हिन्दी साहित्य

राम भक्ति काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ

राम भक्ति काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ
राम भक्ति काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ

राम भक्ति काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ

रामानुज की शिष्य परम्परा में रामानन्द हुए जिन्होंने उत्तर भारत में रामभक्ति की लहर चलाई। उन्हीं के अनुकरण में हिन्दी के भक्तिकाल में रामभक्ति साहित्य का उद्भव हुआ। “रामभक्तिधारा में अनेक कवि हुए किन्तु रामभक्ति धारा का साहित्यिक महत्व अकेले तुलसीदास के कारण है। इसलिए इस धारा का अध्ययन मुख्य रूप से तुलसीदास में ही केन्द्रित करना होगा।” निम्नांकित पंक्तियों में हम राम भक्ति साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन करेंगे।

(1) राम का स्वरूप- रामभक्त कवियों के उपास्यदेव राम विष्णु के अवतार हैं और परम ब्रह्म स्वरूप हैं। वे पाप विनाश और धर्मोद्धार के लिए युग-युग में अवतार लेते हैं। कृष्ण कवियों के कृष्ण ब्रह्म के प्रतीक हैं। गोपियां जीवात्मा हैं और स्वयं कृष्ण भक्त अपने आप पर गोपी का आरोप करके अपने-आपको कृष्ण की सेवा में अर्पित करता है। किन्तु राम भक्ति साहित्य मैं यह प्रतीकवाद नहीं है। राम विष्णु का अवतार हैं और भक्त कवि मानव रूप में उनका साधक है।

इनके राम में शील, शक्ति, सौन्दर्य का समन्वय है। सौन्दर्य में वे त्रिभुवन को लजावन हारे हैं। शक्ति से वे दुष्टों का दलन करते हैं और भक्तों को संकट से मुक्त करते हैं वे अपने शील-गुण से लोक को आचार की शिक्षा देते हैं। वे अपनी करुण मयता से पतितों और अधर्मियों का उद्धार करते हैं। उनका लोकरक्षक रूप प्रधान है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और आदर्श के प्रतिष्ठापक हैं। कदाचित् यही कारण है कि राम और सीता के नाम पर परवर्ती साहित्य में उच्छृंखल प्रेम उस रूप में चित्रित नहीं हुआ जैसा कि राधा और कृष्ण के नाम पर। यद्यपि आगे चलकर रामभक्ति परम्परा में रसिकता का उदय हुआ और उसमें सखी ‘संप्रदाय’ आदि चल निकलने पर यह सब कृष्ण भक्ति साहित्य के अनुकरण पर ही हुआ।

(2) समन्वयात्मकता – राम काव्य का दृष्टिकोण अत्यंत व्यापक है। उसमें एक विराट समन्वय की भावना है। इसमें न केवल राम की उपासना है बल्कि कृष्ण, शिव, गणेश आदि देवताओं की भी स्तुति की गई है। तुलसी ने सेतुबन्ध के अवसर पर राम द्वारा शिव की पूजा करवाई है। यद्यपि रामभक्ति काव्य में रामभक्ति को श्रेष्ठ माना है तो भी उसकी भक्ति भावना अत्यंत उदार है। निःसंदेह रामभक्तों ने भक्ति को सुसाध्य माना है फिर भी उन्होंने ज्ञान, भक्ति और कर्म के बीच समन्वय स्थापित करने का सुन्दर प्रयास किया है। इस काव्य में सगुणवाद तथा निर्गुणवाद में एकरूपता बताई गई है। रामभक्तों का आराध्य सगुण भी है और निर्गुण भी तो भी भगवान का सगुण रूप भक्तिसुलभ है।

(3) लोक संग्रह की भावना – लोक-कल्याण भावना की दृष्टि से भी यह साहित्य अत्यंत उपादेय है। इस साहित्य में जीवन की अनेक उच्चारण भूमियां प्रस्तुत की गई हैं। इन्होंने गृहस्थ जीवन की उपेक्षा नहीं की बल्कि लोक-सेवा और आदर्श गृहस्थ राम-सीता को उपस्थित करके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने का स्तुत्य प्रयत्न किया है। राम काव्य का आदर्श पक्ष अत्यंत उच्च है। राम आदर्श पुत्र हैं। वे आदर्श राजा भी हैं। सीता आदर्श पत्नी है, कौशल्य आदर्श माता है, लक्ष्मण और भरत आदर्श भाई हैं, हनुमान आदर्श सेवक हैं और सुग्रीव आदर्श सखा हैं। इस काव्य में जीवन का मूल्यांकन आचार की कसौटी पर किया गया है। राजा प्रजा, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, स्वामी-सेवक और पड़ोसी-पड़ोसी के सुन्दर अथच स्वस्थ सम्बन्धों पर आधत समाज आचार के बल पर ही जी सकता है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। आदर्श की प्रतिष्ठा उनके जीवन का अथ और इति है ।

(4) भक्ति का स्वरूप- राम का चरित्र त्रिलोकातिशायी है। राम भक्त कवि राम के शील, शाक्त और सौन्दर्य पर मुग्ध हैं। यही कारण है कि राम भक्त कवि ने अपने और राम के बीच सेवक-सेव्य भाव को स्वीकार किया है। तुलसीदास का कहना है-

सेवक सेव्य भाव बिनु भव ने तरिय उरगारि ।

राम भक्त कवियों का भक्ति सम्बन्धी दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अधिक उदार है। निःसन्देह राम-भक्ति को यहां सर्वश्रेष्ठ बताया गया है, किन्तु अन्य देवी-देवताओं की पूजा की भी यहां अस्वीकृति नहीं है जैसे कि सूर को छोड़कर अन्य पुष्टिमार्गी कवियों में। राम भक्त कवि ज्ञान और कर्म की अलग-अलग महत्ता स्वीकार करते हुए भक्ति को श्रेष्ठ मानते हैं। राम भक्त कवियों की भक्ति पद्धति वैधी कोटि में आती है। इसमें नवधा भक्ति के प्रायः सभी अंगों का विधान है। ये भक्त विशिष्टाद्वैतवाद से प्रभावित हैं। इनके लिए जीव भी सत्य है क्योंकि वह ब्रह्म का अंश है। जीव और ब्रह्म में अंश-अंशी भाव है।

(5) रस- राम कथा अत्यंत व्यापक है। उसमें जीवन की विविधताओं का सहज सन्निवेश है। राम काव्य के समविभक्तांग होने के कारण उसमें सभी रसों का समावेश है किन्तु सेवक-सेव्य भाव की भक्ति होने के कारण निर्वेदजन्य शांत रस की प्रधानता है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और भक्त कवि भी मर्यादावादी हैं, कदाचित यही कारण है कि इस साहित्य में शृंगार रस के संयोग और वियोग पक्षों का सम्यक् परिपाक नहीं हो सका। यह बात अधिकतर तुलसी के साहित्य पर चरितार्थ होती है। वैसे तो अपअली के साहित्य में रसिकता की भावना का समावेश हो चुका था किन्तु तुलसी के सम्मुख यह भावना उभर न सकी। 18वीं शती की राम भक्ति में माधुर्य भावना बल पकड़ती गई। ऐसा कदाचित् कृष्ण-साहित्य के अनुकरण पर ही हुआ होगा। आगे चलकर राम-भक्ति साहित्य परम्परा में रामायत सखी संप्रदाय में नखशिख, अष्टयाम आदि रति-उत्तेजक विषयों का वर्णन होने लगा। राम-भक्ति के रसिक संप्रदाय में शृंगार रस का यथेष्ट परिपाक हुआ है। तुलसी के साहित्य में-विशेषकर रामचरितमानस ‘मैं सभी रसों का समावेश है। युद्ध वर्णन में वीर और रौद्र रस है। नारद मोह में हास्य रस की सुन्दर सृष्टि हुई है। राम के विलाप में तथा लक्ष्मण की मूर्च्छा प्रसंगों में करुण रस है। राम के ब्रह्मत्व के प्रतिपादन के प्रकरणों में अद्भुत और भक्ति रस की अच्छी छटा है। राम साहित्य में सर्वत्र एक रस है- वह है राम-रस और उनके आस्वादन की योग्यता राम की लीला में रमण करने वालों में ही हो सकती है।

(6) पात्र तथा चरित्र-चित्रण- राम काव्य के पात्र आचार और लोक मर्यादा की आदर्श व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। इनका चरित्र महान् एवं अनुकरणीय है। इनमें जीवन की सभी वृत्तियों का चित्रण किया गया है अतः इनमें सर्वागीणता है। इनमें रजोगुणी, तमोगुणी तथा सत्वगुणी सभी पात्रों की अभिव्यक्ति है और अन्त में सत्य की असत्य पर या रामत्व की रावणत्व पर विजय दिखलाई गई है। तुलसी के काव्य में राम नाना रूप में लीला करते हुए पूर्ण ब्रह्म हैं। राम के इस ब्रह्मत्व का स्मरण तुलसी पग-पग पर दिलाते हैं। इससे पाठक के अहंभाव को आघात पहुंचता है, कथा-प्रवाह में बार-बार आवृत्ति के कारण व्याघात होता है जो कि काव्यशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अवांछनीय है, परन्तु राम-काव्य के पात्रों और उसकी कथावस्तु की आलोचना करते समय हमें तुलसी के दृष्टिकोण को भुलाना नहीं होगा। राम ब्रह्म होते हुए भी मानवस्वरूप में लीला कर रहे हैं। कथावस्तु में किसी भी ऐसे प्रसंग का समावेश तुलसी को अभीष्ट नहीं है जहां राम की अनीशता ध्वनित हो। निर्गुण सन्तों के राम ‘दशरथ सुत हितुं लोक बखाना, राम नाम को मरम है आना’ ऐतिहासिक न होकर ब्रह्म हैं, परन्तु सगुण काव्य में वे ऐतिहासिक होते हुए कालातीत हैं।

(7) राम भक्ति में मधुर रस का समावेश- तुलसी के पूर्व और उनके समय में भी राम- साहित्य में मधुर रस का समावेश हो चुका था किन्तु तुलसी के समय में वह अपने पूर्ण रूप में उभर नहीं सका। इसके दो कारण हैं- एक तो मधुर रस की प्रकृतिगत सहज गोपनीयता और दूसरे प्रधानतः दास्यभाव के भक्त तुलसी का मर्यादावाद। तुलसी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जिस दुष्ट दमनकारी रूप की कल्पना की थी वह कुछ समय के बाद धीमी पड़ गई। 16वीं शताब्दी के बाद के साहित्य में कृष्ण भक्ति काव्य की प्रेम लीलाओं के समान राम-साहित्य छबीले राम की रसिकता पूर्ण लीलाओं से भर गया। इसमें राम और जानकी के प्रणय, विलास, हास, वन और जल विहारों तथा काम-केलियों का निःशंक भाव से चित्रण किया जाने लगा। तुलसी जितनी दृढ़ता के साथ मर्यादावाद का पालन करते रहे उसके परवर्ती साहित्यकारों ने प्रतिक्रियात्मक रूप में मर्यादा की उतनी अवहेलना कर राम-भक्ति-साहित्य में रसिकता का समावेश किया। तुलसी के परवर्ती राम साहित्य की कहानी बुद्ध निर्वाण के पश्चात् महायान शाखा की गतिविधियों की कहानी के समान समझनी चाहिए।

(8) काव्य शैली- सगुण परम्परा के कवि या तो स्वयं विद्वान थे अथवा विद्वानों की सत्संगति में साहित्य के धर्मों के सम्बन्ध में पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। अलंकार – शास्त्र की अवहेलना इनमें दृष्टगोचर नहीं होती है। इनका अनेक काव्य शैलियों पर अधिकार था। राम-काव्य में सब शैलियों की रचनाएं मिलती हैं। रामचरितमानस और अष्टयाम में वीरगाथाओं की प्रबंध पद्धति है। राम गीतावली और राम ध्यान मंजरी में विद्यापति की गीत-पद्धति, रामायण महानाटक और हनुमन्नाटक में संस्कृत के राम-कवियों की शास्त्रीय पद्धति है, और रामचन्द्रिका रीति-पद्धति पर रची गई है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने तुलसी में इन काव्य रूपों-दोहा, चौपाई वाले चरित काव्य, कवित्त-सवैया, दोहों में अध्यात्म और धर्म नीति में उपदेश, बरवै छंद, सोहरछंद, विनय के पद, लीला के पद, वीर काव्य के लिए उपयोगी छप्प्य, तोमर, नाराच आदि की पद्धति, दोहों में सगुण विचार और मंगल काव्य का उल्लेख मिलता है।

(9) छन्द- रचनाभेद, भाषाभेद, विचारभेद, अलंकारभेद के साथ राम काव्य में छंदभेद भी पाया जाता है। वीरगाथाओं के छप्प्य, सन्त काव्य के दोहे, प्रेम काव्य के दोहे, चौपाई और इनके अतिरिक्त कुण्डलिया, सोरठा, सवैया, घनाक्षरी, तोमर, त्रिभंगी आदि छंद प्रयुक्त हुए हैं। दोहा, चौपाई का मुख्य प्रयोग हुआ है। तुलसी ने इनका प्रयोग अधिकारपूर्वक किया है। केशव ने अनेक छंदों में कला का प्रदर्शन किया है, परन्तु उनमें भावानुकूलता नहीं है।

(10) अलंकार- राम भक्त कवि पंडित हैं। उनमें अलंकारशास्त्र के प्रति अवहेलना नहीं है। जहां इन्होंने विविध छंदों का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया है वहां अलंकार के प्रयोग में अत्यंत विदग्धता प्रदर्शित की है। केशव को छोड़कर इनमें से किसी ने भी शब्दालंकारों का आदर नहीं किया। वैसे तो तुलसी काव्य में प्रायः सभी अलंकार मिल जाते हैं, परन्तु वे उपमा और रूपक के लिए विशेष प्रसिद्ध हैं।

