हिन्दी साहित्य

निर्गुण भक्ति साहित्य के उदय, परिस्थिति एवं स्वरूप

निर्गुण भक्ति साहित्य के उदय, परिस्थिति एवं स्वरूप
निर्गुण भक्ति साहित्य के उदय, परिस्थिति एवं स्वरूप

निर्गुण भक्ति साहित्य के उदय, परिस्थिति एवं स्वरूप पर प्रकाश डालिए।

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में भक्ति की दो धाराएं-सगुण तथा निर्गुण प्रवाहित हुई। सगुण धारा के अन्तर्गत राम कृष्ण भक्ति की शाखाएं आती हैं, निर्गुण के अन्तर्गत सन्त तथा सूफियों का काव्य आता है। आचार्य शुक्ल ने नामदेव एवं कबीर द्वारा प्रवर्तित भक्ति-धारा को ‘निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा’ की संज्ञा से अभिहित किया है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘निर्गुण भक्ति साहित्य’ तथा डॉ० रामकुमार वर्मा ने इसे ‘सन्त-काव्य-परम्परा’ का नाम दिया है। ज्ञानाश्रयी शब्द से यह भ्रांति उत्पन्न होती है कि इस धारा के कवियों ने ज्ञानतत्व को सर्वाधिक महत्व दिया होगा, जबकि वास्तव में इन्होंने प्रेम के सम्मुख समस्त ज्ञानराशि को तुच्छ माना है। भक्ति का आलम्बन सगुण आश्रय ही उपयुक्त है, अतः निर्गुण भक्ति साहित्य का नाम असमीचीन प्रतीत होता है। इस धारा के कवियों का विशेष दृष्टिकोण सन्त शब्द से भली-भाँति व्यक्त होता है, अतः इस धारा को सन्त काव्य की संज्ञा देना अपेक्षाकृत संगत प्रतीत होता है।

श्री पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने सन्त शब्द की व्युत्पत्ति शांत शब्द से मानी है और इसका अर्थ निवृत्ति मार्ग या वैरागी किया. है। श्री परशुराम चतुर्वेदी इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “सन्त शब्द उस व्यक्ति की ओर संकेत करता है जिसने सत रूपी परम तत्व का अनुभव कर लिया हो और जो इस प्रकार अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तद्रूप हो गया हो, जो सन्त स्वरूप नित्य सिद्ध वस्तु का साक्षात्कार कर चुका हो अथवा अपरोक्ष की उपलब्धि के फलस्वरूप अखण्ड सत्य में प्रतिष्ठित हो गया हो वही सन्त है।” आचार्य विनय मोहन के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से इसका अर्थ है जो आत्मोन्नति सहित परमात्मा के मिलन भाव को साध्य मानकर लोक-मंगल की कामना करता है। किन्तु हमारे विचारानुसार सन्त शब्द सत से बना है, जिसका अर्थ ईश्वरोन्मुख कोई भी सज्जन पुरुष हो सकता है। संकुचित अर्थ में निर्गुणोपासकों को ही सन्त कह दिया जाता है, जबकि सगुणोपासकों को भक्त । हिन्दी साहित्य में सन्त काव्य से कबीर, दादू, नानक और सुन्दरदास आदि के काव्य का ग्रहण होता है, जबकि सूर, तुलसी आदि के साहित्य को भक्ति काव्य कहा जाता है।

