प्रशासनिक हिन्दी क्या है? प्रशासनिक हिन्दी के विभिन्न रूपों (गुणों) का वर्णन कीजिए।
प्रशासनिक भाषा- सरकारी कामकाज, बोलचाल और कार्यव्यवहार की भाषा प्रशासनिक भाषा कहलाती है। हिन्दी एक ऐसी समर्थ भाषा है जो सम्पूर्ण भारत में कमोबेश बोली एवं समझी जाती है। देश के सामाजिक विकास से इसका गहरा सम्बन्ध है। यह उच्च, मध्य, निम्न, शिक्षित, अर्द्ध-शिक्षित, अशिक्षित आदि सभी वर्गों की भाषा है। इसका अपना व्याकरण है, शब्दकोश है एवं औपचारिक शिक्षण रूप है। वस्तुतः यह एक जीवन्त भाषा है। और एक विकसित भाषा की भाँति सभा प्रकार्यों को पूरा करने में सक्षम है। यही कारण कि स्वाधीनता संग्राम के समय देश में जो राष्ट्रव्यापी आंदोलन चला, उस समय सुदूर उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक सारे भारतवर्ष को एक सूत्र में जोड़ने का कॉम हिन्दी ने ही किया। अखिल भारतीय भाषा के रूप में संस्कृत के बाद इसी ने ही सम्पूर्ण जनमानस को जोड़ने का कार्य किया। धीरे-धीरे प्रशासकीय कार्यों में भी अपना सिक्का जमाना शुरू किया और आज इसकी जड़ इस क्षेत्र में काफी गहरी हो चुकी है, इतनी गहरी हो चुकी है कि आज हम ‘प्रशासनिक हिन्दी’ पर अलग से विचार-विमर्श करने लगे हैं ताकि इसके मार्ग में आने वाली तमाम कठिनाइयों को दूर कर प्रशासन के क्षेत्र में अंग्रेजी के प्रभुत्व को अपदस्थ कर सकें।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् विद्वानों का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित हुआ कि भारतवर्ष के स्वाभिमान एवं गरिमा के अनुकूल हिन्दी को राजभाषा के रूप में विकसित किया जाए, क्योंकि भाषायी स्वाभिमान स्वतंत्र राष्ट्र का अभिन्न अंग होता है। हिन्दी को ही राजभाषा के पद पर सुशोभित करने के पीछे यह धारणा भी क्रियाशील थी कि हिन्दी केवल ज्ञान विज्ञान, अध्ययन, साहित्य आदि की ही भाषा न रहे, लोक-सम्पर्क भाषा ही न बने, अपितु प्रशासनिक भाषा का जामा पहनकर सरकारी काम-काज, बोलचाल तथा कार्यव्यवहार की भी भाषा बन जाये। इसके लिए वैधानिक व्यवस्था की गयी, मानवीय एवं भौतिक संसाधन जुटाये गये तथा सरकारी कार्यालयों व क्षेत्रों में ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास किया गया कि धीरे धीरे हिन्दी दैनिक कार्यों की भाषा बन जाए। इसी कारण राजभाषा के रूप में हिन्दी को सरकारी कामकाज का माध्यम चुन लिया गया। सन् 1950 में भारत के संविधान निर्माताओं ने हिन्दी को राजभाषा और सम्पर्क भाषा के पद पर आसीन करने की व्यवस्था थी। प्रारम्भ में यह निर्णय लिया गया कि अंग्रेजी का प्रयोग सन् 1963 तक चलता रहेगा और इसी बीच हिन्दी को पुष्पित-पल्लवित कर लिया जायेगा, परन्तु राजभाषा संशोधित अधिनियम, 1963 द्वारा यह व्यवस्था की गयी कि हिन्दी ही संघ की राजभाषा होगी, किन्तु अंग्रेजी के इस्तेमाल की छूट तब तक बनी रहेगी जब तक हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाने वाले सभी राज्यों के विधानमंडल अंग्रेजी का प्रयोग समाप्त करने के लिए संकल्प न पारित कर लें।