(11) भाषा- राम काव्य की भाषा प्रधानतः अवधी है। केशव की राम-चन्द्रिका में ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है। बाद के रामभक्ति के रसिक संप्रदाय के कवियों ने प्रायः ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। तुलसी ने अवधी तथा बज दोनों भाषाओं का सफल प्रयोग किया है। राम-काव्य में भोजपुरी, बुन्देलखंडी, राजस्थानी, संस्कृत और फारसी भाषाओं के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। तुलसी ने भाषा का परिष्कृत रूप प्रस्तुत किया है। डॉ० हरदेव बाहरी के शब्दों में- “उसमें न तो वीरगाथाओं की कर्कशता है, न प्रेम काव्य की ग्रामीणता और न ही असंगति तथा विशृंखलता। तुलसी का शब्द चयन पांडित्यपूर्ण है। उसमें वह शब्द चमत्कार तो नहीं जो केशव अथवा सूर में है, परन्तु उनकी भाषा की भावात्मकता, रसानुकूलता अथवा उपयुक्तता में किसी को संदेह नहीं हो सकता। तुलसी की भाषा अलंकृत न होकर स्वाभाविक, सरस और भावव्यंजक है।” इस प्रकार हम देखते हैं कि भक्तिकालीन रामकाव्य मात्रा और परिमाण की दृष्टि से कृष्ण काव्य से न्यून है और संभव है कि सन्त काव्य और प्रेम-काव्य से भी न्यून हो, जब तक इस धारा के रसिक संप्रदाय के कवियों का साहित्य प्रकाश में न आ जाये पर यह साहित्य काव्य रूपों, शैली और भाषा की दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध है। भाषा की दृष्टि से तो यह साहित्य महान ही है। इसमें दोनों जन भाषाओं- बज और अवघी का बड़ा ही सफल प्रयोग हुआ है।

तुलसीदास

जीवन-वृत्त – हिन्दी साहित्य गगन के परम प्रकाशमय नक्षत्रों- सूर और तुलसी का जीवन-वृत्त अभी तक अपेक्षाकृत अन्धकारमय है। कारण, अपने इष्टदेव के सम्मुख निजी व्यक्तित्व का प्रतिफलन इन्हें इष्ट नहीं था। गोस्वामी तुलसीदास के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में अन्तःसाक्ष्य और बाह्यसाक्ष्य दोनों मिलते हैं। अन्तःसाक्ष्य में तुलसीदास के अपने ग्रंथ आते हैं और बाह्यसाक्ष्य के अंतर्गत गोस्वामी गोकुलनाथ द्वारा लिखित दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता, नाभादास का भक्तमाल, बाबा वेणीमाधवदास कृत भक्तमाल की टीका प्रमुख है। गोसाईं चरित और तुलसी चरित की प्रामाणिकता संदिग्ध है। तुलसीदास के जीवन परिचय के लिए हमें बाह्य साक्ष्यों की अपेक्ष अन्तःसाक्ष्य पर अधिक निर्भर करना पड़ेगा। कवि शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास का समस्त जीवन-वृत्त मतभेदों से भरा पड़ा है।

जन्म-तिथि- तुलसीदास के जन्म-संवत् के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। तुलसीदास के शिष्य बाबा वेणीमाधवदास कृत ‘मूल गोसाई चरित’ के अनुसार तुलसी की जन्म तिथि सं० 1554 की श्रावण शुक्ला सप्तमी है, परन्तु यह ज्योतिष गणना के अनुसार दिये गये दिन, ग्रह और राशि से मेल नहीं खाती। दूसरे, इस गणना के अनुसार उनकी आयु 126 वर्ष की बैठती है। यह आयु एक सदाचारी महात्मा के लिए असंभव तो नहीं, परन्तु नितांत सहज संभव भी नहीं। इसके अतिरिक्त इस हिसाब से उनकी अमर कृति रामचरितमानस का आरंभ 70 वर्ष की अवस्था में होना चाहिए जो कि ऐसी प्रौढ़ रचना के लिए उपयुक्त नहीं जान पड़ता । गोसाईं चरित और तुलसी चरित को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। वेणी माधवदास की बातें तुलसीदास के अन्तःसाक्ष्य के विरुद्ध पड़ती हैं और गोसाईं चरित में सत्यं शिवं सुन्दरम् के उल्लेख के कारण उसकी नवीनता प्रदर्शित होती है । जनश्रुति के अनुसार पं० रामगुलाम द्विवेदी ने तुलसी का जन्म संवत् 1589 माना है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी इसे स्वीकार किया है, और आधुनिक शोधों के आधार पर डॉ० माताप्रसाद गुप्त भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं।

जन्म-स्थान- इनके जन्म-स्थान के सम्बन्ध में भी भारी मतभेद है। ठाकुर शिवचरणसिंह सेंगर और रामगुलाम द्विवेदी ने तुलसी का जन्म स्थान राजापुर को माना है। राजापुर से एक सनद भी मिली है जिसमें उक्त कथन की पुष्टि होती है। इस मत के अनुयायियों ने रामचरितमानस के अयोध्या कांड के तापस प्रसंग को अपने मत के समर्थन के लिए उद्धृत किया है। गोसाई चरित और तुलसी चरित में भी राजापुर को तुलसी का जन्म-स्थान बताया गया है। खैर, उक्त ग्रंथों की तो प्रामाणिकता हो संदिग्ध है। पं० गौरीशंकर द्विवेदी तथा रामनरेश त्रिपाठी ने सोरों को जन्म-स्थान बताया है। बांदा जिले के गजेटियर में तुलसीदास जी को सोरों से आया हुआ बतलाकर उनके राजापुर में बस जाने की बात लिखी है। गजेटियर का प्रमाण सोरों के पक्ष में है। तुलसी ने भी सूकर क्षेत्र का उल्लेख किया है जो कि कदाचित् सोरों ही है। अस्तु । सोरों को तुलसीदास का जन्म स्थान मानने वालों के पास काफी पुष्ट प्रमाण हैं। अभी इस सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। डॉ० हजारीप्रसाद का इस सम्बन्ध में कहना है- “मुझे सोरों के प्रामाणिक या अप्रामाणिक होने के पक्ष में कुछ भी नहीं कहना है। जहां तक पुस्तकों से पढ़कर समझने का प्रश्न है, मेरा विचार है कि सोरों के पक्ष में दिये जाने वाले प्रमाण बहुत महत्वपूर्ण न होते हुए भी काफी वजनदार हैं। उनको यों ही टाला नहीं जा सकता।” अस्तु । जो कुछ भी हो यह एक निष्पक्ष वैज्ञानिक अध्ययन का विषय है।

माता-पितादि- तुलसी के माता-पिता तथा वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में भी कुछ कम मतभेद नहीं है। जनश्रुति के अनुसार इनके पिता का नाम आत्माराम था, और वे पत्यौजा के दूबे थे-“तुलसी परासर गोत, दूबे पति औजा के।” आचार्य शुक्ल तथा अन्य लोग भी इन्हें सरयूपारीण ब्राह्मण मानते हैं। मिश्र बन्धुओं ने कान्यकुब्ज माना है। संभव है पत्यौजा के दूबे कान्यकुब्ज – हो । अस्तु । इतना तो निर्विवाद है कि ये ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे।

तुलसी की माता का नाम हुलसी था। श्री चन्द्रबली पांडे ने हुलसी को तुलसी की माता न मानकर पत्नी माना है जो कि एकदम निराधार है। अन्तिःसाक्ष्य, बाह्य साक्ष्य तथा जनश्रुति तीनों से बात की पुष्टि होती है कि तुलसी की माता का नाम हुलसी था-

रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी,

तुलसीदास हिय हिय हुलसी सी।

इसी प्रकार रहीम की उक्ति-

गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय।

इनके वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में भी मतभेद है। उन्होंने विनयपत्रिका में लिखा है “ब्याह न बरेखी, जाति-पांति न चहत हो।” शायद यह उस समय का कथन हो जबकि वे गृहस्थ जीवन के बंधनों से मुक्त हो गये हो। जनश्रुति के अनुसार इनका विवाह दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। उनके तारक नाम का एक पुत्र भी हुआ था जिसकी मृत्यु हो गई थी। अत्यधिक आसक्ति के कारण तुलसी को रत्नावली से मीठी भर्त्सना “लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ” भी सुननी पड़ी थी, जिसने उनकी जीवन सरिता का रुख एकदम बदल दिया था। तुलसी चरित के अनुसार उनके तीन विवाह हुए थे। तीसरा विवाह कंचनपुर के लच्छमन उपाध्याय की पुत्री बुद्धिमती से हुआ था। इस विवाह में तुलसीदास के पिता ने 6000 रुपये लिये थे। इस ग्रंथ की घटनायें तुलसी के अन्तःसाक्ष्य में नहीं मिलतीं। तुलसी का बाल्यकाल का नाम इसमें तुलाराम है और स्वयं उन्होंने रामबोला कहा है। पिता द्वारा पैसे लेने की बात “माता-पिता जग जाहि तज्यो विधि हूं न लिखी कछु भाल भलाई के विरुद्ध पड़ती हैं। जनश्रुति के अनुसार तुलसी अभुक्त मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण माता-पिता द्वारा त्याग दिये गये थे। पांच वर्ष तक मुनिया नाम की दासी ने इनका लालन-पालन किया, किन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् इन्हें नाना कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और दर-दर की ठोकरें खनी पड़ीं। विनय-पत्रिका तथा कवितावली में इस बात का उल्लेख उन्होंने अनेक स्थलों पर किया है-

बारे ते ललात बिललात द्वार-द्वार दीन ।

जानत हो चारि फल चारि ही चनक को ।

गुरु- उसी अवस्था में इनके दीक्षा गुरु बाबा नरहरिदास की इन पर दयादृष्टि हुई। तुलसी ने अपने गुरु का रामचरित मानस में अनेक स्थलों पर स्मरण किया है। इन्हीं से तुलसी ने शूकर क्षेत्र या सोरों में राम-कथा सुनी थी। शेष-सनातन के पास काशी में निरंतर 16-17 वर्ष रहकर वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण तथा भागवत आदि का गंभीर अध्ययन किया। इन्होंने अनेक तीर्थस्थानों की यात्रा की और अन्त में काशी में रहने लगे। काशी में तुलसीदास का मान बढ़ता गया। राजा टोडरमल रहीम और मानसिंह तुलसीदास के अनन्य मित्र थे। दोहावली में वे लिखते हैं

घर-घर मांगे टूक, पुनि भूपति पूजे पांय ।

जे तुलसी सब राम बिन, ते अब राम सहाय ।।

वृद्धावस्था में उनका शरीर रोग से जर्जरित हो गया था। उन्होंने विनय पत्रिका में इस बात का उल्लेख इन शब्दों में किया है-

पांव-पीर, पेट पीर, मुंह पीर, जाजर सकल सरीर पीरमई है।

उन दिनों काशी में महामारी का प्रकोप पड़ा, किन्तु उसके शांत होने पर कुछ दिन बाद तुलसी का शरीरान्त हुआ। इनके स्वर्गवास की तिथि सर्वमान्य है-

संवत सोलह सौ असी असी गंग के तीर ।

श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर ।।

नाभादास ने अपने भक्तमाल में इनके सम्बन्ध में ठीक ही कहा है-

कलि कुटिल जीव निस्तार हित बाल्मीकि तुलसी भयो ।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इनके व्यक्तित्व और महत्व के सम्बन्ध में लिखते हैं-“तुलसीदास का महत्व बताने के लिए। विद्वानों ने अनेक प्रकार की तुलनामूलक उक्तियों का सहारा लिया है। नाभादास ने इन्हें कलिकाल का बाल्मीकि कहा था, स्मिथ ने उन्हें मुगल काल का सबसे बड़ा व्यक्ति माना था, प्रियर्सन ने इन्हें बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक कहा था और यह तो बहुत लोगों ने बहुत बार कहा है कि उनकी रामायण भारत की बाइबिल है। उन सारी उक्तियों का तात्पर्य यही है कि तुलसीदास असाधारण शक्तिशाली कवि, लोकनायक और महात्मा थे।”

रचनाएँ- तुलसीदास के नाम पर कोई अब तक तीन दर्जन से ऊपर पुस्तकें प्राप्त हो चुकी हैं परन्तु पं० रामगुलाम द्विवेदी ने केवल 12 ग्रंथों को ही प्रामाणिक माना है जिनमें छः छोटे और छः बड़े हैं। नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने इन्हीं 12 ग्रंथों को प्रामाणिक मानकर प्रकाशित किया है। (1) दोहावली- इसमें नीति, भक्ति, नाम-माहात्म्य और राम महिमा विषयक 573 दोहे हैं। (2) कवितावली में कवित्त, सवैया, छण्य आदि छंदों का संग्रह है, जिसमें छंद रामायणी कथा के कांडों के अनुसार संग्रह कर दिये गये हैं, पर कथा क्रमबद्ध नहीं है। (3) गीतावली में राम कथा को सात कांडों में विभाजित कर दिया गया है। इसमें कुल 328 पद हैं। (4) कृष्ण-गीतावली में कृष्ण महिमा की कथा है। इसकी रचना अनेक राग-रागनियों की पद्धति पर हुई है। इसमें कुल 61 पर हैं । (5) विनयपत्रिका में अनेक देवी-देवताओं की स्तुति है और राम के प्रति किये गये विनय के पदों का संग्रह है। (6) रामचरितमानस इनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इसमें रामकथा सात कांडों में विभक्त है। इसकी रचना का काल सं० 1631 माना जाता है। (7) रामलला नहछू-सम्भवतः यह ग्रंथ राम के जनेऊ के अवसर को ध्यान में रखकर लिखा गया है। इसमें कुल 20 छंद हैं। (8) वैराग्य संदीपिनी- छोटी सी पुस्तक है जिसमें सन्त महिमा, सन्त-स्वभाव और शांति का वर्णन दोहा-यौपाइयों में किया गया है। (9) वरवै रामायण में 69 छंदों में रामकथा का वर्णन है। आचार्य द्विवेदी इसके सम्बन्ध में लिखते हैं- “इसकी एक बड़ी प्रति मैंने देखी जिसमें राम कथा का क्रमबद्ध वर्णन है। इस बड़ी प्रति के केवल आठ-दस बरवे इसमें (छोटी बरवै रामायण) में संग्रहीत हैं।” (10) पार्वती मंगल- 164 छंदों में शिव और पार्वती के विवाह का वर्णन है किन्तु मिश्रबन्धु इसे प्रामाणिक नहीं मानते। (11) जानकी मंगल में 216 छंदों में राम के विवाह का वर्णन है। (12) रामाज्ञा प्रश्न में सात सर्ग हैं और प्रत्येक सप्तक में सात-सात दोहे हैं। यह सगुन विचारने के लिए लिखा गया है।

