घनानन्द की प्रेम-व्यंजना | घनानन्द विशुद्ध प्रेम के कवि हैं। | घनानन्द वियोग श्रृंगार के प्रधान कवि हैं।
वियोग-वर्णन की एक परम्परा रही है। हिन्दी के आरंभिक चरणों से लेकर अत्याधुनिक काल में वियोग दशा के किसी-न-किसी मार्मिक स्थलों को कविताओं में सिद्धहस्त कवियों ने अंकित किया है। यों तो प्राचीन कवियों को इसके क्षेत्र में अत्यधिक श्रेय और सफलता मिली है; फिर भी रीतिकालीन कविगण इससे वंचित नहीं किए जा सकते हैं। जिस प्रकार से जायसी, सूर, हरिऔध, मैथिलीशरण, मीरा प्रसाद, महादेवी के विरह-वर्णन अत्यन्त स्वस्थ और लोकप्रिय हैं वैसे ही रीतिकालीन काव्यधारा में घनानन्द के विरह-वर्णन अत्यन्त भावप्रद और प्रतिष्ठित हुए हैं।
घनानन्द के वियोग वर्णन का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन मनन के उपरान्त महान् साहित्य-समीक्षकों ने अपने-अपने विचारों को व्यक्त किया है। घनानन्द का वियोग-वर्णन अत्यन्त परिमार्जित और परिनिष्ठित है। यह बहुत ही शुद्ध और सात्विक भावों से परिपूर्ण है। इसमें शालीनता और उत्कृष्टता के भी गुण विद्यमान हैं; यों तो घनानन्द के वियोग-वर्णन की अनेकशः विशेषताएँ हैं। इन विशेषताओं के एकमात्र आधार घनानन्द की अनन्य प्रेमिका सुजान है। इस सुजान के प्रति कवि ने अपने अनेक परस्पर विरोधी भावों को व्यक्त करके अपने सच्चे प्रेम की रुझान को सजीव अभिव्यक्ति प्रदान की है। प्रेयसी सुजान के प्रति कविवर घनानन्द की तड़प-फडक, उदासीनता, मिलन की उत्कट अभिलाषा, समर्पण की अपार वेदना आदि विरोधाभासों की सच्ची अभिव्यक्ति हुई है। इसका यह कहना सत्य कथन होगा कि घनानन्द जी प्रेम की पीर के पारखी और अनुभवी रचनाकार हैं। कविवर घनानन्द का यह प्रेम-पीड़ा आत्मानुभव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसमें कसक और छटपटाहट के साथ-साथ आनन्द और उल्लास है ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने कविवर घनानन्द के वियोग पीड़ा की सच्चाई को अग्र प्रकार से व्यक्त किया है-
“यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षों को लिया है, पर वियोग की अन्तर्दशाओं की ओर ही दृष्टि अधिक है। इसी से इनके वियोग सम्बन्धी पद्य ही प्रसिद्ध हैं। वियोग-वर्णन भी अधिकतर अंतर्वृत्ति निरूपक है, बाह्यार्थ निरूपक नहीं, घनानन्द न तो बिहारी की तरह विरहताप को बाहरी माप से मापा है, न बाहर उछल-कूद दिखाई है, जो कुछ हलचल है, वह भीतर की है – बाहर से वह वियोग प्रशान्त और गंभीर है, न उसमें करवटें बदलना है, न सेज का आग की तरह तपना है, न उछल-उछलकर भागना है, उनकी ‘मौनमथि पुकार’ है।”
आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने महाकवि घनानन्द के वियोग वर्णन की विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए लिखा है-
