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प्रेमाख्यानक काव्य (सूफी काव्य परम्परा) और जायसी
मध्य युगीन भारत के इतिहास में जहाँ एक ओर निराशावादी सन्तों ने जन साधारण के लाभार्थ भक्ति के सहज सुगम मार्ग प्रशस्त करने तथा हिन्दू मुसलमानों के पारस्परिक भेदभाव को दूर करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर सूफी कवियों ने हिन्दू, मुसलमानों की पारस्परिक एकता को बढ़ाने में अमूल्य योगदान दिया है। इस दिशा में उन्हें सन्त कवियों कबीरदास, रैदास, मलूकदास की अपेक्षा अधिक सफलता मिली है। इसका कारण यह है कि सन्तमार्गी कवियों ने अपने खण्डनात्मक स्वर की कर्कशता के द्वारा हिन्दू तथा मुसलमान दोनों को ही अप्रसन्न कर दिया था, किन्तु सूफी कवियों ने प्रेमाख्यानों के माध्यम से हिन्दू, मुसलमानों के पारस्परिक भेदभाव को मनोवैज्ञानिक पद्धति से दूर किया। इतना ही नहीं सन्त कवियों की रचनाएँ हृदय पक्ष की अपेक्षा बुद्धि से सम्बन्धित थीं, किन्तु सूफी कवियों की रचनाओं में हृदय-पक्ष का प्राधान्य था। इस शाखा के सभी कवियों का दृष्टिकोण अत्यन्त उदार था तथा उनमें सबके प्रतिसहिष्णुता थी। इस शाखा के कवियों में कुतुबन, मंझन, जायसी, उसमान और शेखनबी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं तथा मृगावती, मधुमालती, पद्मावत, चित्रावली और ज्ञानदीन इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।
सूफी मत का उदय एवं विकास
सूफी मत के उद्भव के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार- “सफ’ शब्द से सूफी शब्द की उत्पत्ति हुई है जिसका अर्थ है- अग्रिम पंक्ति । कयामत के दिनों में जो लोग अग्रिम पंक्ति में रहे, वे सूफी कहलाये। कुछ लोग मदीना स्थित मस्जिद के सामने सुफ्फा चबूतरे पर बैठने वालों को सूफी मानते हैं। कतिपय विद्वानों की धारणा है कि सूफी शब्द ‘सफा’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है पवित्र लोग, अतः अपनी पवित्रता के लिए प्रसिद्ध लोग सूफी कहलाये। अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि ‘सूफा’ शब्द जिसका अर्थ सफेद ऊन है उससे सूफी शब्द बना है, जो लोग मोटे ऊनी वस्त्र पहनकर शुद्ध आचरण से रहते थे, वे सूफी कहलाये। कुछ विद्वानों के अनुसार सूफी मत का उदय इस्लाम धर्म से हुआ, किन्तु सूफी मत का उदय इससे पूर्व ही हो चुका था । वस्तुतः सूफियों ने दक्षिण भारत में इस्लाम धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया। शासकों ने जब तलवार के बल पर उक्त धर्म का प्रचार करना चाहा तो सूफी सन्तों ने प्रेम के आधार पर हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया और हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय स्थापित किया ।
सूफी मत के मूल सिद्धान्त