लोकनायक तुलसीदास की समन्वय साधना- पाश्चात्य मार्क्सवादी दर्शन जहां द्वन्द्वात्मकता में समस्याओं का हल खोजता है वहां भारतीय दर्शन और संस्कृति भिन्न-भिन्न विरोधी तत्वों के सुन्दर समन्वय में हल ढूंढ़ती हैं। यही भारत का पाश्चात्य जगत् से मौलिक अन्तर है और यही भारत की विशेषता है। तुलसी भारतीय संस्कृति के एक ज्वलन्त प्रतीक हैं, वे कलिकाल के वाल्मीकि हैं, मुगल शासन काल के सबसे बड़े व्यक्ति हैं और कदाचित महात्मा बुद्ध के पश्चात् भारत के सबसे बड़े लोकनायक हैं। तुलसी ने जिस समाज को देखा था वह बड़ा ही अजीब सा था। तुलसी के ग्रंथों से इस बात का स्पष्ट आभास मिल जाता है कि उस समय का समाज किसी ऊंचे आदर्श पर नहीं चल रहा था। उच्च स्तर के लोक विलासिता में चूर थे और निचले स्तर के लोग अशिक्षित थे। पंडितों और ज्ञनियों का समाज से कोई सरोकार ही नहीं था। जाति-पांति की प्रथा अधिकाधिक कठोर होती जा रही थी। उस समाज में आत्मरक्षा के अतिरिक्त सावधानता के कारण कसाव आ चुका था। सामाजिक मर्यादाओं का खुलकर अतिक्रमण हो रहा था। उस समय जीवन एक संघर्ष न रहकर पलायन का पर्याय बनता जा रहा था- “नारि मुई घर सम्पत्ति नासी, मूड़ मुंडाय भये संन्यासी ।” इस प्रकार वैरागी या संन्यासी हो जाना साधारण सी बात थी इन्हीं अधकचरों के द्वारा वेद, पुराण, शास्त्र, धर्म, साधु-सन्तों तथा पुरातन भारतीय संस्कृति के आदर्शों और मर्यादाओं की कड़ी निन्दा की जा रही थी।

इधर देश का धार्मिक क्षेत्र नाना प्रकार के संप्रदायों और अखाड़ों से भर चुका था। एक ओर अलख जगाने वाले नाथपंथी योगियों का अशिक्षित वर्ग पर प्रभाव पड़ रहा था नाथपंथी कर्म की घोर निन्दा करके मठों के भीतर की कुच्छ कहानी सुना रहे थे तो दूसरी ओर जात-पांत-विरोधी कबीर अलखोपासना का संदेश दे रहे थे। इधर शाक्त संप्रदाय का जिनके यहां शक्ति के रूप में प्रकृति के रूप, स्त्री या देवी की उपासना प्रमुख थी और इसमें भी दक्षिण-पथी और वाम-पथी दो भेद हो गये थे। इन वाम-पंथियों ने मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन-इन पांच मकारों की उपासना शुरू कर दी थी। एक ओर शैवों और वैष्णवों में विरोध था तो दूसरी ओर वैष्णवों-राम तथा कृष्ण के अनुयायियों में पारस्परिक मतभेद था। द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद तथा शुद्धाद्वैतवाद न जाने कितने दार्शनिक मतवाद परस्पर टक्कर ले रहे थे। इसके अतिरिक्त तलवार के बल पर धर्म की जड़ जमाने वाले मुस्लिम संप्रदाय के कतिपय कट्टर शासकों के अत्याचार प्रतिदिन बढ़ते जा रहे थे। सूफी फकीरों के प्रेमोपाख्यानों की चाशनी ऊपर से मीठी अवश्य थी किन्तु उसमें भी रोगमस्त हिन्दू शरीर का निदान निहित नहीं था। इस प्रकार हिन्दू जनता, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में आदर्श विहीन, उच्छृंखल, पंगु एवं विशृंखल हो चुकी थी।

तत्कालीन समाज आर्थिक रूप से भी कोई कम विपन्न नहीं था। इस सम्बन्ध में तुलसी के साहित्य में अनेक स्थलों पर संकेत हैं-

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि,

बनिक को न वनिज न चाकर को चाकरी।

जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस,

कहै एक-एकन सौ, कहां जायं का करी।

तुलसी लिखते हैं कि एक तो कलिकाल था दूसरे उसमें अनेक शूल थे। वेद और धर्म दूर हो चुके थे। भूप भूमि-चोर बन चुके थे। सज्जन लोग सर्वत्र दुःखित तथा व्यथित थे। सर्वत्र पाप ही पाप था। कहने का तात्पर्य यह है कि तुलसी के समय का समाज नैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से हासोन्मुख था। प्रबुद्धचेत्ता स्वतंत्र कलाकार जनता के प्रतिनिधि कवि तुलसी के सम्मुख एक महान कार्य था जिसे कि उन्हें अत्यंत कौशल और कलात्मकता से सम्पन्न करना था। जिस प्रकार महाभारत काल में योगिराज कृष्ण ने ज्ञान, कर्म और भक्ति के समन्वय से तत्कालीन जन-समूह का मार्ग प्रशस्त किया और जिस प्रकार महात्मा बुद्ध ने वैदिक कर्मकांड और विभिन्न जातियों में सामंजस्य स्थापित करके जीवन, साहित्य और दर्शन के सभी क्षेत्रों में समन्वयवाद का विराट आदर्श उपस्थित किया, तुलसीदास ने उसी तरह यह महत् कार्य करके सही अर्थों में अपने-आपको लोकनायक सिद्ध कर दिया। आचार्य द्विवेदी का कहना है-“लोकनायक नहीं हो सकता है जो समन्वय कर सके। क्योंकि भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियां, साधनाएं, जातियां, आचार, निष्ठा और विचार पद्धतियां प्रचलित हैं। बुद्धदेव समन्वयकारी थे। गीता में समन्वय की चेष्टा है। तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।” आगे चलकर वे लिखते हैं-“उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। लोक और शास्त्र का समन्वय, गार्हस्थ्य और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय, रामचरितमानस शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है।” इस समन्वय कार्य में उन्हें अतीव सफलता मिली। कारण एक समन्वयवादी लोकनायक में समझौते की जो प्रवृत्ति होती है वह उनमें थी। आचार्य द्विवेदी के शब्दों में- “समन्वय का मतलब है कुछ झुकना और कुछ दूसरों को झुकने के लिए बाध्य करना। तुलसीदास को ऐसा करना पड़ा है। ऐसा करने के जिस असामान्य क्षमता की जरूरत थी वह उनमें थी।” उनमें समन्वय करने का अपार धैर्य था और साथ-साथ उन्होंने भारतीय समाज की नाना संस्कृतियों, साधनाओं, आचार विचारों और पद्धतियों को खुली आंख से देखा था। वे स्वयं समाज के नाना स्तरों में रह चुके थे। उच्च ब्राह्मण कुल में उनका जन्म हुआ। दरिद्रता के कारण उन्हें दर-दर भटकना पड़ा। एक ओर जहां इन्हें काशी के दिग्गज विद्वानों के संपर्क में आना पड़ा जहाँ उन्हें कटु निन्दा सुननी पड़ी और नाना विरोधों का सामना करना पड़ा वहीं उन्हें आशातीत आदर और सम्मान भी मिला। उन्होंने नाना पुराण और निगमागम का अध्ययन किया था और साथ-साथ लोकप्रिय साहित्य का गहन अध्ययन किया था। भारत के नाना-धर्म, दर्शन, समाज और साहित्यगत विरोधों और असंगतियों को देखकर उनकी समन्वयात्मक बुद्धि में सहिष्णुता और स्याद्वाद की विमल भावनाओं का उदय हुआ। यह उनकी एक मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ थी और इसका सदुपयोग करते हुए अपने युग की नाड़ी को टटोला। इस प्रकार उन्होंने अपने युग के सभी विरोधी तत्वों का परिहार एवं समाज के विकृत रूप का परिष्कार करते हुए धर्म, दर्शन, साहित्य और समाज में समन्वय की भावना को मूर्त रूप दिया तथा सच्चे लोक-धर्म की प्रतिष्ठा करके प्रशस्त लोक-नेतृत्व का दायित्व पूरा किया। इस सबका श्रेय उनकी सारग्राहिणी समन्वयात्मिका बुद्धि को है। अब हम उनके भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में किये गए समन्वय की विवेचना करेंगे।

धार्मिक क्षेत्र- तुलसीदास एक महान् स्रष्टा और जीवन-द्रष्टा कवि हैं। इन्होंने मध्ययुगीन भारत को सम्पूर्ण चेतना को काव्यमयी वाणी दी है। तुलसी से पूर्ववत दार्शनिक विचारधाराओं और संप्रदायों के परस्पर विरोध का कारण केवल मात्र सैद्धान्तिक नहीं था बल्कि सामाजिक वास्तविकता की परस्पर विरोधी परिस्थितिया भी थीं। तुलसी ने इन दोनों का मूल निदान ‘खोजा। उन्होंने शाक्तों और विशेषतः वामपंथियों की निन्दा इसलिए की क्योंकि उसमें लोक-विद्वेष था और धर्म के नाम पर अधर्म का प्रचार था-

तजि श्रुति पंथ वाम पथ चलही, वंचक बिलचि वेष जग छलहीं।

वर्ण-व्यवस्था के समर्थक तुलसी ने कबीर की जात-पांत-विरोधी अलखोपासना को जन-सामान्य के लिए श्रेयस्कर नहीं समझा और कहा-

हम लखि लखहि हमार लख, हम हमार के बीच।

तुलसी अलखहि का लखहि, राम नाम जपु नीच ।।

उन्होंने नाथपंथियों की कुच्छ योग साधना को लोक विद्वेषिणी मानकर उसे अनुचित ठहराया- “गोरख जगायो जोग, भगति भगायो भोग।” इधर प्रेममार्गियों की उपासना पद्धति को श्रेयस्कर न समझते हुए “कहि कहि उपाध्यान” कहकर अवांछनीय ठहराया। तुलसी के समय में शैवों और वैष्णवों में पर्याप्त कटुता आ चुकी थी। इन्होंने अपनी रामायण में अनेक स्थलों पर राम को शिव का और शिव को राम का उपासक बताकर उनकी अभिन्नता द्वारा पारस्परिक वैमनस्य का परिहार किया है। तुलसी के राम की स्पष्ट घोषणा है-

शिव द्रोही मम दास कहावा। सो नर मोहि सपनेहु नहि पावा ।।

उन्होंने संगुप्प, अगुण, ज्ञान, भक्ति, कर्म का उचित स्थान निर्धारित करते हुए उनके महत्व का प्रतिपादन किया है। गोस्वामी जी को भक्ति एकमात्र अभीष्ट है। भक्ति का साधन ज्ञान है और ज्ञान की प्राप्ति के लिए जप, तप, व्रत, अध्ययन और सन्त समागम आदि कर्म आवश्यक हैं-

अगुनहि सगुनहि नहिं कछु भेदा गावहिं श्रुति पुरान बुध बेदा।

अगुन अरूप अलग जग जोइ। भक्ति प्रेम बस सगुन सो होइ।

तुलसी ने यह सब कुछ पक्षपात रहित होकर कहा है। उसमें कहीं भी गर्व और गुमान नहीं है। उन्होंने लोक संग्रहात्मक वेद, पुराण तथा सन्तमत का बखान किया है। उन्होंने द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद तथा शुद्धाद्वैतवाद अपने समय के सभी दार्शनिक सिद्धांतों का महत्व प्रतिपादित करते हुए सब में समन्वय प्रस्तुत किया है। उनका सब मतावलम्बियों से विनम्र निवेदन है-

कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ पुरान स्त्रवण कोई पखै ।

तुलसीदास परिहरति तीनि भ्रम, सो आपुन पहिचानै ॥

तुलसी का विश्वास है कि जगत् को सत्यासत्य, सत्य और मिथ्या मानने वालों के भ्रम से ऊपर उठने पर ही सिया राममय जगत् की पहचान हो सकती है जो कि परम ध्येय है-