सन्त काव्य-धारा का उदय

विजेता यवनों ने केवल भारत में सशक्त साम्राज्य की स्थापना ही नहीं की बल्कि वे भारत के निवासी हो गये और हिन्दू तो यहाँ के मूल निवासी थे ही। ऐसी स्थिति में हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य की आवश्यकता अनुभव हुई। इधर इस्लाम धर्म हिन्दू धर्म पर छा जाना चाहता था, उधर हिन्दू धर्म के सामने अपनी रक्षा का प्रश्न था। दोनों धर्म एक-दूसरे को समझने के प्रयास में थे। परिणामस्वरूप दोनों धर्मों के निकट आने से हिन्दी साहित्य में एक ऐसी काव्य धारा का उदय हुआ जो सन्त काव्य धारा के नाम से अभिहिति हुई। इस शाखा के कवियों ने निर्गुणवाद के आधार पर हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य का प्रयास किया। हिन्दुओं का निरंकारवाद और मुसलमानों का एकेश्वरवाद इस काव्य धारा का मिलन बिन्दु बन गया। इस दिशा में कबीर की वाणी का स्वर अधिक तीव्र हो उठा। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम दोनों में व्यापक रूप से विद्यमान रूढ़ियों एवं भ्रान्तियों पर कठोर प्रहार कर राम-रहीम को एकता का प्रतिपादन किया। यह मध्यम तथा निभ्रान्त मार्ग था ।

सन्त काव्य-धारा पर केवल इस्लाम धर्म का ही प्रभाव नहीं था, दक्षिण के विद्वान आचार्यों के धार्मिक सिद्धान्तों तथा नाथ सम्प्रदाय की योग-साधना ने भी इसे प्रभावित किया। देश की तात्कालिक परिस्थितियों ने भी उक्त धारा पर अपना प्रभाव डाला। मुसलमान मूर्ति-भंजक थे और हिन्दू मूर्ति पूजक । वे हिन्दुओं के आराध्य देवों की मूर्तियाँ तोड़ते और मन्दिर ढहाते थे। इस विपन्नावस्था में सन्तों ने निर्गुणोपासना पर बल देकर हिन्दुओं के हृदय में लगने वाली ठेस से उनकी रक्षा की। भला हृदय मन्दिर में निवसित ईश्वर के निराकार रूप को कौन भंग कर सकता था। अतः कबीर आदि ने लोक-जीवन को निराकार ब्रह्म की उपासना का आश्रय कर उनकी मूर्ति भंजकों से रक्षा करनी चाही। कबीर ने अपनी ओजस्वी वाणी में बताया कि दोनों का ईश्वर एक है जो प्रत्येक घट में विद्यमान है। गुरु कृपा से माया तथा अज्ञान को दूर करके ही उसे प्राप्त किया जा सकता है। फिर व्यर्थ में यह धार्मिक कलह क्यों ? डॉ० रामकुमार वर्मा ने इस सम्बन्ध में लिखा है- “एक तो मुसलमानी धर्म का व्यापक किन्तु अदृष्ट प्रभाव हिन्दू-धर्म की अनिश्चित परिस्थिति उस समय के हिन्दू साहित्य में निर्गुणवाद के रूप में ही प्रकट हो सकती थी, जिसके लिए कबीर की वाणी सहायक हुई।

सन्त काव्य-धारा का नामकरण- इस धारा को विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से अलग-अलग नाम दिये हैं। आचार्य शुक्ल ने नामदेव और कबीर द्वारा प्रवर्तित भक्ति-धारा को ‘निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा’ की संज्ञा दी है जबकि डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे ‘निर्गुण भक्ति-साहित्य’ और डॉ० रामकुमार वर्मा ने इसे सन्त काव्य परम्परा कहना युक्ति युक्त माना है। ‘ज्ञानाश्रयी’ से ज्ञान तत्व के प्राधान्य की भान्ति होती है जबकि इस धारा को कवियों ने अपने सिद्धान्तों में भक्ति के प्रतीक प्रेम को ही प्रधानता दी है। प्रेम के आगे तो समस्त ज्ञान- राशि तुच्छ है। इधर भक्ति का आलम्बन सगुण आश्रय ही उपयुक्त है अतः ‘निर्गुण ‘साहित्य’ का नाम भी समीचीन मालूम नहीं होता। यदि ‘सन्त’ शब्द को ठीक प्रकार समझ लिया जाय तो इस धारा को ‘सन्त काव्य’ की संज्ञा देना अधिक संगत प्रतीत होगा। श्री पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल ने संत शब्द की व्युत्पत्ति शान्त शब्द से मानी है, जिसका कि तात्पर्य है निवृत्ति मार्गी या वैरागी। श्री परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार सन्त शब्द के अभिप्राय उस व्यक्ति से है जिसने सन्त को पहचान लिया हो और उसके साथ तद्रूप हो गया हो। आचार्य विनय मोहन के अनुसार संत से अभिप्राय उससे है तो आत्मोन्नति सहित परमात्मा के मिलन-भाव को साध्य मानकर लोक-मंगल की कामना करता हो। हमारी दृष्टि से कोई भी ईश्वरोन्मुख सज्जन व्यक्ति सन्त हो सकता है। किन्तु सामान्य व्यवहारिक अर्थ में निर्गुणोपासक सन्त माने जाते हैं और सगुणोपासक भक्त ।