वास्तव में सरकार एक अमूर्त सत्ता है। इसके अधिकारों का उपयोग किसी अधिकारी विशेष द्वारा नहीं, वरन् अधिकारी समूह द्वारा होता है। ये सरकारी अधिकारी तंत्र के विभिन्न अधिकारियों के बीच अलग-अलग स्तरों पर विभाजित होते हैं। यही कारण है कि प्रशासनिक हिन्दी विशेषकर कार्यालयी हिन्दी की संरचना में वास्तविक कर्ता का लोप होता है। यदि वास्तविक कर्ता का प्रयोग होता भी है तो अप्रत्यक्ष रूप में या प्रतीक रूप में सरकारी अधिकारी का कोई भी निर्णय उसका निजी निर्णय नहीं होता, वह अमूर्त या अदृश्य सरकार का निर्णय होता है जिसने अपने अनेक अधिकारों में से एक वह अधिकार या उसके किसी अंश को अपनी ओर से दे रखा है और वह अधिकारी अमूर्त सरकार की ओर से उसका प्रयोग करता है। प्रत्येक भाषा की अपनी अभिव्यंजना शक्ति होती है। कार्यालयी भाषा में मुख्यतः अभिधा अभिव्यंजना शक्ति का प्रयोग होता है। प्रशासन में प्रयुक्त भाषा के स्वतः स्पष्ट एवं स्वतः पूर्ण होने की माँग के कारण यह अपेक्षा की जाती हैं कि इसकी वाक्य संरचना एकार्थी हो न कि अनेकार्थी। इसमें कम-से-कम संदिग्धार्थक्ता की अपेक्षा की जाती है। इसी संदर्भ में पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग होता है। स्वीकृति, अनुमोदन, अनुमति शब्दों के अलग-अलग संदर्भयुक्त प्रयोग है तथा आदेश, निदेश, अनुदेश शब्द अपना अलग-अलग आयाम रखते हैं।
प्रशासनिक हिन्दी के गुण-
प्रशासनिक हिन्दी के चार गुण (अथवा विशेषतायें) माने गये हैं, जो निम्नलिखित हैं-
(1) निर्वैयक्तिकता – यह कार्यालयी हिन्दी की प्रथम विशेषता या गुण है। इसके अनुसार सरकारी तंत्र में अधिकारों का वितरण सुनिश्चित क्रम में होता है। अतः प्रत्येक अधिकारी या तो अपने उच्चाधिकारी के आदेश का पालन करता है या निम्न अधिकारी को आदेश देता है या सरकार के निर्णयों की सूचना देता है। दूसरे शब्दों में, सरकारी अधिकारी का सरकारी आदेशों से कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं होता। वह अधिकारी व्यक्तिगत रूप में कुछ न कहकर निर्वैयक्तिक रूप में कहता है; जैसे पत्र भेजा जा रहा है। कार्यालय में व्यक्ति प्रशासन का अंग होता है, इसलिए कार्यालय के सभी पत्रादि प्रशासन की ओर से लिखे जाते हैं। यही कारण है कि कार्यालयी हिन्दी में कर्मवाच्य की प्रधानता रहती है, क्योंकि इसमें कथन व्यक्ति सापेक्ष न होकर व्यक्ति-निरपेक्ष होता है।
(2) स्वपूर्णता और स्पष्टता- प्रशासनिक हिन्दी में तथ्यों पर अधिक बल दिया जाता है। साथ मोयह अपेक्षा की जाती है कि वे तथ्य अपने आप में पूर्ण तथा स्पष्ट हो। प्रशासन के क्षेत्र में संदेह या भ्रांति को अलंकार नहीं, दोष माना जाता है। स्वपूर्णता एवं स्वस्पष्टता प्रशासनिक हिन्दी की अनिवार्य शर्त है। इसके अभाव में कभी-कभी पत्रों की उपेक्षा हो जाती है या कार्यवाही में विलम्ब हो जाता है। यदि संदेश का भावार्थ अथवा कथ्य स्पष्ट और पूर्ण होगा तो उस पर कार्यवाही करने में सुविधा होगी। कार्यालयी भाषा विषयानुसार विशिष्ट होती है। कई बार नियम विनियम इतने जटिल होते हैं कि वे पाठक के लिए दुर्बोध होते हैं। अतः उसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए एक शब्द के बाद दूसरा शब्द या एक वाक्य के बाद दूसरे वाक्य का भी प्रयोग करना पड़ता है। वास्तव में अभिव्यंजना-शक्ति अर्थ की पूर्णता और स्पष्टता पर ही निर्भर है। इसलिए स्वपूर्णता और स्वस्पष्टता को शैली का महत्वपूर्ण गुण माना जाता है। यह गुण अधिकारी या कर्मचारी की व्यक्तिगत क्षमता पर आधारित हैं।
(3) यथासंभव असंदिग्धता- प्रशासनिक भाषा में क्लिष्टता, अस्पष्टता तथा अप्रचलित प्रयोग से संदिग्धता की संभावना रहती है। संदिग्धतार्थकता प्रशासन के लिए घातक होती है। जो मूल बात कही जाती है उसका एक ही अर्थ होना चाहिए। द्विअर्थी या अनेकार्थी होने से कार्यवाही में या तो बाधा पड़ती है या उसमें कोई गलती होने की संभावना रहती है। अर्थ का संदिग्ध होना या अनिश्चित होना कार्यवाही में बाधा डालता है। अतः प्रशासनिक हिन्दी में लक्षण और व्यंजना का स्थान नहीं है। अभिधा-शक्ति प्रशासनिक हिन्दी की शक्ति है।