सियाराममय सब जग जानी, करऊं प्रनाम जोरि जुग पानी ।

इस प्रकार तुलसी ने अपने समय के प्रचलित विभिन्न देवी-देवताओं की वन्दना पौराणिक प्रतीकों के रूप में की है और लोक-प्रचलित मंगलकारी ईश्वर के सभी रूपों की वन्दना की। किन्तु उनके दार्शनिक समन्वय को देखते हुए यह नहीं भूलना चाहिए कि तुलसी लोक-मर्यादा, वर्ण-व्यवस्था, सदाचार-व्यवस्था सबके श्रुतिसम्मत होने का सदा ध्यान रखते हैं। डॉ० शिवदान सिंह चौहन इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “इन तमाम दार्शनिक विचारों और उपासना-रूपों तथा देवी-देवताओं के कुछ न कुछ वर्णन तुलसी-साहित्य में होने से कोई उन्हें अद्वैतवादी, कोई विशिष्टाद्वैतवादी, कोई केवल दास्यभाव का भक्त, कोई केवल वैष्णव, दो कोई स्मार्त वैष्णव मानते हैं, किन्तु तुलसी इनमें सबको साथ लेकर इन सबसे अलग थे। वह नाना पुरा-निगमागम की बात कहते हुए भी लोक धर्म की उपेक्षा नहीं करते थे। उनका दार्शनिक समन्वयवाद सामाजिक मर्यादाओं को वर्ण और वेद के अनुसार प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न था, जिस पर सामन्ती संस्कारों की छाप थी, किन्तु लोक-कल्याण में उनकी आस्था उनके उदार मानवतावाद की परिचायक हैं जिसकी व्यापक प्रेरणा से वे इतनी विभिन्नताओं का विराट समन्वय करके युग को अपने अनुकूल बनाने को महान् कला-साधना संपन्न कर सके। “

सामाजिक क्षेत्र तुलसी के समय का समाज आदर्श विहीन, संस्कृति-रहित, पथभ्रष्ट, मर्यादा- पतित तथा नितांत ह्रासोन्मुख ‘था। उनके ‘कलि महिमा’ वर्णन में तत्कालीन अधोमुख समाज का नग्न चित्र और उनके ‘राम-राज्य’ वर्णन में उसके आदर्श रूप की कल्पना की गई है। तुलसी ने सामाजिक जीवन का मूल्यांकन आचार की कसौटी पर किया है। उनका दृढ़ विश्वास है कि कोई भी समाज अथवा राष्ट्र आचार के बल पर ही जी सकता है। पुरातन धार्मिक तथा सांस्कृतिक मर्यादाओं का अतिक्रमण करने वाले समाज का नाश अवश्यम्भावी है। व्यक्ति और परिवार आदर्श समाज की आधारशिलाएं हैं। सीता आदर्श पत्नी है, कौशल्या आदर्श माता है, लक्ष्मण और भरत आदर्श भाई हैं, हनुमान आदर्श सेवक और सुग्रीव आदर्श सखा है। तुलसी ने राम रसायन के पुटपाक द्वारा मुमूर्षु हिन्दू राष्ट्र के जर्जर शरीर में अपार बल और अदम्य शक्ति का संचार किया जिसके कारण वह समय के विकट से विकट थपेड़ों को खाकर भी तनिक विचलित नहीं हुआ। आज का हिन्दू धर्म तुलसीकृत धर्म है और आज का हिन्दू राष्ट्र तुलसी-निर्मित राष्ट्र है। तुलसी की मान्यता के अनुसार आदर्श समाज के लिए वर्ण-व्यवस्था का पालन आवश्यक है-

बरनाश्रम निज निज धरम, निरत वेद पंथ लोग।

चलहि सदा पावहि सुख, जहिं भय शोक न रोग ॥

तुलसीदास लोक-मंगल भावना की दृष्टि से समाज में समर्यादा छोटी-बड़ी श्रेणियों का विधान अनिवार्य मानते हैं। मर्यादा के बिना समाज उच्छृंखल हो जाता है और उसका शरीर जीर्ण-शीर्ण हो जाता है। समन्वयवादी होते हुए भी वे मर्यादाबाद के प्रबल समर्थक हैं। उन्हें समझौते के नाम पर मर्यादा विरोधी तथा लोक विद्वेषिणी असत् प्रवृत्तियों के सम्मुख झुकना कदापि इष्ट नहीं है। हां, वे अपने इस मर्यादाबाद से किसी को अनावश्कय ठेस भी नहीं पहुंचाना चाहते हैं। आदर्श एवं स्वस्थ जीवन में वे सन्तुलन के पक्षपाती हैं। उनके राम में शील, शक्ति, सौन्दर्य का समन्वय है और वे मर्यादा की मेंड़ से एक तिल भी नहीं हटते। सच तो यह है कि तुलसी ने अपने समय की सामाजिक परिस्थितियों का निदान वर्ण व्यवस्था के प्रतिपादन के साथ-साथ उदार भक्ति परम्परा के निरूपण में उचित समझा उन्होंने न्याय और समता की व्यवस्था का आदर्श सामने रखकर लोक-संघर्ष की प्रेरणा दी।

साहित्यिक क्षेत्र में भी तुलसीदास ने अपने अद्भुत कौशल का परिचय दिया है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों मैं- “उन्होंने नाना पुराणों और निगमागम का अध्ययन किया था और साथ ही लोकप्रिय साहित्य और साधना-मार्ग की नाड़ी पहचानने का उन्हें अवसर मिला था। उस युग में प्रचलित सब प्रकार की काव्य-पद्धतियों को उन्होंने अपनी शक्तिमती भाषा की सवारी पर चढ़ाया था। उनकी काव्य पद्धति का अध्ययन करने से उनकी अदभुत समन्वयात्मिका बुद्धि का परिचय मिलता है। शिक्षित जनता में जितने प्रकार की काव्य-पद्धतियों का प्रचलन था, उन सबको उन्होंने सफलतापूर्वक अपनाया था। चन्द के छास्य, कुंडलियां, कबीर के दोहे और विनय के पद, सूर और विद्यापति की लीला-गान विषयक भाव-प्रधान गीतिपद्धति, जायसी, ईश्वरदास आदि की दोहा चौपाइयों की शैली, गंग आदि भाट कवियों की सवैया कवित्त की पद्धति, रहीम के बरवै, सबको उन्होंने अपनी अद्भुत पाहिका शक्ति के द्वारा आत्मसात् कर लिया। उस समय पूर्व भारत में अनेक प्रकार के मंगल काव्य प्रचलित थे -तुलसी ने इस शैली को भी अपनाया। उन्होंने पार्वती-मंगल और जानकी-मंगल नाम के काव्य लिखे थे। इस प्रकार उन दिनों साधारण जनता में प्रचलित सोहर, नहछू गीत, चांचर और बसन्त आदि रागों में भी उन्होंने काव्य लिखे। इस प्रकार साधारण जनता में प्रचलित गीति पद्धति से लेकर शिक्षित जनता में प्रचलित काव्य रूपों को उन्होंने अपनाया है।” इस प्रकार इनमें प्रबन्ध और मुक्तक, श्रव्य और दृश्य ब्रज और अवधी, भाषा और संस्कृति, भाषा और भाव, छंद और अलंकार, भक्ति और कविता, लोकहित और मर्यादा सबका कलात्मक सामंजस्य है। समाज, साहित्य-संस्कृति और दर्शन सभी क्षेत्रों में तुलसीदास के समन्वयकारी व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा अक्षुण्ण है। प्रोफेसर बलदेव प्रसाद मिश्र के शब्दों में- “गीता का अनासक्तियोग, बौद्धों और जैनों का अहिंसावाद, वैष्णवों और शैवों का अनुराग, शाक्त का जप, शंकर का अद्वैतवाद, रामानुज की भक्ति भावना, निम्बार्क का द्वैताद्वैतवाद, रामोपासना, बालकृष्णोपासना, चैतन्य का प्रेम, गोरखादि योगियों का संयम, कबीर आदि सन्तों का नाम संगठन और गांधीवाद की सत्य, अहिंसामूलक आस्तिकतापूर्ण लोकसेवा आदि सब कुछ तो उसमें है ही, साथ ही मुसलमानों का मानव बन्धुत्व और ईसाइयों का श्रद्धा तथा करुणा से पूर्ण सदाचार भी क्रीड़ा कर रहा है।”

जनता के प्रतिनिधि कवि तुलसी- प्रायः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदास के सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल का यह कथन अक्षरशः सत्य है- “भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इसी (तुलसी) महानुभाव को ही। इसमें व्यक्तिगत साधना के साथ लोक धर्म की अत्यंत उज्ज्वल छटा वर्तमान है।” कविता उनका साधन है-साध्य है राम भक्ति । किन्तु अपने साध्य तक पहुंचने के लिए गोस्वामी जी ने जिस साधन को स्वीकार किया उसे इतना पूर्ण और समर्थ बना दिया, उस वैयक्तिक साधना में इतनी मात्रा में समष्टिगतता आ गई कि उनका मानस जनमानस हो गया। उनका साहित्य स्वान्तः सुखाय होते हुए भी सर्वहिताय सिद्ध हुआ। उनके अन्त संघर्ष और उनकी भक्ति में लोक-संग्रह सन्निहित है। भक्ति और साहित्य दोनों क्षेत्रों में उन्हें जितनी सफलता मिली है उतनी अन्य किसी कवि को नहीं मिली। उनकी कविता में मानव जीवन की अधिक से अधिक दशाओं का सन्निवेश हुआ है। अन्य कवि जीवन के किसी एक अंग या पक्ष को लेकर चले हैं। वीरगाथा काल के कवि उत्साह को, भक्तिकाल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को, रीतिकाल के कवि शृंगार को। पर इनकी वाणी की पहुंच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है।

निःसन्देह तुलसी पहले भक्त हैं और बाद में कुछ और उन्होंने स्वान्तः सुखाय साहित्य की सृष्टि की पर वह सर्वसुखाय सिद्ध हुई। उनका कविता सम्बन्धी दृष्टिकोण अत्यंत व्यापक और उदात्त है

कीन्हें प्राकृति जन गुणगाना, सिर धुनि गिरा लागि पछिताना ।

अथवा

कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई।

उनकी वाणी एक ओर तो व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरहपूर्ण शुद्ध भक्ति मार्ग का उपदेश देती है तो दूसरी ओर लोक-पक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौन्दर्य दिखाकर मुग्ध करती है। रामचरित के भक्ति-सरोवर में जहाँ तुलसी स्वयं मज्जन करके निष्कलुष बने वहां जनता को उनका रसामृत पान कराके युगों तक अमर बना दिया। वे कोरे भक्त नहीं और न ही उनके रामचरित मानस को कोरी भक्ति का पंथ कहा जा सकता है। उसमें लोक-संग्रह की भावना अत्यंत उभरी हुई है। उनकी भक्ति में ऐकान्तिक साधना नहीं है बल्कि उसमें अन्तःसंघर्ष छिपा हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने काम, क्रोध, लोभ, मद और मोह को मनुष्य का प्रबल शत्रु बताया है किन्तु इनका मर्यादित रूप जन-जीवन के लिए आवश्यक नहीं अनिवार्य भी है। इनकी अतिशयता अवांछनीय एवं त्याज्य है। रामचरितमानस में रावण और शूर्पणखा ने काम की मर्यादा का अतिक्रमण किया है किन्तु तुलसी ने उन्हें उचित दंड भी दिलवाया। नारद को अपने ब्रह्मचर्य पर घमंड हो गया और उन्होंने काम का परित्याग कर दिया किन्तु वही नारद काम के फेरे में ऐसे पड़ते हैं कि जग हंसाई होती है। इसके विपरीत राम में काम का मर्यादित रूप है, अतः उसे किसी प्रकार की उलझन का सामना करना नहीं पड़ता। तुलसी ने रावण और परशुराम में मद की अतिशयता दिखाई है। उन्हें इतना गर्व हो गया कि यथार्थ का ज्ञान तक न रहा। इनके विपरीत राम को भी अपनी वीरता पर गर्व है लेकिन वह अपनी सीमायें नहीं लांघता। राम नम्रता किन्तु दृढ़ता के साथ परशुराम को चेतावनी देते हैं। परशुराम में क्रोध की अतिशयता को तुलसी ने हास्यास्पद बताया है। किन्तु राम के समुद्र के प्रति प्रकट किये गये क्रोध को उचित ठहराया है। क्योंकि राम ने कोप या क्रोध की मर्यादा बांधी। राम आदर्श पुत्र, आदर्श पति और आदर्श राजा हैं, सीता आदर्श पत्नी हैं, कौशल्या आदर्श माता हैं, लक्ष्मण और भरत आदर्श भाई हैं, हनुमान आदर्श सेवक हैं और सुग्रीव आदर्श सखा हैं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। मर्यादा और आदर्श की प्रतिष्ठा ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। राम जीवन की विकट से विकट परिस्थिति का सामना अपने अपार मनोबल से करते हैं। उन्होंने विपत्ति में विचलित होना सीखा ही नहीं। सच यह है कि रामचरितमानस के पात्रों द्वारा तुलसीदास ने जिन नैतिक मूल्यों की स्थापना की वे जनता के मनोबल को दृढ़ करने वाले थे, उसे संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ाने वाले थे। वस्तुतः तुलसीदास ने समग्र उत्तरी भारत के जीवन को राममय बना दिया है। आचार्य शुक्ल इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “तुलसी के मानस से जो शील, शक्ति सौन्दर्यमयी स्वच्छ धारा निकलती है, उसने जीवन की प्रत्येक स्थिति में पहुंचकर भगवान के स्वरूप का प्रतिबिम्ब झलका दिया है। रामचरित की इसी जीवन व्यापकता ने उनकी वाणी को राजा-रंक, धनी- दरिद्र, मूर्ख- पंडित सबके हृदय और कंठ में सब दिन के लिए बसा दिया है। किसी श्रेणी का हिन्दू हो वह अपने जीवन में राम को पाता है। सम्पत्ति में, विपत्ति में, रण-क्षेत्र में, आनन्दोत्सव में जहां देखिये वहीं राम। उनकी वाणी की प्रेरणा से आज हिन्दू जनता अवसर के अनुकूल सौन्दर्य पर मुग्ध होती है, महत्व पर श्रद्धा करती है, शील की ओर प्रवृत्त होती है, सन्मार्ग पर पैर रखती है, विपत्ति में धैर्य धरती है, कठिन कर्म में उत्साहित होती है, दया से आर्द्र होती है, बुराई पर ग्लानि करती है, शिष्टता पर अवलम्बन करती है, मानव जीवन के महत्व का अवलम्बन करती है।” इसी प्रकार तुलसी अपने राम के समान जनता के जीवन में घुल-मिल गये हैं। उन्होंने जन-जीवन के अध्यायों को ध्यान से पढ़ा और समझा और कदाचित् जीवन की व्याख्या उन्होंने रामत्व की कल्पना में प्रस्तुत की।