परिस्थितियाँ

सामाजिक परिस्थिति- धर्म और राजरीति का समाज के साथ अटूट सम्बन्ध है। तत्कालीन राजनीतिक और धार्मिक दशायें अत्यंत शोचनीय थीं। शासक वर्ग लूटे हुए अपार धन से ऐश्वर्य और विलास में उत्पन्त था। परिणामतः समाज भी पतनोन्मुख हो गया और उसके आचार तथा व्यवहार में शैथिल्य आ गया। कनक और कामिनी के विरोध में सन्त कवियों ने अपनी वाणी में जो प्रखरता उत्पन्न की है भले ही वह साधना पक्ष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, साथ-साथ वह तत्कालीन समाज की विलासिता की ओर भी प्रकारान्तर से संकेत करती है। उस समय के समाज में वर्गभेद भी पर्याप्त था जिसका कि सन्त कवियों ने डटकर प्रतिरोध किया। यह प्रतिरोध विदेशियों के धर्म प्रचार का मुकाबला करने के लिए आवश्यक था। सन्त कवियों ने “हरि को भजे सो हरि का होई” के सिद्धांत की प्रतिष्ठा कर धर्म सशक्त बनाया। मुसलमान शासक वर्ग से सम्बद्ध थे, अतः वे अपने-आपको श्रेष्ठ समझते थे तथा हिन्दुओं को हेय दृष्टि से देखते थे। दूसरी ओर हिन्दू मुसलमानों को विधर्मी तथा अत्याचारी होने के कारण घृणा की दृष्टि से देखते थे। दोनों वर्ग अपने सांस्कृतिक दृष्टिकोण में अलग-अलग थे और दोनों के आचार-विचार भी भिन्न थे। दोनों जातियों में परस्पर वैमनस्य था । संक्षेप में कहा जा सकता है कि उस समय सामाजिक स्थिति अत्यंति अव्यवस्थित थी।

राजनीतिक परिस्थिति- सन्त संप्रदाय का आविर्भाव-काल विक्रम की 15वीं शताब्दी है जबकि उत्तरी भारत राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत अव्यवस्थित था। सं० 1445 में दिल्ली का शासन तैमूर के निर्मम अत्याचार को देख चुका था। 15वीं शती में दिल्ली का शासन तुगलक, सैयद और लोदी वंशों के हाथ में रहा। इस काल में राज्य विस्तार लिप्सा के कारण निरंतर युद्ध होते रहे तथा करवाल के बल पर धर्म प्रचार भी । जनता सामान्यतः राजनीतिक चक्र के प्रति उदासीन थी और साथ-साथ धर्म पर आघात लगने के कारण मन ही मन विक्षुब्ध और असन्तुष्ट थी। राजनीति में कोई पवित्रता नहीं रह गई थी। उसमें कूटनीति, हिंसा और छल को उचित समझा गया। जनता की शासक वर्ग के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। अधिकांश मुसलमान शासकों ने धर्म का प्रचार करते समय अपार धन के लोभ में तथा अपने आप को गाजी सिद्ध करने के लिए हिन्दू धर्म के प्रतीक मन्दिरों और मूर्तियों को तोड़ा। हिन्दू जनता में इसकी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक थी। परिणामस्वरूप जनता का ध्यान समाज और धर्म के संगठन की ओर गया। दक्षिण में जो शांतिमय आंदोलन चला था अब उत्तर भारत में उसकी बागडोर जनता के कवियों के हाथ में आई और वे समाज की व्यवस्था के लिए जन-भाषा में जन-जागरण के गीत गाने लगे। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम भेद की खाई को पाटने के लिए पूर्ण प्रयत्न जुटाये ।

