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प्रश्न घनानन्द की भाषा शैली पर एक सारगर्भित निबन्ध लिखिए।
घनानन्द की भाषा
“यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भाषा पर जैसा अचूक अधिकार उनका था, वैसा किसी कवि का नहीं। भाषा मानो इनके हृदय के साथ जुड़ कर ऐसा यशवर्तिनी हो गई थी कि ये उसे भावभंगी के साथ-साथ जिस रूप में चाहते थे, मोड़ सकते थे। उनके हृदय का योग पाकर भाषा को नूतन गति-विधि का अभ्यास हुआ और वह पहिले से कहीं अधिक बलवती दिखाई पड़ी। जब आवश्यकता होती थी, तब वे उसे बंधी प्रणाली पर से हटाकर अपनी नई प्रणाली पर ले जाते थे। भाषा की पूर्व अर्जित शक्ति से काम न चलाकर उन्होंने उसे अपनी ओर से नई शक्ति प्रदान की। घनानन्द जी उन विरले कवियों में से हैं, जो भाषा की व्यंजना बढ़ाते हैं। भाषा के लक्षण और व्यंजक बल की सीमा कहाँ तक है, इसकी पूरी परख उन्हीं को थी । “
– आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल
“भाषा के विचार से तो रीतिबद्ध कवियों में से कम ही इनकी तुलना में टिक सकेंगे। घनानन्द और ठाकुर ने ब्रजभाषा को बहुत शक्ति दी । क्योंकि भाषा का ऐसा विधान शब्दों का मनमाना और निरर्थक प्रयोग करने वालों में कहाँ ? घनानन्द की रचना में तो भाषा स्थान-स्थान पर अर्थ की सम्पत्ति से समृद्ध होकर सामने आती है। वाक्य ध्वनि, पद-ध्वनि तो दूर रहे, इन्होंने पद्यांश ध्वनि से भी जगह-जगह काम लिया है।”
-आचार्य विश्वानथ प्रसाद मिश्र
एक अन्य आलोचक के शब्दों में, “घनानन्द भाषा के ऐसे प्रवीण लोगों में से थे, जिनके संकेत पर भाषा चलती है और जिधर वे चाहें, उसे उधर मुड़ना पड़ता है।”
घनानन्द की भाषा में भावानुकूलता
घनानन्द के काव्य में भावों की गरिमा के समान ही कला-प्रवीणता भी दिखाई देती है। इसका मुख्य कारण है उनका भाषाधिकार। भाषा की सफाई के फलस्वरूप घनानन्द का काव्य-वैभव और भी अधिक चमक उठा है। भावानुकूल भाषा लिखने मैं तो घनानन्द सिद्धहस्त थे। हृदय की गूढ़ और सूक्ष्म अन्तर्दशाओं के चित्रण के लिए उन्होंने लाक्षणिक भाषा का सफल प्रयोग किया है। घनानन्द ने मुहावरों से युक्त अपनी लाक्षणिक भाषा के द्वारा हृदय की सूक्ष्म भावनाओं, भावना-भेदों और रमणीयता की विविध स्थितियाँ को अभिव्यक्ति प्रदान की है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे भाषा इनके संकेतों पर चल रही हो। भाषा को भावानुकूलता प्रदान करने में जो सफलता घनानन्द को प्राप्त हुई है, वह बहुत कम कवि प्राप्त कर सके हैं। वस्तुओं के क्रिया-व्यापारों को उनकी भाषा बहुत ही सफलता के साथ अभिव्यक्ति कर देती है। घनानन्द अपनी सरल और सहज अनुभूति को अपनी सरल और सहज भाषा के द्वारा ही अभिव्यक्ति कर देते हैं:
लहकि लहकि आवै ज्यौं पुरवाई पौन,
दहकि दहकि त्यों-त्यौं तन ताँवरे तचै।
