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कुशल नियंत्रण की आवश्यकताओं का उल्लेख कीजिए।
(1) सरलता (Simplicity) – स्थापित नियंत्रण-व्यवस्था सरल एवं बोधगम्य होनी चाहिए जिसेस वह प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों की समझ में आसानी से आ जाय। प्रबन्धक सरलता और स्पष्टता से यह समझ सकें कि यह व्यवस्था कैसे संचालित होगी, अर्थात् किसको, कब, कहाँ, कैसे और कितना नियंत्रण करना है। इसी प्रकार अधीनस्थ प्रबन्धक एवं कर्मचारी यह समझ सकें कि उनके उच्चाधिकारी उनसे क्या आशा कर रहे हैं। सम्भव है, कुछ जटिल नियंत्रण विधियाँ, जैसे सम-विच्छेद बिन्दु विश्लेषण, प्रक्रिया चार्ट, अनुपात विश्लेषण या अन्य सांख्यिकी विधियां एवं चार्ट, उच्चाधिकारियों की समझ में तो आ जाएँ किन्तु सम्बन्धित कर्मचारी उन्हें न समझ सकें तो ऐसी विधियों के प्रयोग से परेशानियाँ उत्पन्न होंगी। इसी प्रकार, आँकड़ों का संकलन, वर्गीकरण, विश्लेषण और प्रस्तुतीकरण इस प्रकार से किया जाय कि यह बोधगम्य और तुलनात्मक हो।
(2) उपयुक्तता (Suitability) – नियंत्रण विधियाँ संगठन के आकार, संरचना तथा क्रियाओं के अनुकूल होनी चाहिए। सर्वप्रथम, संगठन संरचना एवं नियंत्रण विधियों में सुसंगति होनी चाहिए। नियोजन एवं नियंत्रण परस्पर निर्भर होते हैं। अतः नियंत्रण निर्धारित लक्ष्यों एवं नीतियों के अनुकूल होना चाहिए तथा कुशल नियंत्रण के लिए यह आवश्यक है कि लक्ष्य एवं नीतियाँ स्पष्टरूप से निर्धारित की जाएँ अन्यथा नियंत्रण भ्रामक और उद्देश्यहीन होगा। द्वितीय, नियंत्रण संगठन संरचना के अनुकूल हो, अर्थात् विभागीकरण, कार्य आवंटन, अधिकार एवं दायित्वों का प्रतिनिधायन, अधिकारी-अधीनस्थ सम्बन्ध, आदेश-श्रृंखला का स्वभाव एवं सीमा, आदि को ध्यान में रखकर ही उपयुक्त नियंत्रण की व्यवस्था की जाय जिससे नियंत्रण करते समय यह स्पष्ट हो कि कौन, क्या नियंत्रण करेगा। कौन, किसको, क्या रिपोर्ट प्रेषित करेगा, कौन कार्य निष्पादित करेगा, कौन उसका मूल्यांकन करेगा तथा किसे सुधारात्मक कार्यवाही करने का अधिकार होगा। फिर कुशल नियंत्रण के लिए कुशल संगठन संरचना, अधिकारों एवं दायित्वों की स्पष्ट सीमाएँ, उचित विभागीकरण एवं कार्य-आवंटन तथा स्पष्ट और छोटी आदेश श्रृंखला की भी आवश्यकता होती है। अतः कुशल नियंत्रण बिना काश्ल संगठन के सम्भव नहीं है।
(3) अन्तरों के पकड़ की शीघ्रता (Quick Recording of Deviations)- नियंत्रण अग्रावलोकी है, अंतः अन्तरों को तुरन्त पकड़ा जाना चाहिए जिससे उनकी भविष्य में पुनरावृत्ति को शीघ्र रोका जा सके। अन्तरों का विलम्ब से ज्ञान, सुधारात्मक कार्यवाही को भी विलम्बित करेगा और जिससे अधिक हानि की सम्भावना बनी रहेगी।
