शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य क्या हैं ?

शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य क्या हैं ?
शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य क्या हैं ?

शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्य क्या हैं ? विवेचना कीजिए।

शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का विकास करना है या समाज का; यह एक ऐसी प्रथा है, जो अपने में एक मतभेद, लिए है। वास्तविकता यह है कि व्यक्तिवादी लोग शिक्षा के व्यक्तिगत उद्देश्य पर बल देते हैं और सामाजिकतावादी, समाज के उद्देश्यों को सर्वोपरि मानते हैं। टी० पी० नन (T. P. Nunn) के अनुसार- “हमें सदैव इस सिद्धान्त पर अटल रहना चाहिए कि स्त्री पुरुषों के वैयक्तिक क्रिया-कलापों की अपेक्षा मानव जगत में कहीं भी और कभी भी अच्छाई का प्रवेश नहीं होता। शिक्षा इस सत्य पर निर्भर रहे। “

अरस्तू (Aristotle) ने कहा है- “शिक्षा के उद्देश्य के बारे में कोई भी एक मत नहीं है।” इसी प्रकार रूसो ने भी एक मौलिक प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने का प्रयत्न किया है और हार्न ने भी कहा है-“शिक्षा का कोई अन्तिम उद्देश्य नहीं है, जो छोटे उद्देश्यों पर शासन कर सके।” शिक्षा के उद्देश्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- (1) व्यक्तिगत, (2) सामाजिक ।

शिक्षा के ये उद्देश्य समाज की प्रचलित व्यक्तिवादी तथा समाजवादी विचारधाराओं के परिणाम हैं। एक का उद्देश्य व्यक्ति का विकास करना है तो दूसरे का समाज हितों की रक्षा करना। बेंजामिन किड के अनुसार- “समाज के हितों और उसके सदस्यों के हितों में किसी एक समय पर सामंजस्य नहीं हो सकता। वे विरोधी ही रहेंगे। निश्चित रूप में तथा प्रकृति से वे एक-दूसरे के विरोधी हैं।”

कुछ विद्वानों का कहना है कि व्यक्तिगत एवं सामाजिक उद्देश्य एक-दूसरे के विरोधी हैं। कुछ शिक्षाशास्त्रियों का एक ऐसा विचार है कि ये दोनों उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। यद्यपि व्यक्ति और समाज में प्रमुख कौन है उसे तय करना कठिन ही है, फिर भी हम यहाँ पर दोनों उद्देश्यों के औचित्य एवं अनौचित्य पर विचार करते हैं।

1. व्यक्तिगत उद्देश्य ( Individual Aims)

शिक्षा का इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राचीनकाल में व्यक्ति के विकास को प्रमुखता दी जाती थी। गुरुकुलों में छात्रों के व्यक्तित्व का निर्माण किया जाता था। राजपूतों की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था अलग ढंग से होती थी, परन्तु आजकल भी व्यक्तिगत उद्देश्य की व्याख्या शिक्षाशास्त्रियों ने अलग ढंग से की है। नन (Nunn) का विचार है कि, “मानव जगत में पुरुषों व स्त्रियों के स्वतन्त्र व्यवहार के बिना कोई भी हितकारी भाव पैदा नहीं हो सकता। अतः शिक्षा की व्यवस्था ऐसी की जाए, जो इस सत्य के अनुकूल हो।”

नन ने व्यक्ति के मौलिक विकास के प्रयत्नों के सम्बन्ध में कहा है- “शिक्षा को ऐसी दशायें उत्पन्न करनी चाहिए, जिनसे वैयक्तिकता का पूर्ण विकास हो सके और व्यक्ति मानव जीवन को अपना मौलिक योग दे सके।” रॉस ने भी इसी सन्दर्भ में कहा है- “शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ जो हमारे स्वीकार करने के योग्य है, वह केवल यह है- महत्वपूर्ण व्यक्तित्व और आध्यात्मिक वैयक्तिकता का विकास।”

वैयक्तिक उद्देश्यों के अन्तर्गत आत्माभिव्यक्ति, आत्मबोध के उद्देश्यों को लिया जा सकता है। आत्माभिव्यक्ति (Self-Expression) के अन्तर्गत आत्म-प्रकाशन पर अधिक बल दिया जाता है। आत्म-प्रकाशन का अवसर प्राप्त न होने से मानव कुण्ठित हो जाता है। अनेक कुप्रवृत्तियाँ उसमें आ जाती हैं। अतः उन दुर्गुणों का दमन उसी दशा में हो सकता है, जबकि व्यक्ति को आत्म-प्रकाशन का अवसर प्रदान किया जाए।

आत्म-बोध (Self-Realization) के उद्देश्य के माध्यम से व्यक्ति स्वयं को जानता है। इसके पीछे आध्यात्मिक भावना का होना है। इसमें व्यक्ति समाज-विरोधी नहीं, अपितु समाज हित का ख्याल रखता है। एडम्स के अनुसार- आत्म बोध के आदर्श में ‘स्व’ की प्राप्ति समाज के विरुद्ध नहीं हो सकती।” (The self in the ideal of self-realization can not realize itself against society.)

