शिक्षा मनोविज्ञान / EDUCATIONAL PSYCHOLOGY

बालकों का मानसिक स्वास्थ्य किन-किन बातों से प्रभावित होता है ?

बालकों का मानसिक स्वास्थ्य किन-किन बातों से प्रभावित होता है ?
बालकों का मानसिक स्वास्थ्य किन-किन बातों से प्रभावित होता है ?

बालकों का मानसिक स्वास्थ्य किन-किन बातों से प्रभावित होता है ? इसको किस प्रकार बनाए रखेंगे ?

मानसिक रोग का कोई एक कारण नहीं है। अनेक कारण इसके लिए उत्तरदायी हैं। मानसिक रोगों के कारण इस प्रकार हैं-

1. वंशक्रम- वंशक्रम से भी मानसिक रोग प्राप्त होते हैं। कई बार व्यक्ति में ये रोग बाद में उभरते हैं। आज वैज्ञानिक विधियों ने इस कारण पर भी नियन्त्रण प्राप्त कर लिया है।

2. अनुपयुक्त वातावरण – यदि बालक का वातावरण उचित नहीं है तो उसमें अनेक प्रकार की संवेगात्मक अस्थिरताएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

3. संवेगात्मक अनुभव- मनुष्य को जब बार-बार संवेगात्मक धक्के लगते हैं तो उसके मस्तिष्क का संतुलन बिगड़ जाता है।

4. शारीरिक दोष- जो बालक शारीरिक दृष्टि से विकसित नहीं होते, उनमें मानसिक रोग विकसित हो जाते हैं।

मानसिक रोगों का उपचार

मानसिक रोग यदि साधारण है तो परिवार तथा समुदाय के सदस्यों का सावधानी से उपचार किया जा सकता है। मानसिक उपचार के लिए ये उपाय किए जा सकते हैं—

1. शारीरिक परीक्षण (Physical test)- जिन बच्चों में मानसिक रोग का संदेह हो, उनका शारीरिक परीक्षण करना आवश्यक है, जिससे उनके शारीरिक दोषों का पता लग जाए।

2. साक्षात्कार (Interview) – व्यक्ति से साक्षात्कार करके कई प्रकार की सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं।

3. व्यक्ति इतिहास (Case history) – बच्चे के भूत व वर्तमान के विषय में सूचना इकट्ठी करनी चाहिए। घर के अनुभव, मित्र, पास-पड़ोस का वातावरण, स्कूल का वातावरण तथा पढ़ने-लिखने में उन्नति इत्यादि।

4. मानसिक परीक्षण (Mental tests) – इसके पश्चात् व्यक्ति का मानसिक परीक्षण करना चाहिए।

5. व्यक्तित्व का परीक्षण- व्यक्तित्व का अध्ययन करना है। रोर्शा-परीक्षण या थिमेटिक एपरसेप्सन टैस्ट (T.A.T.) या चिल्ड्रन एपरसेप्सन टैस्ट (C.A.T.) के द्वारा उसके व्यक्तित्व के अचेतन स्वरूप का अध्ययन किया जा सकता है और व्यक्तित्व प्रश्नावली के द्वारा समायोजन दोष का क्षेत्र निर्धारित किया जा सकता है-

1. परामर्श (Counselling) – यदि व्यक्ति साधारण समायोजन दोषों से पीड़ित है, जैसे चिन्ता, विद्यालय एवं मानसिक समस्या तो उसे निराकरण विधियाँ समझाई जा सकती हैं। इसके लिए उसके साथियों, मित्रों इत्यादि से सूचना प्राप्त करनी पड़ती है, लेकिन यह विधि कभी-कभी असफल रहती है।

2. व्यक्ति केन्द्रित चिकित्सा (Client-centred therapy)- यह विधि कार्ल रोगर (Carl Roger) ने 1951 में विकसित की थी। इसमें व्यक्ति को अधिक से अधिक बोलने का अवसर दिया जाता है, जिससे वह अपनी मानसिक समस्याओं को हल करने में समर्थ हो जाता है तथा उसकी दबी हुई भावनाओं को निकालने का प्रयत्न किया जाता है। समस्या समाधान के लिए वातावरण उत्पन्न किया जाता है।

3. मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा (Psycho-analysis therapy) – इस विधि का प्रवर्त्तक फ्रायड था। उसने स्वतन्त्र साहचर्य (Free association), स्वप्न विश्लेषण द्वारा बालकों तथा व्यक्तियों के मानसिक रोगों का उपचार किया। आजकल यह पद्धति अधिक प्रचलन में है।

4. खेल द्वारा (Play therapy)- इस विधि से बच्चों के मानसिक रोगों की चिकित्सा की जाती है। यह भी आशा की जाती है कि खेल में व्यवहार की समस्याएं सुलझ जाएँ।

5. वातावरण में परिवर्तन (Change in environment)- मानसिक रोगियों का वातावरण यदि बदल दिया जाए तो उन्हें लाभ हो जाता है। इसलिए उनका स्थान परिवर्तन कराया जाता है।

6. व्यावसायिक चिकित्सा (Occupational therapy)- इस प्रकार की चिकित्सा में व्यक्ति को ऐसे कार्य में लगा दिया जाता है, जिसमें उसे रुचि होती है। वहाँ पर उसकी दबी हुई इच्छाएँ निकल जाती हैं।

7. साइकोड्रामा (Psychodrama)- इस विधि में रोगी को ड्रामा करने का अवसर प्रदान किया जाता है। यह विधि सामूहिक रूप में काम में लाई जाती है।

