‘विनयपत्रिका’ के आधार पर तुलसी के दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन कीजिये ।
गोस्वामी तुलसीदास उच्चकोटि के कवि होने के साथ-साथ महान् दार्शनिक भी थे। तुलसी की दार्शनिक मान्यताओं के विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा बलदेव प्रसाद मिश्र तुलसी को परमार्थ की दृष्टि से अद्वैत मानते हैं। डॉ० भगीरथ मिश्र की मान्यता है कि तुलसी के काव्य-चिन्तन में शंकर तथा रामानुज दोनों ही के मतों का समन्वय है। वे व्यावहारिक दृष्टि से तुलसी के काव्य में रामानुज के विशिष्टद्वैत की ही प्रधानता स्वीकारते हैं। डॉ. श्यामसुन्दर दास तुलसी को मूलतः अद्वैतवादी मानते हैं। डॉ० रामचन्द्र मिश्र के मतानुसार – “गोस्वामी तुलसीदास रामानन्द की शिष्य परम्परा के कवि थे फलतः विशिष्टाद्वैत दर्शन की प्राण-प्रतिष्ठा ही उनके काव्यों में हुई है। प्रसंगतः यत्र तत्र अद्वैत और द्वैत के तत्व उनके काव्यों में भले ही उपलब्ध हों, किन्तु उनकी परिणति उक्त दर्शन में ही हुई है। फलस्वरूप उसी का पोषण और पल्लवन उनके समग्र साहित्य में समाहित है।”
‘विनयपत्रिका’ तुलसी की आत्मनिवेदनात्मक भक्ति की विनयावली है। इस प्रन्थ में भगवान राम के ‘ब्रह्मत्व’ का स्थान-स्थान पर उल्लेख किया गया है। भगवान् राम ब्रह्म अंशी का ही अंश है। ‘बा’ के प्रतिपादन के साथ-साथ जीव, माया, जगत तथा जीवात्मा की उक्ति का भी यथासम्भव प्रतिपादन हुआ है। विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजाचार्य के दार्शनिक सिद्धान्त हैं-1. ब्रह्म सगुण तथा सर्वेश्वर है । 2. जगत ब्रह्म का शरीर है। 3. जीव चेतन बह्म का शरीर तथा ईश्वर का अंश है। 4. माया का कोई अस्तित्व नहीं है। 5. जीवात्मा की मुक्ति का भक्ति के धरातल पर आत्मसमर्पण द्वारा सम्भव है।
‘विनयपत्रिका’ राम की सर्वोपरिता का प्रतिपादन है जो विशिष्टाद्वैत का प्रमुख तत्व है। उपर्युक्त मान्यताओं के आधार पर ‘विनयपत्रिका’ का दार्शनिक विवेचन इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-
1. ब्रह्म- ‘विनयपत्रिका’ में ‘ब्रह्म’ का ही सर्वाधिक विवेचन है। वास्तव में ब्रह्म जगत का अभिन्न निमित्तोपादन कारण है। ब्रह्म अपने आपको जगत में अभिव्यक्त करता हुआ लीलाएँ रचता है अर्थात् अवतार लेता है। विनय पत्रिका में तुलसीदास ने ब्रह्म के इस अवतारवाद का विशेषतः प्रतिपादन किया है। विनयपत्रिका के पूर्वार्ध में तुलसी ने ब्रह्म के इसी स्वरूप को व्यक्त करने के लिए दशावतारों के प्रति अनन्य आस्था प्रकट करते हुए राम को भगवान् के रूप में चित्रित किया है-
‘कोसलाधीश, जगदीश, जगदेकहित, अमितगुण, विपुल विस्तार लीला।
गायंति तब विस्तार सुपवित्र श्रुति शेष शुक शंभु-सनकादि मुनिमननशीला।”
इसी पद में तुलसी ने मत्स्य, शूकर, कच्छप, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कलिक अवतार का उल्लेख किया है। विनयपत्रिका के स्तुति पदों में भी तुलसी ने बराबर राम के महात्म्य की गाथा गाई है। तुलसी ने राम को ब्रह्म के रूप में चित्रित करते हुए उन्हें सर्वोपरि तथा सर्वव्यापक माना है-
‘विश्व विख्यात, विश्वेश, विश्वायतन, विश्वमरजाद व्यालारिगमी ।
ब्रह्म वरदेश, वागीश, व्यापक, विमल, विपुल बलवान निर्वान स्वामी ।
प्रकृति, महतत्व शब्दादि गुण, देवता व्योम, मरुदग्नि, अमलांबु उर्वीीं ।
