शिक्षा के सिद्धान्त / PRINCIPLES OF EDUCATION

“शिक्षा समाज व्यवस्था का सर्वोच्च माध्यम है।”

"शिक्षा समाज व्यवस्था का सर्वोच्च माध्यम है।"
“शिक्षा समाज व्यवस्था का सर्वोच्च माध्यम है।”

“शिक्षा समाज व्यवस्था का सर्वोच्च माध्यम है।” व्याख्या कीजिए।

शिक्षा, समाज व्यवस्था का निर्माण करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। समाज की प्रणाली शिक्षा के द्वारा निर्मित होती है, परन्तु समाज का ढाँचा भी शिक्षा को प्रभावित करता है। ज्ञान का प्रसार शिक्षा करती है। और शिक्षा ही वालकों के ज्ञान-चक्षु खोलकर उन्हें समाज के योग्य बनाती है। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, मनुष्य समाज पर अपनी सुरक्षा, आराम, पालन-पोषण, शिक्षा तथा अन्य महत्वपूर्ण अवस्थाओं तथा सेवाओं के लिए निर्भर है। वह समाज पर अपने विचारों, स्वप्नों, आकांक्षाओं, अपने मन एवं शरीर की बहुत-सी व्याधियों के लिए निर्भर है। उस समाज में जन्म लेकर ही समाज की आवश्यकता को अपने साथ लाता है।

समाज व्यवस्था का अध्ययन समाजशास्त्र करता है। जिस वर्ग के अनुसार समाजशास्त्र मानवीय अन्तःक्रियाओं एवं अन्तः सम्बन्धों तथा उनके कारणों एवं फलों का अध्ययन करता है। सामाजिक शिक्षा के लिए जॉन डीवी, पीटर्स, बाबर, डेविस, डोलार्ड, टाबा, दुखम, मैक्स वेबर, क्लार्क, ओटावे तथा कार्ल मानहेम आदि ने शैक्षिक समाजशास्त्र की रचना की। शिक्षा एवं समाज व्यवस्था (Education and Social Order) शिक्षा द्वारा समाज में नवीन मान्यताओं का विकास एवं निर्माण होता है। समाज व्यवस्था बनाये रखने में शिक्षा अपना सहयोग इस प्रकार देती है-

1. सांस्कृतिक वंशक्रम (Cultural Heritage) – शिक्षा हजारों वर्षों के सांस्कृतिक वंशक्रम अगली पीढ़ी में संक्रान्त करती हैं। युग-युग की सांस्कृतिक परम्परायें शिक्षा के कारण ही विद्यमान हैं और समाज में व्यवस्था बनाए हुए हैं।

2. मानव विकास (Human Development) – जिस प्रकार शारीरिक विकास के लिए खाद्य सामग्री की आवश्यकता होती है उसी प्रकार शिक्षा, मानव विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा, मानव को उसको जंगली तथा बहशियाना आदतों का बहिष्कार करती है।

3. शिक्षा समाज की प्रवृत्तियों का केन्द्र है (Education is the Centre of Social Activities) – शिक्षा समाज की उन सभी प्रवृत्तियों का केन्द्र है, जिसमें व्यक्ति अपना जीवन व्यतीत करता है। इसलिए शिक्षा में पढ़ाई के अलावा अन्य सहगामी क्रियाओं को भी स्थान दिया जाता है, क्योंकि वे क्रियायें बालक को समाज व्यवस्था का पर्याप्त ज्ञान देती हैं। के० जी० सैयदेन ने इसलिए कहा है कोई भी समूह या समुदाय से उसकी प्रभावपूर्ण भूमिका की आशा उस समय तक नहीं की जा सकती, जब तक कि मानव मस्तिष्क इस प्रकार बना नहीं दिया जाता कि वह प्रगतिशीलता के साथ अनुकूलन तथा समायोजन कर सके। शिक्षा की समस्याओं का जन्म बौद्धिक रिक्तता में नहीं होता। उनका जन्म और उनकी विशेषताओं का निर्धारण प्रचलित सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा नैतिक जलवायु में होता है।

4. समाज व्यवस्था और राज्य का सम्बन्ध (Relationship between State and Social Order) – राज्य का कार्य समाज में निश्चित व्यवस्था सम्पादित करने का है। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा प्रणाली राज्यों की आवश्यकता के अनुरूप बदलती रहती है। शिक्षा अधिकारियों के हाथों का खिलौना बन जाती है और उसकी मौलिक सद्भावना का अन्त हो जाता है।

