रीतिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ | Ritikal ki pramukh pravritiyan
रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते समय रीतिकाल की सीमा रेखा 1700 से 1900 वि० तक मानी है। रीति से आचार्य शुक्ल का मतलब काव्य रीति से था। इस युग में अधिकांश कवियों ने काव्य रीति को अपना मुख्य विषय बनाया था। पहले उन्होंने रस, अलंकार या नायिका भेद का पद्य में विवेचन किया और बाद में उनके सरल उदाहरण प्रस्तुत किये। रीतिकाल की अधिकांश रचना इसी पद्धति को लेकर चली है।
प्रतिपाद्य- रीतिकाल के प्रतिपाद्य विषय दो थे- काव्य शास्त्रियों के नियम का पालन तथा सामन्ती जीवन का चित्रण । उस युग के अधिकांश कवि दरबारी थे । वे राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के छोटे-बड़े राजाओं के आश्रित थे और उनको ध्यान में रखकर ही काव्य रचना करते थे। किसी अच्छे आश्रयदाता की खोज उस युग के कवि की प्रमुख समस्या थी। भूषण का जैसा सौभाग्य बहुत कम कवियों को प्राप्त था। देव जैसे प्रतिभाशाली कवि जीवन भर आश्रयदाताओं की तलाश में भटकते रहे। उस समय राज दरबार में आश्रय प्राप्त करने के लिए आचार्यत्व की आवश्यकता थी। उसके लिए कवियों ने काव्यात्मक का सहारा लिया। साहित्य, संगीत आदि कलाओं में रुचि रखना सामन्तों व राजाओं की प्राचीन परम्परा थी। ये लोग स्वयं इन कलाओं का ज्ञान रखते थे। उनकी सन्तानों को भी इसकी शिक्षा दी जाती थी। साहित्य शास्त्र की जरूरत इस कार्य के लिए भी होती थी । उदाहरणार्थ केशवदास जी ने ‘कवि प्रिया’ तथा ‘रसिक प्रिया’ की रचना अपने आश्रयदाता की प्रिय गणिका को कार्य शिक्षा देने के लिए ही की थी। इस विवेचन के आधार पर इस युग के साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-
रीतिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ
1. सामन्ती अभिरुचि – यह काल सामन्ती अभिरुचि का काल रहा है। इसी कारण इस काल का समस्त साहित्य आश्रयदाताओं की रुचि के अनुकूल रचा गया है। यों तो हर युग में प्रेम शृंगार की प्रधानता रही है, किन्तु रीतिकाल के साहित्य में पवित सामन्तकालीन विलास और शृंगार की प्रधानता है। शुक्लजी ने ठीक ही लिखा है कि तुलसीदास ने सीता के प्रति राम का प्रेम राम को कर्त्तव्य मार्ग में आगे बढ़ाता है। जबकि रीतिकालीन कवि का नायक अन्तःपुर में ही संयोग तथा वियोग की सारी दशाओं का अनुभव करता है। वास्तव में उनके प्रेम के पीछ विलास की इच्छा अधिक है और प्रेम का भाव कम है। उसका प्रेम सामाजिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं रखता है। उनके प्रेम की मुख्य प्रेरणा परकीया नायिका है, अपनी पत्नी नहीं।
2. आचार्यत्व प्रदर्शन की प्रवृत्ति- इस युग के सभी कवियों ने आचार्यत्व बनने का प्रयत्न किया और रस, अलंकार आदि काव्यांगों पर ग्रन्थ रचना की। इन रचनाओं में मौलिकता का सर्वथा अभाव रहता था। उन्होंने मौलिकता केवल नये भेदों के नामकरण में ही दिखायी है। जैसे केशवदास ने ‘शृंगार के’ प्रच्छन्न, ‘शृंगार और प्रसंग’ शृंगार नामक दो भेद किए। काव्यशास्त्र इन साहित्य का आवरण मात्र है, मुख्य विषय नहीं है।
3. शृंगारिक प्रवृत्ति – इस साहित्य में शृंगार की प्रधानता है। शृंगार के भावों ने उस काल के धार्मिक साहित्य तक को प्रभावित किया। कृष्ण भक्ति के इस साहित्य में माधुर्य भावना का बहुत प्रचार हुआ है और कृष्ण भक्ति के नाम पर घोर श्रृंगारी काव्य की रचना हुई। राम भक्ति का मार्ग, मर्यादा और भक्ति का मार्ग था । उसमें प्रेम लीलाओं के लिए स्थान नहीं था, किन्तु इस युग में राम भक्ति में भी माधुर्य भाव प्रवेश हुआ और कृष्ण के समान राम की भी प्रेम-लीलाओं का वर्णन किय जाने लगा।
4. नारी सौन्दर्य चित्रण- शृंगारकालीन काव्य में नारी के रूप चित्रण को बहुत महत्व दिया गया है। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि शृंगारकालीन काव्य में ‘नारी’ कोई व्यक्ति या समाज के संगठन की इकाई नहीं है, बल्कि सब प्रकार की विशेषताओं के बन्धन से यथासम्भव मुक्ति विलास का एक उपकरण मात्र है। देव ने कहा है-
“कौन गर्ने पुरवन नगर कामिनी एकै रीति ।