8. सम्मोहन (Hypno-therapy)- सम्मोहन के द्वारा व्यक्ति की इच्छाएँ बाहर निकाली जाती हैं।

जो रोगी उम्र होते हैं, उनकी चिकित्सा ट्रांक्विलाइजर्स के उपयोग, रासायनिक विधियों एवं बिजली के धक्कों (Shock therapy) से की जाती है। पुरानी मानसिक बीमारियों की चिकित्सा मनोशल्य (Psycho-surgery) द्वारा की जाती है। इसमें प्रीफ्रन्टल लौब (Prefrontal lobe) को काट दिया जाता है।

प्रतिबोधात्मक (Perceptual) व्यवहार विकार

बालक किसी भी बात को किस प्रकार तथा किस प्रक्रिया से ग्रहण करता है, यह उसकी प्रतिबोधात्मक शक्ति पर निर्भर करता है। बालकों का प्रतिबोधात्मक व्यवहार संवेदना, प्रतिबोध तथा संबोध; इन तीन प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करता है। यदि बालक की संवेदना में दोष है तो स्वभावतः उसकी प्रतिबोध क्षमता में कमी आ जाएगी और उसका सामान्य व्यवहार समस्यामूलक हो जाएगा।

प्रतिबोध का सम्बन्ध बाह्य जगत से होता है। हमारे जीवन में कई बार अनेक भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इनसे व्यक्तित्व के व्यवहार में विसंगति उत्पन्न हो जाती है। अतः प्रतिबोध का अध्ययन इन दशाओं के लिए किया जाता है-

  1. जब हमारे अनुभव तथा निरीक्षण में त्रुटि हो जाती है। इससे गलतफहमियाँ बढ़ती हैं। अतः वस्तुस्थिति का सही अध्ययन करना आवश्यक है।
  2. जब हम यथार्थ जगत का प्रतिस्थापन किसी महत्वपूर्ण साधन द्वारा करना चाहते हैं।
  3. जब हम मानव-निरीक्षण को यन्त्रों द्वारा प्रतिस्थापित करना चाहते हैं
  4. जब शरीर के अंगों की मुद्रा में परिवर्तन होता है और उसका प्रभाव व्यवहार पर पड़ता है—जैसे दृष्टि दोष या श्रवण दोष से उत्पन्न विसंगति ।

बालक में प्रतिबोध का विकास जन्म से ही होने लगता है। आरम्भ में बालक की आँखें किसी वस्तु को देखती हैं। तो किसी वस्तु पर अधिक देर तक टिकती नहीं हैं। वह क्या देखता है, क्या सुनता है, किसे सुनता है आदि का प्रतिबोध धीरे-धीरे होता है। प्रतिबोध एक मानसिक क्रिया है। संवेदन एवं पूर्ण अनुभवों के आधार पर प्रतिबोध के सहारे व्यक्ति अर्थ (Meaning) प्राप्त करता है।

प्रतिबोध का असामान्य व्यवहार तथा दशाएँ दो हैं— (1) भ्रम, (2) मतिभ्रम

1. भ्रम (Illusion) – प्रतिबोध में सामान्यतया गलतियाँ हो जाती हैं। इसके कारण हैं। उदाहरणार्थ, हम अनेक ध्वनियों से किसी एक के प्रति प्रतिबोध करते हैं। हम अनुमान लगाते हैं कि यह ध्वनि अमुक व्यक्ति की है, परन्तु जब असलियत का पता चलता है तो हमें वह ध्वनि किसी और व्यक्ति की लगती है। एक वस्तु को एक व्यक्ति जिस प्रकार अनुभव करता है, यह आवश्यक नहीं है, दूसरे भी उसी प्रकार अनुभव करें। अतः भ्रम की परिभाषा यों की जा सकती है जब प्रतिबोध में ऐसी गलतियाँ होने लगती हैं, जिनका अनुभव तुरन्त होने लगे, वह स्थिति भ्रम कहलाती है।

भ्रम के कारण (Causes of illusion)- भ्रम के कारण इस प्रकार हैं-

  1. बाह्य परिस्थितियों की असमानता।
  2. संवेदना का दोषपूर्ण होना ।
  3. पूर्वनिश्चित आदतों का न होना।
  4. पूर्व अनुभव या वर्तमान स्वार्थ एवं प्रवणता ।
  5. आज्ञा का सुझाव ।

भ्रम के इन कारणों पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भ्रम की उत्पत्ति किसी एक दोष से ही हो जाती है। भ्रम का मजेदार उदाहरण यह है-प्लेटफार्म पर खड़ी रेलगाड़ी में बैठे व्यक्ति जब किसी दूसरी गाड़ी को चलती देखते हैं तो उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि उनकी अपनी गाड़ी चल रही है।

2. मतिभ्रम (Halliucination) – मतिभ्रम वह मानसिक क्रिया है, जिसमें व्यक्ति बाह्य उत्तेजनाओं के अभाव में प्रतिबोधन करने लगता है। उदाहरणार्थ, हम कहीं पर एकान्त में बैठे हैं। हमें लगता है कि कोई हमें आवाज दे रहा है। वास्तविकता यह है कि आवाज नहीं दी गई।

मतिभ्रम दो प्रकार का होता है-

1. दृष्टि (Visual) मतिभ्रम- दृष्टि की सीमा में जो मतिभ्रम होता है, दृष्टि-मतिभ्रम कहलाता है।

2. ध्वन्यात्मक (Auditory) मतिभ्रम- ध्वनि की सीमा में जिसका संवहन सुनने मात्र से होता है, वह ध्वन्यात्मक मतिभ्रम कहलाता है।

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Anjali Yadav

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