शिक्षाशास्त्र / Education

योग और शिक्षा के सम्बन्ध | Relationship between yoga and education in Hindi

योग और शिक्षा के सम्बन्ध | Relationship between yoga and education in Hindi
योग और शिक्षा के सम्बन्ध | Relationship between yoga and education in Hindi

योग और शिक्षा के सम्बन्धों की विवेचना कीजिए ।

योग और शिक्षा के सम्बन्ध – योग दर्शन में शिक्षा के संदर्भ में स्वतंत्र रूप से कोई विचार नहीं किया गया हैं परन्तु उसकी तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा और आचार मीमांसा से शिक्षा संबंधी अनेक तथ्यों की जानकारी होती है। मनुष्य के अंतः करण (मन, अहंकार और बुद्धि) का वैज्ञानिक विश्लेषण योग दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है। यहां हम योग दर्शन के शिक्षा संबंधी विचारों को क्रमबद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

शिक्षा का आधार है जिस पर मानव जाति का सम्पूर्ण विकास टिका हुआ है। इसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास उसके ज्ञान व कला कौशल में वृद्धि व व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। दृष्टिकोण दार्शनिकों का विचार केन्द्र मनुष्य होता है। ये मनुष्य के वास्तविक स्वरूप की जानने तथा उसके जीवन का अंतिम उद्देश्य निश्चित करने का प्रयत्न करते हैं। मानव जीवन के अंतिम उद्देश्य की प्राप्ति का साधन मार्ग निश्चित करने में भी दार्शनिकों की रुचि होती है और इन सबके ज्ञान एवं प्रशिक्षण के लिए वे शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। इस प्रकार दार्शनिकों की दृष्टि से शिक्षा मनुष्यजीवन के अंतिम उद्देश्य की प्राप्ति का साधन होती है।

भौतिकवादी दार्शनिक शंकराचार्य जीवन को ही सत्य मानते हैं। इनकी दृष्टि से मनुष्य का अंतिम उद्देश्य सुखपूर्वक जीने के लिए यह आवश्यक हैं कि मनुष्य शरीर व मन से स्वस्थ तथा इंद्रिय भोग के साधनों से सम्पन्न हो। यह सब कार्य के शिक्षा द्वारा करना चाहते है।

शिक्षा वह है जो मनुष्य को सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने योग्य बनाती है। अध्यात्मकवादी दार्शनिक मनुष्य के लौकिक जीवन की अपेक्षा उसके पारलौकिक जीवन को अधिक महत्वशाली मानते हैं। वेदांती तो इस लौकिक जीवन से सदा-सदा के लिए छुटकारा चाहते हैं।  इसे वे मुक्त कहते हैं।

सः विद्या या विमुक्तये।

यह सूत्र स्पष्ट रूप से मुक्ति के उस परिप्रेक्ष्य पर टिका हुआ है जो जीवन को दुखमय मानता है तथा संसार को मिथ्या और जन्म मरण के जड़ से मुक्त होकर अनन्तकाल तक जीव को मुक्तावस्था को चरम उद्देश्य मानता है। किन्तु जब हम इसी मुक्ति को शिक्षा से जोड़ते हैं तो इसका सीधा आशय यह होता है कि हम जीवन में जितने भी प्रकार के बंधन व रुढ़ियां हैं उनसे मुक्त होकर मानव मात्र कल्याण के लिए शिक्षा का उपयोग करें। महात्मा गांधी ने लिखा है-

“Education I mean in all round drawing out of the best in child and – man-body, mind and spirit.”

