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योजना विधि अथवा प्रोजेक्ट विधि
प्रोजेक्ट पद्धति का व्यापक प्रयोग यद्यपि वर्तमान शिक्षा पद्धति के अन्तर्गत ही किया जा रहा है, परन्तु फिर भी यह पद्धति कोई नवीन कोई नवीन पद्धति नहीं है। अनेक शिक्षाविदों एवं दार्शनिकों ने प्रारम्भ से ही अपनी पुस्तकों एवं लेखों में इसके महत्त्व पर प्रकाश डाला है। रूसो, फ्रोबेल तथा विलियन काबेट ने अपनी पुस्तकों में इसके महत्त्व के सम्बन्ध में व्यापक रूप से अपने विचार प्रकट किये हैं।
प्रोजेक्ट पद्धति का प्रयोग सर्वप्रथम व्यावसायिक क्षेत्र में किया गया था। शिक्षा के क्षेत्र में इसका प्रयोग सर्वप्रथम कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन डयूवी तथा उनके शिष्य किलपैट्रिक के द्वारा किया गया। जॉन ड्यूवी प्रयोजनवाद से प्रभावित थे और वे शिक्षा को जीवन से सम्बद्ध करने के लिये अत्यन्त उत्सुक थे। तत्कालिक शैक्षिक व्यवस्था के दुष्परिणाम का उन पर विशेष प्रभाव पड़ा था। स्वयं डब्ल्यू एच० किलपैट्रिक ने भी इस सम्बन्ध में लिखा-
“वर्तमान में स्कूल तथा समाज तीव्र एवं विस्तृत रूप से पृथक् हो गये हैं। विचार एवं कार्य दो क्षेत्रों में स्थान, समय तथा भेद में असम्बन्धित हो गये हैं। संक्षेप में, स्कूल के अन्दर जो कुछ पढ़ाया जाता है तथा संसार में जो कुछ हो रहा है, इन दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं है। स्कूल में बालकों को प्रौढ़ों के साथ सामाजिक क्रिया में भाग लेने का कोई अवसर प्राप्त नहीं होता है। अतः हम अन्तिम रूप से चाहते हैं कि शिक्षा वास्तविक जीवन की गहराई में प्रवेश करे. केवल सामाजिक जीवन में ही नहीं, अपितु उस उत्तम जीवन में भी जिसकी हम आकाँक्षा करते हैं।“
इस प्रकार तत्कालिक शिक्षा के शुष्क वातावरण को दूर करने तथा शिक्षा का जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये जॉन ड्यूवी के प्रयोजनवाद के आधार पर किलपैट्रिक के द्वारा इस पद्धति को एक सुनिश्चित रूप प्रदान किया गया।
योजना पद्धति का अर्थ – योजना पद्धति के अर्थ को स्पष्ट करने हेतु अनेक शिक्षाविदों, मनोवैज्ञानिकों आदि ने अपने विचारों को अभिव्यक्त किया है। उनके विचारों का संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित है-
1. स्टीवेन्सन– “प्रोजेक्ट एक समस्यामूलक कार्य है, जिसका समाधान उसके स्वाभाविक वातावरण में रहते हुए हो किया जाता है। “
2. पारकट– “योजना कार्य की एक इकाई है, जिसमें छात्रों को कार्य की योजना और सम्पन्नता के लिए उत्तरदायी बनाया जाता है। “
3. मरसेल- “शिक्षण की निगमन या आगमन विधि के प्रोजेक्ट पद्धति सार रूप में न तो कभी शिक्षण की विधि थी और न है। इसकी मूल धारणा यह है कि सीखने वाले का सक्रिय उद्देश्य अतिमहत्त्वपूर्ण होता है। सीखने वाले को स्वयं कार्य करना चाहिये, अन्यथा वह अच्छी तरह नहीं सीख सकेगा।”
4. किलपैट्रिक-“प्रोजेक्ट सामाजिक वातावरण में पूर्ण संलग्नता से किया जाने वाला उद्देश्यपूर्ण कार्य है।”
