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तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ | तुलसीदास लोक-हृदय के सच्चे पारखी थे

तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ | तुलसीदास लोक-हृदय के सच्चे पारखी थे
तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ | तुलसीदास लोक-हृदय के सच्चे पारखी थे

तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ

भाव पक्ष- तुलसीदास का जीवन आरम्भ से लेकर अन्त तक कठिनाइयों एवं संघर्षों से पीड़ित रहा है। उन्हें अपने जीवन में अनेक विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। परिस्थितियों के घात, प्रतिघात ने उनके हृदय को भावुक बना दिया। फलतः लोकजीवन में व्याप्त सुख-दुःख, हर्ष विषाद, हिंसा-अहिंसा आदि का उन्होंने चित्रण सफलता से अपनी रचनाओं में परिस्थितियों के अनुकूल किया है। जीवन की नाना परिस्थितियों और मानव हृदय के विपुल अनुभवों का चित्रण करते समय तुलसीदास ने हृदय की सूक्ष्म अन्तर्वृतियों को जिस तन्मयता के साथ चित्रण किया है, उससे मानव स्थिति के विवेचन में उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। ‘रामचरित मनस’ कवितावली, गीतावली इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।

मानव मन के सूक्ष्म चित्रण एवं सशक्त अभिव्यंजना पद्धति के कारण तुलसीदास का काव्य सर्वजनीन एवं सार्वजनिक बन गया है। राम का अयोध्या-त्याग, पथिक रूप में उनका वन गमन, चित्रकूट में राम-भरत का मिलन, शबरी का आतिथ्य, लक्ष्मण मूर्च्छा के समय राम का विलाप आदि ऐसे हृदय स्पर्शी प्रसंग हैं जहाँ तुलसी के भावुक हृदय का परिचय मिल जाता है। राम अयोध्या छोड़कर वन के लिये प्रस्थान कर रहे। इस हृदयद्रावक अवसर पर नगरवासियों की क्या दशा हो रही है। इसका मार्मिक चित्र दृष्टव्य है-

सुनि भये विकल सकल नर नारी। बेलि विटप जिमि देखि दवारी |

जो जहँ सुनहि धुनइ सिर सोई। वह विषादु नहिं धीरज होई ॥

मुख सुखाहि लोचन सुबह सोक न हृदय समाइ ।

मनहुँ करुन रस कट कई, उतरी अवधि बजाइ ॥

इसी अवसर पर मन की स्थिति उनके आतुर हृदय ही अस्थिरता का भी सुन्दर विवेचन किया है- “दलि उठेउ सुनि हृदय कठोरु । जनु छुइ गयऊ पाव बरतोरु ।” वन गमन के समय भगवान राम का दास दासियों को गुरु को सुपुर्द करना, पिता एवं माताओं का दुख एवं उनकी विरह व्यथा से बचने के लिये सभी हितैषियों की प्रार्थना अत्यन्त मर्मस्पर्शी और भावानुकूल है। वन गमन के समय अत्यधिक दुलार से पालित पोषित कोमलांगी सीता भी राम के साथ वन जाना चाहती है। लोगों के समझाने पर भी वह राम-लक्ष्मण के साथ प्रयास कर जाती है। लेकिन दो पग चल कर ही वह थक जाती है और गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए उनकी आतुरता बढ़ जाती है। इसका बड़ा मार्मिक और हृदयग्राही चित्र तुलसी खीचते हैं-

पुर ते निकसी रघुवीर वधू धरि धीर दये मग में डग द्वै।

झलकी भर भाल बनी जल की पुट सूख गये मधुराचर वै  ।

फिर बूझति है चलनो अब केतिक पर्णकुटी रखि है कित है।

तिय की लखि आतुरता पिय की आँखियाँ अतिचारु चली जलच्चै ।

थोड़ी दूर चलने पर सीता जी अत्यन्त कुशलता से राम को रुककर विश्राम करने को कहती हैं-

जल को गये लखन है लरिका परिखोपिया छाँह धरीक है गढे।

पोंछि पसेउ बयारि करूँ अरू पाँय परवारि हौ भूमरि ढारे ।।

वन पथ के पथिक राम, लक्ष्मण और सीता की रूप माधुरी देखकर मार्ग के पिपासु-प्रेम के स्त्री-पुरुष प्रेम से अभिभूत हो उठते हैं। ग्रामीण स्त्रियाँ सीता जी के निकट आती हैं लेकिन भव्य विह्वलता वश सीता से पूछने में संकोच का अनुभव करती हैं ।

 सीय समीप ग्रामतिय जाहीं। पूँछत अति सनेह सकुचाहीं ।

राजकुमार विनय हम कर ही तिय सुभाव कछु पूँछत डर ही ।।

ऐसी सुन्दर वाणी सुनकर सीता जी भी मुस्कराने लगीं। बड़े सांकेतिक ढंग से वह उत्तर देती हैं-

