तर निर्धारित करना, (ख) लोक-सेवाओं का सुरक्षा एवं अनुशासनात्मक नियन्त्रण । लोक सेवा आयोग की स्थापना 1926 में की गयी। इसके अतिरिक्त आयोग ने लोक-सेवाओं को तीन वर्गों में विभाजित करने की सिफारिश की- अखिल भारतीय सेवा, हस्तान्तरित सेवा, तथा भारत सरकार के अधीन केन्द्रीय सेवा ।
1935 के भारत शासन अधिनियम द्वारा लोक-सेवाओं में कुछ परिवर्तन किये गये। लोक सेवा आयोग को नयी शक्ति ही नहीं मिला बल्कि राज्यों में भी लोक-सेवा आयोग की स्थापना की गयी। अधिनियम द्वारा नागरिक सेवा की पद्धति पर आधारित चिकित्सा सेवाओं के अतिरिक्त अन्य सभी सेवाओं को भारत-मन्त्री के अधिकार क्षेत्र से निकाल दिया गया और इन पर गवर्नर जनरल और गवर्नरों का नियन्त्रण स्थापित किया गया।
1935 का भारत शासन अधिनियम 1947 तक प्रभावी रहा। सत्ता हस्तान्तरण के दौरान यह प्रावधान किया गया कि राज्य सचिव के लिए लोक सेवकों की सेवा शर्तें पूर्ववत् बनी रहेंगी। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार लोक-सेवा का पूर्णरूपेण । भारतीयकरण कर उसे अपने अधीन ले लिया।
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