5. योकम व सिम्पसन– “योजना स्वाभाविक वातावरण में किये जाने वाले स्वाभाविक और जीवन तुल्य कार्य की एक बड़ी इकाई होती है। इसमें किसी कार्य को करने या किसी वस्तु को बनाने की समस्या का पूर्ण रूप से समाधान करने का प्रयास किया जाता है। यह अत्यधिक उद्देश्यपूर्ण होता है और इसमें किसी कार्य की पूर्णता निहित होती है। यह कार्य शारीरिक, मानसिक और सामाजिक या लगभग पूर्णतया मानसिक प्रकार का हो सकता है। जैसे—गुड़िया का घर बनाना और सजाना, हाथ से किया जाने वाला कोई कार्य और नाटक का लेखन तथा अभिनय। इसमें विभिन्न प्रकार की अनेक क्रियायें सम्मिलित रहती हैं और इसको पूर्ण करने के लिए किसी भी उचित सामग्री का प्रयोग किया जा सकता है। “
6. थामस एण्ड लैग- “प्रोजेक्ट इच्छानुसार किया जाने वाला ऐसा कार्य है, जिसमें रचनात्मक प्रयास अथवा विचार हो और जिसका कुछ सकारात्मक परिणाम हो।”
7. प्रो० बैलार्ड- “प्रोजेक्ट वास्तविक जीवन का एक छोटा सा अंश है, जिसको विद्यालय में प्रस्तावित किया जाता है।” योजना पद्धति के सिद्धान्त-किलपैट्रिक ने योजना पद्धति के निर्माण में जिन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को आधार बनाया, उनका संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित है-
1. समन्वय का सिद्धान्त – छात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास में यह सिद्धान्त अपना विशेष महत्त्व रखता है। प्रोजेक्ट पद्धति में दोनों ही प्रकार के समन्वय के द्वारा प्राप्त करना सम्भव होता है। रायबर्न के शब्दों में, “प्रोजेक्ट पद्धति से संगठित विद्यालय में विषयों का स्वाभाविक सहसम्बन्ध होता है। समस्त विषय जिनका बालक अध्ययन करता है उद्देश्यपूर्ण क्रिया से सम्बन्धित होते हैं और उद्देश्य केन्द्रित समन्वयकर्त्ता होते हैं। “
2. उद्देश्य का सिद्धान्त – इस विधि के अन्तर्गत छात्रों को जो भी कार्य निर्धारित किया जाता है, उससे सम्बन्धित उद्देश्यों का उन्हें प्रारम्भ में ही स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। उद्देश्यों के सम्बन्ध में मानसिक रूप से स्थिर होने के परिणामस्वरूप वे अपने निर्धारित कार्य को यथासमय पूर्ण करने में सफल हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त उद्देश्यपूर्ण क्रिया के कारण उनमें रुचि का भी विकास होता है तथा वे अपने कार्य को उत्साह से तत्परता से करते हैं।
3. क्रियाशीलता का सिद्धान्त – छात्र स्वयं क्रिया करके जो अनुभव प्राप्त करता है, अथवा जो कुछ सीखता है, उसी के कारण उसका वांछित मानसिक, शारीरिक अथवा भावात्मक विकास सम्भव होता है, तथा स्वक्रिया के आधार पर प्राप्त ज्ञान का ही उसके जीवन में समुचित उपयोग सम्भव हो सकता है। इसी मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त को ध्यानान्तर्गत रखते हुए छात्रों को अधिकाधिक मानसिक एवं शारीरिक क्रियाओं को करने का अवसर प्रदान किया जाता है।