सूफियों में अनेक संप्रदाय प्रचलित हैं और उनमें आध्यात्मिक सिद्धांतों के विषय में थोड़ा-बहुत अंतर भी है। किन्तु फिर भी सभी संप्रदाय यह स्वीकार करते हैं कि ईश्वर निर्विकार तथा निर्विकल्प है। ईश्वर के साथ एकीकरण के लिए प्रेम की पोर का उदय आवश्यक है। अहंभाव की समाप्ति ही साधना की सफलता की कुंजी है। आत्मसमर्पण से ईश्वर का साक्षात्कार संभव है। मनुष्य में जब इच्छाएं लुप्त हो जाती हैं तो वह ब्रह्म (अल्लाह) में मिल जाता है। यही अन अल्हक (अहं ब्रह्मास्मि) है। यही तसव्वुफ का चरमोत्कर्ष तथा सूफी दर्शन की पराकाष्ठा है। ईश्वर के साथ तादात्म्य का एकमात्र उपकरण प्रेम है।
यह हम पहले ही बता चुके हैं कि इस्लाम के उदय के पूर्व ही सूफी मत का विकास हो चुका था। किन्तु इस्लाम के उदय के अनन्तर यह मत उसमें बहुत कुछ घुल-मिल-सा गया है। और साथ-साथ इस पर अन्य मतों के सिद्धांतों का भी प्रभाव पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि सूफी मत के कितने ही संप्रदाय अपने-आपको इस्लाम से अलग-थलग बनाये रहे और यही कारण है कि सभी सूफी संप्रदायों का दर्शन-पक्ष एक जैसा नहीं है। निम्नांकित पंक्तियों में इन संप्रदायों के सिद्धांतों को स्पष्ट किया जायेगा-
(1) ईश्वर- इसके सम्बन्ध में विभिन्न संप्रदायों की विभिन्न मान्यतायें हैं। इजादिया संप्रदाय एकेश्वरवाद का समर्थक है। शुदूदिया संप्रदाय प्रतिबिम्बवाद या सर्वात्मवाद को मानता है। बुजूदिया संप्रदाय केवल ईश्वर को ही मानता है तथा संसार की समस्त वस्तुओं में उसकी झलक देखता है। ईश्वर सम्बन्धी सूफियों का यही प्रधान एवं मान्य मत है। सूफी लोग किसी अन्य सत्ता को स्वीकार नहीं करते। सूफी प्रत्येक धर्म के प्रति सहानुभूतिशील हैं, क्योंकि इन्हें प्रत्येक धर्म में प्रकारान्तर से ईश्वरीय सत्ता का आभास मिलता है।
(2) ईश्वर और जगत का सम्बन्ध- कुछ लोग ईश्वर को जगत से परे मानते हुए भी उसे जगत में लीन स्वीकार करते हैं। दूसरे ईश्वर और जगत् को भिन्न-भिन्न नहीं मानते बल्कि ईश्वर ही जगत् का रूप है, ऐसा स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत कुछ एक ने ईवर और जगत को भिन्न-भिन्न मानकर एकेश्वरवाद का समर्थन किया है। अधिकांश सूफी लोग ईश्वर को न जगत के बाहर समझते हैं, न जगत में लीन। वह जगत् के बाहर भी है और अन्दर भी। वास्तव में उसका रूप अकल्पनीय तथा अचिन्तनीय है। वह निर्गुण, निर्विशेष, शुद्ध स्वरूप तथा निरपेक्ष है। सूफियों के मतानुसार उस ईश्वर की प्रकृति में वनस्पति, पशु, पक्षी, जीव आदि में अंग प्रत्यंग की छाया है। सूफी उसी सौन्दर्य पर मुगध होकर मूल सौन्दर्य के दर्शन करना चाहता है. और उसी में लीन हो अपने आपको हक समझने लगता है।
(3) सृष्टि की उत्पत्ति- सूफियों के अनुसार ईश्वर ने अपने गूढ़ रहस्य को अभिव्यक्त करने के लिए सृष्टि रची है। जिली का कहना है कि अल्लाह चन्द्रकान्त मणि के रूप में था। सृष्टि की कामना से उसने अपने स्वच्छ स्वत्व पर दृष्टिपात किया और वह द्रवीभूत होकर पानी के रूप में हो गया; जिससे स्थूल द्रव्य फेन की भांति ऊपर छा गया। उसी से सप्त पृथ्वी की रचना की गई। उसके सूक्ष्म तत्वों से सप्त लोक और फरिश्ते बने। अधिकांश सूफियों का यह विश्वास है कि ईश्वर ने सर्वप्रथम मुहम्मदीय आलोक की सृष्टि की। वह आलोक बीज में बदला। उसी से पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि की उत्पत्ति हुई, फिर आकाश और तारे बने । तत्पश्चात् सप्त भुवन, धातु, उद्भिज पदार्थ, जीव-जन्तु एवं मानव की रचना हुई ।
