शिक्षण विधियाँ / METHODS OF TEACHING TOPICS

शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण | Classification of Teaching Objectives in Hindi

शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण | Classification of Teaching Objectives in Hindi
शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण | Classification of Teaching Objectives in Hindi

शिक्षण उद्देश्यों के वर्गीकरण की विवेचना कीजिये।

शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण (Classification of Teaching Objectives)

शिक्षण उद्देश्यों के वर्गीकरण हेतु अनेक प्रयास किये गये, जिनके फलस्वरूप वह प्रारम्भिक रूप में दो वर्गों में विभाजित किया गया है-

1. सामान्य उद्देश्य (General Objectives) – ये उद्देश्य सामान्य रूप से विज्ञान के एक विषय के रूप में होते हैं।

2. विशिष्ट उद्देश्य (Specific Objectives) – ये उद्देश्य एक समय-विशेष में पढ़ाये जाने वाले प्रकरण से सम्बन्धित होते हैं। प्रस्तुत रूप से इन उद्देश्यों को निम्नलिखित चार भागों में विभाजित किया जाता है-

  1. ज्ञानात्मक (Knowledge),
  2. अवबोधात्मक (Understanding),
  3. क्रियात्मक (Application),
  4. सृजनात्मक (Creative)

3. प्रत्याशित व्यावहारिक उद्देश्य (Expected behavioural objectives)- ये उद्देश्य इस बात का संकेत करते हैं कि छात्रों में किस प्रकार का प्रत्याशित व्यावहारिक परिवर्तन आ सकता है। क्या छात्र किसी तथ्य की परिभाषा कर सकेंगे अथवा रूपरेखा बना सकेंगे? अथवा किसी प्रकार का चातुर्य प्रदर्शित करेंगे।

विज्ञान-शिक्षण के उद्देश्यों को शिक्षाविदों ने भिन्न-भिन्न रूपों में वर्गीकृत किया है तथा विभिन्न आयोगों, कमेटियों, सम्मेलनों व कार्यशालाओं के प्रतिवेदनों में विद्यालयों के प्रत्येक स्तर के लिये अलग-अलग उद्देश्यों का उल्लेख किया है, जो संक्षेप में निम्न प्रकार है-

ब्लूम के अनुसार (Bloom’s Approach to the Taxonomy of Educational Objectives) – जिस प्रकार जीव विज्ञान में पेड़-पौधों व जन्तुओं को उनके वर्ग, उपवर्ग, क्रम, समुदाय तथा जाति आदि में वर्गीकृत करके उनका अध्ययन सुगम बनाया गया है, उसी प्रकार शैक्षिक उद्देश्यों को ब्लूम ने प्रमुख तीन क्षेत्रों में विभाजित करके उपवर्गों की व्याख्या की है।

शिक्षकों ने सामान्य उद्देश्यों को वांछित लक्ष्यों के रूप में स्वीकार किया, किन्तु इनकी अस्पष्टता ने शिक्षण में इनके प्रयोग में आर्थिक सहायता नहीं दी। इस दोष को दूर करने के लिये मनोवैज्ञानिकों के एक समूह ने सन् 1948 में मानव व्यवहार के समान तत्त्वों को वर्गीकृत करने हेतु प्रयास किये। थोड़े-से अनुसन्धान के पश्चात् ही इस समूह ने उद्देश्यों को तीन वर्गों (Domains) में विभाजित किया जिनका नामांकन निम्नलिखित है-

  1. ज्ञानात्मक उद्देश्य (Cognitive Objectives),
  2. भावात्मक उद्देश्य (Affective Objectives),
  3. मनोगत्यात्मक उद्देश्य (Psychomotor Objectives)।

इस समूह ने एक वर्गीकरण (Taxonomy) का निर्माण किया, जिसका आधार ‘मूर्त से अमूर्त’ (From concrete to Abstract) और ‘सरल से जटिल’ (From simple to complex) था। Bloom और उसके सहयोगियों ने भी शिकागो विश्वविद्यालय में इन तीनों वर्गों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया।

ज्ञानात्मक पक्ष का Bloom ने 1956 में, भावात्मक पक्ष का ब्लूम, कर्थबाल तथा मसीहा ने 1964 में तथा मनोगत्यात्मक पक्ष का Sympson (सिम्पसन) ने 1963 में वर्गीकरण प्रस्तुत किया।