4. वास्तविकता का सिद्धान्त – प्रोजेक्ट पद्धति के अन्तर्गत छात्र जो कार्य करते हैं, वह उनके वास्तविक जीवन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखता है, क्योंकि प्रोजेक्ट कार्य को पूर्ण करने हेतु विद्यालय में उन्हीं परिस्थितियों का सृजन किया जाता है, जिस प्रकार की परिस्थितियाँ छात्रों के भावी जीवन में सम्भावित होती है। इस प्रकार योजना पद्धति के माध्यम से किया जाने वाला कार्य एक यथार्थ कार्य होता है और उसका समापन भी यथार्थ परिस्थिति में ही सम्पन्न होता है।
5. अनुभव का सिद्धान्त – बालक स्वअनुभवों के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त करता है, केवल वही ज्ञान उसके मस्तिष्क का स्थायी अंग बन सकता है तथा अनुभव के आधार पर प्राप्त ज्ञान का ही जीवन की व्यावहारिक परिस्थितियों में प्रयोग सम्भव हो सकता है। इस पद्धति में छात्र सामूहिक अथवा वैयक्तिक रूप से जो कुछ भी सीखते हैं वह सक्रियाओं के आधार पर प्राप्त अनुभव के द्वारा ही सीखते हैं।
6. सामाजिकता का सिद्धान्त – प्रोजेक्ट पद्धति में सामाजिकता के सिद्धान्त को भी विशेष महत्त्व प्रदान किया जाता है। सामूहिक रूप से निर्धारित कार्यों की पूर्ति करते समय छात्रों में अनेक सामाजिक गुणों यथा त्याग, सहयोग, संयम आदि का आविर्भाव होता है, और उनमें स्वस्थ सामाजिक दृष्टिकोण उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार भावी जीवन में छात्रों को सामाजिक दृष्टि से सफल बनाने हेतु भी यह विधि महत्त्वपूर्ण है।
7. मितव्ययता का सिद्धान्त – प्रोजेक्ट पद्धति में छात्रों को मानसिक एवं शारीरिक रूप से एक निर्धारित अवधि में अपने कार्यों का समापन करना अत्यन्त आवश्यक होता है। इस दृष्टि से इस सिद्धान्त का इस पद्धति में विशेष महत्त्व है। अतः यह प्रयास किया जाता है कि छात्र अल्पसमय में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त कर सके तथा उनकी क्षमताओं का सार्थक एवं पर्याप्त उपयोग हो सके। आर्थिक रूप से भी धन की मितव्ययता को दृष्टिगत रखते हुए प्रोजेक्ट का निर्धारण किया जाता है।
8. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त – प्रोजेक्ट पद्धति में छात्रों को आवश्यक रूप से नियन्त्रित करने के स्थान पर उन्हें अपने कार्य का चयन करने तथा निर्धारित कार्य को पूर्ण करने की स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है। शिक्षक छात्रों के कार्यों में केवल पथ-प्रदर्शक के रूप में सहायता प्रदान करता है।
9. उपयोगिता का सिद्धान्त – योजना पद्धति में निर्धारित कार्य का छात्रों के तत्कालीन अथवा भावी जीवन में किसी न किसी रूप में सकारात्मक महत्त्व अवश्य होता है। इस प्रकार यह पद्धति उपयोगिता के सिद्धान्त को महत्त्व प्रदान करती है। कार्य की उपयोगिता से अवगत होकर ही निर्धारित कार्य को करने वाले छात्र भी कार्य में अनी रुचि, उत्साह, लगन, तत्परता आदि का प्रदर्शन करते हैं।