तुलसीदास सकल जगत को राममय जानते हैं और इस विश्वास का परिणाम यह हुआ है कि उन्होंने धर्म की जो कल्पना की वह बडी विशाल थी। इस विशाल कल्पना के फलस्वरूप वे धार्मिक संप्रदायों का समन्वय कर सके।

रामत्व की रावणत्व पर विजय की जो कल्पना इन्होंने की है, उसके मूल में तत्कालीन भारत की राजनीतिक दुरवस्था थी, जिससे दुखित होकर उन्होंने प्रच्छन्न रूप से रामवत् संघर्ष कर्म का संकेत किया है। एक युग प्रवर्तक कवि के लिए ऐसा करना आवश्यक भी था। उनकी रामत्व की रावणत्व पर विजय की कल्पना केवल भारतीय समाज के लिए ही नहीं प्रत्युत विश्व समाज के लिए पथ-प्रदर्शिका है। यह वह आलोक है तो गांधीजी का पथ प्रशस्त करता रहा। तुलसीदास कोरे वैरागी बाबा नहीं, विरक्त होकर भी आसक्त हैं, वे भारत के ऋणी हैं, वे अपने समाज के मुख, वाणी और मस्तिष्क हैं। तुलसी-साहित्य में तत्कालीन भारतीय समाज मुखरित हो उठा है। कृष्ण-भक्त कवियों के समान उनकी मथुरा तीन लोक से न्यारी नहीं और न ही इन्होंने समाज के प्रति आंखें बन्द की हुई हैं। उनके साहित्य में तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक घात-प्रतिघात सजीव हो उठे हैं। राष्ट्र और समाज के साथ उनका पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन का आदर्श अत्यंत भव्य है। रामचरितमानस पारिवारिक और व्यक्तिगत आदशों का खजाना है। उनकी धारणा थी कि व्यक्ति से परिवार परिवार से समाज तथा समाज से राष्ट्र का निर्माण सम्भव है। कदाचित् यही कारण है कि उन्होंने वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था पर अत्यधिक बल दिया है क्योंकि इससे समाज में उच्छृंखलता एवं विशृंखलता के स्थान पर मर्यादा और एकता की प्रतिष्ठा होती है। किसी आलोचक विद्वान् के तुलसीदास के प्रति कहे गये शब्द अत्यंत भावपूर्ण हैं- “तुलसी कवि थे, भक्त थे, पंडित थे, सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में इनका कोई भी रूप घटकर नहीं था। यही कारण था कि उन्होंने सब ओर से समता की रक्षा करते हुए एक अद्वितीय काव्य सृष्टि की जो अब तक उत्तर भारत का मार्गदर्शक रहा और उस दिन भी रहेगा, जिस दिन नवीन भारत का जन्म हो गया होगा।” तुलसी के काव्य ने जिस रूप और जिस मात्रा में जन-मन-वाहन की सवारी की है शायद ही हिन्दी के किसी अन्य कवि के काव्य को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ हो। इन्होंने धर्म और संस्कृति, समाज और साहित्य सभी क्षेत्रों में भारतीय जनता का सफल नेतृत्व किया है। सद्गुरूशरण अवस्थी के शब्दों में- “गोस्वामी भारतवर्ष के उऋण ऋणी हैं, भारतीय संस्कृति की वे कीर्ति हैं। सच्चे साधु हैं, निश्छल भक्त हैं, छिपे हुए शिक्षक और धीमे सुधारक हैं। मर्त्य और स्वर्ग का ऐसा अनूठा संयोग विश्व के साहित्य में कदाचित ही मिले।” विदेशी विद्वान् नाक्स (Knox) का कहना है कि- “भारत का किसान भी दूसरे है देशों के नेताओं से अधिक संस्कृत है। इस बात का श्रेय बिना किसी पक्षपात के तुलसी को दिया जा सकता है क्योंकि आज के भारत का धर्म और संस्कृति तुलसी सम्मत धर्म और संस्कृति है।”

तुलसी का काव्य-कौशल- “गोस्वामी जी के आदुर्भाव को हिन्दी काव्य-क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए। हिन्दी काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में पहले-पहल दिखाई पड़ा। “-आचार्य शुक्ल। विषयव्यापकता, काव्य-सोष्ठव और भाषा का परिमार्जित रूप तथा उसकी अभिव्यक्ति शक्ति इनके काव्य में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची हुई है। इन्हें भाषा के सहज मर्म की परख है और नाना शैलियों पर इनका पूर्ण अधिकार है।

विषय व्यापकता- वीरगाथाओं के कर्ता चारण कवियों के भावों का दायरा सीमित था। उन्होंने प्रधानतः वीर तथा शृंगार, रस का चित्रण किया। उनके साहित्य का सर्जन स्वामिनः सुखाय हुआ और उसमें प्राकृत जन गुणगान है। जन-जीवन के साथ उस कविता का कोई सरोकार नहीं। उसमें सर्वत्र अभिजात वर्ग का जीवन है।

कबीर का काव्य जन-जीवन को साथ लेकर चला, किन्तु उसकी भर्त्सनामयी अटपटी वाणी से शिक्षित जन समुदाय तथा उच्च वर्ग तिलमिला उठा। उनके द्वारा की गई कर्मकांड की निन्दा तथा वर्ण व्यवस्था के विरोध में एक प्रकार से लोक धर्म का विरोधी स्वरूप सन्निहित था और इससे समाज के विशृंखल हो जाने की निश्चित रूप से आशंका थी और साथ-साथ शास्त्र मर्यादा के विध्वस्त हो जाने का भी भय था । सम्भव है कि तुलसी को कबीर और योगपंथियों की अन्तःसाधना तथा कोठों के भीतर की बात सुनकर प्रतिवाद रूप में कहना पड़ा था- “अलखहि अलखहि का जपै राम नाम जप नीच” तथा “अन्तर्नामिहु ते बड़ बाहिरजामी।” इस प्रकार तुलसी ने भक्ति की महिमा का प्रतिपादन करके लोक धर्म, रीति-नीति तथा मर्यादा की प्रतिष्ठा की।

प्रेममार्गी कवि प्रेम की एकांगी क्षेत्र को लेकर चले। वे जीवन के समूचे रूप को न देख सके। लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना भले ही उन्होंने की किन्तु उसकी पद्धति भारतीयता के अनुकूल नहीं थी । अतः वह भारतीय समाज के लिए कवच का काम न दे सकी।

कृष्ण-भक्त कवियों ने कृष्ण रंजक रूप को सामने रखकर मुक्त कंठ से उनके प्रेम के गीत गाये। समाज कहा जा रहा था। इस बात की उन्हें तनिक चिन्ता नही थी। वे राधा और कृष्ण की प्रणय-लीला और बालगोपाल के भाव-चित्र उतारने में लगे रहे। उनमें भक्ति और शुद्ध कला की अभिव्यक्ति हुई, किन्तु लोक-संग्रह की भावना उपेक्षित रही ।

तुलसीदास का गृहीत विषय अत्यंत व्यापक है। उन्होंने जीवन के किसी एक अंग विशेष का ग्रहण न कर उसके समूचे रूप का चित्रण किया। उनकी पहुंच मानव जीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म दशाओं और वृत्तियों तक थी। उन्होंने राम जीवन के व्यापक आदर्श से समस्त उत्तरी भारत के जीवन को राममय बना दिया। उनके काव्य में ऐकान्तिक रूप से भक्ति ही नहीं, प्रत्युत सामाजिक पक्ष भी बराबर चलता रहता है। उन्हें लोक-धर्म और लोक-मर्यादा का सदा ध्यान रहा है। उनका काव्य समविभक्तांग (Balanced ) है। उनमें सभी रसों का कलात्मक सौन्दर्य चित्रण हुआ है। उनके काव्य में प्रबन्ध सौष्ठव, चरित्र-चित्रण और कलात्मक सौन्दर्य पूर्ण परिपाक को पहुंचे हुए हैं। तुलसी स्वयं महान हैं, उनका काव्य-सम्बन्धी आदर्श ‘स्वान्तः सुखाय’ एवं ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कहं हित होई” महान् हैं। अतः उनके काव्य भी महान हैं। उनमें हिन्दी काव्य की सम्पूर्ण शक्ति साकार हो उठी है। उनका काव्य मर्त्य और स्वर्ग का एक अनूठा सोहाग है। उसमें व्यक्तिगत साधना के साथ लोक-धर्म भी बराबर चलता रहा है। तुलसी धर्म, संस्कृति और साहित्य के अभिनव भगीरथ हैं। भक्त नाभादास का अग्रलिखित कथन महाकवि तुलसीदास के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पूर्णत: चरितार्थ होता है-

त्रेता काव्य निबन्ध करिय सत कोटि रमायन,

इक अच्छर उद्धरै ब्रह्म इत्यादि परायन ।।

अब भक्तनि सुख छैन बहुरि लीला विस्तारी,

राम चरन रस भक्त रहत अह निशि व्रतधारी ॥

संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लयो,

कलि कीटिल जीव निस्तार हित बाल्मीकि तुलसी भयौ ।।

परिमार्जित भाषा- वीरगाथाओं के कवि भाषा के पुराने रूप को लेकर एक विशिष्ट शैली को निभाते रहे। चलती भाषा का संस्कार और उन्नति उनके द्वारा न हुई। कबीर ने चलती बोली में अपना सन्देशा सुनाया, पर वह बेठिकाने की थी उसका कोई नियत रूप नहीं था। शौरसेनी अपभ्रंश या नागर अपभ्रंश का जो सामान्य रूप साहित्य के लिए स्वीकृत हो चुका था उससे कबीर का लगाव न था । उन्होंने सधुक्कड़ी बोली से काम चलाया। अशिक्षित होने के कारण उनकी भाषा का कोई निश्चित एवं स्थिर रूप नहीं था। कभी-कभी तो वे अपनी सांध्य भाषा में नदियों में नाव डुबाने की पहेली बुझौवल ही डालते रहे।

सगुणोपासक भक्त कवियों द्वारा प्रचलित भाषा को कुछ प्रश्रय मिला। भक्तवर सूरदास ब्रज की चलती हुई भाषा को परम्परा से चली आती हुई काव्य भाषा के बीच पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करके साहित्यिक भाषा के लोक व्यवहार के मेल में ले आये । परन्तु उनमें भी क्रियाओं के कुछ पुराने रूप तथा सर्वनाम के कुछ घिसे-पिटे रूप बने ही रहे। आचार्य शुक्ल तुलसी और सूर की भाषा के सम्बन्ध में लिखते हैं- “उनकी (तुलसी) सी भाषा की सफाई और किसी कवि में नहीं। सूरदास में ऐसे वाक्य के वाक्य मिलते हैं कि विचार आगे बढ़ाने में कुछ भी योग देते नहीं पाये जाते, वे केवल पाद-पूर्त्यर्थ ही लाये हुए जान पड़ते हैं। सूरदास ने इसलिए तुकान्त के लिए शब्द तोड़े-मरोड़े हैं। पर गोस्वामी जी की वाक्य रचना अत्यंत प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है। उसमें एक भी शब्द फालतू नहीं है। “

अवधी भाषा का स्वरूप ईश्वरदास की ‘सत्यवती’ कथा में तथा मुसलमान कवियों जायसी आदि ने अपने ग्रंथों में निर्धारित किया था। तुलसी ने संस्कृत के परम पंडित होते हुए लोक-भाषा को अपने काव्य के लिए चुना। पूर्वी अवधी और पश्चिमी अवधी इन दोनों पर उनका समान अधिकार था। उन्होंने लोक प्रचलित भाषा के रूप को अपनाते हुए उसे स्थायी साहित्य रूप दिया। इसके साथ-साथ तुलसी ने ब्रजभाषा का भी साधु प्रयोग किया। इनकी ब्रजभाषा में सूरदास के समान पादपूर्ति के लिए भारती के शब्दों का प्रयोग नहीं। इसकी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता है उसमें संस्कृत की कोमलकान्त पदावली की सुमधुर झंकार तथा विदेशी भाषा के शब्दों का हिन्दी की प्रकृति के अनुसार प्रयोग । एक विद्वान आलोचक के शब्दों में- “भाषा की दृष्टि से तुलसी की तुलना हिन्दी के किसी अन्य कवि से नहीं हो सकती। उनकी भाषा में समन्वय की चेष्टा है। तुलसीदास की भाषा जितनी लौकिक है उतनी ही शास्त्रीय। उसमें संस्कृत का मिश्रण बड़ी चतुरता के साथ किया गया है। जहाँ जैसा विषय होता है भाषा अपने आप उसके अनुकूल हो जाती है। तुलसीदास से पूर्व किसी ने इतनी मार्जित भाषा का प्रयोग नहीं किया था। काव्योपयोगी भाषा लिखने में तो तुलसी कमाल करते हैं।”

विविध शैलियाँ- तुलसी के समय में काव्याभिव्यक्ति के लिए अनेक शैलियां प्रचलित थीं, जिनमें प्रमुख पांच हैं। गोस्वामी जी ने पांचों शैलियों का सफल प्रयोग किया है-

(क) वीरगाथा काल की छप्पय-पद्धति- यद्यपि इस रचना पद्धति पर इन्होंने अधिक नहीं लिखा पर जो कुछ लिखा उसमें उनकी निपुणता झलकती है। राम-जीवन के ओजस्वी चरित्रों तथा युद्ध-वर्णनों में उनकी उक्त पद्धति दर्शनीय है-

कतहूं विटप भूधर, उपारि पर सेन बरक्खत।

कतहं वाजि सो वाजि मर्दि गजराज करक्खत ।। आदि।

(ख) विद्यापति और सूरदास की गीति-पद्धति- यद्यपि विद्यापति और सूरदास इस पद्धति का प्रवर्तन कर चुके थे। पर सूरदास की रचना में संस्कृत की कोमलकान्त पदावली और अनुप्रासों का उतना सफल प्रयोग नहीं है जो तुलसीदास में हैं। गोस्वामी जी के गीत संस्कृतगर्भित होते हुए भी शुद्ध देश-भाषा के माधुर्य से संवलित हैं। इनमें संस्कृत का लालित्य और देश – भाषा का माधुर्य दोनों समन्वित हैं। इनके गेय पदों में प्रसंगानुकूल कोमलता और कर्कशता दोनों मिलती है। गेयता की दृष्टि से इनकी विनयपत्रिका अत्यंत उत्तम बन पड़ी है। गीतावली के मधुर पदों में हृदय के विभिन्न भावों की अभिव्यंजना अतीव मर्मस्पर्शिनी है। भारत की आत्मग्लानि का एक चित्र देखिये-

जो पैं जो मातु मते ह्वै हौ ।

तौ जननी !  जग में या मख की कहां कालिमा ध्वैहौ ?

