मनोविज्ञान के शिक्षा के सिद्धान्त व व्यवहार पर प्रभाव का उल्लेख कीजिए।
मनुष्य आदि काल से ही नवीन अनुभवों को नियंत्रित एवं व्यवस्थित वातावरण में प्राप्त करता रहा है। विद्यालय इसी व्यवस्था का अभिन्न अंग रहे हैं। सामाजिक विज्ञानों के कार्यक्षेत्र में उतने परिवर्तन नहीं हुए जितने कि शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन धारणाओं–पाठ्यक्रम केन्द्रित शिक्षा तथा नवीन धारणा–चालक-केन्द्रित शिक्षा को लेकर अनेक प्रयोग हुए। अन्ततः शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधारों को प्राथमिकता दी गई और अधिगम की क्रिया को शिक्षण क्रिया के साथ समाविष्ट करके अधिगम-शिक्षण प्रक्रिया नाम दिया गया। नए मनोवैज्ञानिक आधारों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि प्रत्येक बालक का पाठ्यक्रम भिन्न होना चाहिए। इसीलिए शिक्षण-अधिगम के मनोवैज्ञानिक आधारों का योगदान इस प्रकार रहा है-
1. नवीन अभिगमन (New Approach)- अधिगम एकांगी तथा एक पक्षीय क्रिया है। शिक्षण की प्रक्रिया के साथ जुड़कर ही इसे पूर्णता प्राप्त होती है। इस अभिगमन ने अधिगम तथा शिक्षण की प्रक्रिया का निर्माण करने वाले प्रत्येक तत्व की व्याख्या की है और प्रयोगों द्वारा उसे सिद्ध किया है।
2. शिक्षा-द्विमुखी क्रिया-शिक्षा से अभिप्राय है सीखना सीखना, कक्षागत परिस्थितियों में शिक्षक के बिना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि शिक्षा अधिगम एवं शिक्षण बिन्दुओं को मध्य सम्पादित होने वाली प्रक्रिया स्वीकार की गई है। इसमें छात्र की क्षमता एवं आवश्यकता पर विशेष बल दिया जाता है।
3. शिक्षण प्रारूप (Teaching Model) पर बल- शिक्षण की क्रिया का कोई लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बनाई गई योजना ही शिक्षण प्रारूप कहलाती है। अनेक शिक्षा-शास्त्रियों ने मनोवैज्ञानिक आधारों पर अनेक प्रारूप बनाए हैं। ये प्रारूप अन्यत्र बताए गए हैं। इन प्रारूपों से शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है।
4. बालक के मनोवैज्ञानिक गुणों का अधिगम में उपयोग- अभिवृत्ति, रुचि, अभिरुचि आदि मनोवैज्ञानिक गुणों का पूरा-पूरा उपयोग शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया के सम्पादन हेतु किया जाता है। इन गुणों के उपयोग से अधिगम की प्रक्रिया के मध्य अनेक प्रच्छन्न गुण स्वतः विकसित हो जाते हैं और अधिगम की क्रिया वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक होती है।
5. प्रत्ययों का विकास– शिक्षण अधिगम मनोविज्ञान केवल ज्ञान तथा कौशल प्रदान करने पर बल नहीं देता। वह तो शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रत्ययों के विकास पर बल देता है। कौशल के विकास के लिए वह अनुभव प्रदान करता है।
6. शिक्षण की दशाएँ- शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया के सफल संचालन में अधिगम की दशाओं का विशेष महत्व है। अधिगम की सफलता में शिक्षण की उत्तम दशाओं का विशेष महत्व है। अधिगम की सफलता शिक्षण की दशाओं पर निर्भर है। इसलिए मनोविज्ञान में शिक्षण की दशाओं को उत्तम बनाने के लिए विशेष बल दिया गया है।
7. अधिगम की दशाएँ- जिस प्रकार शिक्षण की दशाएँ अधिगम की सफलता के लिए अनिवार्य हैं, उसी प्रकार अधिगम की दशाएँ शिक्षण अधिगम को सफलता के सोपान पर ले जाने के लिए आवश्यक हैं। अभिवृत्ति तथा परिपक्वता के द्वारा ये अधिगम दशाएँ निर्धारित होती हैं। उत्तेजना अनुक्रिया उद्दीपन अनुक्रिया, अन्तर्दृष्टि तथा संज्ञानात्मक दशाएँ शिक्षण अधिगम को नया स्वरूप प्रदान करती हैं।
8. शैक्षिक आविष्कार (Educational Innovations) – अधिगम-शिक्षण मनोविज्ञान ने अभिक्रमित अधिगम (Pro grammed Learning) तथा शैक्षिक तकनीक (Educational Technology) जैसे शैक्षिक आविष्कार किए हैं। इसी प्रकार शैक्षिक फिल्में, टेलीविजन, मुक्त विश्वविद्यालय (Open University) आदि अनेक आविष्कार इसी अधिगम की देन हैं।