(4) सृष्टि में मानव सर्वोपरि – मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और इसमें ईश्वर के रूप की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। मानव शरीर में जड़ अंश भी है और आध्यात्मिक अंश भी नफस अर्थात् जड़ आत्मा मनुष्य को पाप की ओर ले जाती है और रूह आत्मा की ईश्वरीय शक्ति का दर्शन हृदय के स्वच्छ दर्पण में कराती है। वह प्रियतम के साथ मिलन कराती है। नफस को मारना ही मानव का परम कर्तव्य है।
(5) पूर्ण मानव की मान्यता- पूर्ण मानव ईश्वर की एकमात्र पूर्ण अभिव्यक्ति है। प्रत्येक मनुष्य में परिपूर्णता का बीज सुप्तावस्था में रहता है और उसमें प्रस्फुटन की संभावना रहती है। मुहम्मद सर्वश्रेष्ठ पूर्ण मानव है, अतः उनके ज्ञान का विशेष महत्व है। सूफी साधुओं को भी पूर्ण मानव माना जाता है और उन्हें बली या पीर कहा जाता है। ईश्वरी साक्षात्कार के लिए सूफी मत में पीर या सद्गुरु की अपार मान्यता है। सूफियों ने फना और बका को भी माना है। कना मानवीय गुणों का नाश है और बका ईश्वरीय गुणों की प्राप्ति है।
(6) साधना सोपान- सूफी मत में साधना के सप्त सोपान माने गये हैं। ये सप्त सोपान हैं- अनुताप, आत्मसंयम, वैराग्य, दारिद्रय, धैर्य, विश्वास, सन्तोष और प्रेम । इनमें प्रेम की बड़ी महत्ता है। प्रेम के अभाव में साधना में सिद्धि नितांत असंभव है। सप्त सोपानों की सिद्धि के साधक में अतीन्द्रिय आध्यात्मिक ज्ञान का उदय होता है। ईश्वर को सत्तर हजार पदों के पीछे माना गया है। इन सोपानों से गुजर कर मानव अंधकार के पर्दों को छिन्न-भिन्न करता हुआ प्रकाशमय पदों की ओर जाता है। इस साधना से मानवीय गुणों का ह्रास और ईश्वरीय गुणों का आविर्भाव होता है।
इन सप्त सोपानों के अतिरिक्त सूफी मत में चार उच्चतर सोपान भी स्वीकार किये गये हैं, जिन्हें मुकामात भी कहा गया है। पहला मुकाम मारफत है, जहां मानव हृदय ईश्वर की उपलब्धि अनुभूति के द्वारा करता है। दूसरा मुकाम वह है, जहां प्रेम का उदय होता है। वह प्रेम उन्माद का रूप धारण कर लेता है, जिसे समाधि कहते हैं। आगे चलकर इसी समाधि की दिशा में वस्ल का अवसर प्राप्त होता है और यही दशा आत्मा-परमात्मा के अभेद की सूचक है।
(7) हाल की चार अवस्थाएँ- हाल की दशा में साधक अपनी ओर से निरपेक्ष होकर अपने-आपको ईश्वर को अर्पित कर देता है। साधक की प्रथम अवस्था नासूत कहलाती है, जिसमें वह शरीअत का अनुसरण करता है। दूसरी दशा मलकत है जिसमें साधक तरीकत या उपासना में प्रवृत्त होता है। तीसरी दशा जबरुत है, जहाँ वह आरिफ बन जाता है। चौथी अवस्था लाहूत है, जहाँ पहुंचकर इसे हकीकत (परम तत्व) की उपलब्धि हो जाती है।