समर्थन–वैयक्तिक उद्देश्यों की पूर्ति होनी चाहिए, ऐसा कहने वाले व्यक्ति के तर्क के आधार निम्न प्रकार हैं-

1. व्यक्ति, समाज का आधार है। जैसा व्यक्ति होगा, वैसा ही समाज बनेगा। अतः व्यक्ति के मूलभूत गुणों का विकास होना ही चाहिए।

2. संसार में व्यक्ति के सद्प्रयत्नों द्वारा ही संस्कृति का प्रसार होता है। शिक्षा मनुष्य के हित की रक्षा करती है।

3. मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्तियों का विकास शिक्षा के माध्यम से होता है। यदि शिक्षा इस पर विचार नहीं करती तो इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य जंगली मात्र रह जाएगा। अतः शिक्षा की व्यवस्था व्यक्ति के लिए होनी चाहिए।

4. नन ने व्यक्तिवादी शिक्षा पर जोर देते हुए कहा है-“प्रत्येक कला का उद्देश्य कुछ अच्छाई को प्राप्त करना होता है।” शिक्षा भी कला है और इसका उद्देश्य भी अच्छाई को प्राप्त करना है। जन्म लेते समय सबका मस्तिष्क कोरी चाटिया रहता है। इस पर समाज का प्रभाव ही सब कुछ लिखता है। जो लिखा जाता है, उसका प्रभाव सभी पर अलग-अलग होता है। व्यक्ति अपनी प्रेरणा का आधार दूसरों को बनाता है, इतना होने पर भी हर एक व्यक्ति का जीवन दर्शन अलग-अलग है।

अतः शिक्षा वैयक्तिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दी जानी चाहिए।

आलोचना- विद्वानों ने वैयक्तिक उद्देश्यों की आलोचना करते हुए कहा है कि इससे व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे कभी भी समाज में भयंकर स्थिति आ सकती है। व्यक्तिवादी उद्देश्य समाजवाद के लिए अहितकर होता है और जनतन्त्र के लिए भी उतना ही हानिकर है। व्यक्तिवाद से सामाजिक विघटन को बल मिलता है। एक व्यक्ति अधिनायकवादी होकर वातावरण में अनुचित परिवर्तन करता है। चीन में इसका उदाहरण देखा जा सकता है। वैयक्तिक प्रभाव जहाँ भी होगा, स्वतन्त्र चिन्तन की गुन्जाइश उतनी ही कम होगी।

रॉस ने तो यहाँ तक कहा है कि-“सामाजिक पर्यावरण से अलग वैयक्तिकता का कोई मूल्य नहीं है और व्यक्तित्व अर्थहीन शब्द है, क्योंकि इसी में इनको विकसित और कुशल बनाया जा सकता है।”

निष्कर्ष- व्यक्तिगत विकास होना चाहिए, इससे तो कोई भी इन्कार नहीं कर सकता, परन्तु व्यक्तिगत उद्देश्यों में निहित खतरों की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। आत्माभिव्यक्ति एवं आत्म-बोध के बिना व्यक्ति का कल्याण नहीं होता, परन्तु समाज की उपेक्षा करके भी यह चैन से नहीं बैठ पाएगा।

2. सामाजिक उद्देश्य (Social Aim)

समाजहित के लिये दो प्रकार के कार्यों पर विचार किया जाता है। गैंड एवं शर्मा ने इसे इस प्रकार व्यक्त किया है-

  1. राष्ट्रहित और व्यक्ति का राष्ट्रहित के लिए जीवित रहना।
  2. नागरिकता तथा सामाजिक कुशलता।

जहाँ तक राष्ट्रहित के उद्देश्य का प्रश्न है, वह आज के युग में भी नया नहीं है। प्राचीन यूनानौ राज्यों में राज-भक्ति की अपेक्षा हर नागरिक से की जाती रही है। शिक्षा का उद्देश्य राष्ट्र को अच्छे नागरिक प्रदान करना रहा है। अरस्तू ने कहा है-“स्पार्टा ने युद्ध के लिए प्रशिक्षण दिया एवं शान्ति में अपनी तलवार म्यान में रखी।”