“घनानन्द ने विरह के महत्व को भली-भाँति समझा था । इसीलिए प्रेमी के विरह-विदग्ध हृदय तथा इसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिवर्चनीय मानसिक व्यापारों का वैसा सुन्दर वर्णन अपनी कविता द्वारा उन्होंने किया है वैसा बहुत कवि कर पाये हैं। घनानन्द की यह विशेषता है कि प्रेमी की दशा अथवा उसकी परिस्थिति का दिग्दर्शन करते समय बहुत से अन्य कवियों की भाँति केवल शब्दाडम्बर का आश्रय नहीं लेते हैं, और न अत्युक्तियों का गाढ़ा रंग चढ़ाकर किसी कोमल भाव को भद्दा बना देते हैं। वे जिस प्रकार हमारी आन्तरिक वेदना के सच्चे रूप को पहचान सकने में निपुण हैं, उसी भाँति उसे उपयुक्त शब्दों द्वारा स्वाभाविक ढंग से व्यक्त कर देने में भी कुशल हैं। घनानन्द में प्रेम की पीर का गहन अनुभव है; किन्तु उसे प्रकट करते समय वे आवेश नहीं दिखलाते और न उसकी तीव्रता के कारण घबड़ाकर नियमोल्लंघन कर जाते हैं। उनके विरह-वर्णन में एक आश्रित का अनुरोध एवं मर्यादित आत्म-निवेदन है, जो अपनी स्वाभाविकता के कारण ही सुनने वाले हृदय को बरबस खींच लेता है।”
डॉ० द्वारिकाप्रसाद सक्सेना ने घनानन्द के काव्य-प्रेम की गूढ़ता को व्यक्त करते हुए अपना यह अभिमत व्यक्त किया है- “घनानन्द का काव्य-प्रेम की गूढ़ता से भरा हुआ है। अतृप्ति की गहनता से भरा हुआ है, अन्तर्द्वन्द्व की अलौकिकता से भरा हुआ है, वेदना की अक्षयता से भरा हुआ है और तीव्रानुभूति की अखण्डता से भरा हुआ है इतना ही नहीं बनानन्द की जितनी तीव्र एवं गहन अनुभूति है, उतनी ही उनकी उत्कृष्ट एवं समृद्ध अभिव्यक्ति है; क्योंकि घनानन्द का-सा उक्ति-वैचित्र्य अन्यत्र देखने को नहीं मिलता, उनकी-सी शब्द- वैविध्य किसी भी अन्य प्रेमी कवि में नहीं है, उनकी-सी लाक्षणिकता अन्यत्र नहीं दिखाई देती निःसंदेह वे जितने प्रेम के धनी थे, उतने ही भाषा के भी धनी थे और उतने ही अभिव्यंजना के भी धनी थे।”
घनानन्द के प्रेम-वर्णन के अन्तर्गत यह कहा जा सकता है कि प्रेम की अनिवर्चनीयता का आभास घनानन्द ने वक्रोति के छींटों को फेंकते हुए अत्यन्त सरल और चलते हुए प्रवाह क्रम में किया है। कविवर घनानन्द के विरह-वर्णन की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएँ हैं-
शास्त्रीय दृष्टि से विप्रलंभ शृंगार के चार अंग हैं- (1) पूर्वराग, (2) मान, (3) प्रवास (4) करुण। इन चारों ही अंगों की घन आनन्द काव्य में व्यंजना हुई है-
1. पूर्वराग- प्रिय के संयोग होने से पूर्व उसके गुण-श्रवण, चित्र-दर्शन अथवा दर्शन आदि के कारण मिलने की जो उत्कट इच्छा होती है, उसे पूर्वराग कहते हैं। इसमें मिलन की अभिलाषा ही प्रबल होती है, इसलिए वेदना का विस्तार इसमें अपेक्षित नहीं होता। यथा-
“रससागर नागर स्याम लखें अभिलापनि-धार मंझार बहौं।
सु न सूझत धीर कौ ठौर कहूँ पचि हारि कै लाज-सिवार हौं ।।