कुछ साहित्यकारों का मत है कि इस देश में मुसलमानों का आगमन न हुआ होता तो हमारा साहित्य नब्बे प्रतिशत उसी भांति लिखा जाता, जिस भांति वह वर्तमान रूप में है क्योंकि धर्म की प्राचीन परम्परायें इतनी सुदृढ़ थीं कि उन्हीं के प्रभाव से साहित्य का विकास होता चला गया। इस कथन में संपूर्ण सत्य नहीं है। कबीर के साहित्य में जो स्वर है, उसके लिए पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार हो चुकी थी। हाँ, उस स्वर में उग्रता के लिए उस समय की राजनीतिक परिस्थितियां अवश्य उत्तरदायी हैं।

धार्मिक परिस्थिति- सन्त मत का भवन कागद लेखी पर आधारित न होकर आंखिन देखी की नींव पर आधारित है। इसमें निगम, आगम, पुराणादि का इतना महत्व नहीं है जितना कि अनुभव ज्ञान का। किन्तु ऐसी भी बात नहीं है कि यह मत भारत की प्राचीन धार्मिक मान्यताओं एवं धारणाओं की सर्वथा उपेक्षा करके चला हो। भारतीय धर्म साधना के इतिहास पर दृष्टिपता करने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि सन्त काव्य बौद्ध धर्म और उसके साहित्य से अनुप्राणित है। बौद्ध धर्म से महायान और हीनयान संप्रदायों का आविर्भाव हुआ। महायान से मंत्रयान, मंत्रयान से वज्रयान और इसी वज्रयान की तांत्रिका की प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय का विकास हुआ और नाथ संप्रदाय के प्रेरणामूलक तत्वों को ग्रहण करके सन्त मत अवतरित हुआ। बौद्ध धर्म से लेकर नाथ संप्रदाय तक इस प्रक्रिया में जो जीवन तत्व उभरे, उन सबका समावेश सन्त काव्य में हुआ। इसमें बौद्ध धर्म का शून्यवाद, नाथ संप्रदाय की योग और अवधूत भावना तथा वज्रयानी सिद्धों की संघा भाषा की उलटबांसियों तक का समाहार है। बौद्ध धर्म का उदय वैदिक धर्म की याज्ञिक कर्मकांड की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। अतः सन्त काव्य में अवतार, मूर्ति, तीर्थ, व्रत, माला तथा बाह्य धार्मिक आडम्बरों का कड़ा विरोध किया गया। दूसरी ओर इसमें शून्य, काया, तीर्थ, सहज समाधि, योग, इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, षटचक्र, सहस्रदल कमल, चन्द्र और सूर्य जैसे प्रतीकों को ग्रहण किया गया। अतः यह स्पष्ट है कि सन्त काव्य अपने मौलिक विचारों की कोटि में बौद्ध धर्म की परम्परा के अन्तर्गत है तथा उसका सम्बन्ध बौद्ध धर्म के परवर्ती संप्रदायों से होता हुआ प्रत्यक्ष रीति से नाथ संप्रदाय से है।