प्लेटों ने भी मनुष्य के शरीर और आत्मा को पूर्णता प्रदान करना शिक्षा का चरम उद्देश्य माना है। वास्तव में शिक्षा के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास का पर्याय हैं। इस सम्पूर्ण व्यक्तित्व में शरीर, मन और आत्मा सभी की भूमिका है। इसीलिए जब हम शिक्षा के मूलभूत उद्देश्यों की बात करते हैं तो उन उद्देश्यों को आकार देने में भारतीय संस्कृति, धर्म, अध्यात्म, साहित्य, विज्ञान, प्रौद्योगिकी सभी को संश्लिष्ट भूमिका रहती है। इसी का यह परिणाम है कि जब हम शिक्षा के वृहद स्वरूप तथा उद्देश्यों पर बात करते हैं तो हम अपनी वर्तमान शिक्षा को परंपरा से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। यही कारण है कि हमारे विभिन्न दर्शन शिक्षा की दृष्टि से भी अनेक कोणों से प्रांसगिक है योगदर्शन दरअसल शिक्षा को वृहत आयाम देने वाला एक विशिष्ट दर्शन है जो अनायास ही शिक्षा की मौलिक विशिष्टताओं से सम्बद्ध हो जाता है।

योगदर्शन में शिक्षा की पाठ्यचर्या

इससे पहले हम पतंजलि के योगदर्शन के संदर्भ में शिक्षा की पाठ्यचर्या पर विचार करें। यह आवश्यक है कि हम सांख्य दर्शन के वैशिष्टय को शिक्षा के संदर्भ में समझने का प्रयास करें। सांख्य दर्शन ने मनुष्य के विकास के विविध आयामों का गंभीर व सार्थक विवेचन किया है। सांख्य दर्शन पूर्व पीठिका के रूप में मनुष्य के शारीरिक विकास पर बल देता है। बिना स्वस्थ शरीर के मस्तिष्क के उच्च विचारों की स्थापना संभव नहीं है। कहा भी जाता है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। शिक्षा ग्रहण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम शारीरिक रूप से पूरी तरह से स्वस्थ हों। इसलिए अष्टांग योग के माध्यम से जब शरीर को स्वस्थ्य रखने का विधान किया जाता है। उससे मनुष्य शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता ऊर्जा प्राप्त करता है। स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मन की पूर्णता शिक्षा को उपलब्धि के रूप में स्वीकार करता है किन्तु यदि हमारा स्वास्थ्य दुर्बल होगा, हममें रोगों का प्रतिरोध करने की शक्ति नहीं होगी तो निश्चय ही महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण भी ज्ञान हमें बोझ लगेगा। इसलिए सांख्य दर्शन जब अष्टांग योग के महत्व को रेखांकित करता है तो अपरिहार्य रूप शिक्षा में शारीरिक विकास की पक्षधरता स्वतः उद्घाटित हो जाती है। पतंजलि ने भी शारीरिक साधना को पर्याप्त महत्व दिया है उन्होंने यौगिक क्रियाओं (जो शरीर को भी स्वास्थ्य प्रदान करता है) प्रभुत्व स्थान दिया है।

योगदर्शन शिक्षा की निरंतरता पर बल देता है। हमें ध्यान रखना होगा कि योगदर्शन के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का अर्थ औपचारिक शिक्षा नहीं बल्कि अंतः एवं बाह्य को स्वस्थ्य व समृद्ध करने वाली निरंतर साधना है। हमारे देश की शिक्षा की महत्वपूर्ण सीमा यह है कि हम शिक्षा को केवल व्यवसाय प्राप्त करने का एक साधन मात्र मान लेते हैं तथा आवश्यक उपाधि या प्रशिक्षण प्राप्त करके शिक्षा से विमुख हो जाते हैं। योगदर्शन इस प्रकार की शिक्षा से ऊपर उठकर पूरे जीवन योग साधना के माध्यम से जीवन को पूर्ण बनाने का प्रयत्न करती वस्तुतः शिक्षा का उद्देश्य न तो तात्कालिक होना चाहिए और न मात्र व्यावसायिक। जिस प्रकार योगदर्शन हमें जीवन पर्यन्त उसे पूर्ण बनाने का प्रशिक्षण देता है उसी प्रकार शिक्षा को भी जीवन पर्यन्त व्यक्तित्व को पूर्णता देने की सतत साधना के रूप ग्रहण किया जाना चाहिए।