9. अभिप्रेरणा पर बल – शिक्षण अधिगम का मनोविज्ञान अध्यापक अभिप्रेरणात्मक कार्यों तथा प्रत्ययीकरण पर बल देता है। अभिप्रेरणा का शिक्षण तथा अधिगम की प्रक्रिया में क्या स्थान है, इसकी व्याख्या भी मनोविज्ञान करता है। वस्तुतः अभिप्रेरणा शक्ति का स्रोत है। अधिगम-शिक्षण की क्रिया की कुशलता में अभिप्रेरणा की आन्तरिक रचना, योग्यता तथा क्षमता, उद्दीपन वातावरण तथा स्वभाव का विशेष योग रहता है।
10. अधिगम शैली- अधिगम की प्रक्रिया में वैयक्तिक भिन्नता निहित होती है; इसलिए अधिगम की विभिन्न शैलियों का विकास इस अधिगम के कारण ही हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति किसी भी क्रिया को अपनी शैली में सीखता है। सीखने की अनेक शैलियाँ शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में विकसित हुई हैं।
11. विषयों का शिक्षण- प्रत्येक विषय के शिक्षण के मूल आधार पृथक् होते हैं। ये विषय छात्रों की मानसिक शक्तियों को विकसित करते हैं। अनेक प्रकार के ज्ञान, कौशल, अभिवृत्तियाँ तथा मनोवृत्ति का विकास, बालक में निहित आन्तरिक गुण तथा क्षमता करते हैं। प्रत्येक विषय में प्रत्यय (Concepts), समस्या समाधान तथा सृजनात्मक तत्व (Creative Potentials) होते हैं। भाषा को ही लें, इसमें शाब्दिक, मौखिक, लिखित- अनेक प्रकार की अभिव्यक्तियाँ होती हैं। इनके द्वारा बालक में समानता, भिन्नता, विभेदीकरण, अवबोध, संक्षिप्तिकरण आदि के ज्ञान तथा कौशल को विकसित किया जाता है। अर्थ ग्रहण करने की क्षमता विकसित की जाती है। भाषा शिक्षा की तकनीकी के विकास के कारण आज बहुत शीघ्र भाषा (विशेषकर विदेशी) सीखने में सहायता मिलती है।
12. शैक्षिक लक्ष्यों का स्पष्ट निर्धारण- आज शिक्षण अधिगम के मनोविज्ञान ने जहाँ बालक को समझने का प्रयास किया है, वहाँ दूसरी ओर उनमें किन-किन बातों का विकास करना है, इस बात पर भी बल दिया गया है। पाठ्य-विषय के माध्यम से कौन-कौन से शैक्षिक लक्ष्यों की पूर्ति होती है और उनका निर्धारण किस प्रकार किया जाता है, उनकी उपलब्धि किस प्रक्रिया के माध्यम से होती है, आदि पर स्पष्ट चिन्तन तथा विश्लेषण किया जाता है। ऐसा करने से व्यर्थ के प्रयत्न समाप्त हो जाते हैं।
13. सार्थक अधिगम पर बल- शिक्षण अधिगम का मनोविज्ञान आज सार्थक अधिगम पर विशेष बल देता है। निरर्थक अधिगम से बालक की शक्तियों का क्षय होता है। आजकल किसी भी ऐसी अनुक्रिया (Response) को स्वीकार नहीं किया जाता, जो उद्देश्यहीन तथा निरर्थक हो। सार्थक अनुक्रिया, व्यवहार प्रवेश की महत्वपूर्ण शर्त है।
14. मानव योग्यता का विकास- शिक्षण अधिगम में शिक्षक, छात्र की सभी योग्यताओं का विकास करता है। सृजनात्मक तथा समस्या समाधान आदि ऐसी ही योग्यताएँ हैं। ज्ञान की योग्यता में विशिष्टता, शब्दावली, विशेष तथ्य, व्यवहार, परम्परा, प्रवृत्तियाँ, वर्गीकरण, आलोचना, सामान्यीकरण, सिद्धान्त निरूपण; वौद्धिक योग्यता-अवबोध, अनुवाद, व्याख्या, निष्कर्ष, विनियोग, विशेष तत्वों का विश्लेषण, संगठन, समन्वय, विशिष्ट संचार का सर्जन, कार्य संचालन की योजना, भावात्मक विचार, मूल्यांकन, निर्णय आदि की मानव योग्यताओं को विकसित करने में शिक्षण अधिगम का मनोविज्ञान विशेष रूप से सहायक हुआ है।
15. सामाजिक सन्दर्भ में शिक्षा – सामाजिक परिवर्तन के प्रवाह ने शिक्षा को जहाँ वैयक्तिक विकास के लिए सहायक -माना है, वहाँ उसे समाज से भी जोड़ा है। शिक्षण अधिगम के मनोविज्ञान ने शिक्षा को सार्थक बनाकर उसे समाज की आकांक्षा तथा आवश्यकता से जोड़ दिया है।
16. शिक्षण-दर्शन एवं सिद्धान्त- शिक्षण अधिगम के मनोविज्ञान ने शिक्षण की प्रक्रिया में उसके दार्शनिक तत्वों को स्वीकार किया है। शिक्षण का सम्बन्ध शिक्षक से है। शिक्षण का अपना ही जीवन दर्शन होता है। उसी के अनुसार वह शैक्षिक लक्ष्यों का निर्धारण करता है तथा उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। शिक्षण अधिगम के मनोविज्ञान ने शिक्षण को एक व्यवसाय के रूप में विकसित करने में महान् योग दिया है। यह व्यवसाय अन्य व्यवसायों से भिन्न है और इसकी समाज निर्माण में विशेष भूमिका है।
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