सन्त मत वैष्णव धर्म से भी प्रवाहित हुआ है। यह कुछ अजीब सा लगता है, यदि यह कहा जाए कि दक्षिण से आये हुए व्यापक वैष्णव भक्ति के आंदोलन से सन्त मत अछूता रह गया। दक्षिण में ईसा की छठी शती में आलवार भक्तों के द्वारा भक्ति का आंदोलन आरंभ हो चुका था चाहे मूल सैद्धान्तिक रूप में इसका आविर्भाव बहुत प्राचीन काल में स्वीकार किया जाए। आठवीं शती में कुमारिल और शंकराचार्य द्वारा याज्ञिक कर्मकांड की पुनः प्रतिष्ठा और अद्वैतवाद की स्थापना के पश्चात् वैष्णव भक्ति का स्रोत कुछ अवरुद्ध-सा हो गया। 12वीं शती में नाथमुनि ने भक्ति की दार्शनिक व्याख्या की और एक शताब्दी के पश्चात् रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद द्वारा भक्ति की चरम सार्थकता सिद्ध की। इसके अनन्तर मध्य और निम्बार्क ने भी भक्ति के पक्ष को सफल बनाया। रामानन्द ने रामानुजाचार्य के भक्ति सिद्धांतों का जनभाषा में उत्तरी भारत में सफलता से प्रचार किया। शंकर का ज्ञान तथा योग शैवधर्म का आश्रय लेकर नाथ संप्रदाय के रूप में भारत के अनेक स्थानों में प्रचारित होता रहा। दक्षिण से उत्तर की ओर आने वाले इस भक्ति आंदोलन को काफी बाधाओं का सामना करना पड़ा। पहली बाधा तो शैव ‘धर्म के ज्ञान और योग की थी, जो नाथ संप्रदाय में घोषित हो रही थी। यह भक्ति की लहर जब दक्षिण से महाराष्ट्र में पहुंची तो उस समय वहां नाथ संप्रदाय में शैव प्रभाव शेष था। 1290 ई० में लिखित ज्ञानेश्वरी के रचयिता ज्ञानेश्वर नाथ संप्रदाय के अनुयायी थे। गीता के आधार पर लिखी हुई उनकी ज्ञानेश्वरी में नाथ संप्रदाय का स्पष्ट प्रभाव है। ज्ञानेश्वरी के समकालीन नामदेव ने 1270 में भगवान विट्ठल की उपासना की, जिसमें नामस्मरण का अधिक महत्व है। विट्ठल संप्रदाय वैष्णव और शैव संप्रदाय का मिश्रित रूप है अतः इस संप्रदाय के अनुयायी शिव तथा विष्णु में कोई अन्तर नहीं मानते थे । विट्ठल सर्वव्यापी ब्रह्म रूप में गृहीत होकर समस्त महाराष्ट्र में पूजे जाने लगे। इस प्रकार महाराष्ट्र में आकर दक्षिण की भक्ति में आत्म-चिन्तन के तत्व का समावेश हुआ और भक्ति में रहस्यवाद की अनुभूति उत्पन्न हुई। भक्ति के इस संप्रदाय में जाति और वर्ग भेद नहीं था। इसमें नाम-स्मरण पर विशेष बल दिया गया। इसमें कर्मकांड की अपेक्षा हृदय की पवित्रता और शुद्धता पर बल दिया गया तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए भक्ति का यह द्वार मुक्त रखा गया। नामदेव, अलाउद्दीन खिलजी तथा उसके सेनापति मलिक काफूर के आतंक को उनके द्वारा निर्ममतापूर्वक तोड़ी गई मूर्तियों को देख चुके थे, अतः उन्होंने निराकार की उपासना पर अधिक बल दिया। इस प्रकार विट्ठल की भक्ति के तीन उपकरण माने जा सकते हैं- भक्ति का प्रेम तत्व, नाथ संप्रदाय का चिन्तन और मुसलमानी प्रभाव से मूर्तिपूजा का वर्जित वातावरण । ये सभी बातें सन्त संप्रदाय में देखी जा सकती हैं। उत्तर भारत में सन्त संप्रदाय का जो उत्थान वैष्णव भक्ति को लेकर हुआ था उसका पूर्वार्ध महाराष्ट्र में विठ्ठल संप्रदाय के सन्तों द्वारा प्रस्तुत हो चुका था। हाँ, उत्तर भारत में प्रचारित होने वाले सन्त संप्रदाय में दो और तत्वों का समावेश हुआ- रामानन्द की वैष्णवी भक्ति के नवीन प्रयोग और मुसलमानों की हंसा एवं प्रेममयी दोनों प्रवृत्तियां सन्त संप्रदाय के प्रतिष्ठित होने की भूमिकायें प्रस्तुत कर रही थीं । सन्त संप्रदाय में नाम-स्मरण को अत्यंत महत्ता दी गई है और विशेषतः राम नाम पर बल है। विष्णु के अन्य नामों को प्रायः इतना महत्व नहीं दिया गया है। यह प्रभाव साक्षात् रूप से रामानन्द का है। सन्त काव्य में गृहीत राम दार्शनिक न होकर अजन्मा और निर्विकार है। सूफी मत अपनी विकासशील अवस्था में वेदान्त का ऋणी है और इस मत के सिद्धांत प्रायः वे ही थे जो शंकर के अद्वैत के । भारतीय दृष्टि से सूफी मत अद्वैतवाद और विशिष्टाद्वैतवाद का सम्मिश्रण है। सन्त काव्य में जिस खुमार का वर्णन है यह सूफी प्रभाव है क्योंकि भारतीय साधना-पद्धति में प्रेम की ऐसी उन्मादक दशा का कहीं भी वर्णन नहीं है। इस प्रकार इस संप्रदाय में धार्मिक दृष्टि के ये प्रभाव देखे जा सकते हैं।