(ग) गंग आदि भाटों की कवित्त सवैया पद्धति- उनकी कवितावली की रचना इस पद्धति पर हुई है। उन्होंने इस पुस्तक में सारी राम कथा को बड़ी रसात्मकता और विदग्धता से कह डाला है। इसमें नाना रसों का समावेश है। शब्द योजना एकदम रसानुकूल है-

राम को रूप निहारति जानकि, कंकन के नग की परछाही ।।

यातै सबै सुधि भूल गई, कर टेकि रही, पल टारति नाहीं ।।

(घ) नीति के उपदेश की सूक्ति पद्धति – काव्य की यह पद्धति भारतीय साहित्य की पुरानी परम्परा के अनुकूल अपभ्रंश साहित्य में प्रचलित थी। तुलसीदास ने इस पद्धति का प्रयोग अपने रामचरितमानस तथा दोहावली में बड़ी सफलता से किया है-

लोगन भलो मनाव जो भलो होन की आस ।

करत गंगन को गेंडुआ, सो सठ तुलसीदास ।।

(ङ) दोहा-चौपाई की प्रबन्ध पद्धति- मलिक मुहम्मद जायसी आदि प्रेममार्गी कवि इस शैली को पहले अपना चुके थे, किन्तु गोस्वामी जी ने अपने रामचरित मानस में इसे अपने चरम विकास पर पहुंचा दिया। जायसी और तुलसी दोनों की भाषा अवधी है पर दोनों के पद विन्यास में अन्तर है। जायसी में केवल ठेठ अवधी भाषा का माधुर्य है जबकि गोस्वामी जी में अवधी का माधुर्य और संस्कृत का लालित्य दोनों हैं। तुलसी शास्त्रपारंगत विद्वान थे। अतः उनकी शब्द योजना साहित्यिक है। उदाहरणार्थ-

जन मन मंजु मुकुर पल हरनी।

किए तिलक गुन गन बस करनी ।।

आचार्य हजारीप्रसाद ने तुलसी के दस काव्य-रूपों की गणना की है- (1) दोहा, चौपाई वाले चरित काव्य, (2) कवित्त सवैया, (3) दोहे में अध्यात्म और नीति के उपदेश, (4) बरवै छंद, (5) सोहर छंद, (6) विनय के पद, (7) लीला के पद, (8) वीर-काव्यों की छप्पय पद्धति, (9) दोहों में सगुन विचार, (10) मंगल काव्य काव्य में तुलसीदास ने मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में समान अधिकार दिखाया है। इनके गेयपद लालित्यपूर्ण हैं और प्रबन्ध रचनाओं में जीवन की सर्वांगीणता है। रस, रीति, गुण, अलंकार छंद और शब्द-शक्तियों पर उनका पूर्ण अधिकार है। वे अपनी रचना में शब्दाडंबर के भद्देपन और व्यर्थ के प्रदर्शन को नहीं आने देते। सारांश यह है कि इन्होंने काव्य- अभिव्यक्ति के समस्त उपकरणों के सत्ययोग से हिन्दी की अभिव्यक्ति शक्ति को अपनी पूर्ण पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है। डॉ० बलदेव प्रसाद के रामचरितमानस के सम्बन्ध में प्रकट किये गये उद्गार अवलोकनीय हैं-“हिन्दी भाषा की पाचन शक्ति का बढ़िया नमूना देखना हो तो रामचरित मानस देख जाय। भाषा के प्रसाद ओज और माधुर्य गुण की सच्ची बानगी देखनी हो तो रामचरित मानस देखा जाय। शब्दों की अभिधा-लक्षणा और व्यंजना शक्तियों के चमत्कार देखने हों तो रामचरित मानस देखा जाय। मुहावरों का सफल प्रयोग, उनका मूल्य और हृदयहारिता देखनी हो तो रामचरितमानस देखा जाय।”

प्रबन्ध सौष्ठव- रचना कौशल, प्रबन्ध पटुता और भावप्रवणता आदि सभी गुणों का इनमें एक अपूर्व समाहार मिलता है। रामचरितमानस में कथा के सभी अवयवों का उचित योग है। इतिवृत्ति, वस्तु-व्यापार वर्णन, काव्य-व्यंजना और संवाद सभी में आवश्यक सन्तुलन है। न तो अयोध्यापुरी की शोभा, बाल-लीला, नख-शिख-वर्णन, वाटिका में जानकी-दर्शन, अभिषेकोत्सव आदि के वर्णन इतने लम्बे हो पाये हैं और न ही पात्रों के संवादों में प्रेम, शोक आदि भावों की व्यंजना विस्तृत हो पाई है। इतिवृत्त की शृंखला कहीं भी नहीं टूटती। इस काव्य की कथा बड़े सौष्ठव के साथ ग्रंथित है। रामायण का आरंभ बड़ी धूम-धाम से होता है। रामावतार की आवश्यकता का प्रतिपादन है तथा इसके अनन्तर कथा अपने वेग के साथ आगे बढ़ती है। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने कथानक में नाना पुराण, निगमागम तथा लोक प्रचलित राम-सम्बन्धी सामग्री का सदुपयोग किया। उन्होंने वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, प्रसन्नराघव, हनुमन्नाटक आदि ग्रंथों का आधार लेकर भी कथा में कई नवीन प्रसंगों की उद्भावना की है। रामचरित मानस के चार वक्ता और चार श्रोता हैं । तुलसी राम के ब्रह्मत्व का स्मरण दिलाकर चेतावनी देते जाते हैं और पाठकों को राम के ब्रह्मत्व का प्रतिपादन स्थान-स्थान पर करने लगते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि कवि को अपने पाठकों की मेधाशक्ति पर अविश्वास है। कदाचित् यही कारण है कि ऐसे प्रसंगों में पाठक के अहंभाव को चोट पहुंचती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ऐसे प्रसंगों में अस्वाभाविकता भी आ गई है और साथ-साथ आवृत्ति भी। किन्तु अनेक वक्ता और श्रोता होने के कारण वे आवृत्ति दोष से मुक्त हो जाते हैं। वस्तु विन्यास, चरित्र-चित्रण, रस वर्णन, कल्पना-सृष्टि, अलंकार विधान, उक्ति वैचित्र्य, प्रकृति-वर्णन, भाषा और छंद आदि की दृष्टि से इनका प्रबन्ध काव्य रामचरितमानस सफल बन पड़ा है। इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण देखे जा सकते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम इसके धीरोदात्त नायक हैं। इसमें सभी रसों का कलात्मक समावेश है। महाकाव्योचित वीर, शांत और शृंगार रसों से यह अनुप्राणित हैं और प्रमुख इसमें शांत रस है । चतुर्वर्ग की प्राप्ति इसका महान आदर्श है। किसी प्रबन्ध काव्य की सफलता उसके मर्मस्पर्शी स्थलों में निहित होती है। इस दृष्टि से भी रामचरितमानस सफल प्रबन्ध काव्य कहा जा सकता है। ऐसे प्रसंगों में कवि की भावप्रवणता और मानव हृदय की सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभूतियों की पहचान का ज्ञान होता है। मानस में सीता राम का परस्पर दर्शन, राम वन-गमन, दशरथ-मरण, भरत की आत्मग्लानि वन मार्ग में जाते हुए सीता और राम के साथ स्त्री-पुरुषों की सहानुभूति, सीताहरण युद्ध में लक्ष्मण को शक्ति लगना आदि प्रसंग अत्यंत हृदयहारी बन पड़े हैं। तुलसी ने इसमें तीन प्रकार के पात्रों का समावेश किया है। सात्विक, राजसिक और तामसिक। अन्त में रामत्व की रावणत्व पर विजय दिखलकार धर्म की अधर्म पर विजय दिखलाई है। चरित्र-चित्रण में तो तुलसी सिद्धहस्त ही हैं। राम, सीता, लक्ष्मण, कौशल्या, भरत, हनुमान और सुप्रीव आदि के चरित्र हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नवीन संदेश देते हैं। तुलसी ने देव, मनुज, दनुज, यहां तक कि पशु-पक्षियों की अन्तःप्रकृति के चित्रण में अपनी मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ का अच्छा परिचय दिया है। इसमें सात कांड हैं, आरंभ में मंगलाचारण है। सज्जनों की प्रशंसा तथा दुर्जनों की निन्दा की गई है, नदी, पर्वत, नगर संध्या, प्रातः आदि वस्तु-वर्णन भी विद्यमान है, प्रधान कथानक को प्रासंगिक कथायें बल देती हुई दृष्टिगोचर होती हैं और अपेक्षित छंद परिवर्तन भी है। एक सच्चे महाकाव्य के समान इसमें एक उज्ज्वल जातीय सांस्कृतिक प्रतिविम्ब भी है। सौष्ठव की दृष्टि से रामचरितमानस का स्थान हिन्दी साहित्य में अत्युच्च है। पार्वती मंगल और जानकी मंगल भी इनके प्रबन्धक काव्य हैं। वस्तु विन्यास की दृष्टि से पार्वती मंगल अच्छा बन पड़ा है।

रस- यद्यपि कविता इनका साधन है साध्य नहीं है। साध्य तो है इनकी भक्ति। फिर भी तुलसी एक रससिद्ध कवीश्वर हैं। उनका समस्त काव्य भक्ति के दिव्य रस से ओतप्रोत है। इनका काव्य समविभक्तांग है और उसमें सभी रसों का कलात्मक चित्रण है। कारण तुलसी की मानव-मन के अन्तस्तल तक पहुंच थी और वे सभी अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में मानव हृदय की सूक्ष्म मनोवृत्तियों के सफल जानकार थे। उन्होंने मानव-जीवन के विविध रूपों को गहराई से देखा था और उसके मर्मों को पहचाना था। आचार्य शुक्ल इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “मानव-प्रकृति के जितने अधिक रूपों के साथ गोस्वामी जी के हृदय का रागात्मक सामंजस्य हम देखते हैं उतना अधिक हिन्दी भाषा के और किसी कवि के हृदय का नहीं। यदि कहीं सौन्दर्य है तो प्रफुल्लता, शक्ति है तो प्रणति, शील है तो हर्ष, पुलक गुण है तो आदर, पाप है तो घृणा, अत्याचार है तो क्रोध, अलौकिकता है। तो विस्मय, पाखंड है तो कुढ़न, शोक है तो करुणा, आनन्दोत्सव है तो उल्लास, उपकार है तो कृतघ्नता, महत्व है तो दीनता, तुलसीदास के हृदय में यह सब बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव से विद्यमान है।” वस्तुतः उनका काव्य विराट है। उसमें काव्य के सभी उपकरण यथास्थान अवस्थित हैं। मर्यादाबाद के कारण यद्यपि तुलसी का शृंगार रस अधिक प्रस्फुटित नहीं हुआ फिर भी इसमें संयोग और वियोग की अच्छी झांकी मिल जाती है। पुष्प वाटिका प्रसंग में सीता के आभूषणों की ध्वनि से राम की मनःस्थिति का कवि ने अच्छा परिचय दिया है किन्तु वहां पर भी वे अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ते। कवितावली में विवाह के पश्चात् के वर्णन में शृंगार रस का उज्ज्वल रूप प्रस्तुत किया गया है-

राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं ।

याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही पल टारति नाही ।।

वन मार्ग पर ग्राम-वधुओं द्वारा पूछी गई सीता की शृंगारी चेष्टाओं का सुन्दर निरूपण हुआ है-

बहुरि वदन विधु अंचल ढांकी, पिय तन चित्तै भौह करि बांकी।

खंजन मनु तिरछे नैननि, निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि ॥

इनका वियोग-वर्णन भी समर्याद है। राम के विरहोन्माद की ये पंक्तियां अत्यंत प्रसिद्ध हैं-

हे खग, मृग हे, मधुकर खेनी, तुम देखी सीता मृगनैनी ।

करुण रस के मानस में अनेक प्रसंग हैं, जिनमें दशरथ-मरण, राम वनवास, लक्ष्मण को शक्ति लगना तो अत्यंत हृदयस्पर्शी है। लक्ष्मण की मूर्च्छा के प्रसंग में राम के ये शब्द ‘जौ जनतैहु वन बन्धु विछोहू” कितने हृदयद्रावक हैं। नारद मोह में हास्य रस की सृष्टि हुई है-

जप तप कछु न होइ तेहि काला, हे विधि मिलै कवन विधि बाला ।

मानस में लंकाकांड और सुन्दरकांड में वीर रस का अच्छा परिपाक हुआ है। लक्ष्मण की यह दर्पोक्ति दर्शनीय हैं-

जो तुम्हार अनुशासन पाऊं, कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठाऊं ।