ये देखत हरे विवेक को चित हर करि प्रीति ।।
इससे इतना स्पष्ट है कि नारी की विशेषता इनकी दृष्टि में कुछ नहीं है, यह केवल पुरुष के आकर्षण का केन्द्र भर है। ” श्रृंगारकाल में नायिका भेद निरूपण में भी कवि सर्वत्र रूपवती नायिका का ही वर्णन करता है-
मानो स्त्री छवि मूरती मोहिनी ।
श्रीधर ऐसी बखानत नायिका ॥
इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह है कि शृंगार काल में रूपवती नारी विलास का साधन है, जीवन का एक विश्राम स्थल है, जहाँ सभी प्रकार की दौड़-धूप से भ्रान्त हो पुरुष नारी की मधुर अंचल छाया में बैठकर अपने दुःखों एवं पराभावों को भूल जाता है। शृंगारकालीन कवि नारी के सामाजिक रूप, गृहलक्ष्मी एवं मातृ रूप का परीक्षण नहीं कर सका, वह तो परकीया नायिका के वर्णन में ही अधिक अनुराग प्रदर्शित करता रहा। विलास की साधन नारी के रूप-सौन्दर्य के प्रति कवि की आसक्ति को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी रुग्ण भावना का द्योतक स्वीकार किया है।
“चमक चमक, हाँसी ससक, लपक झपक लपटानि
एजिहि रति, सो रति मुकति और मुकति अति हानि ।
युग के नैतिक आदर्शों की अनुमति होने के कारण शृंगार काल में काम-प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति के लिए पूर्ण स्वच्छन्दता थी। आध्यात्मिक आवरण में ही शृंगारिक कविता न होती थी, वरन् स्वतन्त्र रूप में भी होती थी। कवि लोग राजाओं की कुत्सित प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिए नग्न शृंगार का चित्रण करते थे। परन्तु इस निर्वाध वासना तृष्टि का एक दुष्परिणाम भी हुआ, वह यह कि काम जीवन का अंतरंग साधक तत्व न रहकर बहिरंग साध्य बन गया। इसीलिए इस काल की रीतिबद्ध कविता शृंगारिकता में प्रेम की एकनिष्ठता न होकर वासना की झलक ही मिलती है और उसमें भी सूक्ष्म आन्तरिकता की अपेक्षा स्थूल शारीरिकता का प्राधान्य है। प्रेम की भावना हृदय की प्रवृत्ति है, जो एकोन्मुखी होती है, किन्तु विलास या रसिकता उपभोग की भावना है जो अनेकोन्मुखी होती है। इसी कारण प्रेम में तीव्रता होती है, रसिकता में केवल तरलता। रीतिबद्ध प्रतिनिधि कवि बिहारी, देव, मतिराम आदि रसिक ही थे, प्रेमी नहीं। इन्होंने बाह्य स्थूल सौन्दर्य की अभिव्यक्ति की है। उनके काव्य में मन के सूक्ष्म सौन्दर्य का और आत्मा के सात्विक सौन्दर्य का प्रायः बिल्कुल अभाव है। परन्तु जहाँ तक रूप अर्थात् विषयगत सौन्दर्य का सम्बन्ध था वहाँ इन कवियों की पहुँच बहुत गहरी थी। एक ओर बिहारी जैसे सूक्ष्मदर्शी कवि की निगाह सौन्दर्य के बारीक संकेत को पकड़ सकती थी, तो दूसरी ओर मतिराम देव, पद्माकर जैस रतिसिद्ध कवियें के कवि रूप-सौन्दर्य का वर्णन करने में पूर्ण रूप से रमने लगे। उदाहरण के लिए, नयनों में कटाक्षी और चंचलता का इतना सुन्दर वर्णन विद्यापति को छोड़कर प्राचीन साहित्य में दुर्लभ है।
5. काव्य रूप और शिल्पगत प्रवृत्तियाँ- प्रायः यह कहा जाता है कि रीतिकाल का महत्व उसके काव्य रूप में है और काव्य की कसौटी पर ही उसका सही मूल्यांकन हो सकता है। इस सम्बन्ध में शुक्ल जी पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनकी दृष्टि नैतिक मूल्यों की प्रधानता के लिए थी और अपने इसी नैतिकतावादी दृष्टिकोण के कारण वे रीतिकालीन काव्य का सही मूल्यांकन नहीं कर सके हैं।
रीतिकाल का वर्णन करते हुए स्वयं शुक्ल जी ने लिखा है कि हिन्दी काव्य अब पूर्ण प्रौढ़ता पर पहुंच गया था। रीति ग्रन्थों के कर्त्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों-विशेषतः (शृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचुर परिणाम में प्राप्त हुए हैं, किन्तु उनकी आपत्ति थी कि “प्रकृति के अनेकरूपता की जीवन की भिन्न-भिन्न चिन्त्य बातों का तथा जगत के नाना रहस्यों की ओर कवियों की दृष्टि नहीं जाने पाई । वाग्धारा बंधी हुई नालियों में प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त होकर सामने आने से रह गये। काव्यशास्त्रीय आधार पर रीतिकालीन साहित्य का मूल्यांकन करते समय हमें शुक्लजी के इस मूल्यांकन को ध्यान में रखना चाहिए।
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