घन आनन्द एक अचंभो बड़ो गुन हाथ हूँ बड़ति कासौं कहौं।
उर आवत यौं छवि-छाँह ज्यौ हौं व्रज छैल की गैल सदाई रहौं ।।”
2. मान- प्रेम के अनन्तर प्रेमी तथा प्रेमिका का सहज स्वाभाविक तौर पर परस्पर रूठ जाना ही मान है। इस ‘मान’ में मानसिक धरातल पर दोनों में पारस्परिक बनी रहती है। धन आनन्द की कविता में मान का चित्रण इस प्रकार है-
” अनमानिबोई मनमाति रह्यो अस मौन ही सों कछु बोलति है।
ननिहारिनि ओर निहारि रही उर-गाँठि त्यों अंतर खोलति है ।।
रिस संग महा रस रंग बड़यौ जड़ताइये गौह न डोलति है।
घन आनंद जान पिया के हिये कितकौ फिरि बैठी कलोलति है ।। “
इस प्रकार विरोधी सामंजस्यों के बीच पलता हुआ मान प्रेमभाव की वृद्धि में सहायक होकर सामने जाता है।
3. प्रवास – प्रिय के विदेश चले जाने के कारण वियोगिनी की जो दुखमयी स्थिति होती है, वह ‘प्रवास’ कहलाती है। घन ‘आनन्द के काव्य में प्रवास को सर्वाधिक वर्णन है, क्योंकि कवि की प्रेमिका ही मानो विदेश गई है, जिसके लिए कवि बराबर तड़पता है। घन आनन्द ने अपनी व्यक्तिगत पीड़ा को गोपी भाव से चित्रित करके जहाँ ‘सुजान’ को कृष्ण के रूप में चित्रित किया है, वहाँ प्रवास का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है। यथा-
“भौर ते साँझ लौं कानन और निहारति बावरी नेकु न हारति ।
साँझ तें भौर लौं तारनि तकिबो तारनि सों इकतार न टारति ।।
जो कहूँ भाव तो दीठि परै घन आनन्द आँसुनि औसर गारति।
मोहन-सोहन जोहन की लगीयै रहे आँखिन के उर आरति ।। “
4. करुण – नायिका अथवा नायक की मृत्यु के पश्चात् भी जहाँ संयोग होने की आशा बनी रहती है, वहाँ करुण-वियोग होता है। घन आनन्द ने इसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है-
“बहुत दिनान के अवधि आस-पास परे ।
खरे अरबनि भरे हैं उठि जान को ।।
कहि कहि आवन संदेसो, मनभावन को।
गहि-गहि राखति ही दै-दै सनमान को ।।
झूठो बतियानि की पतयानि ते उदास ह्वै कै ।
अब न घिरत घन आनन्द निदान को ।।
अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान ।
चाहत चलन ये संदेसो लै सुजान को ।।”
विरह की अतिशयताप्रिय को मृत्यु के समीप ले आई है। कैसी विडम्बना है कि प्राण अधरों पर आ लगे हैं।
घन आनन्द का विरह भाव रीतिकालीन कवियों का सा लोकबद्ध नहीं है। यह विरह-हृदय की टीस, विवशता तथा वियोग की दीनता से ओत-प्रोत है। शम्भुप्रसाद बहुगुणा के अनुसार, “प्रेम की यह गहन अनुभूति थी, जिसने घन आनन्द की कविता की वेदना की स्वाभाविक हरियाली देकर रीतिकाल की अस्वाभाविकता की मरुभूमि में भटकते पाठक के लिए हरी-भरी भूमि के समान आनन्दप्रद बना दिया है।” घन आनन्द का काव्य उनके हृदय की सच्ची अनुभूति के रूप में ही है। वे अपनी भावनाओं के कुशल चितेरे थे। भावों को मूर्तिमय बनाकर उन्होंने विरह-चित्रण में अपनी समता का कोई भी रीतिकालीन कवि नहीं रहने दिया है।