लक्ष्मण परशुराम संवाद तथा राजा दशरथ के वर न देने पर कैकेयी की क्रोधाभिव्यक्ति के प्रसंगों में रौद्र रस का अच्छा परिपाक हुआ है। लंकादाह के प्रसंग में भयानक और वीभत्स रसों का सुन्दर निर्वाह देखा जा सकता है। कवितावली की निम्न पंक्तियों में क्रम से इनके उदाहरण देखिये-

लागि लागि आगि, भागि-भागि चले जहाँ-जहाँ। तथा

सोनत सो सानि सानि गूदा खात सतुआ से।

शान्त रस तो सारे तुलसी- काव्य में ओतप्रोत है। सारी राम कथा का पर्यवसान शान्त रस में हुआ है। विनयपत्रिका और कवितावली के उत्तरकांड में शुद्ध शान्त रस है। विनय पत्रिका का एक उदाहरण देखिये-

मन पछितैहै अवसर बीते ।

दुर्लभ देह पाई हरि पद भजु करम बचन अरु ही तै।

राम के ब्रह्मत्व के प्रसंगों में भी अद्भुत रस की सृष्टि हुई है। हनुमान के पहाड़ ले आने के प्रसंगों में भी अद्भुत रस की सृष्टि हुई है। वात्सल्य रस के वर्णन के लिए रामचरितमानस तथा गीतावली के बालकांड द्रष्टव्य हैं।

अलंकार – रससिद्ध कवि तुलसीदास केशव के समान अलंकारों के पीछे मारे-मारे नहीं फिरे। बल्कि अलंकार उनके काव्य में सहज रूप में आये हैं। यही कारण है कि इनकी वाणी बाह्य चमत्कार के भद्दे खिलवाड़ में कहीं नहीं उलझी। इन्होंने अलंकारों का प्रयोग भावों के उत्कर्ष दिखाने, वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने के लिए किया है। पात्रों का गुण तथा स्वभाव के चित्रण में इन्होंने उत्प्रेक्षा, उदाहरण तथा दृष्टान्त अलंकारों का प्रयोग किया है। भावों और मनोवेगों के चित्रण में कवि ने उत्प्रेक्षा, रूपक तथा उपमा अलंकारों का अधिक उपयोग किया है। वस्तु-चित्रण में भी कवि अधिकतर उत्प्रेक्षा का प्रयोग करता है। इसके अतिरिक्त इन्होंने सन्देह, प्रतीप, उल्लेख, व्यतिरेक, परिणाम, परिसंख्या, अर्थान्तरन्यास प्रश्नोत्तर तथा अनुप्रास आदि का भी साधु प्रयोग किया है। इन अलंकारों के कुछ उदाहरण देखिये-

सन्त हृदय नवनीत समाना, कहा कविन पै कहइ न जाना।

‘निज परिताप द्रवै नवनीता, पर दुख द्रवै सन्त सुपुनीता। (व्यतिरेक)

निम्न पद में एक साथ ही रूपक और अतिशयोक्ति की छटा देखिए-

जो छवि सुधा पयोनिधि होई, परम रूपमय कच्छप सोई।

शोभा रजु मन्दरु सिंगारू, मर्धाहि पानिपंकज निज मारू ।।

 एहि विधि उपजे लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल ।

तदपि संकोच समेत कवि कहहिं सीय समतूल ।

छन्द- हम ऊपर कह चुके हैं कि तुलसी एक पारंगत विद्वान् थे। उनका भाषा, शैली, अलंकार तथा छदों पर अबाध अधिकार था। भाषा के सम्बन्ध में इन्होंने दृढ़तापूर्वक कह दिया था- “का भाषा संस्कृतिक भाव चाहिए साँच। काम जु आवे कामरी का लै करै कमाच ।” इनकी कामरी ही अधिक मूल्यवान सिद्ध हुई। उन्होंने अपने समय की सभी प्रचलित शैलियों का जिस विदग्धता से उपयोग किया, इसका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। साहित्य-क्षेत्र में उनकी समन्वयात्मकता के प्रसंग में हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि उनका अनेक छंदों पर भी असामान्य अधिकार था।

अभिव्यंजना तथा उक्ति वैचित्र्य- शैली की दृष्टि से इन्होंने प्रबन्ध तथा मुक्तक, दोनों प्रकार की पद्धतियों में काव्य-रचना की। तुलसी की प्रारंभिक कृतियों में शैली में प्रौढ़ता नहीं। रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न आदि रचनायें भाषा तथा भाव की दृष्टि से इतनी परिपक्व नहीं हैं जितनी कि इनकी बाद की रचनायें। बाद की रचनाओं में एक अनुपम प्रांजलता और विविधता है, जिससे यह स्पष्ट है कि तुलसी महान शैली-निर्माता और ज्ञाता हैं। डॉ० माताप्रसाद गुप्त इनकी शैली के सम्बन्ध में लिखते हैं- “तुलसी की शैली के मौलिक गुण हैं उसकी ऋजुता, उसकी सरलता, उसकी सुबोधता, उसकी निर्व्याजता, उसकी अलंकारप्रियता, उसकी चारुता, उसकी रमणीयता और उसका प्रवाह। ऐसा प्रतीत होता है कि शैली की ये विशेषतायें अपेक्षाकृत उसके जीवन का एक प्रतिरूप उपस्थित करती हैं। ये वास्तव में कवि के सुलझे हुए मस्तिष्क को उसके सादे जीवन और उच्च विचार के आदर्श को उसकी स्वभावगत सरलता और आडम्बरहीनता को, उसे ध्येय की एकाग्रता को और इन सबसे अधिक अपने विषय में उसकी पूर्ण आत्मविस्मृति और उसके साथ पूर्ण तल्लीनता को किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा व्यक्त करती हैं। इस प्रकार तुलसी का व्यक्तित्व उनकी शैली में भली-भांति वर्तमान है।” इसके अतिरिक्त उनका उक्ति-वैचित्र्य भी दर्शनीय है। उनकी उक्तियां बड़ी ही मार्मिक और प्रभावशालिनी हैं। राम वन गमन के समय जब राम सीता को साथ न ले जाने की युक्तियां बार-बार देते हैं तो उस समय राम को निरुत्तर कर देने वाली सीता की यह उक्ति देखिए-

मैं सुकुमारि नाथ बन जोगूं, तुमहि उचित तप मो कहँ भोगूँ ।

राम को उस समय की उक्ति, जब देखना तो जनकपुरी को स्वयं चाहते हैं किन्तु लक्ष्मण के व्याज से वसिष्ठ से कहते हैं-

नाथ लखनपुर देखन चहहीं, प्रभु संकोच उर प्रकट न कहहीं।

इसमें पर्यायोक्त की कितनी विलक्षण भव्यता है ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि तुलसी काव्य में कलापक्ष और भावपक्ष अपने अत्यंत प्रौढ़ रूप में हैं जो उन्हें एक अप्रतिम प्रतिभाशाली, क्रान्तदर्शी कवि सिद्ध करते हैं। उनकी रचना स्वान्तः सुखाय होते हुए भी सर्वान्तः सुखाय है । यद्यप साध्य उनकी भक्ति थी, फिर भी उसमें कलागत सभी उपकरण प्रचुर परिमाण में हैं। भाव, भाषा-शैली, अलंकार, रस, पदलालित्य, कथा, वस्तुविन्यास ये सारी वस्तुएं अपने इतने उच्च स्तर पर हैं कि इस विषय में शायद ही हिन्दी का कोई अन्य कवि इतनी प्रतिद्वन्द्विता कर सके। तुलसी की कला की कृतार्थता भक्ति के साथ व्यापक मानवता तथा लोक-संग्रह भावना के चित्रण में है। इसी मौलिकता के कारण उनका नाम विश्व के मूर्धन्य कलाकारों में निःसंकोच लिया जा सकता है। डॉ० विजयेन्द्र स्नातक के शब्दों में- “तुलसी हिन्दी कविता- कानन का सबसे बड़ा वृक्ष है। उस वृक्ष की शाखा प्रशाखाओं के काव्य-कौशल की चारुता और रमणीयता चारों ओर बिखरी पड़ी है।” यह सच है कि तुलसी प्रणीत राम-रसमयी कविता-मंजरी पर बैठा पाठकों का मन-भ्रमर रस लेते अघाता ही नहीं। उसमें नित्य नवीन सौन्दर्य है। तुलसी कला के द्वारा उपकृत नहीं हुए, प्रत्युत कला उनमें उपकृत हुई है-

 कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।

उनके काव्य में मर्त्य और स्वर्ग का एक अनूठा सोहाग है। गोस्वामी भारतवर्ष के उऋण ऋणी हैं। वे अभिनव भारतीय संस्कृति के अभिनव भगीरथ हैं। अन्त में हम डॉ० हजारीप्रसाद के शब्दों में कह सकते हैं- “तुलसीदास के काव्य में उनका निरीह भक्त रूप बहुत स्पष्ट हुआ है, पर वे समाज-सुधारक, लोकनायक, कवि, पंडित और भविष्य स्रष्टा भी थे। यह निर्णय करना कठिन है कि इनमें से उनका कौन-सा रूप अधिक आकर्षक था और अधिक प्रभावशाली था। इन गुणों में तुलसी में एक अपूर्व समता ला दी। इसी संतुलित प्रतिभा ने उत्तर भारत को वह महान साहित्य दिया जो दुनिया के इतिहास में अपना प्रतिद्वन्द्वी नहीं जानता।”

तुलसी का नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण

तुलसी की नारी के प्रति क्या धारणा थी, इस बहु-विवादास्पद विषय में न पड़ते हुए यहीं स्वीकार करना उचित है कि नारी के विषय में एक युगकवि होने के नाते वे इतना ऊंचा नहीं उठ सके हैं जितना कि अपेक्षित था। उनका दोष बस इतना ही है इससे अधिक नहीं। नारी सम्बन्धी हीनोक्तियों की संस्कृत साहित्य की विशाल परम्परा उनके सामने थी और उन्होंने उसका उपयोग भी किया। चाहे राम हों या भरत, सीता या अनुसूया, शूर्पणखा हो या मन्दोदरी, समुद्र हो या रावण अथवा कवि स्वयं हो या कोई अन्य पात्र, रामायण में जिस किसी माध्यम से नारी के विषय में अभिव्यक्त किये गये कटु विचारों के पीछे मातृ सत्ता युग की समाप्ति के पश्चात् क्रमशः स्वार्थी पुरुष द्वारा नारी के अधःपतन तथा उसके दमघोंटू शोषण का इतिहास सन्निहित है। मध्ययुगीन नारी इस प्रकार आत्मविश्वास से वंचित और हीनता पंथियों से युक्त हो गई थी, कि वह स्वयं अपनी भर्त्सना के लिए संकोच नहीं करती। इससे उसका स्वरूप विस्मरण ही समझना चाहिए जिसका आभास आज भी स्वतंत्र प्रजातन्त्रवादी भारत में लक्षाधिक मनोबलहीन नारियों में मिल जाता है। अस्तु ।

समुद्र द्वारा कहलवाई गई तुलसीदास जी की चिरनिन्दित अर्धाली-

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी,

ये सब ताडन के अधिकारी ॥

इसका आधार गंग संहिता का एक श्लोक है। इसमें तुलसीदास की निजी कोई भी धारणा नहीं है। हमारा विद्वत्वर्ग से यह विनम्र निवेदन है कि उक्त अर्धाली में ताड़न शब्द का वाच्यार्थ न लेकर इसे कामशास्त्रीय आलोक में ग्रहण करें। इससे ही इसके वास्तविक अर्थ की संगति है। इस विषय में हम अपने विचार एक स्वतंत्र लेख के रूप में प्रकट करेंगे।

सूर-सूर तुलसी ससि- सूर और तुलसी दोनों मां-भारती के दो उज्ज्वल नेत्र हैं- एक दायां और एक बाया। दोनों ही श्रेष्ठ हैं, इनमें कोई बड़ा और कोई छोटा नहीं। रामचरित-गान करने वालों में तुलसी सर्वश्रेष्ठ हैं और कृष्ण चरित मान करने वालों में सूरदास। दोनों को अपने दृष्टिकोणों के अनुसार अपने-अपने क्षेत्रों में अपूर्व सफलता मिली है। दोनों ने अपने-अपने क्षेत्रों में काव्य का ऐसा स्वरूप उपस्थित किया है जो अपनी दिशा से सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ है।

प्रतिभा क्षेत्र- आचार्यों के कृष्ण ब्रह्म हैं, गीत-गोविन्द में वे नटवर हैं तथा गोपीवल्लभ है, महाभारत में वे नीतिविशारद हैं. शिशुपाल वध के कृष्ण वीरनायक हैं पर सूर के कृष्ण नन्दनन्दन, बालगोपाल, गोपीवल्लभ और राधावल्लभ हैं। सूर द्वारा गृहीत कृष्ण उनकी निजी उद्भावना का प्रतिफल है। सूर के कृष्ण मनमोहन और शिरोमणि हैं। भ्रमरगीत की कल्पना उनकी अपनी मौलिक देन है। बाद के कवियों ने इस परम्परा का अनुकरण तो किया पर वे इस दिशा में कृतकार्य नहीं हो सके। शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में सूर अद्वितीय हैं। वात्सल्य का तो वे कोना-कोना झांक आये हैं। सूर वात्सल्य और वात्सल्य सूर है।

तुलसीदास ने नाना पुराण- निगमागम, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रघुवंश तथा हनुमन्नाटक आदि का आधार लिया है पर फिर भी इन्होंने अपने कथानक के बीच अनेक नवीन प्रसंगों की उद्भावना की है। तुलसी के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। जो नर होकर नारायण हैं। उनमें शील, शक्ति और सौन्दर्य का समन्वय है। एक ओर तुलसी में वाल्मीकि और कालिदास का कवित्व है तो दूसरी ओर अध्यात्म रामायण की आध्यात्मिकता और धार्मिकता। एक ओर इनका रामचरितमानस हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है तो दूसरी ओर वह एक महान् पवित्र धर्म-ग्रंथ अपने-अपने क्षेत्रों तथा विषयों में सूर तथा तुलसी बहुत ऊंचे हैं।