इन वर्गीकरण को अग्र तालिका द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-

शिक्षण उद्देश्यों का वर्गीकरण (Taxonomy of Instructional Objectives)

ज्ञानात्मक पक्ष (Cognitive Domain) भावात्मक पक्ष (Affective Domain) मनोगत्यात्मक पक्ष (Psychomotor Domain)
1. ज्ञान (Knowledge) 1. ग्रहण करना (Receiving) 1. उद्दीपन (Impulsion)
2. बोध (Comprehension) 2. अनुक्रिया (Responding) 2. कार्य करना (Manipulation)
3. प्रयोग (Application) 3. मूल्य-स्थापन (Valuing) 3. नियन्त्रण (Control)
4. विश्लेषण (Analysis) 4. विचारना (Conceptualization) 4. समायोजन (Co-ordination)
5. संश्लेषण (Synthesis) 5. व्यवस्था (Organisation). 5. स्वभावीकरण (Naturalization)
6. मूल्यांकन (Evaluation) 6. मूल्य समूह का विशिष्टीकरण (Characterization of Value System) 6. आदत निर्माण (Habit formation)

1. ज्ञानात्मक पक्ष (Cognitive Domain) – ज्ञानात्मक पक्ष के विभिन्न स्तरों को निम्न प्रकार समझा जा सकता है-

(i) ज्ञान (Knowledge) – ज्ञान से तात्पर्य अधिगम-सामग्री में निहित शब्दावली, तथ्यों, नियमों, सिद्धान्तों, मानदण्डों, मान्यताओं, परम्पराओं, विधियों आदि को मानसिक स्तर पर स्पष्ट रूप में समझने से है, जिससे छात्र सामान्यीकरण कर ज्ञान अर्जन करता है।

(ii) बोध (Comprehension)- ज्ञान प्राप्त करने में याद करना प्रमुख होता है, परन्तु जब तक बालक उस ज्ञान का अनुवाद (Translation), अन्तर्वेशन (Interpolation) तथा बहिर्वेशन (Extrapolation) न कर सके तब तक वह ज्ञान अधूरा है। अतः बोध संज्ञानात्मक पक्ष का ज्ञान से उच्च स्तर का पक्ष है, जिसमें अनुवाद, अन्तर्वेशन और बहिवेंशन सम्मिलित है।

(iii) प्रयोग (Application)- प्रयोग में सीखे गये ज्ञान का नवीन परिस्थितियों में प्रयोग की क्षमता आती है। किसी समस्या के समाधान के लिये पूर्व अर्जित ज्ञान को प्रयोग में लाना ही प्रयोग कहलाता है। यह भी एक मानसिक क्रिया है।

(iv) विश्लेषण (Analysis)- संज्ञानात्मक पक्ष के इस स्तर पर अधिगम सामग्री की इकाई का सूक्ष्मता से अध्ययन करता है, जिसमें विषय-सामग्री के अर्थ को गहराई से समझकर उसे छोटी से छोटी इकाई के रूप में उसके लक्षणों की परख की जाती है। विश्लेषण अधिगम-सामग्री के तत्त्वों (Elements), आपसी सम्बन्ध (Relationship) तथा संगठनात्मक सिद्धान्तों (Organisational principles) का किया जाता है।

(v) संश्लेषण (Synthesis) – सरल शब्दों में खण्डों को समग्र रूप प्रदान करना ही संश्लेषण है। इसमें तत्त्वों, सम्बन्धों व सिद्धान्तों में विभाजित इकाइयों को पूर्ण अधिगम इकाई में संयोजित किया जाता है, जिससे किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है।

(vi) मूल्यांकन (Evaluation) – मूल्यांकन का उद्देश्य किसी मूल्य क्रिया, परिणाम, विधि तथा सामग्री आदि के सम्बन्ध में सही निर्णय लेना है। मूल्यांकन में आन्तरिक तथा बाह्य साक्ष्यों को आधार बनाया जाता है।