“Sparta prepared and trained for war and in peace rusted like a sword in its scabbard.” सामाजिक उद्देश्य का दूसरा रूप आता है—सामाजिक कुशलता का निर्माण | राष्ट्रहित पर ध्यान तो दिया ही जाता है, सामाजिक कुशलता का निर्माण हुए बिना राष्ट्रहित नहीं हो सकता है। सामाजिक कुशलता की व्याख्या करते हुए जॉन डीवी ने कहा है—“सामाजिक कुशलता का शैक्षिक उद्देश्य है, सामान्य क्रिया में पूरी तरह भाग लेने की क्षमता का उत्पन्न होना।”

प्रोफेसर बागले ने सामाजिक कुशलता की बातें बताई हैं-

  1. आर्थिक कुशलता या योग्यता जिससे मानव अपना निर्वाह कर सके।
  2. त्याग भावना अर्थात् नकारात्मक नैतिकता।
  3. अपनी इच्छाओं का समाज हित में बलिदान सम्पूर्ण सामाजिक कुशलता में व्यक्ति बड़े हित के लिए छोटे हित का त्याग करता है।

कभी-कभी सामाजिकता अपने उग्र रूप में भी प्रकट होती है। जर्मनी इसका उदाहरण है। देश के लिए सर्वत्याग की भावना का विकास किया जाता था। सामाजिकता के उप रूप के साथ-साथ इसका उदार रूप भी देखने में आता है। विभिन्न विषयों के समन्वय द्वारा इस प्रकार की भावनायें उत्पन्न की जाती हैं।

समर्थन- सामाजिक उद्देश्य के समर्थन में कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना उसका अस्तित्व भी नहीं है। समाज, सभ्यता एवं संस्कृति को जन्म देता है और सांस्कृतिक परम्पराओं की रक्षा करता है। अतः समाज में उस समय तक नीति नहीं रह सकती, जब तक वहाँ के नागरिकों को समाजहित की शिक्षा नहीं दी जाती। अतः रॉस के अनुसार- “सामाजिक पर्यावरण से अलग वैयक्तिकता का कोई मूल्य नहीं है और व्यक्तित्व अर्थहीन शब्द है।”

आलोचना- यह सही है कि समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, फिर भी सामाजिकता के उद्देश्य पर अनेक आरोप लगाए जाते हैं। यह अमनोवैज्ञानिक है। इससे बालकों में व्यक्तिगत रुचियों का विकास नहीं होता। मनुष्य एक साधन हो जाता है, साध्य नहीं। साहित्य और संस्कृति के विकास में बाधा पड़ती है। शिक्षा के साधनों का अनुचित उपयोग होता है। यह उद्देश्य एकांगी है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का विरोधी है। हार्न के अनुसार-“ऐसी शिक्षा अन्त में कुशल व्यावसायिकता का निर्माण करती है। यह शिक्षा धार्मिक और आध्यात्मिक अनुभव को कोई महत्व नहीं देती। “

अब प्रश्न उठता है कि जब ये एक-दूसरे के विरोधी हैं तो इनका समन्वय कैसे हो ? वास्तविकता यह है कि ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं है, पूरक हैं। व्यक्ति के बिना समाज का काम नहीं चलता और समाज का अस्तित्व व्यक्ति के बिना नहीं है। अतः इनके समन्वयवादी पहल पर भी विचार करना आवश्यक है।

वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों का समन्वय (Synthesis Between Individual and Social Aim)

आज का युग समन्वय का है और समन्वय के बिना आज जीवित नहीं रहा जा सकता। समन्वय से ही समाज कल्याण की भावनाओं का विकास होता है। समन्वय की इस प्रक्रिया में मानव प्रधान है।

1. यह कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह समाज से अलग कोई सत्ता नहीं रखता। समाज रूपी भवन का निर्माण व्यक्ति रूपी ईंट ही करती है। अतः किसी भी दशा में व्यक्ति की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

2. कार्ल मार्क्स ने समाज को प्रमुखता दी है, परन्तु क्या व्यक्ति के अभाव में समाज का अस्तित्व होगा ? इसी प्रकार व्यक्ति, समाज की अनुपस्थिति में निरीह हो जाता है। कार्ल मार्क्स के विचारों की व्याख्या करते हुए रॉवर्ट कोहन ने लिखा है- “मानव का स्वयं में अस्तित्व नहीं है, वह सच्चे योगी की तरह नहीं रहता। ‘मनुष्य’ एक गलत शब्द है। हमें मनुष्यों (Men) को कहना चाहिए एवं हमें मानव व्यवहार पर ही अपनी धारणा बनानी चाहिए। स्त्री तथा पुरुषों की विशेषता यह है कि उनकी चर्चा बहुवचन में हो, वे प्रकृति से ही सामाजिक हैं। मानव का विज्ञान समाज का विज्ञान है।”