(4) वर्णनात्मकता – प्रशासनिक हिन्दी या कार्यालयी हिन्दी में आवश्यक तथ्यों का विवरण दिया जाता है। इस विवरण में विचाराधीन विषय से संबंधित सारी सामग्री को क्रमवार दिया जाता है। इसमें प्रत्येक मामले का संक्षिप्त विवरण देते हुए मूल कथ्य का परिचय दिया जाता है। इसमें मूल्यांकन की गुंजाइश कम रहती है, तथ्यों के वर्णन की अधिक अ प्रशासनिक हिन्दी में तथ्यों का सही-सही निरूपण अत्यावश्यक है।
शब्द सम्पदा- प्रत्येक भाषा की शब्द-संपदा विभिन्न स्रोतों से निर्मित होती है। यही स्थिति प्रशासनिक हिन्दी की भी है जिसका शब्दावली में विभिन्न स्रोतों के शब्द मिलते हैं। इसका कारण जैसा कि आरम्भ में लिखा जा चुका है, यह है कि इस देश में पहले राजभाषा संस्कृत थी, तत्पश्चात् अरबी-फारसी राजकाज की भाषा के रूप में प्रयुक्त होती रही और इसी कारण अदालतों की भाषा प्रायः अरबी-फारसी प्रधान उर्दू शैली रही है। ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजी ने राजभाषा का स्थान ले लिया। इन सभी भाषाओं का प्रभाव कार्यालयी हिन्दी पर पड़ना स्वाभाविक था। इसके अतिरिक्त हिन्दी में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द भी समाविष्ट हो गये। इस दृष्टि से प्रशासनिक हिन्दी की शब्दावली पर विचार किया जा रहा है। शब्द निर्माण में मुख्यतः संस्कृत को आधार के रूप में स्वीकार किया गया है। संस्कृत की संश्लिष्ट प्रकृति होने के कारण मूल शब्द या धातु के साथ उपसर्ग और प्रत्यय जोड़कर असंख्य शब्दों का निर्माण किया गया है। जैसे-विधि शब्द से विधिक, संविधि, विधान, संविधान, वैधानिक, संवैधानिक आदि शब्दों की रचना हुई है, जो एक ही रूपावली के अन्तर्गत आते हैं। इन सभी पर संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट है।
कार्यालयी हिन्दी में संस्कृत, अरबी-फारसी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के पर्याय भी यदा कदा प्रयुक्त होते हैं। कार्यालय सहायक इन पर्यायों में से किसी एक पर्याय का प्रयोग अपनी इच्छानुसार कर सकता है। शब्दावली के प्रचार-प्रसार के लिए यह छूट व्यावहारिक लगती है। इससे इसकी शब्द-संपदा में वृद्धि है। प्रशासनिक क्षेत्र में कुछ शब्द ऐसे भी प्रयुक्त होते हैं जिनका अर्थ सामान्यतः एक सा लगता है और साधारण बोलचाल में ऐसे शब्दों के लिए हम एक ही शब्द से काम चला सकते हैं, परन्तु जब कार्यक्रम की औपचारिकता का ध्यान रखते हुए यदि सरकारी प्रयोजनों के लिए उन शब्दों का प्रयोग किया जाए तो यह आवश्यक हो जाता है कि इसके लिए अलग-अलग शब्द प्रयोग में लायें। उदाहरणार्थ, आदेश, निर्देश, अनुदेश, अध्यादेश, समादेश शब्दों को लिया जा सकता है जो क्रमशः अंग्रेजी का आर्डर, डायरेक्शन, इंस्ट्रक्शन, आर्डिनेंस और कमांड के लिए प्रयोग में आते हैं। इसी तरह रिमार्क, कमेंट्स, ऑबजरवेशन, ओपिनियन, न्यूज आदि शब्दों का प्रयोग प्रशासनिक क्षेत्र में क्रमशः टिप्पणी, राय, मंतव्य, मत तथा विचार के अर्थ में होता है जबकि सामान्य बोलचाल में हम इन सबके लिए सलाह शब्द से ही काम चला सकते हैं। अतः प्रशासनिक भाषा में शब्द चयन में बड़ी सतर्कता आवश्यक है अन्यथा मूल सामग्री के अर्थ परिवर्तन में देर नहीं लगेगी।
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