2. भावात्मक पक्ष (Affection Domain)- इस पक्ष का सम्बन्ध प्रमुख रूप से अभिवृत्तियों, रुचियों, मूल्यों, प्रशंसा तथा अनुशंसा से है। भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों को परिभाषित करना और उनका मूल्यांकन करना एक कठिन कार्य है। फिर भी संज्ञानात्मक पक्ष के आरोही क्रम के समान हो केयहोल तथा अन्य (Krahwhol & et.) ने इस पक्ष के भी विविध पदों का वर्णन किया है, जिसकी व्याख्या संक्षेप में निम्न प्रकार है-

(1) ग्रहण (Receiving)- भावात्मक पक्ष का यह प्रथम तथा निम्नतम स्तर है, जिसमें व्यक्ति की विज्ञान के सम्बन्ध में विविध सूचनाओं के स्रोतों के प्रति जागरूकता जुड़ी हुई है। जब भी विज्ञान के ज्ञान के स्रोतों से व्यक्ति का सामना हो वह उन्हें पहचान कर ग्रहण कर ले, यही इस स्तर का अर्थ है, अर्थात् यह स्तर व्यक्ति की संवेदनशीलता को व्यक्त करता है।

(ii) अनुकिया (Responding) – यह स्तर किसी ज्ञान स्रोत की ओर ध्यान देने या जागरूक होने से कहीं अधिक उच्च स्थान रखता है, क्योंकि इसमें व्यक्ति प्रक्रिया अथवा उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया स्वीकार, अनुक्रिया इच्छा तथा सन्तोष को व्यक्त करता है। इस अवस्था में विज्ञान विषय को पढ़ना विभिन्न पाठ्य सहगामी क्रियाओं में भाग लेने तथा विज्ञान परियोजनाओं को स्वीकार करना आदि सम्मिलित हैं।

(ii) मूल्य-स्थापन (Valuing)- भावात्मक पक्ष का यह तीसरा स्तर है, जिसके अन्तर्गत आदर्शों तथा मूल्यों के प्रति आस्था एवं दृढ़ता आती है। इस स्तर का उद्देश्य है-वैज्ञानिक अभिवृत्ति का विकास; जैसे- नियन्त्रित दशा में किये गये प्रयोगों में उपलब्ध सूचनाओं के दूसरे व्यक्तियों की विचारधाराओं की तुलना में प्राथमिकता देना, अन्धविश्वासों का बहिष्कार करना, प्रमाणित साक्ष्य प्राप्त होने तक निर्णय स्थापित करना।

(iv) संगठन (Organisation)- इस स्तर पर मूल्यों का व्यवस्थीकरण होता है। इसमें संज्ञानात्मक व्यवहार अर्थात् सूझबूझ के द्वारा विश्लेषण तथा संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है। औपचारिक शिक्षा के प्रारम्भिक काल में इस क्षमता का विकास नहीं हो पाता है। परिपक्वता के साथ-साथ ही संगठन क्षमता विकसित होती है, तभी बालक अनुभवों व मूल्यों का विश्लेषण-संश्लेषण कर सामान्यीकरण कर पाता है।

(v) मूल्य समूह का विशिष्टीकरण (Characterisation of Value Complex) – भावात्मक पक्ष के इस उच्चतम स्तर में व्यक्ति के व्यवहार का विचारों, आदर्शों, मूल्यों का विश्व परिप्रेक्ष्य में व्यवस्थीकरण होता है, जिससे उसका सम्पूर्ण जीवन-दर्शन प्रभावित होता है।

मनोगत्यात्मक पक्ष (Psychomotor Domain)

इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के कौशल (Skills) आ जाते हैं। मानसिक रूप से प्रत्यक्षीकरण से आरम्भ होकर शारीरिक जटिल प्रत्यक्ष अनुक्रिया (Complex over Response) कौशल के अन्तर्गत आते हैं। विज्ञान शिक्षण में मुख्यतः निम्न कौशल आ जाते हैं-

1. प्रयोगात्मक कौशल (Experimental Skill) – इसके अन्तर्गत उपकरण व यन्त्रों का कुशलतापूर्वक प्रयोग, प्रयोगों व उपकरणों को क्रमबद्ध करना एवं रसायन, उपकरण एवं प्रतिरूप (Specimen) को रक्षित करना आते हैं।

2. रचनात्मक कौशल (Constructional Skill) — इसके अन्तर्गत स्वनिर्मित उपकरणों का निर्माण एवं बिगड़े हुये उपकरणों को ठीक करने के कौशल आ जाते हैं।