5. सामाजिक कुशलता का निर्माण (Creation of Social Efficiency) – शिक्षा का कार्य अपने कार्यक्रम के सामाजिक कौशल का निर्माण करना है। इससे बालकों में आत्म-निर्भरता तथा दृढ़ विश्वास एवं संकल्प शक्ति का विकास होता है और नये समाज का निर्माण होने लगता है।

6. व्यक्ति तथा समाज का समन्वय (Synthesis between Individual and Society) – वास्तविकता तो यह है कि शिक्षा और समाज व्यवस्था, व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकता के अनुसार कार्य करती है। व्यक्ति का समाज व्यवस्था में उतना ही सहयोग रहता है, जितना समाज का सहयोग व्यक्ति के निर्माण में रहता है। व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकता है के अनुरूप ही विद्यालय स्वयं में गतिशील संस्था बन जाती है। रॉस के अनुसार शिक्षा विद्यालय को रचनात्मक एवं जीवन समुदाय के रूप में परिणत करती है, जहाँ पर वह सोद्देश्य नियोजन में सावधानीपूर्वक भाग लेती है, इससे हम विद्यालयों को अपेक्षित दिशा में भाग लेने के लिए प्रेरित करते हैं, जिन्हें हम सामाजिक प्रगति का माध्यम मानते हैं।

भारतीय समाज तथा शिक्षा (Indian Society and Education)

भारतीय समाज की प्रकृति व्यक्तिवादी अधिक रही है, पर यह व्यक्तिवाद समष्टि के कल्याण की भावना से प्रेरित है। यहाँ पर समस्त समाज अनेक धर्मो, जातियों, कबीलों में बँटा है। ये सब विभिन्न विश्वासों के प्रति आस्था रखते हुए भी भावात्मक रूप से एक हैं।

भारतीय समाज की जितनी अच्छाइयाँ हैं, उतनी ही बुराइयाँ भी हैं। बुराइयों का अर्थ सामाजिक बुराइयों से है। घूँस, भ्रष्टाचार, जमाखोरी, स्वार्थपरता आदि ऐसे तत्व हैं, जिनसे समाज की व्यवस्था चरमरा उठी है। आज देश का हर व्यक्ति इस बात को अनुभव करने लगा है कि समाज व्यवस्था शिक्षा के बिना विकसित नहीं हो सकती। इसका परिणाम यह होता है कि शिक्षा की आवश्यकता की तीव्रता अनुभव की जाती है। संघर्ष की स्थिति पैदा होती है। इसके लिए हमें जीवन के यथार्थ को अनुभव करना होगा।

भारतीय समाज की प्रकृति (Nature of Indian Society)

भारतीय समाज अनेक समाजों तथा संस्कृतियों का समूह है, यहाँ पर इतनी भिन्नतायें पाई जाती हैं कि सहसा इसकी एकता का आभास नहीं होता। अनेक विविधताओं के होते हुए भी इसमें एकता है।

भारतीय समाज का इतिहास साक्षी है कि यहाँ राजतन्त्र के प्रति आस्था रही है। शैक्षिक जागरण के कारण अब प्रजातान्त्रिक भावना का विकास हुआ है। ग्रामों में सामन्तवाद की झलक अभी भी दिखाई देती है। यहाँ पर जाति एवं धार्मिक समूहों ने जीवन को नियन्त्रित किया हुआ है।

भारतीय समाज में समाज व्यवस्था का निर्माण करने के लिए शिक्षा निम्नलिखित प्रयत्न कर सकती है-

1. नवीन आदर्शों की स्थापना – शिक्षा का कार्य नवीन समाज के निर्माण के लिए नई व्यवस्था कायम करता है, इसलिए नवीन आदर्शों की स्थापना भी आवश्यक है। कोठारी शिक्षा आयोग ने भी इसका सन्दर्भ देते हुए कहा है- (1) आधुनिक समाज में ज्ञान का विकास तीव्र गति से हुआ है। इससे समाज में भारी परिवर्तन आया है। यह परिवर्तन शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन की अपेक्षा रखता है। जिज्ञासा की उत्पत्ति से रुचि, मनोवृत्ति, मूल्यों तथा कुशलता का उचित विकास होता है। अध्यापन पद्धति तथा अध्यापक प्रशिक्षण में इन सभी का ध्यान रखा जाये। (2) स्वयं को आधुनिक बनाने में समाज को स्वयं ही शिक्षा प्राप्त करनी होगी। शिक्षा के स्तर के साथ-साथ समाज में बुद्धिजीवी वर्ग का निर्माण भी होना चाहिए जो समाज के हर वर्ग से आये, जो नये भारत का निर्माण कर सके। आयोग ने इस प्रकार के नये आदर्शों की स्थापना पर जोर दिया है।

2. भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्य – वर्तमान परिस्थितियों में भारतीय समाज व्यवस्था को उचित रूप देने के लिए आवश्यक है कि पाठ्यक्रम में नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के शिक्षण को स्थान दिया जाये।

इस सन्दर्भ में कोठारी शिक्षा आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं-

1. केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों को विश्वविद्यालय आयोग द्वारा प्रस्तावित सिफारिशों को सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास के लिए लागू करना चाहिए।

2. प्राइवेट स्कूल तथा कॉलिजों को भी उपरोक्त सिफारिशों का पालन करना चाहिए।

3. स्कूल तथा कॉलिजों में सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के विकास के लिए टाइम-टेबिल में विभिन्न अध्यापकों द्वारा ऐसे कार्यक्रमों के संचालन की व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रशिक्षण विद्यालयों में तो यह कार्यक्रम अवश्य होना चाहिए।

4. विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन विश्वविद्यालयों में कराया जाये।

3. समाज की मानव शक्ति का उपयोग शिक्षा उसी समय आदर्श समाज व्यवस्था कायम करने में सफल हो सकेगी, जबकि समाज की मानव शक्ति का पूरा-पूरा उपयोग हो सकेगा। यदि मानव शक्ति का उपयोग ठीक नहीं हो पाता है तो इसका अर्थ है समाज में अराजक तत्वों की प्रधानता होना।”

कोठारी शिक्षा आयोग ने, मानव शक्ति के उपयोग के बारे में शिक्षा नीति इस प्रकार होनी चाहिए, बताई है-

  1. सात वर्ष तक के समय की सामान्य शिक्षा निःशुल्क हो, अनिवार्य हो और जहाँ तक सम्भव हो, इसका विस्तार लोअर सेकेण्डरी तक हो जाये।
  2. हायर सेकेण्डरी शिक्षा का प्रबन्ध उसके लिए हो, जो योग्य हैं और समाज में प्रशिक्षित मानव शक्ति के अभाव को पूरा करना चाहते हैं।
  3. कुशल व्यक्तियों के निर्माण में शिक्षा सहायक हो।
  4. योग्य व्यक्तियों को विकास का उचित अवसर मिले।
  5. जन अशिक्षा को दूर करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।

4. राज्य और शिक्षा- भारत में संघात्मक एवं धर्म निरपेक्ष राज्य की कल्पना की गई है। राज्यों ने प्रदेशों को शिक्षा सौंप रखी है। अभी तक केन्द्र तथा प्रदेश दोनों पर कांग्रेस का शासन था, इसलिए शिक्षा की नीति वहीं चलती रही, जैसा सरकार चाहती थी। अब प्रदेशों में अन्य सरकारें बन गई हैं और शिक्षा को लेकर विरोध भी चलने लगा है। अतः शिक्षा को नीति ढुलमुल हो गई है। आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा केन्द्र का विषय हो। शिक्षा केन्द्र का विषय होने के कारण ही समाज की भावी पीढ़ी व्यवस्थित हो सकेगी। इसके अभाव में समाज व्यवस्था नहीं हो सकेगी। रेमष्ट के अनुसार-“राज्य की काम शिक्षा को बचाना तथा उसका पोषण करना है, उसको समाप्त करना या परिवार या व्यक्ति का काम अपने हाथ में लेना नहीं है। यह ध्यान रहे कि राज्य का नियन्त्रण शिक्षा के सिद्धान्तों के विपरीत न हो, उसका दमन न कर पाये अर्थात् उसका आंशिक निर्देशन तथा नियन्त्रण होना चाहिए।”

निष्कर्ष (Conclusion) – उपरोक्त व्यवस्था से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि समाज व्यवस्था के लिए शिक्षा आवश्यक है। जैसी शिक्षा होगी, वैसी समाज व्यवस्था होगी। इसमें एक बात ध्यान रखने की यह है कि राज्य का हस्तक्षेप अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए शिक्षा के क्षेत्र में न हो। यदि हस्तक्षेप होता है तो इसका परिणाम यह होगा कि शिक्षा समाज व्यवस्था में अपना योग न दे सकेगी।

अतः शिक्षा वह आधार है जिस पर समाज अपनी आवश्यकता के अनुकूल अपने लिए व्यवस्था का निर्माण कर सकता है।

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Anjali Yadav

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