रीतिकाल के नामकरण तथा काल विभाजन से सम्बद्ध समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
रीतिकाल (उत्तर मध्यकाल) (संवत् 1700 से 1900 तक)
सामान्य परिचय- हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखते समय सबसे पहले सर जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालों का नामकरण किया। उन्होंने तुलसीदास के बाद के काव्य को रीतिकाल का नाम दिया। इस युग के धार्मिक तथा अन्य तरह के कवियों को उन्होंने अलग से वर्णन किया था। मिश्र बन्धुओं ने अपने विनोद में 1681-1889 वि. के काल को अलंकृत काल कहा और इस युग के महत्वपूर्ण कवियों (जैसे सेनापति, देव, पद्माकर आदि) के नाम पर उसका उप-विभाजन किया। अलंकृत काल नाम रखने के पीछे शायद यह भावना थी कि इस काल के साहित्य में अलंकृति या चमत्कार की प्रधानता है, किन्तु काव्य के क्षेत्र में अलंकृति या चमत्कार इस युग की ही विशेषता नहीं है। अन्य युगों में भी काव्यगत चमत्कार दिखाई देता है। भकतिकाल में सायास चमत्कार प्रदर्शन नहीं है, किन्तु वह चमत्कार से हीन भी नहीं है। मिश्रबन्धुओं के बाद शुक्ल जी ने इस काल का नाम रीतिकाल रखा। शुक्ल जी के बद इसका नाम ‘श्रृंगारकाल” रखने का सुझाव दिया गया। इसके पीछे तर्क यह है कि इस काल के साहित्य में श्रृंगार रस की प्रधानता है और श्रृंगार काल नाम रखने से घनानन्द, आलम, बोधा जैसे स्वच्छन्द कवि भी इसकी परिधि में आ जाते हैं। इसके बद कुछ विद्वानों ने इसे कला काल नाम दिया।
वास्तव में हिन्दी वाड्मय के इतिहास में रीतिकालीन कवि ने ही काव्य के शुद्ध कला के रूप में ग्रहण किया। रीतिकालीन कविता अपना साध्य स्वयं थी। अपने शुद्ध रूप में रीति कविता न तो धार्मिक प्रचार अथवा भक्ति का मध्यम थी और न ही सामाजिक सुधार अथवा राजनीतिक सुधार की प्रचारिका थी। इस काल के साहित्य का अपना ही महत्व था। इस काल के साहित्य में ऐतिहासिक मूलक सरल कवित्व है। रीतिकालीन साहित्य के जीवन तथा काव्य के प्रति इस नवीन दृष्टिकोण का स्पष्टीकरण डॉ. भागीरथ मिश्र के इन शब्दों में भली-भाँति हो जाता है- “रीतिकालीन रीतिकाव्य की परम्परा ने शुद्ध काव्य के लिए एक निश्चित मार्ग खोल दिया। उसके बिना प्रबन्ध काव्यों में या तो इतिहास ग्रन्थ थे और वे राजा महाराजाओं अथवा वीरों की अतिशय गुणगाथा से ओतप्रोत थे अथवा वे धार्मिक एवं आध्यात्मिक ग्रन्थ थे जिनमें धर्म गाथा कही गयी है। ऐसे ही मुक्त काव्य नीति उपदेश भरे अथवा स्रोत और कीर्तन के रूपों में ही सीमित था । उस रीति परम्परा ने एक नवीन मार्ग कवि प्रतिभा के विकास के लिए खोल दिया जिसका अवलम्बन करके प्रवृत्ति और अभिरूचि के अनुसार कुछ भी लिखा जा सकता था।
लौकिक जीवन से अनुराग रखने वाले राज्याश्रित कवियों के लिए यह मार्ग विशेष रूप से सहायक हुआ क्योंकि उन्हें चारण कवियों के समान केवल यशोगान के स्थान पर रीति पद्धति पर लिखक आश्रयदाता को चमत्कृत करने तथा रिझाने का अवसर मिला। इस प्रकार रीति-परम्परा का अपने युग के लिए ऐतिहासिक महत्व है। हिन्दी के रीतिकाल का साहित्य जनपथ का साहित्य न होकर राज व का साहित्य है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के साहित्य में यह परम्परा पहले से ही विद्यमान थी। रीतिकालीन साहित्य में पुरानी परम्परा से हटकर कुछ नवीनता का समावेश हुआ। संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के साहित्य में कलात्मक विलासिता थी, किन्तु हिन्दी के रीति साहित्य में क्रमशः विलासिता का प्राधान्य होने लगा। रीतिकालीन साहित्य के विलासी, ऐश्वर्यमय वातावरण को देखने उसे तत्कालीन जनता की मनोवृत्ति का परिणाम या फल कहना बड़ी भारी भूल होगी।