1. हृदय की मौन पुकार- घनानन्द ने अपने काव्य में जिस विरह का वर्णन किया है, वह केवल बौद्धिक विलास नहीं है उन्होंने स्वयं उसका अनुभव किया था। उनके विरह में आडम्बर लेशमात्र भी नहीं है, वहाँ तो हृदय की टीस और तड़पन है। उन्होंने अपने विरह को प्रदर्शित करने के लिए चीत्कार भी नहीं किया। वे तो जी मसोस कर तड़पते रहते हैं-
“अंतर आँच उसास तचै अति
अंत उसीजै उदेग की आवस।
ज्यौ कहलाय मसोसनि ऊमस,
क्यों हूँ कहूँ सुधरें नहीं व्यावस॥”
2. विरह-वेदना का आधिक्य- विरही अथवा विरहिणी ने अपने वियोग दुःख को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के उपाय किए, किन्तु उसकी विरह-वेदना शान्त नहीं होती, वह और अधिक तीव्र होती जाती है। वह विरह-वेदना तो प्रिय के सम्मिलन के बिना दूर नहीं हो सकती है-
“भए कागद उपाव सबै,
घनआनन्द नेह नदी गहरै ।
बिन जानि सजीवन कौन हरै,
सजनी विरह-विष की लहरै ।।”
3. प्रिय की कठोरता- घनानन्द ने प्रिय की कठोरता का अत्यन्त मार्मिक वर्णन किया है। प्रिय इतना निष्ठुर है कि दया उत्पन्न करने के सम्पूर्ण उपाय व्यर्थ हो चुके हैं, किन्तु प्रिय में प्रेम और दया का भाव उत्पन्न करना परम आवश्यक है; अतः निर्दयी प्रियतम को सदस्य बनाने के लिए उसकी आँखों के सामने कष्ट सहन करना आवश्यक हो गया। घनानन्द कहते हैं-
“आसा-गुन बाँधि कै, भरोसो-सिल घरि छाती,
पूरे पन-सिंधु मैं न बूड़त सकाय हौं ।
दुःख-दव हिय जारि अन्तर उदेग आंच,
रोम-रोम त्रासनि निरंतर तचाय हौं ।।”
4. वियोग की अन्तर्दशाएँ- घनानन्द के विप्रलंभ शृंगार में पूर्वराग, मान तथा करुण के अतिरिक्त वियोग की अन्तर्दशाओं का भी वर्णन मिलता है। वियोग की अन्तर्दशाओं का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्णन घनानन्द के काव्य की प्रमुख विशेषता है। यहाँ तक कि घनानन्द का वियोगजन्य प्रत्येक छन्द किसी-न-किसी अन्तर्दशा का द्योतक है। इसका कारण यह है कि घनानन्द का वियोग हृदय- सागर में निरन्तर उठने वाली लहरों जैसा था, जिसमें कोई-न-कोई अन्तर्दशा चित्रित होती ही रहती है। इस दृष्टि से घनानन्द की वियोगजन्य अन्तर्दशाओं की इस प्रवृत्ति से प्रभावित होकर आचार्य शुक्ल ने लिखा है- “यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षों को लिखा है, पर वियोग की अन्तर्दशाओं की ओर दृष्टि अधिक है। इसी से इनके वियोग सम्बन्धी पद्य ही प्रसिद्ध हैं। वियोग वर्णन भी अधिकतर अन्तर्वृत्ति-निरूपक है बाह्यार्थ निरूपक नहीं।”
5. उपालम्भ की प्रधानता – घनानन्द का विरह-वर्णन में कहीं-न-कहीं अवश्य ही उपालम्भ के भाव या रूप अवश्य ही अंकित हुए हैं। इस प्रकार के चित्रण से प्रेम की न केवल परिनिष्ठता व्यक्त होती है, अपितु एकनिष्ठता भी प्रकट होती है। इस प्रकार के स्थलों पर प्रेमी का अपने प्रिय के प्रति कपटी, विश्वासघाती, छली, निर्मम आदि उपालम्भीय भाव सामने आए हैं। निष्ठुरता का एक भाव इस प्रकार से कवि ने रखा है-