(8) शैतानी- सूफी मत में शैतान की सत्ता स्वीकार की गई है, जो शंकर की माया के समान है। शैतान साधक के मार्ग में व्याघात उपस्थित करता है। सूफियों ने शैतान को हेय न मानकर उसे श्रेयस्कर माना है, क्योंकि इससे साधक की सच्ची परीक्षा होती है। शैतान के द्वारा साधना में और परिपक्वता आती है।
(9) पीर की महत्ता- सूफी मत में गुरु की बड़ी मान्यता है। पीर या गुरु साधक को शैतान के शिकंजे से मुक्त करके उसे सिद्धि की ओर अग्रसर करता है। इनके यहां गुरु का अन्धानुकरण भी श्रेयस्कर समझा जाता है। पीर और औलिया की उपासना भी इनमें प्रचलित है।
(10) कतिपय अन्य क्रियाएं- सूफी लोग अपनी उपासना में कतिपय क्रियाओं को भी अपनाते हैं, जिनमें नमाज, कुरान शरीफ का पारायण, चुने हुए भजनों का दैनिक पाठ बाह्य क्रियाएँ हैं तथा आत्म-विमह, चिन्तन और मान जाप का सम्बन्ध आत्मा के संयम से है। इन क्रियाओं के अतिरिक्त सूफियों का मजार की पूजा तथा तीर्थयात्रा पर भी विश्वास है।
(11) प्रेम – सूफी मत में प्रेम ईश्वर-प्राप्ति का एकमात्र साधन है। यह प्रेम (इश्क) लौकिक से (मजाजी से) अलौकिक प्रेम (इश्कहकीकी) की ओर उन्मुख होता है। यह प्रेम एकमात्र निष्काम और निःस्वार्थ है। इस प्रेम से हाल की दशा प्राप्त होती है, जहां साधक बाह्य संसार को भूलकर एकमात्र अपने प्रियतम के रूप में लीन हो जाता है। सूफियों ने ईश्वर की पत्नी रूप में कल्पना की है और साधक की पति रूप में। साधक अपनी प्रियतमा के हाथ से दिये गये मधुपान के लिए सदा लालायित रहता है, अतएव वह उसकी प्राप्ति के लिए नाना यत्न करता है। सूफी साधक के सामने ईश्वर एक दैवी स्त्री के रूप में आता है। भारतीय प्रणय साधना में ईश्वर की पति और भक्त की पत्नी के रूप में कल्पना की गई है। यही इन दोनों की प्रणय भावना में मौलिक अन्तर है।
‘नामकरण’
विद्वानों ने सूफी काव्य धारा को अनेक नाम दिये हैं। प्रेम तत्व की प्रधानता के कारण आचार्य शुक्ल ने इसे ‘प्रेमाश्रयी शाखा’ कहा है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘प्रेम-कथाओं का साहित्य’ नामकरण किया है। डॉ० रामकुमार वर्मा ने ‘प्रेम-काव्य धारा’ और डॉ० गणपति चन्द्र गुप्त ने ‘रोमांटिक कथा-काव्य-परम्परा’ के नाम से अभिहित किया है। किन्तु सूफी मत के सिद्धान्तों पर आधारित होने के कारण इसका नाम ‘सूफी काव्य-धारा’ ही अधिक उपयुक्त है।
प्रतिपाद्य विषय
सूफी कवियों ने अपनी रचनाओं में हिन्दू घरों में प्रचलित प्रेम कथाओं को ग्रहण करते हुए आध्यात्मिक प्रेम का निरूपण किया है। आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजना के लिये उन्होंने अपने धार्मिक सिद्धान्तों का निरूपण करते हुए भी इन्होंने न तो हिन्दू धर्म की कहीं निन्दा की है और न ही हिन्दू देवी-देवताओं के प्रति अवज्ञा दिखलाई है। इतना ही नहीं, उन्होंने तो हिन्दुओं के आचार-विचार एवं रहन-सहन के प्रति अत्यन्त उदार एवं सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया है।
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