साहित्य के इतिहास का काल विभाजन, कर्ता, पद्धति और विषय की दृष्टि से किया जा सकता है। कभी-कभी नामकरण के किसी दृढ़ आधार के उपलब्ध न होने पर उस काल के किसी अत्यन्त प्रभावशाली साहित्यकार के नाम पर ही उस काल का नामकरण कर दिया जाता है। जैसे भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, प्रसाद युग आदि। कभी-कभी साहित्य-सृजन की शैलियों के आधार पर काल विभाजन कर दिया जाता है, जैसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग तथा प्रयोगवादी युग । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल नाम दिया। उनके बाद इस काल का नाम “श्रृंगारकाल” रखने का सुझाव दिया गया।
इसके पीछे तर्क यह है कि इस काल के साहित्य में श्रृंगार रस की प्रधानता है और श्रृंगार काल नाम रखने से बनानन्द, बोधा, आलम जैसे स्वच्छन्द कवि भी इसकी परिधि में शामिल हो जाते हैं। रीतिकाल में श्रृंगार की प्रधानता जरूरी थी, किन्तु श्रृंगार के साथ वीर रस और नीति की रचनाएँ भी इस काल में रची गयी। नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित “हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास” के सातवें भाग में इस का के वीर रस के 188 कवियों का परिचय दिया गया है। फिर हिन्दी साहित्य के आदिकाल में भी श्रृंगार तथा वीर रस की ऐसी प्रधानता दिखायी देती है। श्रृंगार इस युग के काव्य का मुख्य विषय जरूर है किन्तु ऐसी मुख्य प्रवृत्ति नहीं हैं जो कि इस काल को साहित्य के इतिहास के अन्य कालों से भिन्न बनाती हो। उसको विशिष्ट बनाने वाली प्रवृत्ति “रीति” है। अतः उसी के आधार पर इसका नामकरण उचित है। अतः रीतिकाल के नामकरण की समस्या और समाधान के लिए निम्लिखित विवेचन को देखा जा सकता है।
1. अलंकृत काल- रीतिकाल के नामकरण की समस्या को सुलझाने का काम सबसे पहले मिश्रबन्धु ने किया। उन्होंने हिन्दी-साहित्य के इतिहास का विवेचन करते समय इस अलंकार काल की संज्ञा दी है, जबकि वे स्वयं रीतिकाल कवियों के ग्रन्थों को रीतिग्रन्थ और उनके विवेचन को रीतिकथन कह चुके हैं। फिर भी अपने विभाजन का आधार रीति को उन्होंने क्यों नहीं बनाया और उसे अलंकृत काल कह डाला। इससे तो ऐसा गता है कि रीतिकाल की चमत्कारी प्रवृत्ति ने इन्हें रीति से अधिक आकर्षित किया, किन्तु अलंकृति या चमत्कृति इस काल की विशेषता नहीं है। इस नाम को मान लेने पर नामकरण को समस्या का हल नहीं होता क्योंकि अलंकार काल कहने से इस युग की केवल एक प्रवृत्ति पर ही जोर दिया जा सकता है और वे प्रवृत्तियाँ छूट जाती हैं जो भागवत हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि रीतिकाल में भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही प्रबल थे। जहाँ इन कवियों में अपनी चमत्कारी प्रवृत्ति को सप्रयास प्रस्तुत किया है वहीं ये कवि अपनी भाव-विह्वलता को भी रोक नहीं पाये हैं। ऐसी स्थिति में इस काल को अलंकार काल कहना किसी भी स्थिति में उचित नहीं है।
2. श्रृंगार काल- विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने भी “रीतिकाल” नाम को स्वीकार न करके, इसे एक नया नाम दे डाला। उन्होंने इस युग की श्रृंगार प्रमुखता को देखकर इसे श्रृंगार काल की संज्ञा से अभिहित किया है। इस सम्बन्ध में डॉ. शिवकुमार शर्मा का कथन उपर्युक्त है-“क्या रीतिकालीन कवियों में श्रृंगार रस के समूचे अंगों का सम्यक् विवेचन नहीं किया है ? और फिर श्रृंगार रस के प्रति स्थायी भाव तथा उसके आलम्बन विभाव, उद्दीपन विभाव, अनुभव और संचारियों के विषद निरूपण उसके साहित्य में कहाँ तक बन पड़ा है। समस्त रीतिकालीन कविता के विहंगम अवलोकन के पश्चात् कहा जा सकता है कि तत्कालीन कृतियों में ऐसी परिपाटी नहीं है। कहीं कहीं तो ऐसा लगता है कि शुद्ध श्रृंगार रस न होकर श्रृंगाराभास हो। इस काल में श्रृंगार रस की प्रधानता सर्वनिश्चित है, परन्तु वह स्वतन्त्र नहीं है। वह सर्वत्र रीति पर आश्रित है। उक्त कथन से स्पष्ट है कि श्रृंगार रस की प्रधानता होते हुए भी इसे श्रृंगारकाल नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस काल की प्रत्येक प्रवृत्ति रीति से पोषित हैं और फिर इस काल की अन्य विशेषताओं जैसे कला-पक्ष आदि छूट जाता है। “रीतिकाल” के नामकरण की समस्या का समाधान किसी अन्य नाम से नहीं, वरन् “रीतिकाल” काल कह कर ही किया जा सकता है।
3. कला-काल- जहाँ अन्य साहित्यकारों ने इसे “रीतिकाल”, “अलंकार काल” तथा “श्रृंगार काल” कहा है, वहीं डॉ. रसाल रीतिकाल को कला काल कहते नहीं थकते। उनका तर्क है कि इस युग में कलापक्ष की प्रधानता थी। इसीलिए इसे कला-काल कहना सर्व उपयुक्त है, किन्तु उनकी यह धारणा पूरी तरह भ्रामक है। “रीतिकालीन साहित्य के भाव पक्ष और कला पक्ष परस्पर इस प्रकार संयुक्त हैं कि उसमें विभाजन रेखा खींचना कठिन व्यापार है और फिर इस काल के साहित्य में हृदय पक्ष का उद्घाटन भी अत्यन्त अनुपम है।” इसीलिए तो मिश्र बन्धुओं ने कहा है “वाणी के विस्तार की सीमा ये ही जानते थे। भावों का कोष वाणी के प्रतीकों द्वारा उद्घाटित करने की शक्ति इन्हीं में थी। मिश्र बन्धुओं के उक्त कथन से स्पष्ट है कि रीतिकालीन कवियों का भावोत्कप भी उतना ही सबल है जितना कला पक्ष । अतः स्पष्ट है कि डॉ. रासल द्वारा दिया गया कला-काल नाम भी न तो सार्थक है और न समीचीन ही। “कला-काल” नाम देने से इस युग का भावपक्ष स्पष्ट नहीं होता। इसलिए इसे रीतिकाल कहना ही उचित तथा आवश्यक प्रतीत होता है।
4. रीतिकाल – रीतिकाल नाम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का दिया हुआ है। अन्य नामकरण भी किए गए, किन्तु उनका अनुसरण नहीं किया गया है। आज हिन्दी के सभी विद्वान एवं आलोचक उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल कहकर ही पुकारते हैं। कुछ विद्वानों ने इस नामकरण पर भी आरोप लगाया है और कहा है कि इस काल में रीतियुक्त और रीतिबद्ध दोनों प्रकार के कवि हुए हैं। इसीलिए इसका यह नाम उपयुक्त नहीं है। श्रृंगार काल पर अधिक जोर दिया गया है क्योंकि इस काल में श्रृंगार रस की प्रधानता है। इसके समाधान के लिए शुक्ल जी स्वयं कह चुके हैं-“वास्तव में श्रृंगार और वीर इन दोनों रसों की कविता इस काल में हुई। प्रधानता श्रृंगार रस की ही रही। इससे इस काल को रस के विचार से कोई श्रंगार काल कहे तो कह सकता है।” शुक्ल जी ने उक्त कथन में “कोई” शब्द का प्रयोग साभिप्राय किया है। अतः स्पष्ट है कि वे “श्रृंगारकाल” नाम को स्वयं स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रस्तुत