बहरि वदन निज अंचल ढाँकी थिय तनु वितै भीह कर बाँकी ।।

खंजन मंजु तिरी नैननि। निजपति कहेउ सियहिं तब सयननि ॥

यों तो तुलसीदास ने सभी धार्मिक स्थलों की भावपूर्ण अभिव्यंजना की है किन्तु चित्रकूट में राम और भरत का मिलन सबसे अधिक मार्मिक प्रसंग है। चित्रकूट में भरत अपने अपन राम से मिलने नंगे पाँव जाते हैं। मार्ग में उन स्थानों को देखकर उनका हृदय प्रेमाभिभूत हो उठता है। जहाँ राम, लक्ष्मण और सीता ने विश्राम किया था। राम के धाम पर पहुँचते ही उनके पैरों पर गिर पड़ते हैं। सभा में खड़ा होने पर उनका हृदय स्नेह से विचलित हो उठता है और उनकी आँखों से आँसू झरने लगते हैं-“पुलकि शरीर सभा भये ठाड़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े।” इस सन्दर्भ में रामचन्द्र शुक्ल का यह कथन उल्लेखनीय है-“चित्रकूट में राम और भरत का जो मिलन हुआ है वह शील का शील से, स्नेह से स्नेह का नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन से संगठित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य है। यह झाँकी अपूर्व है। ‘भायप-भयति’ से भरे भरत नंगे पाँव राम को मनाने जा रहे हैं। मार्ग में जहाँ-जहाँ राम ने विश्राम किया था उन स्थानों को देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आते हैं।”

इसके उपरान्त सीता हरण का विषाद पूर्व स्थल आता है। सीता के वियोग में राम जहाँ पशु-पक्षियों तक से पता पूछते दिखाई पड़ते थे- “हे खग मृग मधुकर श्रेनी। तुम देखी सीता मृगनयनी।” लक्ष्मण शक्ति के अवसर पर राम का सामान्य मनुष्य की भाँति विलाप करना भी हृदय को कम प्रभावित नहीं करता ‘जो जनतेठ वन बन्धु विछोहू पिता वचन मनतेठ नहि ओह ।” इसके अतिरिक्त राजा दशरथ की मृत्यु पर जिस व्यापक शोक का चित्रण किया गया है उसमें भावुकता का सुन्दर परिचय मिलता है। जैसे-

लागति अवधि भयावनि भारी। मानहुँ कालगति अंधियारी ॥

घोर जन्तु सम पुर नर-नारी। डरपति एकहिं एक निहारी ।।

इस प्रकार तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में जीवन के रंग-बिरंगे चित्रों को व्यापक सन्दर्भ में देखा है। हर्ष, विषाद, उल्लास, शोक, करुणा आदि की सशक्त अभिव्यंजना उनकी काव्य में हुई है। रस की दृष्टि से उनके काव्य में प्रायः सभी रसों का समावेश हुआ है। संयोग एवं वियोग के चित्रों के साथ नारद-मोह के अवसर पर हास्य, लंकादहन के अवसर पर भयानक एवं वीभत्स, आकाश मार्ग से जाते हुए हनुमान के चित्रण में अद्भुत रस का सुन्दर उदाहरण मिलता है।

तुलसीदास ने मानव जीवन के विविध रूपों का सुन्दर चित्रण अपने काव्य में किया है। उन्होंने काव्य के उच्च उद्देश्य एवं गम्भीरता को समझा है तथा जीवन के सुख-दुख, हर्ष-विषाद आदि नानारूपों का मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत किया है। तुलसी में पात्रानुकूल भावतादात्म्य की अद्भुत क्षमता थी। इसलिये प्रायः पात्र विशेष को परिस्थिति विशेष में रखकर उनका चित्रण किया है। इस सन्दर्भ में आचार्य शुक्ल का कथन दृष्टव्य है- “मानव प्रकृति के जितने रूपों के साथ गोस्वामी जी के हृदय का एकात्मक सम्बन्ध हम देखते हैं, उतना अधिक हिन्दी भाषा के और कवि के हृदय का नहीं। यदि कहीं सौन्दर्य हैं तो प्रफुल्लता, शक्ति है। तो प्रगतिशील है तो हर्ष पुलक, गुण है तो आदर, पाप है तो घृणा व अत्याचार है तो क्रोध है तो विस्मय, पाखण्ड है तो कुढ़न शोक है तो करुणा, आनन्दोत्सव है तो उल्लास, उपकार है तो कृतज्ञता, महत्व है तो दीनता तुलसी के हृदय में विम्ब प्रतिबिम्ब भाव से विद्यमान है।” इसी आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी कवियों में तुलसी की भावुकता सर्वोपरि है।