  • (क) बौद्ध धर्म की विकसित हुई वैदिक कर्मकांड की प्रवृत्ति तथा वज्रयान की प्रतिक्रिया में उत्पन्न नाथ संप्रदाय की अनुभूति तथा योग परम्परा ।
  • (ख) विठ्ठल संप्रदाय की प्रेमासक्ति तथा रहस्यमयता ।
  • (ग) रामानन्द के प्रभाव से उत्पन्न अद्वैतवाद और विशिष्टताद्वैतवाद की सम्मिलित विचारधारा में भक्ति की साधना ।
  • (घ) सुफी लोगों का प्रेम का खुमार।

आचार्य शुक्ल इस सम्बन्ध में लिखते हैं-“वैष्णवों से उन्होंने अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद लिए। इसी से उनके (कबीर) तथा निर्गुणवाद वाले और दूसरे सन्तों के वचनों में कहीं भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है, कहीं योगियों के नाड़ी-चक्र की, कहीं सूफियों के प्रेम की कहीं पैगम्बरी कट्टर खुदावाद की और कहीं अहिंसावाद की। अतः तात्विक दृष्टि से न तो हम उन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते हैं और न एकेश्वरवादी। दोनों का मिला-जुला भाव इनकी बानी में मिलता है।”

साहित्यिक परिस्थिति – जिन धार्मिक संप्रदाय ने सन्त काव्य की दार्शनिक पृष्ठभूमि तैयार की उन संप्रदायों की साहित्यिक प्रवृत्तियों की सन्त काव्य में स्वतः समावेशहो गया। वज्रयानी सिद्धों ने जीवन के प्रति सहजानुभूति को प्रधानता दी। उन्होंने अंधविश्वासों की परंपरा को जड़ से उखाड़ फेंकने की चेष्टा की है। इन्होंने कर्मकांड की भी खूब खिल्ली उड़ाई। तिल्लोपाद ने लिखा है- “सहज से चित्त विशुद्ध करो। इस जन्म में मोक्ष और सिद्धि प्राप्त करोगे। तीर्थ और तपोवन का सेवन मत करो। देहमात्र पवित्र करने से तू शांति प्राप्त नहीं कर सकेगा।” कबीर का भी यही दृष्टिकोण है- “यदि नग्न फिरने से योग होता तो. 1. फिर वन के सब मृगों को मुक्ति मिल जाती, यदि मूंड मुंड़ाने से मुक्ति मिलती तो सब भेड़ों को मुक्ति प्राप्त हो गई होती।” इन दोनों स्वरों में अन्तर इतना है कि एक कुछ कोमल है और दूसरा अपेक्षाकृत अधिक प्रखर कारण, सिद्धों का संघर्ष प्रधान रूप से जैनों से था जो कि संघर्ष करना चाहते ही नहीं थे तथा कबीर का संघर्ष उन संप्रदायों से था जो कि विद्वेषाग्नि-ग्रस्त तथा अहंमानी थे। इसलिए कबीर का स्वर अधिक प्रखर एवं उत्तेजक था। यों सहज, गुरु उपदेश, शून्य, निरंजन कबीर ने ज्यों के त्यों सिद्धों की विचारधारा से ग्रहण किये हैं। शैली दृष्टि से भी सिद्धों की संध्या भाषा में जो कूट और प्रतीक है, उनसे कबीर के रूपक और उलटबांसियों का निर्माण हुआ। संभव है यह प्रभाव सन्तों में नाथों के माध्यम से आया हो।

