रामचरित मानस के आधार पर सीता जी की चारित्रिक विशेषताएं
सीता का चरित्र-चित्रण
पतिपरायणा – रामचरित मानस के स्त्री पात्रों में सर्वाधिक आकर्षित करने वाला चरित्र सीता का है। कवि ने सीता में पतिपरायणा सती-साध्वी भारतीय नारी के दर्शन किये हैं, जो पति के ही एक मात्र सब कुछ समझती है। उसका व्रत नियम और धर्म केवल पति के चरणों में अनुराग है। वह कहती है कि-
एकइ धर्म एक व्रत नेमा काय वचन मन पति पद प्रेमा ॥
वह धूप और छाँह दोनों में ही पति के साथ समान भाव से रहना चाहती है। सीता के जीवन का व्रत और धर्म इन दो चौपाइयों में पूर्णतया व्यक्त हुआ है-
जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई ॥
मोरे सबइ एक तुम स्वामी। दीन बन्धु डर अन्तर जामी ॥
आदर्श पत्नी- अयोध्याकाण्ड में तुलसी ने सीता को एक आदर्श पत्नी के रूप में चित्रित किया है। राम के वनगमन के बात सुनकर वह राजमहल के सम्पूर्ण ऐश्वर्य एवं सुख भोगों का त्यागकर बनवासी जीवन व्यतीत करने के लिए पति के साथ वन जाने को तैयार हो जाती है। वह अपने जीवन की सार्थकता वल्कल वरल धारण करने में ही समझती है। वह किसी भी स्थिति में पति का साथ छोड़ने को तैयार नहीं है। माता कौशल्या और राम के समझाने पर वह कहती है कि पति वियोग के समान संसार में कोई दुःख नहीं है।
”मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय वियोग सम दुःख जग नाहीं ।। “
पति से विमुक्त होकर वह स्वर्ग को भी नरक के समान समझती है-
“प्रान नाथ करुना यतन, सुन्दर सुखद सुजान।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद विधु सुरपुर नरक समान ।।”
पति विहीन नारी की स्थिति को स्पष्ट करते हुए सीता कहती हैं-
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ।।”
आदर्श नायिका- सीताराम की पत्नी ही नहीं, वह आदर्श नायिका भी हैं। तुलसी ने उसका चरित्र नायिका के अनुरूप ही चित्रित किया है। वह भारतीय कुल बन्धुओं का आदर्श हैं। उसमें नारीत्व के सभी गुण समाहित हैं इसीलिए उसकी धर्मभीरुता, पातिव्रत्य, त्याग, संयम, कष्ट, सहिष्णुता, गृहणीत्व आदि गुण भारतीय नारियों के लिए अनुकरणीय हैं। वह वन पथ में मिलने वाली सभी ग्रामीण स्त्रियों को शिक्षा देती है। इस प्रकार सीता सभी नारियों का नेतृत्व करती है।
सेवा-भाव- सीता मेसेवा-भाव कूट-कूटकर भरा है। वह सभी सासुओं की सेवा समान भाव से करती हैं। पति के साथ वन जाते समय सासुओं को छोड़ते हुए उसे बहुत दुःख होता है। वह कहती है कि हे माता । सुनिये, मैं बड़ी ही अभागिनी हूँ। आपकी सेवा करते समय दैव ने मुझे वनवास दे दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया। यह कहकर वह पछताती है।
तब जानकी सासु पग लागी । सुनिअ माय मैं परम अभागी |
सेवा समय दैअं वन दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा ॥
इतना ही नहीं, वह वन में रहकर पशु-पक्षियों की सेवा करती है। वनस्पतियाँ उसकी सेवा से प्रसन्न हो उठती हैं। चित्रकूट में सीता के कोमल करों का जल पाकर वृक्ष फूल उठते हैं।
त्यागशीलता- सीता का त्याग उसके नारी जीवन को उत्कृष्ट बना देता है। राजसी वैभव में पली हुई सीता अत्यंत कोमल भी है। राजा जनक जैसे चक्रवर्ती सम्राट की पुत्री और दशरथ जैसे महाराज की पुत्र वधू होने का गौरव उसे प्राप्त था। दोनों जगह सुख समृद्धि एवं भोग-विलास की कमी न थी। जिसने अपनी सुकुमारता के कारण पलंग के नीचे जमीन पर कभी पैर नहीं रक्खा था। उसकी सुकुमारता के विषय में कौशल्या कहती है कि-
पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सिय न दीन्ह पगु अवनि कठोरा ।।
जिआ मूरि जिमि जोगवत रहऊं। दीप बाति नहीं टारन कहऊं ॥
वही सीता-राम वनगमन के समय राजसी वस्त्राभूषणों का परित्याग करके तपस्विनी का वेश धरण कर लेती है। वल्कल वस्त्र पहनती है। इस प्रकार सीता अपने पति का साहचर्य पाने के लिए इतने बड़े राज्य और सुख-समृद्धि को तिनके के समान त्याग देती है।
कष्ट सहिष्णु- सीता सुकुमार होते हुए भी साहसी नारी है। वह वन के कष्टों को सुनकर घबड़ाती नहीं है। राम उसके सामने वन की भयंकरता का वर्णन करते हैं कि-
कानन कठिन भयंकरु भारी। घोर धामु हिम वारि बयारी ॥
कुस कंटक मग काँकर नाना चलव पयादेहिं बिनु पद त्राना ।।
कंदर खोह नदी नद नारे। अगम अगाध न जाहि निहारे ।।
भालु बाघ वृक केहरिनामा करहिं नाद सुनि धीरजु भागा ।।
राम के मुख से वन की विकरालता सुनकर भी वह अपना निर्णय नहीं बदलती है और राम के साथ वन को प्रस्थान करती है। मार्ग की ऊंची-नीची, कंकरीली- पथरीली भूमि पर नंगे पैर चलती है। उसके पैरों में छाले पड़ जाते हैं। पसीने से पूरा शरीर तरबतर हो जाता है, प्यास के कारण मुख सूख जाता है, फिर भी वह हिम्मत नहीं हारती हैं। शरीर को छील देने वाले वल्कल वस्त्र, कन्दमूल, फल आदि का आहार, जमीन पर सोना, पैदल चलना सामान्य नारी के लिए भी कष्टप्रद होता है। फिर सीता जैसी सुकुमारी के लिए तो इससे बढ़कर कए और क्या हो सकता था। लेकिन वह इन सारे कष्टों को प्रसन्नतापूर्वक सहन करती 1 है। इस दृष्टि से उसमें कष्ट सहन करने की अद्भुत क्षमता विद्यमान है।
प्रयाग मर्यादा एवं संस्कृति की पोषिका- सीता भारतीय नारी हैं, अतः उसने कहीं भी मर्यादा एवं संस्कृति का उल्लंघन नहीं किया है। प्रयाग के भारद्वाज आश्रम से प्रस्थान करके, यमुना पर कर जब राम, लक्षमण और सीता आगे बढ़ते हैं तो आस-पास के गाँवों की स्त्रियाँ राम के सौन्दर्य को देखकर सीता से पूछती हैं कि अपनी सुन्दरता से करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं ? इसी प्रकार वे स्त्रियाँ लक्ष्मण के विषय में भी पूछती हैं। भारतीय संस्कृति की पोषिका सीता जी लज्जा और संकोच के कारण संकुचा जाती हैं और अपनी दृष्टि नीचे कर लेती हैं। भारतीय मर्यादा के अनुसार स्त्रियाँ अपने पति का नाम नहीं लेती हैं। अतः सीता ने भी भारतीय संस्कृति एवं मर्यादा की रक्षा करते हुए संकेतों के माध्यम से यह बता दिया कि नरम हमारे पति हैं-
सहज सुभाय तन गोरे । नामु लखन लघु वर मोरे ।।
बहुरि बदन विधु अंचल ठाकी। पिय तन चितड़ भौंह, करि बांकी ।।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेऊ तिन्हहि सिय सयननि ।।
शक्तिस्वरूपा – सीता राम की शक्ति है, माया है। वह मूल प्रकृति तथा लक्ष्मी का अवतार है। उनका दर्शन करने वाले ‘लोकप’ हो जाते हैं। वे संसार का सृजन, पालन और संहार करती हैं। बाल्मीकि जी ने सीता के सम्बन्ध में कहा है-
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की ।।
यही सीता चित्रकूट में अनेक रूप बनाकर सासुओं की सेवा करती हैं, जिसे राम के अतिरिक्त और कोई भी नहीं जान पाता है।
सीय सासु प्रतिवेष बनाई। सादर करइ सास सेवकाई ||
लखा न मरमु राम बिनु काहू । माया सब सिय माया भाहू ।।
इस प्रकार अयोध्याकाण्ड के स्त्री पात्रों में सीता का मुख्य चरित्र है। उसमें इन सब गुणों के साथ सरलता, विनम्रता, मानवता एवं प्रकृति प्रेम की भावना विद्यमान है।
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