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ज्ञानमार्गी एवं प्रेममार्गी शाखा की तुलना

ज्ञानमार्गी एवं प्रेममार्गी शाखा की तुलना
ज्ञानमार्गी एवं प्रेममार्गी शाखा की तुलना

ज्ञानमार्गी एवं प्रेममार्गी शाखा की तुलना कीजिए।

साम्य

1. दोनों मतावलम्बियों के काव्यों में गुरु या पीर को महत्व दिया गया है, गुरु ही साधक को सिद्धि तक पहुंचाने का माध्यम है। गुरु कृपा से गया तथा शैतान के व्यवधानों का विध्वंस होता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि सन्तों में यह गुरुवाद सूफियों की खिलाफत से आया है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में गुरु अथवा आचार्य का महत्व केवल ज्ञानदाता अथवा विद्याप्रदाता के रूप में स्वीकृत है, सूफीमत के समान वह मुक्ति प्राप्ति का साधन नहीं है। अस्तु भारतीय संस्कृति में भी गुरु मुक्ति-प्राप्ति का समवायी हेतु है। गुरु के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं ।

2. दोनों काव्यों में प्रेम का अत्यधिक महत्व स्वीकार किया गया है। दोनों के मतानुसार निराकार प्रेमगम्य है। सन्तों के यहां प्रेम व्यक्तिगत साधनों में व्यवहृत है, जबकि सूफियों ने लौकिक प्रेम कहानियों के द्वारा अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना करके प्रेम की सार्वभौमिकता दिखलाई है। सूफी मत में प्रेम मुख्य रूप से स्वीकृत है, जबकि सन्तों में वह गौण रूप से।

3. दोनों साधक हैं। दोनों का साधना-पथ विविध प्रभावों से प्रभावित है। दोनों पर हठयोग, भारतीय अद्वैतवाद, अहिंसा का समान रूप से प्रभाव है। दोनों का ईश्वर निराकार है। उसे प्राप्त करने का सबको समान अधिकार है, उसमें जाति-पांति, ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं है। दोनों की सामाजिक मान्यताएँ प्रायः एक-सी हैं।

4. माया या शैतान को दोनों ने साधना-पथ में व्यवधान के रूप में स्वीकार किया है। सन्तों ने कनक और कामिनी को माया का प्रतीक माना है। सन्तों ने माया को सर्वथा त्याज्य माना है जबकि सूफियों की प्रेम-परीक्षा के लिए तथा उसमें दृढ़ता प्रदान करने के लिए शैतान की आवश्यकता स्वीकार की है।

5. दोनों ने अव्यक्त सत्ता की प्राप्ति का संकेत किया है अतः दोनों रहस्यवादी हैं। दोनों के अनुसार उस रहस्यवाद का मिलन प्रेम से संभव है। आचार्य शुक्ल का कहना है कि “सूफियों का रहस्यवाद शुद्ध भावात्मक कोटि में आता है, जबकि सन्तों का रहस्यवाद साधनात्मक कोटि में, क्योंकि उसमें विविध यौगिक प्रक्रियाओं का उल्लेख है।

6. दोनों ने विरह का उन्मुक्त गान किया है। दोनों में एक अनूठी कसक और वेदना है। सूफियों का विरह विश्वव्यापी है। रवि, शशि और नक्षत्र उसी के विरह में जल रहे हैं। सूफियों के विरहियों के साथ चराचरात्मक जगत् सहानुभूति प्रकट करना है, उसमें पादप और पक्षी तक समान रूप से भाग लेते हैं। सन्तों ने जगत् को मिथ्या माना है, अतः प्रकृति उनके विरह-वर्णन में उपेक्षणीय रही है और उनका विरह व्यक्तिगत बनकर रह गया है। उसमें सूफियों जैसी विश्वव्यापकता नहीं।

वैपम्य- 1. सन्तों की प्रणय-भावना विशुद्ध भारतीय है। इन्होंने आत्मा को पत्नी और परमात्मा को पति के रूप में माना है, जबकि सूफियों ने आत्मा को प्रियतम और परमात्मा को प्रियतमा के रूप में कल्पित किया है। इनकी यह कल्पना ईरानी प्रभाव का परिणाम है। सन्तों ने मिलनोत्सुकता आत्मा रूप पत्नी में दिखाई है जबकि इसके विपरीत सूफियों ने वह उत्कंठा आत्मा रूपी पति में चित्रित की है। सन्तों के प्रेम का मूल स्रोत भारतीय है, जबकि सूफियों का इस दिशा में प्रेरणा स्रोत फारसी साहित्य है ।

2. सन्तों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के उद्देश्य की पूर्ति धार्मिक एकता द्वारा सम्पन्न की, जबकि सूफियों को उस उद्देश्य की उपलब्धि सांस्कृतिक एकता द्वारा अभीष्ट थी और कदाचित् इस दिशा में सूफी अधिक कृतकार्य रहे। आचार्य शुक्ल के शब्दों में-“कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी, वह जायसी ने पूरी की।”