‘बहुल वृन्दारकावृन्द-बंदारु, पदद्वन्द्व मंदार-मालोरधारी ।
पाहिमामीश संताप – संकुल सदा दास तुलसी प्रणत रावणारी।’
‘ब्रह्म’ के बारे में दार्शनिकों में बराबर मतान्तर रहा है किन्तु तुलसी भक्ति भावना को अनन्यता के कारण उन्हें अकथनीय कहते हैं। भक्त को तो मात्र ब्रह्म की शरण में जाना ही अभीष्ट है-
केशव कहि न जाइ का कहिये।
देखत तब रचना विचित्र अति समुझि मनहि मन रहिये।
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे ।
ये मिटै न, मरे भीति दुख पाइय इहि तनु हेरे ।
रविकर नीर बसें अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं ।
बदनहीन सा प्रसै चराचर पान करन जे जाहीं ।
कोड कह सत्य, झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोउ मानै ।
तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपन पहिचान || “
जगत- परिणामवादी सांख्याचार्य जगत को सत्य मानते हैं। नैयायिकों की मान्यता है कि जगत सत्यासत्य है। अद्वैतवाद के वतर्कवाद की मान्यतानुसार ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या । तुलसीदास ने भी विनयपत्रिका में जगत को मिथ्या ही बताया है-
‘जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे ।
धुवां कैसे धौरहर देखि न तू भूल रे ।’
विनयपत्रिका में एक स्थान पर जगत को सत्यासत्य भी कहा गया है-
‘हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ।
जद्यपि मृषा सत्य भासे जबलहिं कृपा तुम्हारी।’
मूलतः तुलसी जगत को अव्यक्त राम की रचना मानते हैं।
जीव- तुलसी ने जीव को ब्रह्म का अंश माना है। इसीलिए वह अविनाशी, शुद्ध तथा निर्मल है। जीव तथा ईश्वर का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। जीव तथा बा का सेवक सेव्य भाव यत्र-तत्र प्रतिष्ठित है-
‘मैं सेवक रघुपति पति मोरे।’
जीव संसार में आकर माया के कारण विविध स्वांग रचता है। जब से जीव अंश ब्रह्म से बिछुड़ा आवागमनाधीन हो गया है। उसे लौकिक आकर्षण अपनी ओर आकर्षित किये रहता है। माया के वश होने के कारण जीव है तब से वह दारुण दुख पाता है-
‘जिव जयतें हरिते विलगान्यो तब तें देह गेह निज जान्यो।
मायावस स्वरूप बिसरायो। तेहि भ्रमते दारून दुख पायो ।’
माया के वश जीवात्मा संसार में मरती है। जीव विविध नाच नाचता है-
नाचत ही निसि दिवस परयो ।
तब ही ते न भयो हरि थिर जब तें जिव नाम धरयो
बहु वासना विविध कंचुकि भूषन लोभादि भयो ।
चर अरु अचर गगन जल थल में कौन न स्वांग करयो ।
जेहि गुनते बस होहु रीझि करि सो मोहिं सब बिसयो
तुलसीदास निज भवन द्वार प्रभु दीजै रहन पर्यो ।’
जीव ब्रह्म के सामने लंगड़ा-सा है। माया का आधिक्य जीव को अज्ञान के अन्धकार से आच्छादित कर देता है। फलतः जीव संसार में भटकता है-
‘माधव ! मोह फांस क्यों टूटै
बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटे
तुलसिदास हरि गुरु कामना बिनु विमल विवेक न कोई।
बिनु विवेक संसार घोर निधि पार पावै कोई ॥”
जीव की अशान्ति का कारण माया ही है। इस प्रकार अविद्या माया से मुक्ति प्राप्त करने की वह बराबर कामना करता है-
‘पराधीन देव दीन हौं, स्वाधीन गुसाईं
बोल निहारे सों करै बलि विनय की झाई
अपु देखि मोहि देखिये जन मानिय सांचों
बड़ी ओट राम नाम की जेहि लई सो बाचों ।’