योगशास्त्र में जिन पांच नियमों के पालन की बात की गयी है उनमें स्वाध्याय भी एक है। सामान्यतः स्वाध्याय का अर्थ होता है स्वयं अध्ययन करना। शिक्षा भी स्वाध्याय का विशिष्ट महत्व है किन्तु जिस शिक्षा पद्धति मे बंधकर हमारी नई पीढ़ी शिक्षित होकर सामने आ रही है वहां स्वाध्याय हमारे शिक्षा पद्धति के हाशिये पर चला गया है। पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन, पाठ्यक्रम की तैयारी या मनोरंजन न केवल अपने ज्ञान की वृद्धि करते हैं बल्कि अपने विवेक का परिष्कार भी करते हैं। विवेक अंतरात्मा का सबसे सहायक तत्व है। मनुष्य स्वाध्याय यदि हमारे विवेक को जागृत तथा विकसित नहीं कर पाता तो अपने आप में स्वाध्याय का कोई महत्व नहीं है। अतः स्वाध्याय के अंतर्गत हम केवल ग्रंथों का पारायण ही नहीं करते बल्कि जीवन, जगत, आत्मा, परमात्मा से जुड़े मूलभूत प्रश्नों पर भी विचार करते हैं। सब प्रकार से कहें तो स्वाध्याय संसार की पाठशाला में जीवन का अध्ययन है।

योगदर्शन में भी स्वाध्याय को वृहत्तर अर्थों में लिया गया है। वस्तु जगत एवं आत्म तत्व दोनों से संबंधित ज्ञान के अर्जन के लिए वहां स्वास्थ्य के महत्व को रेखांकित किया गया है। निश्चय ही यहां स्वाध्याय आधुनिक संदर्भों के लिए प्रासंगिक है किन्तु योगदर्शन में योग क्रिया का निरंतर अभ्यास भी आवश्यक है जो आधुनिक शिक्षा जगह से मेल नहीं खाता।

शिक्षण विधियाँ :

प्रत्यक्ष विधि – इस विधि के अनुसार इन्द्रिय-बोध के माध्यम से हम वस्तु का साक्षात्कार करते हैं। सामान्यतः हम जानते हैं कि हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ जिस भौतिक जगत को साक्षात्कार करती है उसे वेदांत वादियों ने मिथ्या घोषित किया है किन्तु यह भी सत्य है कि भौतिक जगत के संपर्क में आये बिना हम जीवन के परम सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकते। यह संसार मिथ्या है – यह हम पूर्वजों से सुनकर नहीं मान लेते बल्कि संसार में रहकर उसकी वास्तविकता से साक्षात्कार करके ही हम संसार के मिथ्यातत्व को स्वीकार कर सकते हैं।

जहां तक प्रत्यक्ष विधि की शिक्षा के क्षेत्र में उपादेयता का प्रश्न है, यह शिक्षण की मूलगत, प्रामाणिक एवं सबसे अधिक उपयोगी शिक्षा पद्धति है। बालक जैसे ही जन्म लेता है, उसकी शिक्षा आरंभ हो जाती है। जब उसका कोई शिक्षक नहीं होता किन्तु वह परिवेश के साथ अपनी अंतःक्रिया के बल पर बोध अर्जित करता रहता है। एक प्रकार से परिवेश के विद्यालय में प्रत्यक्ष विधि के द्वारा अनायास ही उसकी शिक्षा होती रहती है। वर्तमान शिक्षा की एक चिंतनीय विसंगति यह है कि उसमें पुस्तकीय ज्ञान पर विशेष बल दिया जाने लगा है। एक छोटे से बालक का बस्ता इतना भारी होने लगा है कि वह उसे ढोने में न केवल शारीरिक दृष्टि से क्लांत हो जाता है। बल्कि उसकी मानसिक शक्तियों का भी इन किताबों का सामना करते हुए हास होता चला आया है। योग दर्शन प्रत्यक्ष ज्ञान पर इसलिए बल देता है। ताकि सहज रूप में विद्यार्थी को परिवेश से अंतःक्रिया के आधार पर शिक्षित किया जा सके।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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