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घनानन्द के काव्य में प्रकृति-चित्रण

घनानन्द के काव्य में प्रकृति-चित्रण
घनानन्द के काव्य में प्रकृति-चित्रण

घनानन्द के काव्य में प्रकृति-चित्रण का निरूपण कीजिए ।

रीति काल में प्रकृति-वर्णन या तो प्रायः उद्दीपन के रूप में हुआ या वह उपमान के रूप में नायिका के नखशिख-वर्णन में समाकर रह गई। कहीं वह नायिका के प्रेम को उद्दीप्त करती है, कहीं वियोग में उसे दग्ध करती है और कहीं उसके अभिसार के लिए सहेट सजाती है। बिहारी और सेनापति के काव्य में आलम्बन रूप में प्रकृति के कुछ स्वाभाविक चित्र अवश्य मिल जाते हैं। घनानन्द का प्रकृति-वर्णन सो-बद्ध कवियों की परम्परा से भिन्न है। ‘घनानन्द’ ने षट्ऋतु-वर्णन किया है, किन्तु वहाँ भाव-तरंग में प्रकृति अनेकों रूप में आकर उपस्थित हो गई है। किन्तु उसके विरही हृदय ने प्रकृति को प्रायः अपनी वेदना को उद्दीप्त करने के ही रूप में प्रयुक्त किया है। कुछ स्थलों पर उन्होंने प्रकृति के शुद्ध चित्र भी उपस्थित किये हैं। सरस बसन्त, गिरी-पूजन आदि के चित्र ऐसे ही हैं। घनानन्द के काव्य में प्रकृति-वर्णन निम्न रूपों में हुआ है : 1. उद्दीपन रूप में, 2. आलंकारिक रूप में, 3. स्वतन्त्र रूप में, 4. सन्देश वाहक के रूप में।

प्रकृति का उद्दीपन रूप में वर्णन

संयोग के समय में प्रकृति-माधुरी प्रेम को उद्दीपन करने में सहायक होती है। निम्न उदाहरण में कामदेव ने वन की सेना को ही बसन्त के समीप लाकर खड़ा कर दिया है :

प्रेम अमी मकरंद भरे बहु रंग प्रसूनिन की रुचि राजी।

देखत आज बन बनराजहि रूप अनूपम ओप बिराजी |

राग रची अनुराग सची सुनि के घनानन्द बाँसुरि बाजी।

मैन महीप वसन्त समीप, मनो करि कानन सैन है साजी ॥

यमुना की शोभा का वर्णन भी घनानन्द ने संयोग के सुखद क्षणों के साथ किया है :

तरनि तनूजा तोहि तकौं ।

चंचलता तजि भजि नंदलालहि मन करि तेरे तीर थकौं ।

घनानन्द ने वृन्दावन, बसन्त कुंजों, मधुप-गुंजारों और कोयल की कोकली का भी वर्णन किया है :

 वृन्दावन मधि मधुरितु आई अति छवि पाइ सुहाई

कुंज-कुंज सुख प्रेम मधुप गूँज कोकिलसुर की छाई ।

विलसत है अपनी सचि संपति दंपति सुख अधिकाई ॥

मिलन की शरद-रजनी में प्रकृति बड़ी लुभावनी पृष्ठभूमि उपस्थित कर देती है। पूर्ण चन्द्र की चाँदनी छिटक रही है। यमुना का तट कुसमित हो रहा है। द्रुम-लताएँ अपना प्रसार करती हुई आभा को फैला रही हैं। त्रिविध समीर प्रवाहित हो रही है :

देखि सुहाई सरद की जामिनी रस भीनी।

पूरन ससि प्राची उदै विरहनि रुचि कीनी ॥

मोहन मदन गुपाल को वृन्दावन मोहे ।

जमुना तट कुसमित महा अवनी पनि सोहै ॥

जोति जगमगै द्रुम लता अति सघन सुहाये ।

त्रिविध पवन सुख में बहे कहिये सु कहाये ॥

‘प्रीति-पावस’ में घनानन्द ने प्रकृति-माधुरी का जो वर्णन किया है, वह सुन्दर और प्रभावोत्पादक है। वर्षा भी ब्रज में आकर धन्य हो गई है। बरसात की झड़ी लगी हुई है। समीप ही यमुना प्रवाहित हो रही है, बिजली चमक रही है, कदंब के वृक्ष फूल रहे हैं, उन पर भौरों के झुंड मंडरा रहे हैं, कृष्ण अपनी मुरली से मल्हार राग बजा रहे हैं। यह सारा वातावरण प्रेम को उद्दीप्त कर देता है; मधुर प्रेम पावस के गीत ।

रस-निधि राधा मोहन मीत ।।

अमित लतागन फूलनि छाये ।

सोभित वन के सदन सुहाये ।।

फूले सरस कदम्बन पुंज ॥

महा मनोहर मधुकर पुंज ॥

झुरमुट झूला बगर-बगर है ।

सावन को सुख डगर-डगर है ।।

घनानन्द के काव्य में प्रकृति के ऐसे चित्र प्रचुर संख्या में मिल जायेंगे।

घनानन्द के काव्य में विप्रलम्भ शृंगार की प्रधानता है। इसलिए प्रकृति वियोग को उद्दीप्त करने में अधिक प्रयुक्त हुई है:

लहक-लहक आवै ज्यों-ज्यों पुरवाई पौन,

दहकि दहकि त्यों-त्यों तन साँवरें तचैं ।

बहकि- बहकि जाय बदरा बिलोके जिय,

गहकि- गहकि गहवरनि हिये मचैं ।

चहकि चहकि डारै चपला चखन चाहै,

कैसे घनानन्द सुजान बिन ज्यौं बचें।

महकि महकि मारै पावस प्रसून वाय

त्रासनि उसास दैया कौलौं रहिये अकैं ।

सावन का आगमन प्रियतम के वियोग में वियोगिनी को व्याकुल बना देता है। वर्षा की रिमझिम बूँदें उसके शरीर पर पड़कर आग की लपटें उठा देती हैं। वह पानी से लगती हुई आग देखकर आश्चर्यचकित हो रही है-

सावन आवन हेरि सखी

मनभावन आवन चोप बिसेखी।

छाए कहूँ घन आनंद जान सम्हारि

की ठौर लै भूलन लेखी ||

बूँदें लगे सब अंग गें।

उलटी गति आपनि पापनि पेखी।

पौन सौं लागति आणि सुनी हो

पै पानी तें लागति ऑखिन देखी ।।

वियोगिनी के लिए सारी प्रकृति विपरीत हो गई है। जमुना भी वही है, कुंजों का समूह भी वही है, उसी प्रकार ऋतुएँ आती हैं। और चन्द्रमा भी वही है, किन्तु वियोगिनी के लिए ये सभी दुखदायी हो रहे हैं :

वही जमुना है, वही वन, वेई कुंज,

वही ऋतु, वही चन्द और सब बहियै ।

वेई हम, वही वेई अभिलाख लाख,

वही धुनि मुरली की अजों रमि रहिये ।।

उद्दीपन रूप में प्रकृति-चित्रण की व्यापकता सूर के समान घनानन्द के वर्णन में नहीं है, परन्तु जितना प्रकृति का चित्रण उनके काव्य में मिलता है, वह रीतिकाल के अन्य कवियों में नहीं मिलता।

प्रकृति का आलंकारिक रूप में वर्णन

काव्य में नायिका नायक के अंग-प्रत्यंग के उपमान रूप में प्रकृति को प्रस्तुत करने की परम्परा रही है। घनानन्द ने भी प्रकृति के इस रूप को ग्रहण किया है। निम्न उदाहरण में विरहिणी के शरीर में ही ग्रीष्म का ताप है और वहीं असीम समुद्र भी है तथा वहीं पर मेघ भी पानी भरकर घनघोर वर्षा कर रहे हैं:

विरह-रवि सों घट व्यौम तच्यौ,

विजुरी सी खिवै इकली छतियाँ।

हिय- सागर में दृग मेष भरे,

उधरे बरसै दिन और रतियाँ ।।

राधा के शरीर में वियोग के कारण पतझर और बसंत दोनों ही एक साथ उपस्थित हो गया है :

है पतझार बसंत दुहूँ,

घन आनंद एक ही बार हमारे।

नेत्रों के सम्पूर्ण उपमानों को घनानन्द ने एक ही स्थान पर उपस्थित कर दिया है:

मीन कंज खंजन कुरंग मान भंग करें,

धाती बड़े कांती लिये छाती पै रहें चढ़े ।।

व्यतिरेक अलंकार के द्वारा कवि ने प्रकृति के उपकरणों को नायिका के अंग-प्रत्यंगों के सामने हेय सिद्ध कर दिया है:

वारनि भौंर कुमार भजै,

पुहुपावलि हास विलासहि पूजहिं ॥

आलंकारिक रूप में प्रकृति के चित्रण में कवि ने कई स्थानों पर अपनी मौलिकता का प्रदर्शन किया है।

स्वतन्त्र रूप में प्रकृति का वर्णन

घनानन्द के काव्य में प्रकृति प्रायः उद्दीपन रूप में ही उपस्थित हुई है। कुछ ही ऐसे स्थल मिलेंगे, जहाँ प्रकृति स्वतन्त्र रूप में उपस्थित हुई है। कुछ उदाहरण लीजिए :

वृन्दावन आनन्द घन राजत यमुना कूल ।

सदा सुख सुन्दर सरस सब रितु रुचि अनुकूल ।।

रितु औरे मोरै नवल वृन्दावन तरु बेलि ।

सहज सुहायो देखिये आनन्दघन रसकेलि ॥

घुमड़ पराग लता तस भो ये ।

मधुरित सौरभ सौज सँभोये ।

वन बसन्त बरनत मन फूल्यौ ।

लता-लता झूलनि संग झूल्यौ ।

सन्देश वाहक रूप में प्रकृति

दूत और सन्देह-वाहक के रूप में प्रकृति को काव्य में उपस्थित करने की परम्परा रही है। घनानन्द की वियोगिनी बादल से प्रियतम के आँगन में आँसुओं को बरसाने को कहती है :

परकारज देह को धारे फिरौ,

परजन्य जथारथ है दरसौ ।

निधि-नीर सुधा के समान करौ,

 सबही विधि सज्जनता सरसौ ॥

‘घनआनन्द’ जीवनदायक हौ,

कुछ मेरीयो पीर हियै परसौ ।

कबहूँ वा विसासी सुजान के आँगन,

मो अंसुवान को लै बरसौ ।।

निष्कर्ष- उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि घनानन्द ने हृदय के रंगों में प्रकृति की पृष्ठभूमि को रंजित कर दिया है। रीतिमुक्त कवियों की तरह परम्परागत वर्णन उन्होंने नहीं किया। उनके प्रकृति-चित्रण में भी अन्तर्वृत्तियों के निरूपण की प्रधानता रही है, परन्तु स्वतन्त्र रूप में प्रकृति-चित्रण अधिक नहीं मिलता।

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Anjali Yadav

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