आंजल और रमणीय ब्रजभाषा का प्रयोग- हृदय के वेग के कारण घनानन्द की उक्ति-वक्र-पथ ग्रहण करती हुई देखी जा सकती है। ऐसे अवसरों पर हमको लक्षणों एवं विरोधाभास से युक्त प्रयोग-वैचित्र्य के दर्शन होते हैं। जहाँ अनुभूति गम्भीर और आन्तरिक होती है, वहाँ लक्षणा का दर्शन होता है और जहाँ प्रेम की विषमता एवं विलक्षणता की अभिव्यक्ति हुई है, वहाँ विरोध- विच्छिति के प्रस्फुटन के फलस्वरूप विरोधाभास अलंकार का समावेश अपने आप हो गया है। ‘उजरनि बसी है हमारी अँखियानि देखो, स्रुबस सुदेश जहाँ रावरे बसत हौं’, ‘अरसानि गही वह आनि कछु, सरसानि सों आनि निहोरत है’ आदि प्रयोग इसके उदाहरण हैं।
भावावेग के कारण घनानन्द की भाषा का प्रवाह स्निग्ध एवं सरल है। इनकी भाषा के सम्बन्ध में आचार्य पं० रामचन्द्र . शुक्ल का कथन दृष्टव्य है-भाव का स्रोत जिस प्रकार टकराकर कहीं-कहीं वक्रोक्ति के छीटे फेंकता है, उसी प्रकार कहीं-कहीं भाषा के स्निग्ध, सरल और चलते प्रवाह के रूप में भी प्रकट होता है। ऐसे स्थलों पर अत्यन्त चलती और प्रांजल भाषा की रमणीयता दिखाई पड़ती है :-
कान्ह परे बहुतायत में, इकलैन की बेदन जानौ कहा तुम ?
हौ, मन मोहन, मोहे कहूं न विथा बिमनैन की मानौ कहा तुम ?
बौरे बियोगिन्ह आप सुजान है, हाय ! कछू उर आनौ कहा तुम?
आरतिवंत पपीहन को घनआनन्द जू ! पहिचानौ कहा तुम ?
शब्द-समूह सार्थक एवं उपयुक्त हैं। घनानन्द द्वारा प्रयुक्त ब्रजभाषा पर फारसी का व्यापक प्रभाव स्पष्ट है। घनानन्द ने बृजभाषा का प्रयोग किया है। इनके द्वारा प्रयुक्त ब्रजभाषा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा है। साथ ही वह स्वच्छन्दता के क्षेत्र में अत्यन्त तीव्र एवं प्रयास भरी है। ब्रजनाथ ने अपनी प्रशस्ति में घनानन्द को “बृजभाषा प्रवीन और भाषा प्रवीन सुछन्द सदा रहै” कहा है।
घनानन्द की भाषा में संस्कृत के तत्सम् शब्द अपेक्षाकृत कम हैं। सर्वाधिक परिमाण तद्भव शब्दों का है। ब्रजभाषा की कविता में भक्ति-काव्य में तत्सम शब्दों का प्रयोग हो चुका था और यह निश्चित रूप से दिखाई देने लगा कि तत्सम की अपेक्षा तद्भव शब्द ब्रजभाषा काव्य-रचना के अधिक उपयुक्त थे। घनानन्द ने मीन, कंज, खंजन इत्यादि तत्सम शब्दों का भी प्रयोग किया है, परन्तु ये शब्द वर्षों से इसी रूप में चले आ रहे थे-इनके तद्भव रूप नही बन पाए थे। तद्भव शब्दों के कतिपय उदाहरण हैं- अथिर (अस्थिर), सुतंत्र (स्वतन्त्र), अकह (अकथ), वेदनि (वेदना), विथा (व्यथा)। घनानन्द ने अनेक ग्रामीण अथवा जनपदीय शब्दों का भी प्रयोग किया है-वरहे (जंगल), सँजोखे (संध्या का अन्तिम भाग), पैंछर (पैरों की आवाज) इत्यादि। इन शब्दों के प्रयोग से भाषा की सजीवता एवं व्यंजकता में निश्चित रूप से वृद्धि हुई है।
घनानन्द ने कई स्थानों पर भाव के अनुरूप शब्दों का निर्माण भी किया है। घनानन्द ने शब्द निर्माण दो रूपों में किया है- भाव समृद्धि के लिये तथा भाषा को एक नवीन व्यक्तिगत स्पर्श देने के लिए। ऐसे स्थलों पर जहाँ ध्वन्यार्थ-व्यंजना का प्रयोग है, घनानन्द ने कई शब्द अपनी ओर से दे दिए हैं-रसमसे, हहरि, गुरझनि इत्यादि, भकमूर, दिनदानि, अवलोकिवे सर्वथा नए शब्द हैं।