3. रेखांकन कौशल (Drawing Skill)- इसके अन्तर्गत प्रयोगों, जीवों, उपकरणों आदि का आलेखन आ जाता है।

4. समस्या समाधान कौशल (Problem Solving Skill) |

5. निरीक्षण कौशल (Observational Skill)

ब्लूम द्वारा प्रतिपादित शैक्षिक उद्देश्यों के त्रिपक्षीय वर्गीकरण से स्पष्ट है कि विद्यालयी पाठ्यक्रम से किसी भी विषय को पढ़ाने का उद्देश्य शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों से अलग नहीं है। शिक्षा का उद्देश्य है-बालक का सर्वांगीण विकास, जिससे वह एक सफल नागरिक बन सके और स्वयं को समाज की प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में सफलतापूर्वक समायोजित कर सके। विज्ञान विषय के उद्देश्य भी शिक्षा के उद्देश्यों से अलग नहीं। ब्लूम के उपर्युक्त वर्णन के आधार पर विज्ञान के प्रमुख उद्देश्य, जिनके द्वारा आज के वैज्ञानिक युग में बालक का समायोजन सम्भव है, निम्न है-

  1. ज्ञान (Knowledge),
  2. कौशल (Skills),
  3. रुचि व आदतें (Interest and Habits),
  4. योग्यतायें (Abilitics),
  5. अभिवृत्तियाँ (Attitudes),
  6. वैज्ञानिक विधि में प्रशिक्षण (Training in Scientific Method),
  7. प्रशंसात्मक क्षमतायें (Appreciations),
  8. अवकाश के लिये कार्य (To provide work for leisure),
  9. उत्तम जीवन के लिये प्रशिक्षण (Training for better living),
  10. व्यवसाय तथा विशिष्ट क्षेत्र के लिये आधार प्रदान करना (To form basis for vocation and specialization)

1. ज्ञान (Knowledge) – विज्ञान विषय के प्रमुख उद्देश्यों का यह एक बुनियादी उद्देश्य है। विज्ञान के इस उद्देश्य पर अत्यधिक बल दिया जाता है। इस उद्देश्य पूर्ति में विज्ञान के छात्र निम्नलिखित बातों का ज्ञान प्राप्त करते हैं-

  1. दैनिक जीवन में उपयोगी मूलभूत सिद्धान्तों तथा सम्बन्धों का ज्ञान ।
  2. वैज्ञानिक साहित्य को पढ़ने और समझने के मूल तथ्य |
  3. प्राकृतिक प्रक्रियाओं का ज्ञान।
  4. विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का परस्पर समवाय तथा सम्बन्ध ।
  5. पेड़-पौधों तथा जन्तुओं का ज्ञान व उनका पारस्परिक सम्बन्ध।
  6. पेड़-पौधों, जन्तुओं, पृथ्वी, चन्द्रमा तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति व विकास।
  7. मानव शरीर, उसकी क्रियायें तथा स्वास्थ्य नियम ।

यदि विज्ञान के छात्र वैज्ञानिक पदावली, तथ्यों, मान्यताओं, प्रतीकों, सिद्धान्तों तथा प्रक्रियाओं को याद रख सकें और पहचान सकें तो समझा जाता है कि ज्ञान प्राप्ति का उद्देश्य पूर्ण हो गया।

2. कौशल (Skills) – विज्ञान शिक्षण से छात्रों में विभिन्न प्रकार के कौशलों के विकास की आशा की जाती है, जैसे—प्रयोगात्मक कौशल, चित्रकला कौशल, निरीक्षण तथा विवरण देने का कौशल आदि। छात्रों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे विज्ञान के अध्ययन से उनमें प्रयोग करने, उपकरणों के सही ढंग से उपयोग में लाने, प्रयोग में सावधानियां अपनाने, शुद्ध रेखाचित्र व आकृतियाँ बनाने, क्रिया व घटनाओं का सूक्ष्म निरीक्षण करने, उनका सही विवरण देने, स्वच्छ आदि के कौशलों में दक्षता प्राप्त कर सकेंगे।