माया – माया भी ब्रह्म का ही अंश है। यह तत्व बड़ा ही शक्तिशाली है। इसी के कारण तो जीव संसार में भ्रमित रहता है। माया से छुटकारा पाने के लिये भक्त भगवान के अनुग्रह की कामना करता है। माया का प्रभाव सर्वव्यापक हैं। यहाँ तक कि देवता, राक्षस, मुनि, नाग आदि सभी पर माया का प्रभाव है। इसीलिये तुलसी परम तत्व राम से ही माया से छुटकारा पाने की विनय करते हुए अनुग्रह की कामना करते हैं-
देव, दनुज, मुनि, नाग मनुज सब माया-विवस बिचारे ।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपनवौ हारे ।
माया के बन्धन में जकड़ा हुआ जीव ब्रह्म के अनुग्रह से ही इस माया से छूट सकता है-
“तुलसीदास प्रभु मोह शृंखला, छुटि है तुम्हारे छोटे।’
माया भ्रमात्मक है। इसकी गति ‘मृग-तृष्णा’ तथा ‘रस्सी में साँप’ की प्रतीति के समान हैं। तुलसीदास ने इस भ्रमात्मक माया से छुटकारा पाने के लिये जीव को जागने का अनुरोध किया है-
‘जागु जागु जीव जड़ जोहै जग जामिनी।
देह-गेह-नेह जानि जैसे धन दामिनी ।।
सोवत सपनेहूँ सहै, मंसति संताप रे ।
बुढ्यो मृग वारि खायो जबरी के साँप रे ।
कहै वेद युथ तू तो बूझि पुनमाहि रे ।
दोष दुख सपने के जागे ही पै जाहि रे।।’
स्पष्ट है कि माया ब्रह्म के आधीन है। माया के कारण ही भक्त भगवान की महिमा के गुणगान की ओर बराबर लगा रहता है। माया से छुटकारा पाने के लिये भक्त भगवान के अनुग्रह की कामना करता है।
मोक्ष-तुलसीदास ने अपने काव्य प्रासाद के माध्यम से यह प्रतिपादित किया है कि संसार में जीव माया से प्रस्त रहता है। सांसारिक विषय-वासना से छुटकारा प्राप्त करने का सबसे सरल साधन भगवद-भक्ति ही है। तुलसी तो इस संसार में जीते हुए विविध विषमताओं का उल्लेख करते हुए श्रीराम से यही विनय करते हैं कि इस जीवन को छोड़कर कब मन रूपी मधुकर रघुपति के चरण-रूपी कमलों में निवास करेगा अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होगी-
“अब लौ नासानी, अब न नसैहौं।
राम कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिर न इसैही।
पायेऊँ नाम चारु चिन्तामनि डर कर तैं न खसैहौं ।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनि कसैहौं ।
परवस जानि हँस्यो इन इन्द्रिन, निज बस है न हसैहौं ।
मन मधुकर वनकै तुलसी, रघुपति पद कमल बसैहौं ।”
भक्त को तो मात्र ‘राम-पद-रति’ ही चाहिये । यही उसके लिये मोक्ष अथवा मुक्ति हैं-
“चहौं न सुगति सुमति संपति कछु, रिथि, सिधि विपुल बड़ाई ।
हेतु रहित अनुराग राम पद बढ़े अनुदिन अधिकाई ।
या जग में जहँ लागि या तनु की प्रीति प्रतीति सगाई ।
ते सब तुलसीदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इकठाई ।
‘विनयपत्रिका’ के पदों में भक्ति भावना में दीनता अथवा विवशता चित्रित है। भक्त संयमित आचरण का प्रतिपालन करता हुआ ही राम के चरणों में रति की कामना करता है। तुलसी की भक्ति भावना का चरमोत्कर्ष एवं इस जग की लौकिक विषमताओं से मोक्ष प्राप्ति का प्रमाण-पत्र भी तुलसी को मिल जाता है-
‘विहंसि राम कह्यो ‘सत्य है, सुधि मैं हूँ नहीं है।’
मुदित माथ नावत बनी तुलसी अनाथ की,
परी रघुनाथ रघुनाथ हाथ सही है।’
उपर्युक्त पर्यालोचनोपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि तुलसीदास ने ‘विनयपत्रिका’ में ‘विशिष्टाद्वैतवाद की स्थापना” करके ‘दर्शन’ की मार्मिक निबन्धना की है।
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