कहीं-कहीं शब्दों के रूपों में भी परिवर्तन कर दिया है। जैसे-अधिक से अधिकाति, सामुद्दे से समुहाति, लज्जा से लजाति इत्यादि । क्रियाओं में कहीं-कहीं नई संज्ञाओं का अनूठापन है। जैसे देखता से दिखास और चितैना से चिताए ।
व्याकरणिक दृष्टि से भी कवि ने मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। इन्होंने अपनी ओर से कई स्थलों पर ‘निपातों’ का प्रयोग किया है। यथा :
ढरिबौ से ढरिवाई
अरिबो से अरिबोई
बहिबो से बहिबोई इत्यादि
कहीं-कहीं घनानन्द ने अपनी ओर से प्रत्यय जोड़कर भी नये शब्द का निर्माण किया है। जैसे :
‘आरति से आरतिवन्त’
दृष्टव्य यह है कि इन परिवर्तनों के कारण भाषा जरा भी विकृत नहीं हुई है, अपितु उसकी अर्थ- क्षमता में वृद्धि हुई है। भाषा के परम्परागत रूप में नयापन लाना घनानन्द की बहुत बड़ी विशेषता है। घनानन्द की ब्रजभाषा में अनेक फारसी शब्दों का स्वतन्त्र प्रयोग हिन्दी के व्याकरण के अनुसार करके उनको बिलकुल अपना बना लिया है उनका विदेशीपन दूर कर दिया है। कहीं-कहीं फारसी शैली भी अपना ली है। ‘वियोग-वेलि’ में यह प्रभाव सर्वाधिक है।
घनानन्द के काव्य में लक्षणा का प्रयोग बहुत ही सफल हुआ है
“लक्षणा का विस्तृत मैदान खुला रहने पर भी हिन्दी कवियों ने उसके भीतर बहुत ही कम पैर बढ़ाया। एक घनानन्द ही ऐसे कवि हुए हैं, जिन्होंने इस क्षेत्र में अच्छी दौड़ लगाई। लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और प्रयोग वैचित्र्य की जो छटा इनमें दिखाई पड़ी, खेद है कि वह फिर पौने दो सौ वर्ष पीछे जाकर आधुनिक काल के उत्तरार्द्ध में अभिव्यंजनावाद के प्रभाव से कुछ विदेशी रंग लिए प्रकट हुई ।” (आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल) घनानन्द का लक्षणा प्रयोग बहुत ही सबल और समर्थ है। उसमें भाषा की शक्ति का गहरा समावेश है- उन्होंने भाव के भिन्न रूपों-वियोग के विभिन्न अंगों- आशा, दुःख, आवेग, विडम्बना इत्यादि को मूर्ति कर दिया है। ‘मति’ के लिए घनानन्द लिखते हैं कि :
मति दौरि थकी न लहै ठिक ठौर,
अमोही के मोह मिठास ठगी ।
इसी प्रकार प्रिय के पीछे चलने वाली आँखों के बारे में घनानन्द लिखते हैं कि :
जहाँ ते पधारे मेरे नैनन ही पाँव धारे,
बारे ये विचारे प्रान ऐड पैड़ पै मनो।
लक्षणा के प्रयोग में घनानन्द ने मानवीकरण और विशेषण- विपर्यय को भी ग्रहण किया है। घनानन्द ने भावनाओं के लिए मानवीकरण तथा आँखों के लिए विशेषण-विपर्यय को भी ग्रहण किया है। इन आँखों में कभी प्रिय के रूप की दुहाई फिर जाती है और कभी वे औलतियों के समान टपकने लगती हैं।
घनानन्द ने जहाँ अन्तर्दशाओं की व्यंजना की है, वहाँ पूरी लाक्षणिक सतर्कता बरती है। ‘लाजनि लपेटी’, ‘नयननि बोरति’ जैसे प्रयोग भाव को एक निश्चित अर्थ-व्यंजकता प्रदान करते हैं।
प्रयोग-वैचित्र्य भावाभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।
घनानन्द के काव्य में कई स्थलों पर विरोधमूलक वैचित्र्य के दर्शन होते हैं
1. ‘झूठ की सचाई छाक्यो, त्यों-हित-कचाई पाक्यौ, ताके गुनगन घनआनँद कहा गनौं।’