“धन अति निठुर निदाद्य पहिचानि डारी,
याही दुख हमे अब लागी हाय-हाय है।
तुम तौ निपट निरदई गई, भूलि सुधि,
हमैं भूल -खेलनि सो कहूँ न भुलाय है ।।
मीठे-मीठे बोल बोलि, उनी पहिले तौ तव,
अस जिय जारत, कही धौं कौन न्याय है।
सुनी है कै नाही, यह प्रगट कहावति जू
काहू कलपाय है सु कैसे पाय है ।।”
6. प्रकृति सम्बन्धित उद्दीपन- हम यह भली-भाँति जानते हैं कि प्रकृति के विभिन्न उपादान विरह-व्यथा को तीव्रता की ओर ले जाने में प्रबल सहायक होते हैं। कविवर घनानन्द का विरह-तापसी से तापित और प्रभावित है। इस प्रकार के विरह ताप में काली-काली बादलों की घटाओं, बिजली की चमक-दमक और पुरवाई हवा के झोंकों के प्रवेश अत्यधिक महत्व को लाने जाने वाले हैं। इसी तरह काली कोयल की कू-कू की ध्वनि और गुंजार कलेजे को हिलाकर विरह की आग में झोंकने वाली है तो फूलों की मनभावनी सुगन्ध बार-बार रोचक बनाने वाली है। इस प्रकार से प्रकृति के ये उपादान विरह-वेदना को लेकर चलने मैं बहुत अधिक सिद्ध हुए हैं। इस प्रकार के प्रकृतिजन्य उपादानों का चित्रण कवि ने करते हुए लिखा है-
“कारी कूर कोकिल । कहाँ कौ वैर काढ़ति री,
कूकि कूकि अबहीं करेजो किन कोरिलै ।
पेड़े परे पापी ये कलापी निस घौस ज्यौंही,
चातक, घातक त्यों ही तुहूँ काल फोरि लै ।”
7. विरहिणी की असहायता- विरह-व्यथित विरहिणी विरह-ताप से झुलस-झुलसकर अत्यन्त कातर और दैन्य-मलीन दशा को प्राप्त हो जाती है। वह अत्यन्त असहाय और पराङमुखी बन जाती है, कविवर घनानन्द ने विरहिणी की इस स्वाभाविक और सच्ची दशा का भावपूर्ण और सहज रेखांकन किया है-
“कौन की सस जैये आपु त्यौ न काहु पैये,
सुनो तो चितै ये जग वै या कित कूकियै ।
सोचिति समैयी, मति हेरति हिरेयै, उर,
आँसूनि भिजैये, ताप तैये तन सूकिये ॥
क्यों करि बिरौये, कैसे कहाँ धौ रितैये मन,
बिना जान प्यारे कब जीवन ते चूकिये।
बनी है कठिन महा, मोहि घन आनन्द सों,
मीचौ करि मई आसरो न जित ढूकियै ।।”
8. प्रेम की एकनिष्ठता- विरह-ताप में प्रेम की एकनिष्ठता तो और ही विरह की ज्वाला को उद्दीप्त करती रहती है। न केवल प्रकृतिजन्य उपादान इस ताप को अधिक तीव्र करते हैं, बल्कि प्रेमी के भी हाव-भाव इसको अधिक कर देते हैं महाकवि घनानन्द के विरह-चित्र इसी प्रकार के प्रेम की एकनिष्ठता और अनन्यता की दशाओं को उकेरने में अत्यन्त सफल और प्राणवान सिद्ध हुए हैं। कवि की विरहिणी आठों याम (रात-दिन) अपने प्रिय के मिलन की प्रतीक्षा में तत्पर रहती है। उसने यह दृढ़ संकल्प कर लिया है कि वह निरन्तर ही अपने प्रिय के दर्शन के अभाव में उसके नाम और क्रिया-कलाप व हाव-भावों के स्मरण किया करेंगी-
“तेरी बाट हेरत हिराने ओ पिराने पल,
पाके ये विकल नैना ताहि नपि नपि रे ।
हिय में उवेग, आगि लागि रही रात-घौस,