3. कबीर आदि सन्तों ने सामाजिक सुधारों और धार्मिक एकता के लिए खण्डनात्मकता के प्रखर शस्त्र का उपयोग किया। इससे अनेक संप्रदाय हिन्दू तथा मुस्लिम पूरी तरह चिढ़ उठे। जायसी आदि ने किसी संप्रदाय विशेष का खण्डन नहीं किया, बल्कि हिन्दू घरों की प्रेम कहानियों द्वारा प्रेम की विश्वजनीनता का प्रतिपादन किया। सांस्कृतिक एकता के लिए उन्हें ऐसा करना अनिवार्य था।

4. कबीर आदि सन्तों का व्यक्तित्व एकदम अक्खड़ है। कबीर तो यहां तक दावा करते हुए चुनौती देते हैं कि जिस शरीर रूपी चादर को मुनिवरों ने ओढ़कर मलिन कर दिया है, उसी को कबीर ने उसी ही रूप में धर दिया है, जिस रूप में वह मिली थी। कभी-कभी कबीर अपने मुख से कहने लगते हैं-“समरथ का सन्देशा लाये हंस उबारन आये।” सूफियों के व्यक्तित्व में सरलता और विनम्रता है। इनके व्यक्तित्व का यह गुण उनकी रचनाओं में सर्वत्र प्रतिफलित हुआ।

5. सन्तों ने अपने भावों की अभिव्यक्ति मुक्तक काव्य के रूप में की है, उनके साहित्य में अधिकांशतः दोहे और भजन मिलते हैं जबकि सूफियों ने प्रबन्ध काव्यों के द्वारा भावाभिव्यक्ति की है। सूफियों ने कहीं-कहीं मुक्तक शैली का भी प्रयोग किया है। इनके ‘आखरी कलाम’ जैसे ग्रंथ पद्यात्मक निबन्ध कहे जा सकते हैं। काव्यशास्त्रीय ज्ञान के सम्बन्ध में सूफी लोग सन्तों की अपेक्षा कुछ आगे बढ़े हुए दृष्टिगोचर होते हैं।

6. सन्त काव्यों की भाषा सधुक्कड़ी या खिचड़ी है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रांतों की भाषाओं का सम्मिश्रण है, जबकि सूफियों की भाषा अपेक्षाकृत व्यवस्थित है, इनकी भाषा लोक-प्रचलित अवधी है। उसमान और नसीर पर भोजपुरी का भी प्रभाव है। नूर मोहम्मद ने कहीं-कहीं ब्रजभाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है। इनमें अरबी और फारसी शब्दों का प्रयोग भी मिलता है।

7. दोनों का ईश्वर निराकार है। सन्तों ने उसे ज्ञान तथा प्रेम से लभ्य माना है। इनके यहां ज्ञान प्रधान है और प्रेम गौण । सूफियों ने ईश्वर को एकमात्र प्रेमगम्य बताया किन्तु इनके यहां भी ज्ञान की स्वीकृति है, पर यह गौण रूप में। सन्त कर्मकांड की उपेक्षा करके केवल ज्ञानकांड को चाहते हैं, पर सूफी कर्मकांड तथा ज्ञानकांड दोनों में रुचि रखते हैं।

8. सन्त काव्य में अन्तःसाधना पर बल दिया गया है। इनका निर्गुण राम घट-घट में है। इनकी धारणानुसार ईश्वर सत्य है और जगत् मिथ्या है। अतः इन्होंने प्रकृति को उदासीन दृष्टि से देखा है। सूफियों का प्रेमस्वरूप ईश्वर प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है। अतः प्रकृति उनके लिए आकषर्णमय एवं स्पृहणीय है। इन्हें ‘रवि’, ससि नखत उसकी दीप्ति’ से दीपित दिखाई पड़ते हैं। सूफियों के काव्य में प्रकृति का रागात्मक वर्णन है। इन काव्यों में प्रकृति प्रेमियों के विरह में शरीक होती दिखाई पड़ती है।

9. सन्त मत पर सिद्धों और नाथों का प्रभाव स्पष्ट है। सिद्ध और योगी लोग अपने अलौकिक चमत्कारों से जनसमुदाय को चमत्कृत कर रहे थे और इसीलिए वे कुछ उलटी-सीधी वाणी का विधान कर रहे थे। सन्तों ने कदाचित् इन लोगों के प्रभावस्वरूप उलटबांसियों का प्रयोग किया, जिनमें उनका केवल पांडित्य प्रदर्शित हुआ है। सूफियों ने लोकरंजक एवं मंगलविधायक प्रबन्ध काव्यों की सृष्टि की है, उनमें कहीं भी ऐसी उलटबांसियां नहीं है।

10. सन्त साधक हैं और उनका उद्देश्य हंस को सन्देशा देना है, उन्हें धर्म, जाति और वर्ग के भेद को तथा बाह्य विधि-विधानों को दूर करना है। उनके इस संदेश में कविता का पुट भी आ गया है। किन्तु उनका प्रधान उद्देश्य समरथ का परवाना पहुंचाना है। सूफी साधक भी हैं और कवि भी। उनकी साधना सहज और सरल है। उसमें काव्य की भी नैसर्गिक छटा है। सन्त काव्य में परिवर्तन और परिवर्धन हुआ, जबकि सूफी काव्यों में यह बात अपेक्षाकृत कम हुई।

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Anjali Yadav

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