2. ‘उजरनि बसी है हमारी अंखियानि देखा, सुबस सुदेश जहाँ रावरे बसत हौ।’
आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “इन उद्धरणों से कवि की चुभती हुई वचन वक्रता पूरी-पूरी झलकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि कवि की उक्ति ने वक्रपथ हृदय के वेग के कारण पकड़ा है।”
उक्ति-गर्भत्व में नवीनता है
घनानन्द के काव्य में भाव की वक्रता तथा कथन की वक्रता दोनों ही के दर्शन होते हैं। साथ ही इनकी काव्य रचना में भावोत्कर्ष एवं कला प्रवीणता का सुखद सामंजस्य दिखाई देता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कहना है कि “उक्ति के अर्थ गर्भत्व भी घनानन्द का स्वतन्त्र और स्वावलम्बी होता है, बिहारी के दोहों के समान साहित्य की रूढ़ियों (जैसे, नायिका भेद) पर आश्रित नहीं रहता। उक्तियों की सांगोपांग योजना या अन्विति इनकी निराली होती है।”
घनानन्द के काव्य में अलंकारों का स्वाभाविक समावेश पाया जाता है
घनानन्द के काव्य में अलंकारों का प्रचुर प्रयोग पाया जाता है। इनके काव्य में अर्थालंकार, शब्दालंकार (साम्यमूलक, विरोधमूलक) सभी प्रकार के अलंकार पाये जाते हैं। विशेषता यह है कि अलंकारों का प्रयोग अन्य रीतिकालीन कवियों की भांति चमत्कार प्रदर्शन अथवा पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिये नहीं है, अपितु उनका समावेश अत्यन्त सहज स्वाभाविक रूप में हुआ है। इनके अलंकार भाव और रस का उत्कर्ष करने वाले हैं।
विरोध और विरोधाभास की तो भरमार ही है। विरोध की विशेषता को तो धनानन्द की शैली की प्रधान विशिष्टता के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि, “प्रेम की अनिर्वचनीयता का आभास घनानन्द ने विरोधाभासों के द्वारा दिया है।”
इसके अतिरिक्त घनानन्द की कविता में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रम, अपन्हुति, क्रम, असंगति, विभावना आदि के भी सुन्दर प्रयोग पाये जाते हैं। सांगरूपक का यत्र-तत्र बहुत सुन्दर निर्वाह पाया जाता है। एक ही छन्द में कई-कई अलंकार उलझे हुए मिलते हैं, परन्तु फिर भी अभिव्यक्ति की सहजता ज्यों की त्यों बनी रहती है। एक उदाहरण देखिए:
घनआनंद जीवन मूल सुजान की, कौंधन हूँ न कहूँ दरसै।
सुन जानिये धौं कित छाय रहे, दुग-चातिक-प्रान तर्फे तरसै।
बिन पावस तौ इन ध्यावश हो न, सु क्यौं करिये अब सो परसै।
बदरा बरसें रितु चैं घिरि के नित ही अंखियाँ उधरी बरसै।
इस छन्द में निम्नलिखित अलंकार हैं :
(1) छेकानुप्रास। (2) पदमैत्री (3) श्लेष घनानन्द, जीवनमूल- कौंध तथा छाय में। (4) रूपक- दृग-चातिक में। (5) विरोधाभास – घिरिकै उधरी। (6) व्यतिरेक-अन्तिम पंक्ति । (7) सम्पूर्ण पद में श्लेष पुष्ट रूपक है।
विरोधाभास के समान ही अनुप्रास पर भी घनानन्द का एकाधिकार है। अनुप्रास के सफल प्रयोग के फलस्वरूप इनके काव्य में संगीतात्मकता का समावेश हो गया है :
साँझ तें भोर लो तारनि ताकिबो
तारनि सों इकतार न टारति ।
निरधार आधार दै धार मँझार,
दई । गहि बाँह न बोरिये जू ।
कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढति री,
कूकि कूकि अबहीं करेजो किन कोरि लै।
शब्द-मैत्री अथवा शब्दों का यथास्थान संगत प्रयोग घनानन्द के काव्य की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है। रीतिकाल के कवि शब्दों के संगत प्रयोग, शब्द-मैत्री या पदमैत्री के प्रति बहुत ही सतर्क थे। अनुप्रास के द्वारा यद्यपि शब्द-मैत्री का बहुत कुछ निर्वाह हो जाता है, तथापि यही उसका सर्वस्व नहीं है। इसके लिए अनुकूल ध्वन्यात्मकता भी अपेक्षित है। घनानन्द ने प्रायः तोल में सम एवं ध्वनि के अनुरूप शब्दों का प्रयोग किया:
अंगराति जम्हाति लजाति लखैं,
अंग-अंग अनंग दिये झलकैं ।
इसी प्रकार स्वर के बार-बार प्रयोग के द्वारा स्वर-संगीत की सृष्टि का उदाहरण भी देख लीजिए:
अन्तर आँच उसास तचै अति,
अंग उसीजै उदेग की आवस।
शब्द-मैत्री के कारण घनानन्द की भाषा में भाव की अभिव्यक्ति अत्यन्त मार्मिक हो गई है।
मुहावरों और लोकोत्तियों के प्रयोग ने घनानन्द की भाषा को सजीव एवं भावाभिव्यंजक बना दिया है।
मुहावरे लक्षणा के रूढ रूप होते हैं। इनके प्रयोग से भाषा में चटपटापन, चमत्कार और सजीवता का समावेश हो जाता है। रीतिकाल के कवियों ने मुहावरों का बहुत कम प्रयोग किया है। उनकी भाषा प्रायः साहित्यिक ही रही। रीतिमुक्त कवियों ने जनभाषा की ओर भी ध्यान दिया। इस कारण इनकी भाषा में लक्षणा पर आश्रित मुहावरों का समावेश हुआ। रीति-मुक्त कवियों में ठाकुर ने मुहावरों और लोकोक्तियों का सर्वाधिक सफल प्रयोग किया है। घनानन्द ने मुहावरों का अच्छा प्रयोग किया है। इनकी अधिकांश कविता लक्षणा के चमत्कार के परिपूर्ण है। इनके मुहावरों का प्रयोग उर्दू तथा फारसी के प्रभाव का फल है। घनानन्द द्वारा प्रयुक्त कुछ मुहावरों के उदाहरण देखिए:
(क) सु कहा लगि धीरज हाथ रहै 1
मुहावरा-हाथ रहना ।
(ख) ओछी बड़ी इतरानी लगौ मुँह ।
मुहावरा – मुँह लगना ।
(ग) भाग जागें जो कहूँ मिले घनआनन्द जू
मुहावरा— भाग जागना ।
(घ) तुम कौन सी पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं
मुहावरा – पट्टी पढ़ना, मन लेना।
(ङ) चाह के रंग में भीज्यो हियो
मुहावरा – रंग में भींगना ।
घनानन्द ने कहीं-कहीं लोकोक्तियों का भी प्रयोग किया है। यह प्रयोग विरल है :
रस प्याय के प्यास बढ़ाय के आस,
बिसास में यों विष घोरिये जू
घनानन्द का छन्द-विधान विषयानुकूल है।
छन्द कविता का प्राण तत्व है। छन्दबद्ध शब्द चुम्बक के पार्श्ववर्ती लौहचूर्ण की तरह अपने चारों ओर एक आकर्षण क्षेत्र तैयार कर लेते हैं।
संस्कृत के आचार्यों ने विभिन्न रसों के लिए विभिन्न छन्दों के प्रयोग का विधान किया है। नायिका-वर्णन में बसन्ततिलका, वीर वर्णन में शिखरणी, शृंगार के लिए ‘पृथ्वी’ और हास्य के लिए दीपक छन्द अधिक उपयुक्त माने गये हैं।