काल में रीति की प्रवृत्ति की ही प्रधानता है। शुक्ल जी के उक्त कथन को देखकर यह कहना उचित नहीं है कि वे अपने द्वारा किये गये काल विभाजन से असन्तुष्ट थे। वस्तुतः ऐसा नहीं है कि वे अपने द्वारा किये गये काल विभाजन से असंतुष्ट थे। यह तो उनके मन्तव्य को न समझने की भूल है। पहले भी कहा जा चुका है कि रीतिकाल नाम देने से रीति मुक्त कवि घनानन्द, बोधा और आलम जैसे कवियों की किसी तरह उपेक्षा नहीं होती है। हाँ, वृन्द, गिरधर आदि जो सूक्तिकार हैं, वे श्रृंगार काल और रीतिकाल दोनों से अलग हैं। इनके लिए शुक्ल जी ने फुटकर खाता खोल ही दिया था।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि आचार्य शुक्ल का उत्तर मध्यकाल का रीतिकाल नामकरण पद्धति विशेष के आधार पर है जो कि नितांत समीचीन है, क्योंकि इस काल में रीति पद्धति पर लिखने की प्रवृत्ति का बोल-बाला रहा। उस समय का वातावरण ही कुछ ऐसा था। उस युग के प्रायः प्रत्येक कवि ने रीति-परम्परा के साँचे में ढालकर ही लिखा, क्योंकि तभी उसे समुचित प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती थी। डा. भागीरथी के शब्दों में “उसे रस, अलंकार, नायिका भेद, ध्वनि आदि के वर्णन के सहारे ही अपनी कवित्व-प्रतिभा दिखना आवश्यक था। इस युग में उदाहरणों पर विवाद होते थे। इस बात पर कि भीतर कौन सा अलंकार है ? कौन-सी शब्द भक्ति है ? कौन-सा रस या भाव है ? उसमें वर्णित नायिका किस भेद के अन्तर्गत है ? काव्य की टीकाओं और व्याख्याओं से काव्य सौन्दर्य को स्पष्ट करने के लिए भी उसके भीतर अलंकार, रस, नायिका भेद आदि के ज्ञान के बिना काम नहीं चल सकता। रीतिबद्ध कवियों के साहित्य के समझने का रहस्य तो नायिका आदि भेद में निहित है ही साथ-साथ रीति सिद्ध और रीति मुक्त कवियों के ग्रन्थों की पाश्र्वभूमि में भी नायिका भेद, रस और अलंकारादि का प्रौढ़ ज्ञान कम करता हुआ सा दिखाई देता है।
डॉ. शिवकुमार शर्मा के अनुसार ” रीतिकालीन कविता की सभी गतिविधियों का निरीक्षण करने के अनन्तर हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस काल की व्यापक और प्रमुख प्रवृत्ति रीति है। अतः हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल के नाम से अभिहित करना अधिक उपयुक्त है।” इसी सन्दर्भ में डॉ. भागीरथ मिश्र का कथन सर्वथा उचित है- “कला-काल” कहने से कवियों की रसिकता की उपेक्षा होती है, “श्रृंगार काल” कहने से वीर रस और राजप्रशंसा की रीतिकाल कहने से प्राय: कोई भी महत्वपूर्ण वस्तुगत विशेषता उपेक्षित नहीं होती है और प्रमुख प्रवृत्तियाँ सामने आ जाती हैं। यह युग रीति पद्धति का युग था, यह धारणा वास्तविक रूप से सही है।
निष्कर्ष- वस्तुतः निष्कर्ष रूप में कहना उचित होगा कि उत्तर मध्यकाल मे नामकरण की समस्या निराधार तथा निर्मूल है। सभी को रीतिकाल नाम ही स्वीकार कर लेना चाहिए। यह ठीक है कि इसके अन्यनाम भी किसी न किसी प्रवृत्ति को लेकर दिए गए हैं किन्तु उनमें समग्रता और पूर्णता का प्रायः अभाव है। सभी में कहीं-न-कहीं अधूरापन अवश्य है। कहीं भाव पक्ष की उपेक्षा हो जाती है तो कहीं कला-पक्ष की। रीतिकाल ही एक ऐसा नामकरण है जो रीतिकाल की अथवा उस युग की समस्त विशेषताओं को समाहित किए हुए हैं। इसलिए इस युग को रीतिकाल कहना ही सर्वथा उपयुक्त है।
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