योजना पद्धति के पद
1. वांछित परिस्थितियाँ उत्पन्न करना – इस पद्धति में शिक्षक का कार्य केवल एक पथ-प्रदर्शक के रूप में छात्रों की सहायता करना होता है। छात्रों को अपने कार्य के चयन एवं उसे पूर्ण करने की पर्याप्त स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। शिक्षक का कार्य मात्र इतना ही होता है कि वह छात्रों को कार्य की दिशा में प्रेरित एवं उत्साहित करे तथा इस प्रकार की परिस्थितियों का निर्माण करे, जिससे कार्य में उनकी रुचि जाग्रत हो जाये।
2. योजना का चयन – प्रोजेक्ट पद्धति में सर्वप्रथम छात्रों को इस प्रकार की योजना का चयन करना होता है, जिस स्वाभाविक रूप से पूर्ण किया जाना सम्भव हो। वे सर्वप्रथम अपनी-अपनी योजनाओं को वैयक्तिक अथवा सामूहिक रूप से अध्यापक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। अध्यापक इस सम्बन्ध में उन्हें समुचित निर्देशन प्रदान करता है तथा यह निर्धारित करता है कि कौन-सी समस्या सर्वाधिक उपयुक्त है अथवा उसे व्यावहारिक दृष्टि से पूर्ण किया जा सकता है। योजना के चयन में समय, धन एवं उपलब्ध साधनों को दृष्टि में रखकर ही निर्णय लिया जाता है-
3. योजना सम्बन्धी कार्यक्रम का निर्माण – छात्रों को योजना पूर्ति हेतु प्रेरित एवं उत्साहित करने तथा योजना के चयन में सहायता प्रदान करने के उपरान्त योजना के कार्यक्रम को बनाने में शिक्षक के द्वारा छात्रों का पथ-प्रदर्शन किया जाता है। इस पद के अन्तर्गत कक्षा के छात्र योजना को पूर्ण करने के सम्बन्ध में अपने-अपने कार्यों का प्रस्तुतीकरण करते हैं। कथा के समस्त छात्र एवं शिक्षक इस सम्बन्ध में परस्पर विचार-विमर्श करते हैं तथा तदुपरान्त छात्रों की रुचि, योग्यता, क्षमता आदि के अनुरूप पृथक्-पृथक् रूप से योजना के सम्बन्ध में कार्य का विभाजन कर दिया जाता है।
4. योजना को पूर्ण करना योजना के चयन और कार्यक्रम के उपरान्त सभी छात्र योजना को पूर्ण करने की दशा में प्रवृत्त हो जाते हैं। अध्यापक द्वारा उन्हें स्वक्रियाओं द्वारा सीखने की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है तथा जहाँ अपेक्षित होता है वहाँ वह उनका पथ-प्रदर्शन करते हुए उनकी त्रुटियों में सुधार करता है तथा उनके कार्य का सजगता एवं निष्पक्षतापूर्वक निरीक्षण करता है। छात्र सामग्री के एकत्रीकरण, वस्तुओं के निरीक्षण, पारस्परिक विचार-विमर्श, अध्ययन एवं निर्माण आदि के द्वारा कार्य को सम्पन्न करने की दिशा में अप्रसरित हो जाते हैं।
5. योजना का मूल्यांकन – योजना के पूर्ण हो जाने के उपरान्त छात्र अपने-अपने कार्यों को शिक्षक के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। शिक्षक उनके कार्यों का वस्तुनिष्ठ रूप से निरीक्षण करता है, तथा कार्यों के सम्बन्ध में छात्रों से विचार-विमर्श करता है। छात्र एवं अध्यापक परस्पर विचार-विमर्श करके यह निष्कर्ष निकालते हैं कि उन्हें उद्देश्य की दिशा में किस सीमा तक प्राप्ति हुई है ?