हिन्दी के आदिकाल में दोहा, छप्पय, सवैया और कवित्त छन्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ। भक्तिकाल में प्रबन्ध-काव्य में दोहा – चौपाई का प्रयोग हुआ तथा मुक्तक काव्य-रचना में कवित्त और पद की प्रधानता रही। रीतिकाल में कवित्त, सवैया, दोहा मुख्य छन्द रहे । कवित्त और सवैया की प्रकृति रीतिकाल में आकर ढाल ली गई। घनानन्द ने भी ये ही दो छन्द कवित्त और सवैया प्रयुक्त किए। इनमें भी प्रधानता ‘कवित्त’ की ही है। यहाँ एक बात की ओर संकेत कर देना आवश्यक है। हिन्दी भाषा की प्रकृति विश्लेषणात्मक है, अतः इस भाषा के अनुरूप मात्रिक छन्द अधिक उपयुक्त रहते हैं। हिन्दी कविता में प्रयुक्त छन्द प्रायः मात्रिक ही हैं।
घनानन्द द्वारा प्रयुक्त कवित्त दो प्रकार के हैं:
(1) मनहरण और (2) घनाक्षरी।
कवित्त छन्द मादक भावों के अधिक उपयुक्त रहता है। घनानन्द की भाव समृद्धि निश्चित रूप से मादक है। यही कारण है कि घनानन्द के कवित्त इतने सफल और आकर्षक हैं।
घनानन्द का दूसरा मुख्य छन्द सवैया है। सवैया मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-किरीट, अरसात और मत्तगयंद । घनानन्द ने तीनों ही प्रकार के सवैयों की सफल रचना की है। घनानन्द के सवैया प्रयोग की यह विशेषता है कि इन्होंने इसका प्रयोग विरह-वर्णन के लिए किया है। घनानन्द कवित्त की अपेक्षा सवैया की रचना करने में अधिक सफल हैं। इनके द्वारा विरचित सर्वेयों में सवैया की सम्पूर्ण कोमलता उभर आई है। डॉ० मनोहरलाल गौड़ के शब्दों में, “नरोत्तमदास की सी सरसता और कोमलता घनानन्द के सवैयों में सहज प्राप्य हैं।”
घनानन्द के छन्द विधान बिहारी की एकाग्रता और तुलसी की व्यापकता का अभाव है। परन्तु इतना निश्चित है कि वह छन्दों की प्रकृति को भली प्रकार समझते थे। एक आलोचक के मतानुसार छन्द और भाषा का जितना सुन्दर मेल बनानन्द के कतिपय सवैयों में उपलब्ध होता है, उतना हिन्दी में अन्यत्र बहुत कम उपलब्ध होगा :
“रावरे रूप की रीति अनूप,
नयो नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये ।
त्यों इन आंखिन बानि अनोखी ।
अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारिये ।
एक ही जीव हुतौ सु तौ हर्यौं,
सुजान, संकोच और सोच सहारिये।
रोके रहै न, दहैं, घनआनँद,
बाबर रीझ के हाथन हारिये ॥”
निष्कर्ष
घनानन्द का भाषाधिकार अपूर्व है । भाषा की लाक्षणिकता संगीतात्मकता एवं व्यंजकता भावानुभूति को मूर्तिमान कर देती है। आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन अक्षरतः सत्य है कि “घनानन्द की सी विशुद्ध, सरस और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ।”
घनानन्द के भावपक्ष के ही समान उनका कलापक्ष भी उच्चकोटि का है।
घनानन्द की भाषा व्याकरण-सम्मत, समृद्ध, अर्थ- सम्पत्ति से सम्पन्न तथा साहित्यिक प्रांजल ब्रजभाषा है। उसमें लाक्षणिकता का पूर्ण वैभव देखने को मिलता है।
अतः यह कथन सर्वथा सत्य है कि, “अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधड़क प्रयोग करने वाला हिन्दी के पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ है।”
-(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)
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