3. रुचियाँ तथा आदतें (Interest and Habits) – विज्ञान शिक्षण का उद्देश्य छात्रों में प्रकृति के प्रति अधिक ज्ञान प्राप्ति के लिये वैज्ञानिक साहित्य के प्रति, उपलब्धियों के प्रति, नवीनतम अनुसन्धानों और खोजों को जानने की रुचि उत्पन्न करना है। विज्ञान से सम्बन्धित स्थानों का भ्रमण, मेलों, विज्ञान क्लबों, प्रदर्शनियों, विज्ञान योजनाओं पर कार्य करने, विवादपूर्ण पहलुओं पर आलोचनायें करना, वैज्ञानिक तथ्यों, प्रतियोगितायें आयोजित करना, चित्रों, सूचनाओं आदि का संग्रह करना, सभी कार्य वैज्ञानिक रुचियाँ ही हैं, जिनको विकसित करना विज्ञान-शिक्षण का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। विज्ञान के छात्रों में इस प्रकार में की रुचियों से अच्छी आदतों का भी विकास होता है। वे सत्य में विश्वास, ईमानदारी, सहनशीलता, धैर्य, आत्म-विश्वास, सहयोग आदि सामाजिक रूप से स्वीकृत नैतिक मूल्यों को स्वतः ही सीख जाते हैं। शिक्षकों को विज्ञान-शिक्षण को इन आदतों के विकास का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।

4. योग्यतायें (Abilities) – विज्ञान का उद्देश्य छात्रों में कुछ योग्यताओं का विकास करना भी है। वैज्ञानिक योग्यतायें समस्या को खोजना, समस्या से सम्बन्धित तथ्यों को एकत्रित करना, अभिव्यक्त करना, उनको संगठित करना, विश्लेषण करना, निष्कर्ष निकालना, प्राप्त प्रदतों से भविष्य की घोषणा करना, वैज्ञानिक मेले, प्रदर्शनियों, संगोष्ठियों, कार्यशालाओं आदि का आयोजन करना, विज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करना, तर्क करना, विभिन्न प्रकार के यन्त्रों, उपकरणों आदि के उपयोग में लाने की क्षमता प्राप्त करना।

5. वैज्ञानिक विधि में प्रशिक्षण (Training in Scientific Method) – वह विधि, जिसे वैज्ञानिक अपनाते हैं, वैज्ञानिक विधि कहलाती है। वैज्ञानिक किसी भी समस्या के हल के लिये एक सुनिश्चित प्रक्रिया का उपयोग करते हैं, जिससे उस समस्या का सही हल निकल सके तथा परिणामों को जीवन की अन्य परिस्थितियों में उपयोग में लाया जा सके। वैज्ञानिक विधि का प्रशिक्षण छात्रों के लिये अनिवार्य है ताकि वे समस्या के खोजने, उसे परिभाषित करने, सम्बन्धित प्रदतों व तथ्यों का संग्रह कर उन्हें नियोजित करना, अभिव्यक्त करना, परिकल्पनाओं को निर्मित कर उनका उत्पादन करना और अन्त में निष्कर्षो पर पहुँच सकें। ये सभी पद वैज्ञानिक अभिवृत्ति, वैज्ञानिक आदतों व कौशलों को विकसित कर बहुआयामी चिन्तन को जन्म देते हैं।

6. अभिवृत्तियाँ (Attitudes) – विद्यार्थियों में वैज्ञानिक अभिवृत्तियों का विकास विज्ञान-शिक्षण की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। अतएव विज्ञान शिक्षण प्रत्यक्ष तथा व्यवस्थित होना चाहिये। वैज्ञानिक अभिवृत्तियों के अन्तर्गत व्यवहार के वे गुण आते हैं, जिनसे व्यक्ति अलग ही पहचाना जा सकता है। वैज्ञानिक अभिवृत्ति से सम्पन्न व्यक्ति के लक्षण अग्र हैं-