6. योजना को लिखना प्रोजेक्ट के मूल्यांकन के पश्चात् प्रोजेक्ट के सम्बन्ध में छात्रों को लिखित कार्य भी करना होता है। उपरोक्त पाँच पदों के सम्बन्ध में वे कार्य का यथावश्यक विवरण अपनी प्रोजेक्ट पुस्तिकाओं में लिखते हैं तथा यदि उनका कार्य शेष है तो यह भी लिखते हैं कि अब कार्य कितना शेष है तथा उसकी पूर्ति कब तक सम्भावित है।
योजना पद्धति के गुण
1. इस पद्धति के माध्यम से बालकों की तर्क, चिन्तन, निर्णय आदि विविध मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
2. इसके माध्यम से जीवन के प्रति वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण का विकास होता है।
3. सामाजिकता से सम्बन्धित विभिन्न गुण एवं अभिवृत्तियों का विकास इसके द्वारा सम्भव है।
4. योजना पद्धति मनावैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होती है, अतः यह बालक को प्रमुख स्थान देती है।
5. यह बालक को अनुभवों के आधार पर व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करती है।
6. यह पद्धति बालकों को अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं के अनुरूप विकास करने का अवसर प्रदान करती है।
7. जीवन की यथार्थ परिस्थितियों से सम्बन्धित यथार्थ ज्ञान इस पद्धति के द्वारा छात्रों को प्रदान किया जाता है।
8. इस पद्धति के द्वारा छात्र ध्यान एवं रुचिपूर्वक कार्य को करते हैं।
9. प्रोजेक्ट पद्धति मितव्ययता के सिद्धान्त पर आधारित है।
10. छात्रों को जनतन्त्रीय प्रणाली पर आधारित जीवन को जीने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
11. इस पद्धति के द्वारा छात्रों को समन्वित रूप से ज्ञान प्राप्त होता है।
12. इसके द्वारा छात्रों में आत्म-विश्वास, स्वावलम्बन, नेतृत्व आदि का विकास होता है।
13. स्वअनुभव के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने के कारण छात्रों द्वारा प्राप्त ज्ञान उनके मस्तिष्क का स्थायी अंग बन जाता है।
14. यह पद्धति वैयक्तिक विभिन्नता के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त पर आधारित है।
15. बालकों के चरित्र एवं व्यक्तित्व का इसके द्वारा विशेष विकास होता है।
16. यह पद्धति छात्रों का मानसिक, भावात्मक एवं शारीरिक तीनों ही दृष्टियों से विकास करने में सहायक है।
17. प्रोजेक्ट पद्धति छात्रों में श्रम के प्रति आदर की भावना उत्पन्न करती है।
योजना पद्धति के दोष
1. प्रोजेक्ट पद्धति के अन्तर्गत छात्र अत्यधिक त्रुटियाँ करते हैं, जिससे उनकी क्षमता एवं समय का अपव्यय होता
2. समस्त प्रकार की योजनाओं हेतु विद्यालय में अथवा उससे बाहर यथार्थ एवं स्वाभाविक परिस्थितियों का निर्माण अत्यन्त कठिन होता है।
3. भारत जैसे निर्धन देश के समस्त विद्यालयों में योजना पद्धति के लिये आवश्यक पर्याप्त साधनों का प्रबन्ध अत्यन्त कठिन है।
4. प्रायः पिछड़े हुए बालक इस पद्धति के द्वारा अविकसित दशा में ही रह जाते हैं।
5. इस पद्धति हेतु आवश्यक पाठ्य पुस्तकों का भी पर्याप्त अभाव है।
6. प्रोजेक्ट पद्धति के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने वाले छात्र जब अन्य सामान्य विद्यालयों में प्रवेश लेते हैं तो उन्हें अत्यन्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
7. इस पद्धति का प्रयोग समस्त विषयों के शिक्षण हेतु नहीं किया जा सकता। 8. इस पद्धति के अन्तर्गत प्राप्त ज्ञान की पुनरावृत्ति को महत्त्व प्रदान नहीं किया जाता।
9. व्यावहारिक दृष्टि से इसके द्वारा छात्रों को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता।
10. इस पद्धति के माध्यम से अध्यापकों के कार्यभार में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है और वे अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कुशलतापूर्वक नहीं कर पाते हैं।
11. प्रोजेक्ट पद्धति के आधार पर ज्ञान प्राप्त करने वालों की परीक्षा भी सरल कार्य नहीं है।
12. इस पद्धति के अन्तर्गत उपयुक्त योजना का चुनाव एक कठिन कार्य है।
13. प्रोजेक्ट पद्धति में समय सारिणी के माध्यम से शैक्षिक व्यवस्था नहीं की जा सकती, जिसके कारण विद्यालयो शिक्षण प्रायः अव्यवस्थित हो जाता है।
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