(4) उचित नियंत्रण विधियों का चुनाव (Selection of Appropriate control Techniques) – नियंत्रण विधियों का चयन विभागों और क्रियाओं के स्वभाव को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। स्पष्टतः जो नियंत्रण विधियाँ विक्रय विभाग के लिए उपयुक्त होंगी वे उत्पादन विभाग के लिए उतनी उपयुक्त नहीं होंगी। फिर उत्पादन विभाग में भी जो विधियाँ उत्पादन प्रबन्धक के लिए उपयुक्त होंगी, वे विधियाँ फोरमैन के लिए जो फर्श-निरीक्षण करता है, के लिए उपयुक्त नहीं होंगी। इसी प्रकार, एक छोटी संस्था के लिए कम विषम और बड़ी संस्था की अपेक्षा, कम परिष्कृत नियंत्रण विधियों की आवश्यकता होगी। प्रबन्धकीय नियंत्रण के लिए बहुत-सी विधियां, जैसे बजट-नियंत्रण, लागत नियंत्रण, सम-विच्छेद बिन्दु विश्लेषण, वित्तीय अनुपात विश्लेषण, आन्तरिक अंकेक्षण, आदि प्रयोग में लाई जाती हैं, इनमें से प्रबन्धकों को ऐसी विधियों का सावधानी से चयन करना चाहिए जो संगठन की आवश्यकताओं उसके आकार, संरचना, क्रियाओं के स्वभाव एवं नियंत्रण के महत्व के अनुरूप हों तथा एक कुशल-नियंत्रण व्यवस्था स्थापित करने में सहायक सिद्ध हों।
(5) लोचपूर्णता (Flexibility) – नियंत्रण लोचपूर्ण होना चाहिए। नियोजन कार्य चाहे कितने ही सही आंकड़ों एवं अनुमानों पर आधारित हो, और कितनी ही सावधानी से सम्पन्न क्यों न किया गया हो, किन्तु भविष्य अनिश्चित होता है तथा व्यवसाय गतिशील परिस्थितियों में संचालित होता है। अतः नियोजन में परिवर्तन की आवश्यकता अपरिहार्य होती है। अगर नियोजन में परिवर्तन के अनुसार नियंत्रण परिवर्तनशील नहीं है, तो नियंत्रण का उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा। फिर नियंत्रण अपने में कोई साध्य नहीं है, केवल कुशलता और लक्ष्य प्राप्ति का साधन है, और यदि लक्ष्यों एवं साधनों में परिवर्तन आवश्यक हो गया है, तो नियंत्रण व्यवस्था को उन परिवर्तनों को समायोजित करना चाहिए। अतः नियंत्रण व्यवस्था नियोजन के अनुसार परिवर्तनशील होनी चाहिए।
(6) मितव्ययिता (Economical) – नियंत्रण व्यवस्था मितव्ययी होनी चाहिए। अनावश्यक रूप से जटिल एवं व्यापक नियंत्रण व्यवस्था का कोई लाभ नहीं है। क्रियाओं के स्वभाव एवं उनकी महत्ता को ध्यान में रखकर उपयुक्त नियंत्रणं व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। इस संदर्भ में, अपवाद सिद्धान्त (Exception Principle) का अनुसरण उपयोगी सिद्ध होगा क्योंकि प्रबन्धक अपना ध्यान केवल उन्हीं क्रियाओं पर केन्द्रित करेंगे जो महत्वपूर्ण एवं अपवाद हैं, सामान्य क्रियाओं पर अपनी शक्ति एवं समय को बर्बाद नहीं करेंगे। दूसरे, नियंत्रण विधियों का उचित प्रशिक्षण एवं संगठन भी लागत को कम करने में सहायक सिद्ध होगा।
(7) निष्पक्षता (Objectivity) – नियंत्रण विधि में निष्पक्षता एक आवश्यक तत्व है। विद्वेष या भावनाओं से प्रेरित, पक्षपातपूर्ण एवं व्यक्तिपरक कार्यों के मूल्यांकन, श्रेष्ठ नियंत्रण व्यवस्था के शत्रु हैं। निष्पक्षता या वस्तुपरकता के लिए लक्ष्यों का सुनिश्चित प्रमापीकरण एवं निर्धारण, सक्षम नियंत्रण विधियों का चयन एवं उनका पूर्व निर्धारण आवश्यक है। वस्तुपरकता को बढ़ाने के लिए दूसरा उपाय यह होता है कि मूल्यांकन का कार्य सम्बन्धित अधिकारी को न सौंप कर किसी अन्य व्यक्ति को सौंपा जाय जिससे निरीक्षक या फोरमैन की व्यक्तिगत पसन्दगी या ना पसन्दगी का प्रभाव मूल्यांकन यानियंत्रण व्यवस्था पर न पड़े।
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