तोहि कौं अराघौ, जोग साधो तपि-तपि रे ।।
जान घन आनन्द यो दुसह दुहेली दसा,
बीच परि-परि प्रान पिसे चपि चपि रे।
जीवे ते भई उदास, तऊ है मिलन-आस,
जीवहिं जिवाऊं नाम तेरो जपि-जपि रे ।।”
9. अनिर्वचनीय वियोग पीड़ा- कविवर घनानन्द ने अपने विरह के ताप को इस रूप में प्रस्तुत किया है कि उससे वियोग की दशा का पूरा-पूरा चित्र प्रस्तुत होना असम्भव सा लगता है। अगर इसे पूर्ण रूप में समझा या आँका जा सकता है तो केवल वियोग जनित या वियोग पीड़ित हृदय के पटल पर ही विरह-पीड़ा के कथन और अनुभव में उतना ही भेद है जितना रात और दिन में है। इस विषय में कवि का कथन है-
“जो दुख देखति हौ घनआनन्द,
रैन-बिना बिन जान सुतन्तर ।
जान बेई दिन-राति बखाने हैं,
जाय परै दिन-रात को अन्तर ।”
10. प्रेम-विषमता-जन्य विरह-भाव- प्रेम-वैषम्य घनानन्द के काव्य में अवतीर्ण होने वाला सर्वप्रमुख भाव है। अनेक बार कवि ने स्वतः अपने प्रेम-मार्ग की विषमता या विपरीतता का उल्लेख किया है। कारण यह है कि उनका निजी जीवन ही विरोधों और विषमताओं का जीवन रहा था। घनानन्द ने अपने वियोग को पराकाष्ठा तक ले जाने के लिए प्रेम की विषमता के उद्गार गाये हैं। प्रेम में भी विषमता की बात सूरदास के काव्य में प्रमुख रही है। यह विषमता रीतिकाव्य में विकास पथ की ओर बढ़ी और रीतिमुक्त काव्यधारा में आकर अपनी चरमसीमा पर पहुँच गई। इस वैषम्य के हेतु पर प्रकाश डालते हुए, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है- “फारसी-साहित्य में प्रेम का वैषम्य स्वीकृत है और उर्दू में उस परम्परा का निर्वाह आज तक हो रहा है। पिछले काँटे के कृष्ण-भक्त कवि और स्वच्छन्द धारा के रीति-मुक्त कवि सूफी संतों और फारसी साहित्य की प्रवृत्ति से प्रभावित हुए हैं, यह असंदिग्ध है।” घनानन्द के काव्य में वर्णित वियोग-दशा में विषम प्रेम-व्यंजना के कुछ उदाहरण अवलोकनीय हैं-
(i) “उजरनि बसी है हमारी अंखियानि देखो,
सुवास जहाँ भावते बसत हो ।”
(ii) “अन्तर मैं वासी पै प्रवासी को सो अन्तर है,
मेरी नै सुन दैया अपनी यौं ना कहौं ।”
(iii) “हेत-खेत धूरि चूरि-चूरि सीस पाँव राखि,
विषम उदेग बान आगे उर ओटिबो।”
(iv) “जान प्यारे प्राननि बसत पै अनन्दघन,
विरह-विषम-दशा मूक लौ कहनि है।”
(v) “और जे संवाद घनआनन्द विचारे मौन,
विरह विवश जुर जीवो करयो लगै ।”
11. फारसी शैली के प्रभाव- कविवर घनानन्द के विरह-वर्णन पर फारसी शैली के प्रभाव परिलक्षित होते हैं। इसके लिए कवि ने फारसी-पद्धति को अपनाया है। इससे कवि के विरह-चित्र सूक्ष्म होने के साथ-साथ कुछ हल्के और सीमित हो गए हैं। इस विषय में महान् आलोचक डॉ० मुरलीमनोहर गौड़ का यह कथन है कि-वियोग-वर्णन पर फारसी-प्रेम-पद्धति का प्रभाव होने के कारण कुछ हल्कापन आ गया है घनानन्द ने ‘कटाक्ष-कटारी’, ‘विरह-आरा’ आदि का चित्रण भी किया है। इस प्रकार के कथनों में बीभत्सता आ गई है।” यह मत ठीक है किन्तु ‘प्रेम की पीर’ को इससे विशेष बल मिला है। कतिपय उदाहरण अवलोकनीय हैं-