कला पक्ष

तुलसी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ रससिद्ध कवि थे। उनकी दृष्टि आदि से लेकर अन्त तक भाव पर अधिक रही है। तथापि उनके काव्य में कला पक्ष का महत्वपूर्ण स्थान है। उनकी काव्य-कृतियाँ चमत्कारपूर्ण, अनुपम अभिव्यक्ति पद्धति, समृद्ध भाषा शैली, उत्कृष्ट अलंकार योजना आदि से समाविष्ट होकर उच्चकोटि की बन गयी है।

भाषा- तुलसी की कृतियों को पढ़कर इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि कवि का भाषा पर असाधारण अधिकार था। उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा दोनों का सुन्दर और अधिकारिक प्रयोग किया है। रामचरितमानस की रचना पश्चिमी अवधी तथा पार्वती मंगल, जानकी मंगल और रामलाल नहछू की रचना पूर्वी अवधी में हुई है। कवितावली, विनय पत्रिका और गीतावली की रचना सरस ब्रज भाषा में हुई है। उनकी भाषा प्रसंगानुकूल है। वह कहीं सारगर्भित है तो कहीं पर मुहावरेदार है। उनकी भाषा में शिथिलता नहीं है, वह भावों की अनुगामिनी है। भावों के अनुसार भाषा का रूप बदलता रहा है। भाषा में प्रसाद, माधुर्य और ओज तीनों गुण मिलते हैं। उदाहरणार्थ-

विकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा।

चातक, कोकिल वीर चकोरा। कूजत विहग नवत मन मोरा।

-माधुर्य गुण

कर्कश और ओजपूर्ण और भावानुकूल भाषा का एक उदाहरण-

चरन चोट चटकन चकोर अरि उर सिर बज्जत ।

विकट कटक विछरत बीस बारिंदु जिमि गज्जत ।।

उनकी संस्कृत गर्भित भाषा का स्वरूप-

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादि देवासुरा।

यत्संवादमृषैव भाति सकलं रज्यों यथाहे भ्रमः ।।

कहीं कहीं उनकी स्तुतियाँ संस्कृत में होते हुए अत्यन्त सरल है। उनमें पदचयन एवं गीतात्मकता का सुन्दर समन्वय हुआ है-

श्रीरामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भव भय दारुणाम।

नवकंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कजारुणम ||

तुलसीदास पर भाषा सम्बन्धी सामयिक प्रभाव पड़ा। इसीलिये उनकी भाषा में अरबी-फारसी के शब्दों का यत्र-तत्र प्रयोग मिलता है। तुलसी ने अपनी रचनाओं में इतना अधिक अरबी फारसी शब्दों का उपयोग किया है उतना शायद हिन्दी के किसी पुराने या नये कवि ने किया हो। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अरबी फारसी भाषा के अनुकूल और सटीक प्रयोग से उनकी भाषा के सौन्दर्य में वृद्धि ही हुई है-

(i) जानत न क्रूर कछु किसब कबारु है।

इन्हकार हुनर न कविनड ओरा ।।                       -अरबी

(ii) कामिहि नारि पियारि जिमि लोभहि जिमि प्रियहाम्

जिनके गुमान सदा सोलिस संग्राम घी ।।              -फारसी

मुहावरे तथा लोकोक्तियों का भी प्रयोग तुलसीदास के काव्य में प्रचुर मात्रा में हुआ है

(i) अंजन कहाँ आँखि जेहि फूटै

(ii) कहाँ कालिमा ध्वैहौ।

(iii) सौ दिन सोने को कब आइहौं

(iv) मोहितौ सावन के अंधहि ज्यो सूझत रंग हरयो            – मुहावरे

(i) मेरो सब पुरुषारथ थाके, मन मोदकन कि भूख बुताई ।

(ii) माँगि कै खैबो मसीद की सोइबौ,

लेबी को एक न देव को दोउ ।                                        -लोकोक्तियाँ

अलंकार योजना- अलंकारों के प्रयोग में तुलसीदास का अपना एक दृष्टिकोण था। उन्होंने भावों का उत्कर्ष दिखाने तथा वस्तुओं के रूप में गुण और क्रिया का तीव्र अनुवभ कराने के लिये अपनी रचनाओं में विभिन्न अलंकारों द्वारा चमत्कार ही नहीं उत्पन्न किया, बल्कि उनके द्वारा उन्होंने भावों की रमणीयता और भावानुभाव की तीव्रता प्रदान भी की है। तुलसी के प्रिय अलंकार अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, अतिश्योक्ति और स्वयं रूपक रहे। इनके द्वारा भावों की अभिव्यक्ति से उन्हें विशेष सहायता मिली। इसीलिये अलंकारों के प्रति उनका विशेष आग्रह रहा है। श्लेष, यमक, दृष्टान्त, विभावना, तुल्ययोगिता, व्याजस्तुति आदि अलंकार भी उनकी रचनाओं में देखे जा सकते हैं-