3. व्यक्ति की यदि कोई विशेषता है तो वह है उसका व्यक्तित्व । व्यक्तित्व मानव के गुणों का वह समूह है, जो उस पर अमिट छाप छोड़ता है। इसीलिए रॉस ने कहा है-“वैयक्तिकता का विकास केवल सामाजिक वातावरण में होता है, जहाँ सामान्य रुचियों और सामान्य क्रियाओं से उसका पोषण हो सकता है।” रॉस के इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि व्यक्ति का समाज के अभाव में किसी भी प्रकार का अस्तित्व नहीं है। समाज में व्यक्ति का समाजीकरण (Socialization) होता है। मैकाइवर के अनुसार- “समाजीकरण एवं वैयक्तिकरण एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं।”

“Socialization and individualization are two sides of single process.”

शिक्षा के समन्वयात्मक दृष्टिकोण के स्पष्टीकरण में हम कुछ विद्वानों के विचार यहाँ उद्धृत करते हैं-

1. एडम्स- “व्यक्तित्व को किसी सामाजिक शब्दावली से व्यक्त नहीं किया जा सकता। ‘स्व’ तो द्विमुखी क्रिया है और वह सामाजिक ‘स्व’ के साथ है।”

2. वाइल्ड जॉन- “सामान्य हित केवल सहकारिता के आधार पर ही पूर्णतः प्राप्त किए जा सकते हैं, इसमें ऐसा कुछ नहीं है, जो व्यक्ति के कल्याण की उपेक्षा करता हो। इसमें उसका कल्याण समाज के एक अंग के रूप में होता है। व्यक्ति का उद्देश्य अपनी योग्यताओं को जानना है, पूर्ण एवं निर्विरोध जीवन व्यतीत करना है। वह ऐसा सहयोग क्रिया के बिना नहीं कर सकता और प्राकृतिक नियम के अनुकूल चाहता है।”

3. रेमण्ट- “शिक्षा का उद्देश्य दोहरा होना चाहिए–व्यक्ति की पूर्णता और समाज का कल्याण।” “The perfection of individual and the good of the community.”

4. रस्क– “आत्म-विकास केवल समाज सेवा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और वास्तविक महत्व का सामाजिक आदर्श केवल उन स्वतन्त्र व्यक्तियों द्वारा स्थापित किया जा सकता है, जिन्होंने महत्वपूर्ण वैयक्तिकता का विकास किया है।”

5. हुमायूँ कबीर- “यदि व्यक्ति को समाज का रचनात्मक सदस्य बनना है तो उसे केवल अपना ही विकास नहीं करना चाहिए, वरन् समाज के विकास में योग भी देना चाहिए।”

जे० एस० रॉस (J. S. Ross) के शब्दों में- “सामाजिक वातावरण से अलग किए जाने पर वैयक्तिकता का कोई मूल्य नहीं है। आत्मानुभूति को केवल समाज सेवा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और वास्तविक मूल्यों के सामाजिक आदर्श उन्हीं स्वतन्त्र व्यक्तियों के द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं, जिन्होंने अपनी बहुमूल्य वैयक्तिकता का विकास कर लिया है। यह एक ऐसा वृत्त है, जो तोड़ा नहीं जा सकता और समाज सेवा, व्यक्तित्व, स्वतन्त्रता एवं वैयक्तिकता जिसके महत्वपूर्ण बिन्दु हैं।”

वास्तविकता यह है कि समाज और व्यक्ति एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, बल्कि पूरक हैं। एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह हैं। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन हो जाता है। इसलिए शिक्षा का उद्देश्य न तो वैयक्तिक विकास हो, जिससे अराजकता को बल मिले और न ही सामाजिक विकास हो, जिससे वैयक्तिकता समाप्त हो जाए। स्थिति यह है कि दोनों को मिलकर एक-दूसरे के पूरक बनकर काम करना है। शायद इसीलिए रॉस ने कहा है-“वास्तव में, जीवन और शिक्षा के उद्देश्यों के रूप में आत्म-विकास और समाज सेवा में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों एक ही हैं।” अतः जब दोनों एक हैं तो विरोध कैसा ?

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Anjali Yadav

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