दृष्टिकोण- सूर काव्य की सृष्टि स्वान्तः सुखाय हुई है। सूर विशुद्ध रूप से लीलावादी कलाकार हैं। इनके कृष्ण लोकरंजक हैं। इनके काव्य का उद्देश्य है केवल आनन्द सूर अध्यात्म पक्ष में इतने ऊंचे हैं कि लोकपक्ष को भूल गये। वे कृष्ण के माधुर्य और प्रेममय रूप में इतने तन्मय हो गये कि स्वयं वे गोपाल हैं, स्वयं गोपी हैं, स्वयं नन्द और स्वयं यशोदा हैं। वे पुष्टि संप्रदाय के जहाज हैं और शुद्धाद्वैतवाद के कर्णधार ।

तुलसी भक्तसुधारक, महात्मा, कवि, राजनीतिज्ञ और लोकनायक सब कुछ हैं। इनके काव्य का दृष्टिकोण अधिक उदार तथा व्यापक है। इनके काव्य में भक्ति के साथ-साथ लोकनीति तथा राजनीति भी है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम तथा लोकरक्षक हैं। उनमें शील, शक्ति, सौन्दर्य का समन्वय है। तुलसी ‘कीरति भनीति भूति भलि सोई’ के सिद्धांत के अनुयायी हैं। तुलसी राम काव्याकाश में इतने ऊँचे उठे कि इस दिशा में इन तक कोई भी न पहुंच सका। यह एक बड़ी आश्चर्यजनक बात है कि तुलसी के पश्चात् राम- साहित्य का विकास प्रायः अवरुद्ध सा हो गया। कदाचित् इसका कारण परवर्ती राम कवियों का तुलसी की महत्ता को न पहुंच पाना था। अस्तु । दोनों की महत्ता अपने-अपने क्षेत्रों में अक्षुण्ण है।

भक्ति – सूर में सख्य भाव, माधुर्य भाव और दैन्य भाव की भक्ति दृष्टिगोचर होती है पर प्रधानता सख्य भाव की है। कृष्ण केवल सुन्दर है, अतः इन्होंने उनके लोकरक्षक रूप को न के बराबर दिखाया है और वह भी लीला ही लीला में उनके द्वारा राक्षसों का नाश करवा दिया है। सूर अपनी वृत्ति में मस्त रहने वाले जीव हैं। समाज किधर जा रहा है इस बात की उन्हें परहवाह नहीं है। इन्होंने कृष्ण जीवन के कोमलतम अंगों को अपने वर्णन का विषय बनाया है।

तुलसीदास दास्य भाव के भक्त हैं, अतः उन्हें मर्यादा और नैतिकता का पग-पग पर ध्यान है। इनके काव्य में लोकपक्ष अत्यंत उभरा हुआ है। राम जैसा आदर्श चरित्र अन्यत्र नहीं मिल सकता। राम लोकरक्षक हैं, और उनमें शील-भक्ति में सर्वांगीण जीवन का चरित्र है, जिसे मानवता की व्याख्या कहा जा सकता है।

रस- सूर में वात्सल्य, शृंगार तथा शान्त रस का प्रमुख रूप से चित्रण है। प्रथम दो रसों में तुलसी ही क्या कोई भी कवि उन तक नहीं पहुंच सका। आचार्य शुक्ल इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्य क्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की विभिन्न दशाओं का समावेश हो, पर जिस परिमित पुण्य भूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहां तक इनकी दृष्टि पहुंची वहां तक और किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।” आगे चलकर वे लिखते हैं-“गोस्वामी तुलसीदास ने गीतावली में बाल लीला को इनकी देखादेखी बहुत अधिक विस्तार दिया तो सही, पर उसमें बालसुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रूप-वर्णन की ही प्रचुरता रही। बालचेष्टाओं के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भंडार और कहीं नहीं।” इस क्षेत्र में तुलसी की असफलता का कारण है, उनकी दास्य-भक्ति और मर्यादावाद। वे भगवान राम के त्रिभुवन मोहक ऐश्वर्य पर दूर से ही विमुग्ध हो जाते हैं। सेव्य सेवक भाव की भक्ति “खेलत में को काको गुसैयां,” वाली अभिन्नता और नैकट्य में व्यवधान उपस्थित करती है। सच यह है कि इन दो क्षेत्रों में सूरदास ने भगवान को भगवान से मिलाया है।

तुलसीदास में मानव जीवन की समूची दशाओं और उनकी सारी वृत्तियों- प्रेम, भक्ति, उत्साह, धैर्य, क्रोध, घृणा और शोक आदि का चित्रण है। तुलसी के सर्वांगीण काव्य में सभी रसों का उचित समावेश है। वात्सल्य और श्रृंगार रस को छोड़कर तुलसी अन्य रसों के वर्णन में सूर से निश्चित रूप से आगे निकल गये हैं। तुलसीदास का रस-वर्णन संयत है। उसमें सूरदास के समान गलदश्रुपन नहीं है। उसमें भावना और चिन्तन में बराबर सन्तुलन बना रहता है।

अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति-चित्रण- मानव की अन्तःप्रकृति के चित्रण में तुलसी निश्चय ही श्रेष्ठ हैं। बाह्य प्रकृति के चित्रण में भी तुलसी सूर से बढ़ जाते हैं। वैसे तो तुलसी का प्रकृति-चित्रण भी सूर के समान उद्दीपन रूप में हुआ है, पर उसमें कहीं-कहीं संश्लिष्ट योजना के द्वारा प्रकृति का जीता-जागता रूप भी उपस्थित कर दिया गया है। चित्रकूट के वर्णन में कवि की वृत्ति खूब रमी है। भले ही तुलसी काव्य में संस्कृत कवियों जैसा प्रकृति का बिम्बग्राही रूप है, किन्तु सूर की अपेक्षा इनका प्रकृति वर्णन काफी अच्छा है। मुद्राओं के वर्णन में भी तुलसी को पर्याप्त सफलता मिली है। मानव-प्रकृति-चित्रण में दोनों ने अत्यंत मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ से काम लिया है। चरित्र चित्रण में निश्चित रूप से तुलसी सूर से आगे हैं। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में- “चरित्र-चित्रण में तुलसीदास की तुलना संसार के गिने-चुने कवियों में की जा सकती है। उनके सभी पात्र उसी प्रकार हाड़-मांस के जीव हैं जिस प्रकार काव्य का पाठक, परन्तु फिर भी उनमें अलौकिकता है। सबसे अद्भुत बात यह है कि इन चरित्रों की अलौकिकता समझ में आने वाली चीज है। जीवन्त-पात्र सिर्फ श्वास-प्रश्वास ही नहीं लेते, सिर्फ हमारी भांति नाना प्रकार की संवेदनाओं को ही नहीं अनुभव करते बल्कि वे आगे बढ़ते हैं पीछे हटते हैं, अपनी उदात्त वाणी और स्फूर्तिप्रद क्रियाओं से हमारे अन्दर ऊपर उठने का उत्साह भरते हैं, हमें साथ लेते हैं, हम उनका संग पा जाने पर उल्लसित होते हैं, उमगते हैं और सन्मार्ग पर चलने में जो विघ्न बाधाएं आती हैं, उन्हें जीतने का प्रयास करते हैं। तुलसी के जीवन्त पात्र इस श्रेणी के है।”

शैली- सूर ने गीति-शैली में लिखा है और उनकी यह शैली अपने पूर्ण परिपाक में दृष्टिगोचर होती हैं। उनकी यह शैली विद्यापति, तानसेन तथा बज की लोक-प्रचलित गीति-पद्धति से प्रभावित हैं। सूर एक उत्तम गायक हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “सूर का संगीत वर्णन प्रेम संगीतमय जीवन की गहरी चलती धारा है, जिसके अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई पड़ता। राधा कृष्ण के रंग रहस्य के इतने प्रकार के चित्र सामने आते हैं कि सूर का हृदय नाना उमंगों का अक्षय भंडार प्रतीत होता है।” सूर में उपर्युक्त गीति शैलियों के संकलन होने पर भी उनमें एक विशेषता है जो सूर को सूर बना देती हैं।

तुलसी मुक्तक और प्रबन्ध दोनों प्रकार के काव्यों के लेखक हैं और उन्हें दोनों रूपों में आशातीत सफलता मिली है। इस सम्बन्ध में देशी-विदेशी दोनों विद्वानों ने इनकी मुक्तकंठ से सराहना की है। इन्होंने अपने समय में प्रचलित सभी शैलियों का सुन्दर प्रयोग किया है, जिनकी चर्चा हम पीछे कर चुके हैं।

भाषा – सूर ने लोक प्रचलित ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है जो कि काफी सुन्दर है, किन्तु उसे सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जा सकता। उसमें वाक्यदोष और लिंगदोष सम्बन्धी त्रुटियां हैं। कई शब्दों की पादपूर्ति के लिए निरर्थक आवृत्ति है। कहीं-कहीं पर क्रियाओं के पुराने रूपों का व्यवहार किया गया है।

तुलसी ने ब्रज और अवधी का समान सफलता के साथ प्रयोग किया है। सूर की अपेक्षा ब्रजभाषा पर तुलसी का अधिक अधिकार है। तुलसी की भाषा शुद्ध और परिमार्जित है, उसमें संस्कृत की कोमलकान्त पदावली की मधुर झंकार है। ये सभी बातें तुलसी के पांडित्य की परिचायक हैं। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि तुलसी की व्रजभाषा शुद्ध भले ही है पर सफलता उन्हें अवधी में ही मिली है।

छन्द- दोनों ने विषयानुसार मात्रिक छंद, रोला, चौपाई, हरिगीतिका, कुंडलिया, छप्पय, सोरठा आदि छंदों का प्रयोग किया है। दोनों में अनेक राग-रागनियां हैं। इस क्षेत्र में तुलसी ने सूर की अपेक्षा अधिक छंदों का प्रयोग किया है पर इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि इस विषय में वे सूर की अपेक्षा बहुज्ञ हैं।

अलंकार – दोनों ने सादृश्यमूलक अलंकारों का अधिक प्रयोग किया है। तुलसी उपमा और रूपक के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं तो सूर उत्प्रेक्षा के प्रयोग में गुरु हैं।

वाग्वैदग्ध्य- उक्ति का अनूठापन काव्य के उत्कर्ष में विशेष महत्व रखता है। उक्ति वैचित्र्य दोनों में है जो कि अत्यंत मर्मस्पर्शी है। विद्वानों का कहना है कि सूर तुलसी की अपेक्षा इस क्षेत्र में अधिक सफल हुए हैं। सूर के काव्य में उपालम्भ, कसावट, मीठी-तीखी चोट दर्शनीय है- “उर में माखन चोर गड़े”, “ऊधौ मन नाहीं दस बीस”, “वह मथुरा काजर की कोठरी जे आवहि ते कारे”, “लरिकाई को प्रेम कहो अलि कैसे छूटे”, “जोग ठगोरी बज न बिकैहै” आदि उक्तियां सीधे ही हृदय को पकड़ती हैं। तुलसी में भी यह उक्ति वैचित्र्य तो है पर उस मार्के का नहीं जैसा सूर में।

निष्कर्ष – दोनों कवियों का दृष्टिकोण और क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। अपने-अपने क्षेत्र में दोनों कवि पूर्णतया सफल रहे हैं। ऐसी दशा में एक को सूर्य और दूसरे को चन्द्रमा कहना उचित नहीं । प्रत्येक कवि को उस समय की परिस्थितियों के आलोक में परखना न्याय होगा। तुलसीदास के काव्य में महान संदेश है। उन्होंने जन-जीवन को आलोकित किया है। जीवन के दोषों को दूर कर उसे सद्गुणों की ओर अग्रसर किया है। उन्होंने राम के आदर्श से समाज को आदर्शमय बनाना चाहा, संस्कृति की रक्षा की और शुद्ध भक्ति का निरूपण किया। तुलसी काव्य मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष को लेकर चला अतः वह सर्वांगीण है। तुलसी ने सूर्य के समान अपने प्रकाश से मानव मन से मोह, भ्रम और ह्रास के अंधकार को दूर किया। सूर ने अपनी रसवती प्रांजल ज्योति से तथा आमोद-प्रमोद और रस-रंग की धारा से मानव-मन की अनुरंजनकारी वृत्ति को रस-स्निग्ध दिया। सूर की ज्योति में तेज की वह प्रखरता नहीं उसमें तो चन्द्रमा का सौम्य तथा आह्लादकत्व है, अतः यह कहना होगा कि यमक के किसी लोभी ने ‘सूर-सूर तुलसी ससि’ कह दिया अन्यथा इसका रूप होना चाहिए था- “तुलसी रवि ससि सूर हैं” अथवा “सूर चन्द्र तुलसी रवि ।” प्रश्न उठता है कि तब ऐसी उक्ति क्यों ? हां, इसका एक कारण अवश्य यह हो सकता है कि कालक्रमानुसार सूर पहले आते हैं और तुलसी बाद में। सूर्य पहले आता है चन्द्रमा बाद में। तुलसी ने सूर्य का यथेष्ट अनुकरण किया और बहुत कुछ लिया भी चन्द्रमा अपने प्रकाश को सूर से लेता है। इस दृष्टि से सूर सूर हो सकते हैं और तुलसी ससि। किसी को भी चन्द्रमा और सूर्य कह लीजिए इससे उन दोनों के महत्व में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। दोनों ही हिन्दी-साहित्य और हिन्दू समाज के गौरव तथा शृंगार हैं।

IMPORTANT LINK

Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: targetnotes1@gmail.com

About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment