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रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवियों पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए ।
रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत् है-
घनानन्द
रस की साक्षात् मूर्ति कवि घनानन्द का जन्म सं० 1764 के लगभग हुआ था। इनका निधन 1796 में नादिरशाही में हुआ। ये जाति के कायस्थ थे और दिल्ली के मुगल बादशाह मुहम्मदशाह के मीर मुंशी थे। एक दिन कुचक्रियों ने बादशाह से कहा कि मीर मुंशी बहुत अच्छा गाते हैं। बादशाह के लिए गाने का आदेश दिये जाने पर इन्होंने पहले काफी टालमटोल की। इस पर लोगों ने कहा कि ये अपनी प्रेमिका सुजान के कहने पर अवश्य गा देंगे। सुजान को दरबार में बुलाया गया। घनानन्द ने अपनी प्रेमिका सुजान की ओर मुख करके और बादशाह की ओर पीठ करके ऐसा गजब से गाया कि सभी तन्मय और दंग रह गये। बादशाह जहाँ एक ओर उनके गाने पर प्रसन्न हुआ वहीं दूसरी ओर इनकी बेअदबी पर रुष्ट होकर उसने इन्हें शहर से निकाल दिया। चलते समय इन्होंने सुजान को भी साथ चलने को कहा पर वह न गई। इस पर इन्हें विराग उत्पन्न हो गया और ये वृन्दावन चले गये और वहां निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित हो गये। सुजान की सुधि इन्हें जीवन भर आती रही।
ग्रन्थ- सुजान सागर, विरह लीला, कोकसार, रस-केलिवल्ली और कृपाकांड नामक ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं। इसके अतिरिक्त इनके फुटकर कवित्त सर्वयों के संग्रह डेढ़ सौ से लेकर सवा चार सौ कवित्तों तक मिलते हैं। कृष्ण-भक्ति संबंधी इनका एक बहुत बड़ा ग्रंथ छतरपुर के राज पुस्तकालय में है जिसमें प्रिया-प्रसाद, ब्रजव्यवहार, वियोग-बेली, कृपाकंद निबन्ध, गिरिगाथा, ‘भावनाप्रकाश, गोकुल विनोद, धाम चमत्कार, कृष्ण कौमुदी, नाम माधुरी, वृन्दावन मुद्रा, प्रेम पत्रिका, रस-वसंत इत्यादि अनेक विषय वर्णित हैं।
भाव-पक्ष – घनानन्द मुख्यतः शृंगार रस के कवि हैं। वियोग शृंगार में इनकी वृत्ति अधिक रमी है। आचार्य शुक्ल इनके संबंध में लिखते हैं- “ये वियोग-शृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं। प्रेम की पीर लेकर इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबांदानी का ऐसा दावा रखने वाला बजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।” इनका प्रेम एकनिष्ठ एवं अन्तर्मुखी है, अतः उसमें हृदय की सूक्ष्म से सूक्ष्म भावनाओं का अत्यंत मार्मिक रूप से चित्रण हुआ है, उसमें विभाव पक्ष का इतना चित्रण नहीं हुआ। रूप-छटा के वर्णन के प्रसंगों में भी इनका ध्यान प्रभाव पर अधिक रहा है। ये एक भावप्रवण कवि थे। अन्य तो कविता को बनाने के लिए प्रयास करते हैं, पर इन्हें स्वयं कविता बना जाती है। इनका वियोग वर्णन अत्यंत स्वाभाविक और मनोरम है। इनकी नायिका न तो क्लॉक का पेंडुलम है और न ही उसके पास गुलाब की शीशी विरह-ताप से बीच ही बीच में सूख जाती है। इनमें बाहरी उछल-कूद नहीं है, जो कुछ है, भीतरी हलचल है। इनका प्रेम फारसी काव्य-पद्धति तथा सूफी पद्धति दोनों से प्रभावित है।
इनकी कविता में ‘सुजान’ शब्द का बराबर प्रयोग मिलता है जो शृंगार में नायक के लिए और भक्तिभाव में कृष्ण भगवान के लिए प्रयुक्त माना जा सकता है। पर इतने मात्र से इन्हें भक्त कवि नहीं कहा जा सकता है। इनकी अधिकांश कविता भक्ति काव्य की कोटि में नहीं आयेगी, शृंगार की ही कही जायेगी। जीवन के अंतिम दिनों में इन्हें वैराग्य अवश्य हो गया था पर फिर भी अपनी प्रेमिका ‘सुजान’ को वे भुला न सके। यदि इन्हें भक्त कवि कहकर ही संतोष का अनुभव होता है तो अधिक से अधिक इन्हें उन्मुक्त कवि कहा जा सकता है। इनकी कृष्ण भक्ति संबंधी रचनाओं में भी सूर और तुलसी के हृदय की तन्मयता, सात्विकता और निष्छलता कदाचित् ही मिले। अतः इनकी संपूर्ण रचनायें शुद्ध भक्ति भाव से प्रेरित नहीं मानी जा सकती है। घनानन्द प्रेम मार्ग के एक सफल यात्री हैं। इनकी कविता का एक, उदाहरण दृष्टव्य है-
अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नेकु सयानप बाँक नहीं ।
तहँ सांचें चलै तजि आपनपौ, झिझकै कपटी जो निसाँक नहीं।
घनआनन्द प्यारे सुजान सुनौ, इन एक ते दूसरो ऑक नहीं।
तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै देहु छटांक नहीं ।
कलापक्ष- इसमें भाषा, अलंकार, छंद, काव्य-गुण अर्थात् व्यंजना-शक्ति और प्रयोग कौशलादि आते हैं। ब्रजभाषा का चलतापन और सफाई जो घनानन्द में मिलती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इनकी साहित्यिक ब्रजभाषा में सहज माधुर्य विद्यमान हैं। नन्ददास आदि के द्वारा गढ़ी गयी बृजभाषा उत्तराधिकार में प्राप्त कर इन्होंने उसे और भी अधिक निखारा। आचार्य शुक्ल इनकी भाषा के संबंध में लिखते हैं-“घनानन्द जी उन बिरले कवियों में है जो भाषा की व्यंजना बढ़ाते हैं। अपनी भावनाओं के अनूठे रूप-रंग की व्यंजना के लिए भाषा का ऐसा बेधड़क प्रयोग करने वाला पुराने कवियों में दूसरा नहीं हुआ। भाषा के लक्षण और व्यंजक बल की सीमा कहां तक है, इसकी पूरी परख इन्हीं को थीं।” इनमें भाषा की एक अपूर्व लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और प्रयोग-वैचित्र्य की छटा है जो कि इनके पश्चात् छायावादी काव्य में देखी जा सकती है। इनका प्रयोग-वैचित्र्य बड़ा ही अनुपम है। उदाहरण के लिए- ‘अरिसानि गही वह वानि कछु झूठ की सच्चाई छाक्यो।” इनकी भाषा में वचनवक्रता, नाद-व्यंजना और अर्थगांभीर्य सब अद्वितीय बन पड़े हैं। सच तो यह है कि साक्षात् प्रेमरस के अवतार घनानन्द ने बृजभाषा काव्य में एक नवीन परम्परा स्थापित कर दी। घनानन्द के सामने ब्रजभाषा काव्य की दो परम्पराएं थीं, एक तो विद्यापति और सूरदास द्वारा चलाई हुई जिसमें भगवान् की लीलाओं का गान गीति काव्य में हुआ। इसमें संगीत की स्वरलहरी के साथ भक्ति भावना का समावेश था। ब्रजभाषा काव्य की दूसरी परम्परा कृष्ण के स्मरण के बहाने से कविता-चातुर्य दिखलाने वाले रीति-कवियों द्वारा चलाई गई थी। इनकी दृष्टि रीतिबद्ध हो गयी। इन्होंने गीतिपद्धति को छोड़कर कवित्त और सवैया पद्धति को अपनाया जिसमें आलंकारिकता की प्रधानता थी । घनानन्द उक्त दोनों प्रकार की कविता-धारा से भिन्न निकले। न तो उन्होंने सूरदास की भांति कृष्ण-लीला के गीत गाये और न देव आदि की भांति रीतिबद्ध कविता के प्रणयन में शक्ति को लगाया। न तो घनानन्द ने कृष्ण-लीला वर्णन ही अपनाया और न शृंगार की अभिव्यक्ति के लिए रस नायिका-भेद, अलंकार और पिंगलादि काव्यों के अंगों को आधार बनाया। वे एक सहज भावुक कवि थे। उन्हें अपने हृदय के भावों का स्पष्टीकरण मात्र ही अपेक्षित था। उनका मन्तव्य निम्न पंक्ति में बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है-
लोग है लागि कवित्त बनावत, मोहिं तो मेरे कवित्त बनावत।
घनानन्द कविता के इस सहज मार्ग के पथिक थे। बोधा, आलम, ठाकुर आदि रीतिकालीन कवि तथा भारतेन्दु, सत्यनारायण कविरल और प्रेमचन्द आदि भी इसी पथ के पथिक बने। भक्तिकाल में बजभाषा काव्य में जो स्थान सूरदास का है रीतिकाल के ब्रजभाषा काव्य में वही स्थान घनानन्द का है।
आलम
जीवनवृत्त – आलम नाम के दो कवि हुए हैं। एक तो सोलहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में हुए जिन्होंने ‘माधवानन्द कामकंदकला’ नामक पुस्तक लिखी और दूसरी औरंगजेब के पुत्र मुअज्जमशाह के राज्याश्रित कवि थे। यहाँ दूसरे आलम की चर्चा की जा रही है। इनका कविता-काल 1740 से 1760 संवत् माना जा सकता है।
ये जाति के ब्राह्मण थे, पर शेख नाम की रंगरेजिन के प्रेम में फंसकर इन्होंने उससे विवाह कर लिया और मुसलमान हो गये। इनके प्रेम की कहानी भी बड़ी विचित्र है। आलम ने अपनी पगड़ी रेगने को दी थी जिसमें दोहे की एक पंक्ति लिखी हुई बंधी रह गयी थी- “कनक छरी-सी कामिनी काहे को कटि छीन।” रंगरेजिन ने इसके प्रत्युत्तर में दूसरी पंक्ति लिखकर भेजी- “कटि को कंचन काटि विधि कुचन मध्य धरि दीन।”
ग्रन्थ- इनकी कविताओं का संग्रह ‘आलम केलि’ के नाम से निकला है। नवीन अनुसंधानों के अनुसार इनकी अन्य अनेक रचनाओं का भी पता चलता है। कहा जाता है कि ‘आलम केलि’ में शेख भक्ति के साथ जो कवितायें मिलती हैं वे इनकी पत्नी की हैं और आलम या शेख नाम से जो कवितायें मिलती हैं वे इनकी अपनी हैं। इससे पता चलता है कि इनकी पत्नी भी बड़ी कवयित्री थी।
काव्य-समीक्षा – आचार्य शुक्ल इनके संबंध में लिखते हैं-“ये प्रेमोन्मत्त कवि थे और अपनी तरंग के अनुसार रचना करते थे। इसी से इनकी रचनाओं में हृदय-तत्व की प्रधानता है। प्रेम की पीर या इश्क का दर्द इनके एक-एक वाक्य में भरा पाया जाता है। उत्प्रेक्षाएं भी इन्होंने बड़ी अनूठी और बहुत अधिक की हैं। शब्द- वैचित्र्य, अनुप्रासादि की प्रवृत्ति इनमें विशेष रूप से कहीं नहीं पाई जाती। शृंगार की ऐसी उन्मादमयी उक्तियाँ इनकी रचना में मिलती है कि पढ़ने और सुनने वाले लीन हो जाते हैं। यह तन्मयता सच्ची उमंग में ही संभव है। प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना रसखान और घनानन्द की कोटि में होनी चाहिए।” यद्यपि ये फारसी के ज्ञाता थे फिर भी इनमें भारतीय काव्य-परम्परा का पालन सुन्दर रूप से हुआ है। इनमें प्रेमोल्लास का एक नवीन स्वर मिलता है और उसकी अभिव्यंजना इनमें निःसन्देह उच्च कोटि की है। इनमें स्वच्छंद प्रेमधारा के कवियों के सभी गुण मिल जाते हैं।
बोधा – जीवन-वृन्त- ये राजापुर (जिला बाँदा) के रहने वाले थे। इनका असली नाम बुद्धिसेन था। ये महाराजा पन्ना के दरबार में रहा करते थे। महाराजा इन्हें प्यार से बोधा के नाम से पुकारा करते थे और ये इसी नाम से प्रसिद्ध हो गये। इनका जन्म संवत् 1804 माना जाता है। इनका कविताकाल सं० 1830 से 1850 तक माना जा सकता है।
घनानन्द की भाँति इनके संबंध में भी एक प्रेम कहानी प्रचलित है। ये दरबार की किसी ‘सुभान’ नाम की वेश्या पर आसक्त थे । एक दफा राजा के सामने इन्होंने सुभान के साथ प्रेमाचरण का अभिनय किया। इस पर राजा ने असंतुष्ट होकर इन्हें 6 महीने के लिये देश निकाला दे दिया। इसी समय में इन्होंरे ‘विरह वारीश’ काव्य की रचना की। लौटने पर उन्होंने अपना सारा काव्य राजा को सुनाया। इस पर प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें सुभान वेश्या दे दी। इनका एक दूसरा काव्य है ‘इश्कनामा’ जिस पर फारसी का प्रभाव स्पष्ट है।
काव्य-समीक्षा- इनकी रचनाओं में रीति-कवियों से भिन्न प्रेम भाव का उल्लास मिलता है। इन्होंने कोई रीतिग्रन्थ न लिखकर अपनी मौज के अनुसार मर्मस्पर्शी प्रेम के पद्यों की रचना की। इनमें कहीं-कहीं बाजारू ढंग का प्रेम भी देखने को मिलता है। कुछ भी हो, ये एक भावुक और रसज्ञ कवि थे। यद्यपि इनकी भाषा में व्याकरण-संबंधी दोष यत्र-तत्र मिल जाते हैं, फिर भी इनकी भाषा चलती और मुहापरेदार है। इन पर सूफियों की प्रेम-पीर का प्रभाव स्पष्ट है। इन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम-संबंधी पद्य भी लिखे किन्तु इतने भी से इन्हें भक्त कवि नहीं कहा जा सकता है। कवि बोधा घनानन्द के छोटे संस्करण दीख पड़ते हैं। इनकी कविता का एक नमूना देखिये-
जब ते बिछुरे कवि बोधा हितु, तब ते उरदाह थिरातो नहीं।
हम कौन सों पीर कहें अपनी, दिलदार तो कोई दिखातो नहीं ।।
ठाकुर- हिन्दी साहित्य में ठाकुर नाम के दो अन्य भी कवियों का उल्लेख मिलता है किन्तु यहाँ हम स्वच्छंद प्रेमधारा के कवि ठाकुर, जिनका जन्म ओरछा (बुन्देलखण्ड) में 1823 में हुआ, की चर्चा कर रहे हैं। इनका जोधपुर और बिजावर के राज्यों में बड़ा मान था। पद्माकर के आश्रयदाता हिम्मत बहादुर के यहाँ भी इनका पर्याप्त समादर हुआ।
इनकी रचनाओं का एक संग्रह लाला भगवानदीन ने “ठाकुर उसक” नाम से प्रकाशित कराया था। इनकी रचनाओं में ऐकांतिक प्रेम का प्रवाह है। फारसी काव्यधारा का इन पर अभीष्ट प्रभाव पड़ा है। आचार्य शुक्ल इनके संबंध में लिखते हैं- “ठाकुर बहुत ही सच्ची उमंग के कवि थे। उनमें कृत्रिमता का लेश नहीं। न तो कहीं व्यर्थ का शब्दाडम्बर है, न कल्पना की झूठी उड़ान और न अनुभूति के विरुद्ध भावों का उत्कर्ष । भावों को यह कवि स्वाभाविक भाषा में उतार देता है। बोल-चाल की चलती भाषा में भावों को ज्यों का त्यों सामने रख देना इस कवि का लक्ष्य रहा है। बजभाषा की शृंगारी कविता प्रायः स्त्री पात्रों के हो मुख की वाणी होती है अतः स्थान-स्थान पर लोकोक्तियों का जो सुन्दर विधान इस कवि ने किया है इससे उक्तियों में और भी स्वाभाविकता आ गई है।” इनकी भाषा में स्वच्छता और सहज प्रवाह है। ऐसे लगता है कि यहाँ आकर बजभाषा अपने पूरे चढ़ाव पर आ गई है। पद्माकर फिर भी कहीं-कहीं ताल और टोटके के चक्कर में पड़ जाते हैं पर ठाकुर के प्रत्येक अन्त तक भाषा की एक स्वच्छ धारा मिलती है।
मजमून में इन्होंने प्रेम का तो सफल निरूपण किया ही है, साथ-साथ अन्य लोकव्यापारों की छटा भी बड़ी तन्मयता से दिखाई है। इनके काव्यों में अखतीज, फाग, बसन्त, होली, हिंडोरा उत्सवों के वर्णन के साथ-साथ लोगों की कुटिलता, क्षुद्रता, दुःशीलता, कालगति पर खिन्नता और कवि-कर्म की कठिनता आदि का भी वर्णन मिलता है।
रीति-मुक्त धारा-नीति-काव्य- रीति-मुक्त शृंगारी रचनाओं के अतिरिक्त इस काल में नीति-विषयक ग्रंथों का भी निर्माण हुआ। भारतीय साहित्य परम्परा में इस प्रकार की रचनायें काफी पुराने समय से लिखी जा रही थीं। रामायण, महाभारत और कौटिल्यशास्त्र आदि संस्कृत ग्रंथों में फुटकर रूप से इस प्रकार के पद्य मिल जाते हैं। भर्तहरि ने अपने तीन शतकों में नीति, श्रृंगार और वैराग्य पर लिखा है। संस्कृत के सुभाषित ग्रंथों में इस प्रकार के श्लोक यत्र-तत्र देखे जा सकते हैं। हेमचन्द के ‘शब्दानुशासन’ में अपभ्रंश के अनेक नीतिविषयक दोहे हैं। तुलसीदास और रहीम के नीतिविषयक दोहों का पता हमें मिल चुका है। अकबर के दरबारी कवि वीरबल और नरहरि के नीतिविषयक पद अत्यंत प्रसिद्ध हैं। 16वीं शती के जमाल नामक मुसलमान कवि के नीतिविषयक दोहे भी काफी लोकप्रिय रहे हैं।
वृन्द- 18वीं शताब्दी के आरंभ में सुप्रसिद्ध नीतिकार कवि वृन्द हुए जो कृष्णगढ़ के महाराजा राजसिंह के गुरू थे। इनकी ‘वृन्द सतसई’ की उक्तियां उत्तर मध्यकाल में बड़े चाव से पढ़ी जाती थीं। नवीन खोजों के अनुसार इनके दो अन्य ग्रंथों का भी पता चलता है- शृंगार शिक्षा और पंचाशिका । परन्तु इनकी प्रसिद्ध नीतिविषयक दोहों से ही है। इनके दोहों में जीवन की गहन अनुभूतियाँ हैं। उदाहरणार्थ-
भले बुरे सब एक सम जौ लौ बोलत नाहिं ।
जानि परत है काग पिक ऋतु बसंत के माहि ।।
गिरधर कविराय- अनुमान है कि गिरधर कविराय 18वीं शती के आरंभ में हुए होंगे। प्रसिद्धि में ये वृन्द और वैताल से भी बढ़कर हैं। इन्होंने नीतिविषयक कुंडलियाँ लिखी हैं। कुछ कुंडलियाँ ‘साई’ शब्द से आरंभ होती हैं। किंवदन्ती है कि ये कुंडलिया इनकी पत्नी द्वारा लिखी गई हैं। गिरधर मध्यकाल के सद्गृहस्थों के सलाहकार थे और आज भी जनता इन्हें बड़े चाव से पढ़ती है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इनके संबंध में लिखते हैं- “वस्तुतः साधारण हिन्दी जनता के सलाहकार प्रधानतः तीन ही रहे हैं- तुलसीदास, गिरधर कविराय और घाघ । तुलसीदास धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में, गिरधर कविराय व्यवहार और नीति के क्षेत्र में, और घाघ खेती-बाड़ी के मामले में।” इनकी भाषा सरल और बोधगम्य है। ‘दौलत पाय न कीजिये सपन में अभिमान’ आदि इनकी कुंडलियाँ अत्यंत सुन्दर बन पड़ी हैं।
लाल- इनका पूरा नाम गोरेलाल था। ये मऊ (बुन्देलखण्ड) के रहने वाले थे। महाराज छत्रसाल के दरबारी कवि थे। इनके दो ग्रंथ उपलब्ध हुए हैं- ‘छत्रप्रकाश’ और ‘विष्णु विलास’ । प्रथम ग्रंथ में महाराज छत्रसाल की कीर्ति गाथा है और यह दोहा-चौपाइयों में लिखा हुआ प्रबन्ध काव्य है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह ग्रंथ उपादेय बन पड़ा है। दूसरे ग्रंथ में नायिका भेद कहा गया है। इनकी प्रसिद्धि का कारण ‘छत्रप्रकाश’ ही है। यह इनकी एक काव्य-गुण संपन्न प्रौढ़ कृति है। आचार्य शुक्ल इनकी काव्य-कला के संबंध में लिखते हैं-“लाल-कवि में प्रबन्धपटुता पूरी थी। संबंध का निर्वाह भी अच्छा है और वर्णन विस्तार के लिए मार्मिक स्थलों का चुनाव भी । सारांश यह है कि लाल कवि का सा प्रबन्ध कौशल हिन्दी के कुछ इने-गिने कवियों में ही पाया जाता है। शब्द-वैचित्र्य और चमत्कार के फेर में इन्होंने कृत्रिमता कहीं से नहीं आने दी। भावों का उत्कर्ष जहाँ दिखाना हुआ वहां भी सीधी और स्वाभाविक उक्तियों का ही समावेश किया है, न तो कल्पना की उड़ान दिखाई और न कहा की जटिलता । “
सूदन- ये मथुरा के रहने वाले माथुर चौबे थे। सूदन भरतपुर के महाराज वदनसिंह के पुत्र सुजानसिंह उपनाम सूरजमल के यहां रहते थे। इन्होंने अपने आश्रयदाता को लक्ष्य बनाकर ‘सुजान चरित’ नामक प्रबन्ध काव्य लिखा है। सुजानसिंह एक आदर्श वीर थे और सूदन में भी वीर चरित के सम्मान करने की पर्याप्त शक्ति थी। सूदन वीर रस के एक उत्कृष्ट कवि हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इनके संबंध में लिखते हैं- “चन्द्र के पृथ्वीराज रासो में जिस प्रकार घोड़ों और अस्त्रों आदि की उपमा देने वाली सूची मिलती है उसी प्रकार सूदन के सुजान-चरित में भी है। काव्य रूढ़ियों का इसमें जम कर सहारा लिया गया है. यद्यपि कथानक में रूढ़ियों की वैसी भरमार नहीं जैसी कि रसो में है। शब्दों को तोड़-मरोड़कर युद्ध के अनुकूल ध्वनिप्रसु वातावरण उत्पन्न करने में सूदन बहुत दक्ष हैं पर उसमें भाषा के प्रति न्याय नहीं हो सका है।
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