नाथ संप्रदाय में योग का विशेष महत्व है। शैव प्रभाव के कारण नाथ संप्रदाय में जीव और ब्रह्म की मीमांसा आरंभ हुई और उपासना सदाचार पर बल दिया गया। सन्त संप्रदाय का सीधा सम्बन्ध नाथ संप्रदाय से है। नाथ संप्रदाय की आचारनिष्ठा, विवेकसम्पन्नता, अंधविश्वासों के प्रति कठोरता, कर्मकांड की निरर्थकता सन्त संप्रदाय में सीधी चली आई।

दक्षिण में महाराष्ट्र देश में प्रचलित विट्ठल- भक्ति-संप्रदाय में मानिसक भक्ति और नाम स्मरण को अधिक महत्ता प्रदान की गई। इसमें प्रेमासिक्त और रहस्यमयता की भावनायें भी समाविष्ट हुई। ये समस्त प्रवृत्तियाँ सन्त साहित्य में दृष्टिगोचर होती हैं। कहीं-कहीं पर तो कबीर ने विट्ठल का नाम आराध्य दवे के रूप में बड़ी श्रद्धा से लिया है।

रामानन्द ने उत्तरी भारत में रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद का जोरों से प्रचार किया। उन्होंने विष्णु के सगुण और निर्गुण रूपों की उपासना पर बल दिया। उनकी शिष्य परम्परा में सगुणवादी तथा निर्गुणवादी दोनों प्रकार के व्यक्ति थे। कबीर रामानन्द के शिष्य थे। रामानन्द की भक्ति-पद्धति का सन्त काव्य पर प्रभाव पड़ना अनिवार्य था। कबीर निर्गुणवादी तो थे ही किन्तु यह बात बड़े कौतूहल की है कि उनमें सगुण भावना का भी कहीं-कहीं पर जहाँ कि उन्होंने ब्रह्म के लिए उन नामों का प्रयोग किया है, जिनका सम्बन्ध ब्रह्म के सगुण रूपों या अवतारों से है, समावेश हो गया है, किन्तु उसका अभिप्राय एकमात्र निर्गुण ब्रह्म से है । अस्तु, निर्गुण संप्रदाय भक्ति के उस स्वरूप की जिसमें सगुण ब्रह्म के रूप की अपेक्षा होती है तथा प्रेममयी आसक्ति आवश्यक होती है, की अवहेलना नहीं कर सका ।

सन्त साहित्य पर सूफियों के प्रेम की मादकता का भी निश्चित रूप से प्रभाव पड़ा है। सन्त कवियों ने सूफियों से अनेक प्रतीक लिये। शैली की दृष्टि से भी सन्त काव्य सूफियों से प्रभावित दृष्टिगोचर होता है।

निःसन्देह उपर्युक्त संप्रदायों का सन्त काव्य पर प्रभाव पड़ा है किन्तु वहां अन्धानुकरण नहीं हुआ। उसमें सन्तों की स्वतंत्र चेतना भी बनी रही है। यह प्रभाव युगानुकूल संशोधनों के साथ आया। इस साहित्य में परम्परा वहीं तक है जहां तक जीवन में कर्मकांड रहित निर्मल प्रेम से ईश्वर की सहजानुभूति प्राप्त हो सकती है।