(1) तुलसी मन रंजन रंजित अंजन नैन सुखंजन जातक हो ।  सजनी ससि में समसील उमै नवनील सरोरुह से विकसे ।।                    – अनुप्रास

(ii) लोचन जल रहि लोचन कोना, जैसे परम कृपन कर सोना          -उपमा

(iii) इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देवावत नगर मनोहर ।। अथवा नव अजलोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणाम् ।            -रूपक

(iv) लता भवन ते प्रकट भयो तेहि अवसर दोउ भाई। विकसे जुग जुग विमल विधु जलद पटल बिलगाई ।।            – उत्प्रेक्षा

(v) खंजन सुक कपोत मृग मीना मधुप निकर कोकिल प्रवीना ।। कुन्दफली दाड़िम दामिनी। सरद कमल ससि हे भामिनी ।।            – अतिशयोक्ति

(vi) चाटत रह्यो स्वान पातरिज्यों कबहूँ न पेट भरयो । सो हौं सुपरित नाम सुधारत पेखत परिस घरौ ।।                – दृष्टान्त

(vii) चम्पक हरवा गलिमिलि अधिक सोहाय ।

जानि परै सिय हियरे जब कुम्हिलाय ।।

(viii) कपि करि हृदय विचारि, दीन्ह मुद्रिका डारितब।

जानि अशोक अंगार सीय हरषि उरु करि गहयो।            – उन्मीलित

(ix) बिनपद चलै सुनै बिनु काना कर बिन करम करें विधि नाना।

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी वक्ता बड़ जोगी ।।      – भ्रान्तिमान

 उल्लेख उपरोक्त उदाहरण इस तथ्य को प्रमाणित कर देते हैं कि तुलसी के काव्य में अलंकारों का सुन्दर, समन्वित और आकर्षक प्रयोग हुआ है।

शैली एवं छन्द योजना- तुलसीदास ने अपने समय में प्रचलित सभी काव्य शैलियों का प्रयोग किया। छप्पय, दोहा, सूफियों की मसनबी शैली, सूक्तिपरक दोहा शैली, कवित्त, सवैया, लोकगीतों में प्रचलित सोहर आदि काव्य शैलियों का सफल प्रयोग किया है। मानस में जायसी द्वारा प्रयुक्त मसनवी शैली, गीतावली व विनय पत्रिका में विद्यापति की गीत पद्धति, कवितावली में सवैया एवं कविक्त शैली, दोहावली में नीति उपदेश परक सूक्ति पद्धति शैली का प्रयोग कवि ने किया। राचरितमानस में एक ही कृति में विभिन्न छन्दों और काव्य शैलियों का प्रयोग मिल जाता है-

चौपाई, दोहा, सोरठा, छप्पय, कवित्त, सवैया आदि। कुछ उदाहरण प्रस्तुत है-

(i) गुरु अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदय आनन्द विसेषी।।

भरतहिं धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तम मानुस बानी ।।

(ii) तब मुनि बोले भरत सन सब संकोचु तजि तात ।

कृपासिन्धु प्रिय बन्धु सन कहहु हृदय कै बात ।।            -दोहा

(iii) कतुहुँ विपट मधुर उपारि परसन वरष्पत।

कतहुँ बाजि सों बाजि मद गजराज करण्पत ।।           – छप्पय

(iv) वरदन्त की पंगति कुन्दकली, अधराधर पल्लव खोलन की।

चपला चमकै धनबीच जगै छबि मोतिन माल अमोलन की ॥

(v) जे आपकारी चार तिम्हकर गौरव मान्य तेड़ ।     -सवैया

मन क्रम बचन लवार तेइ वकता ललि काल महँ ।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “इस युग में प्रचलित ऐसी कोई भी काव्य पद्धति नहीं थी जिस पर उन्होंने अपनी छाप न लगा दी हो । चन्द के छप्पय, कबीर के दोहे, सूरदास के पद, जायसी का दोहा-चौपाई, रीतिकारों के कवित्त-सवैये, रहीम के बरवै गाँव वालों के सोहर आदि जितने प्रकार की छन्द पद्धतियाँ लोक में प्रसिद्ध थीं, सबको उन्होंने असाधारण प्रतिमा के बल पर आपने रंग दिया।” इस प्रकार हम देखते हैं कि भाव पक्ष की तरह तुलसी का कला पक्ष भी अपने चरमोत्कर्ष पर है। उनकी भाषा, अलंकार योजना, शैली भावोत्कर्षक में अत्यन्त सहायक हुई है तथा कला पक्ष की प्रौढ़ता से काव्य आकर्षक मधुर एवं स्पष्ट हो गया है।

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Anjali Yadav

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