  1. उसको अपने ऊपर विश्वास होता है तथा वह संकीर्णता से दूर होता है।
  2. अपने चारों ओर की वस्तुओं के सम्बन्ध में क्यों? क्या ? कैसे ? प्रश्नों के उत्तरों को जानने के लिये उत्सुक होता है।
  3. अपने निर्णयों को अन्धविश्वासों पर नहीं, बल्कि प्रमाणित तथ्यों पर आधारित करता है।
  4. दूसरे के विचारों को सम्मान देता है तथा अपने विचारों को साक्ष्यों के आधार पर बदलने के लिये तैयार रहता है।
  5. किसी भी परिणाम को अन्तिम नहीं समझता है।
  6. वह निष्पक्ष तथा सत्य पर आधारित निर्णय लेता है।
  7. समस्या समाधान के लिये सुनिश्चित प्रक्रिया को अपनाता है।
  8. आडम्बरों में विश्वास नहीं करता है, बल्कि तथ्यों में विश्वास करता है।
  9. नवीनतम तथा प्रमाणित तथ्यों के आधार पर विविध प्रक्रियाओं को अपनाता है।
  10. मानव कल्याण के लिये विज्ञान का समर्थन करता है।

7. उत्तम जीवन के लिये प्रशिक्षण (Training for better living) – विज्ञान का ज्ञान स्वास्थ्य के नियमों, स्वच्छता और स्वस्थ जीवन शैली के प्रशिक्षण में सहायक होता है। शरीर की विशेष देखभाल, आसपास के वातावरण की स्वच्छता, इसका स्वास्थ्य पर प्रभाव, उन उपायों का ज्ञान, जिनसे घर, समाज, राष्ट्र के वातावरण को सुन्दर व सुखद बनाया जा सके, आदि उत्तम जीवन के लिये विद्यार्थी को तैयार करते हैं।

8. प्रशंसात्मक क्षमतायें (Appreciation) – आज का युग, वैज्ञानिकों के अनवरत अनुसंधानों, चिन्तन तथा अथक प्रयासों का परिणाम है। यदि विज्ञान के विकास का इतिहास देखा जाये तो अनेक ऐसे प्रसंग, मार्मिक घटनायें, साहसिक कार्य व वैज्ञानिक रोमांस पढ़ने व देखने को मिलेंगे, जिनको जानकर कोई भी व्यक्ति प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। अतएव मानव जाति की प्रगति में वैज्ञानिकों के योगदान के प्रति प्रशंसात्मक भाव अति आवश्यक है। विद्यार्थियों को इसकी अनुभूति कराना विज्ञान शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य है, क्योंकि यही भाव आने वाली पीढ़ी के वैज्ञानिक चमत्कारों को कर दिखाने के लिये प्रेरित करेगी। विज्ञान की प्रगति का इतिहास आधुनिक ज्ञान की धरोहर है और भावी पीढ़ी के भविष्य का आधार। हमें इसके प्रति कृतज्ञ होना चाहिये।

9. व्यवसाय तथा विशिष्ट क्षेत्र के लिये आधार प्रदान करना (To form basis for Vocation and Specialization) – विज्ञान के महत्व को स्वीकारते हुये इसे विद्यालयी पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग माना गया है। अतः विज्ञान का यह प्रमुख उद्देश्य है कि माध्यमिक स्तर पर विद्यार्थियों के विशिष्ट क्षेत्र व व्यवसाय का आधार प्रदान कर दे। क्षेत्र विशेष की उच्च शिक्षा का मार्ग माध्यमिक स्तर की शिक्षा ही निर्धारित करती हैं। अतः विज्ञान में विविध विषयों तथा अनुभव प्रशिक्षणों का ज्ञान आवश्यक है, जिससे विद्यार्थी अपने व्यवसाय का चयन कर सकें तथा भावी उच्च शिक्षा की दिशा निश्चित कर सकें।

10. अवकाश के लिये कार्य (To provide work for leisure) – खाली समय एक समस्या है, क्योंकि “खाली दिमाग शैतान का घर होता है।” इस गम्भीर समस्या का समाधान विज्ञान की विविध रुचियों, परिचावों (Hobbies) को बढ़ावा देकर बहुत ही सरलता से किया जा सकता है। विद्यार्थियों को सरल व रुचिकर प्रयोगों को करने, विभिन्न प्रकार की वस्तुओं; जैसे—क्रीम, स्याही, साबुन, बूट पालिश, मोमबत्ती बनाने, स्वनिर्मित उपकरणों की प्रेरणा देकर उनका ध्यान इस ओर आकर्षित किया जा सकता है। इस प्रकार समय का सदुपयोग भी होगा और भविष्य की दिशा भी निश्चित होगी। विद्यार्थियों में आत्मविश्वास जागृत होगा तथा कुछ करने की स्वतः प्रेरणा मिलेगी।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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