निर्गुण भक्ति का स्वरूप

विद्वानों का विचार है कि श्रद्धा और प्रेम का संयोग भक्ति है अथवा स्नेहपूर्वक ध्यान भक्ति है। इस प्रकार निर्गुण मत के सन्तों का ज्ञान प्रधान साहित्य भक्ति साहित्य की कोटि में नहीं आ सकता। भारतीय साधना में कर्मकांड, ज्ञानकांड और भक्तिकांड की चर्चा मिलती है। अतः स्पष्ट है कि सन्तों के ज्ञान प्रधान साहित्य को भक्ति के अन्तर्गत रखना असमीचीन है। है क्योंकि निर्गुण ब्रह्म ज्ञान का विषय तो हो सकता है किन्तु भक्ति का नहीं। निर्गुण का आलम्बन निराकार है जबकि भक्ति के लिए साकार अवलम्बन अनिवार्य है। अब विचारणीय प्रश्न यह उठता है कि ज्ञानमार्गी निर्गुण सन्तों के साहित्य को भक्ति साहित्य की परिधि में रखा जाये या नहीं ? ज्ञान मार्ग एवं भक्ति पद्धति के प्रवर्तक व प्रतिष्ठापक आचार्य शंकर का मत इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। उनके दो सिद्धांत सूत्र हैं- “ऋते ज्ञानातु न मुक्ति ।” तथा “अनुभव अवसानत्वात् ब्रह्मज्ञानस्य अर्थात् जान के बिना मुक्ति नहीं मिलती और ज्ञान- ब्रह्मज्ञान जब तक अनुभव अनुभूति में पर्यवसित नहीं हो जाता, तब तक उसकी सार्थकता नहीं है। उपर्युक्त सिद्धान्तों के व्यापक आलोक में ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग परस्पर विरोधी न होकर अभिन्नतः सम्बद्ध हैं तथा वे साधना के दो पक्ष हैं। ज्ञान की अनुभूति ही भक्ति है। अनुभूति के बिना ज्ञान शब्द ज्ञान मात्र है जिससे कोई भी सिद्धि संभव नहीं है। आलम्बन की साकारता अथवा निराकारता भक्ति के निर्धारक या नियामक तत्व नहीं हैं। तुलसी जैसे अनन्य सगुण भक्त को निर्गुण की सत्ता अमान्य नहीं है और कबीर जैसे निर्गुण सन्त व भक्त को सगुण की सत्ता अस्वीकार्य नहीं है। वस्तुतः सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति एक-दूसरे की पूरक हैं। सर्वजनसुलभता व दुर्लभता, इन दोनों के उपलक्षक तत्व हैं। इन्हें यदि सापेक्ष सोपान कह दिया जाये तो अनुचित नहीं होगा। ‘जिस प्रकार भक्ति या राग के मार्ग पर चलने वाले के लिए सत्य ज्ञान का महत्व है, उसी प्रकार ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले को राग या आराध्य से तादात्म्य की अनुभूति महत्वपूर्ण है। दोनों मार्ग परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं। राग मार्ग में वैराग्य, ज्ञान प्रभृति संपदायें भवद्विगायक राग से सदैव यथासंभव उत्पन्न होती रहती हैं। इस अंश में राग तथा वैराग्य मार्ग में कोई तात्विक अन्तर नहीं है।” ज्ञान जनित वैराग्य-निवृत्ति तथा भक्ति राग प्रवृत्ति में कोई विरोध नहीं है। भले ही सगुण भक्ति और निर्गुण भक्ति में आलम्बनगत भेद नहीं है किन्तु इन दोनों में समानतायें भी अत्यधिक हैं। उदाहरणार्थ- गुरु महिमा, सदाचार का महत्व, नाम-स्मरण, जप, कीर्तन, प्रेम-प्रकर्ष, अनुभूति का उत्कर्ष, सर्वात्मभाव से आत्मार्पण, विहल दैन्य एवं भगवत्वत्सलता आदि सगुण व निर्गुण दोनों पद्धतियों में समान रूप से उपलब्ध होती है। अतः निर्गुण को आधार मानकर चलने वाले ज्ञानमार्गी सन्तों तथा प्रेममार्गी सूफियों की अनुभूत्यात्मक ज्ञान तथा प्रेम की साधनायें व पद्धतियां भक्ति की व्यापक परिधि के अन्तर्गत आती हैं।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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