- सैन-कटारी आसिक उर पर तै भारां झुक झारी है।
- चलै सीस पै यों विरह-आरा।
- विरह घायल हियो ज्यों-त्यों सियेंगी।
इस प्रकार की कुछ उक्तियों के होते हुए भी घनानन्द का विरह-भाव रीतिकालीन रीतिकवियों के बुद्धि-विलास-सा ऊहात्मक नहीं है. वह हृदय का अनुभृत्यात्मक प्रतिपादन है, अतः उसमें हृदय-पक्ष की प्रधानता है, बुद्धिपक्ष गौण है। डॉ० बच्चनसिंह ने रीतिमुक्त कवियों के विषय में उचित ही कहा है-“प्रेम के वियोगपक्ष की प्रधानता के कारण इनकी (रीतिमुक्त) रचनाओं में अन्तरतम की वेदना के उच्छ्वास निराशा का व्याकुल स्वर अधिक सुनाई पड़ता है। फारसी के कवियों के प्रभाव ने उनके प्रेम की पीर को तीव्रतर बना दिया है।”
घनानन्द की विरह-व्यंजना से प्रभावित होकर परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है- “घनानन्द ने विरह के महत्व को भली-भाँति समझा था। इसीलिए प्रेमी के विरह विदग्ध हृदय तथा इसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिवर्चनीय मानसिक व्यापारों का जैसा सुन्दर ‘वर्णन अपनी कविता द्वारा उन्होंने किया है वैसा बहुत कम कवि कर पाये हैं। घनानन्द की यह विशेषता है कि प्रेमी की दशा अथवा उसकी परिस्थिति का दिग्दर्शन करते समय वे बहुत से अन्य कवियों की भाँति केवल शब्दाडम्बर का आश्रय नहीं लेते और न अत्युक्तियों का गाढ़ा रंग चढ़ा कर किसी कोमल भाव को भद्दा बना देते हैं। वे जिस प्रकार हमारी आन्तरिक वेदना के सच्चे रूप को पहचान सकने में निपुण हैं, उसी भाँति उसे उपयुक्त शब्दों द्वारा स्वाभाविक ढंग से व्यक्त कर देने में भी कुशल हैं। घनानन्द में प्रेम की पीर का गहन अनुभव है, किन्तु उसे प्रकट करते समय वे आवेश नहीं दिखलाते और न उसकी तीव्रता के कारण घबड़ाकर नियमोल्लंघन कर जाते हैं। उसके विरह-वर्णन में एक आश्रित का अनुरोध एवं मर्यादित आत्म-निवेदन है जो अपनी स्वाभाविकता के कारण ही सुनने वाले हृदय को बरबस खींच लेता है।”
कविवर घनानन्द के विरह-वर्णन को संक्षेपतः हम कह सकते हैं कि इससे प्रेम की सच्चाई, सात्विकता, शुद्धता और सम्प्रेषणीयता के साथ-साथ सहजता और स्वाभाविकता के आकर्षण विद्यमान हैं अन्ततः डॉ० द्वारिका प्रसाद सक्सेना के शब्दों में हम इस प्रकार से कहेंगे- “निःसंदेह घनानन्द के विरह में सम्मोहन है, आकर्षण है, अभिव्यंजना-कौशल है और चित्त को द्रवित करने की अपूर्व क्षमता है। घनानन्द के इस विरह में कहीं भी बौद्धिकता के दर्शन नहीं होते, कहीं भी क्लिष्ट कल्पना दिखाई नहीं देती और कहीं भी दूरारूढ़ भावना दृष्टिगोचर नहीं होती, अपितु सर्वत्र हृदय-पक्ष की प्रबलता दिखाई देती है।”
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