‘विनयपत्रिका’ के आधार पर तुलसी की भक्ति-पद्धति का मूल्यांकन कीजिये ।
‘विनयपत्रिका’ भक्ति का उज्ज्वल चिन्तामणि है। इस ग्रंथ का प्रत्येक पद, भक्ति-भावना से ही प्रेरित होकर लिखा गया है। शांडिल्य, नारद आदि ने भगवान के प्रति प्रेमतत्व को ही भक्ति कहा है। तुलसी ने मानस में भगवद् प्रेम अथवा भक्ति के प्रवाह की व्यंजना इस प्रकार की है-
‘कामहि नारि पिआरी जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम ।।’
तुलसीदास जी ने यह माना है कि भक्ति सब साधनों का फल है- ‘सब कर फल हरि भगति सुहाई’ इसीलिये भक्ति-भावना के परिवेश में भगवान के प्रति अडिग आस्था एवं विश्वास का होना अनिवार्य है। बिना विश्वास के भक्ति का महात्म्य संभव नहीं है और जब तक भक्त अनन्य भाव से भगवान के प्रति निष्ठावान होकर आत्मसमर्पित नहीं हो जाता तब तक भगवान द्रवित नहीं होते-
‘एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास।
एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास ।।’
‘बिनु बिस्वास भगति नहि तेहि बिनु द्रवहिं न राम।’
स्पष्ट है कि तुलसी की भक्ति भावना में दास्य का प्राचुर्य है। तुलसी के प्रन्थों में भक्त चातक है तो भगवान आनन्द का घन । चातक पर घन जिस प्रकार उपल बरसाता है, नाना यातनाएं देता है, बार-बार उसकी एकनिष्ठता की परीक्षा करता है तथा चातक अपनी रट से टलता नहीं, आस्था बनाये रखता है और अन्त में मधुर जल की बूँदें प्राप्त करता है। तुलसी की इसी विचारधारा से प्रभावित होकर डॉ० राजपति दीक्षिति ने लिखा है- “शरणागति भक्ति का फल एवं माहात्म्य गोस्वामी जी ने बहुत प्रबल दिखाया है। उन्होंने अपने इष्ट देव के स्वरूप चित्रण में उनकी शरणागत वत्सलता का जितना मार्मिक, व्यापक और सूक्ष्म निर्देश किया है उतना किसी अन्य विशेषता का नहीं।”
‘विनयपत्रिका’ में तुलसी की विनयावलियाँ हैं।
तुलसी के राम सर्वव्यापक तथा पूज्य हैं। राम को सकल जगमय जान कर ही तुलसी ने उनका भक्त होना स्वीकर किया है-
‘सकल विस्व-विदित, सकल-सुर सोवित,
आगम निगम कहैं रावरेई गुन ग्राम ।।
इहैं जानि तुलसी तिहारो जन भयो,
न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम ।।’
तुलसी के ऐसे राम निर्गुण भी हैं और सगुण भी-
‘अमल अनवद्य अद्वैत निर्गुण सगुन ब्रह्म सुमिरामि नर भूप रूप।’
इतना होने पर भी तुलसी की यह मान्यता रही है कि सगुण ब्रह्म ही भक्तों के दुखों को दूर करने वाला होता है, वहीं भक्त के दुखों का निवारण करता है। जब पृथ्वी पर पाप का घड़ा भर जाता है, आसुरी शक्तियाँ बढ़ने लगती हैं तब भगवान् अवतार लेते हैं-
‘जब-जब जग-जाल व्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल भरन ।
तब-तब तनु घरि भूमि भार दूरि करि,
थापे मुनि सुर साधु आस्त्रम बरन ।।’
भक्ति भावना अथवा प्रतिपाद्य की दृष्टि से विनयपत्रिका के दो खण्ड हैं। प्रथम खण्ड में विविध देवी-देवताओं की स्मृतियाँ हैं तथा द्वितीय खण्ड में भक्त कवि के आत्माद्गार हैं। ‘स्तुति-खण्ड’ में कवि ने गणेश, सूर्य, शिव, देवी, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट, हनुमान, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न तथा सीता आदि की सतुतियाँ की हैं। इन स्तुतियों में भी भक्त का दास्यभाव ही वर्णित है। इन स्तुतियों में भी तुलसी की एक ही मांग है-‘भगवान राम के चरण कमलों की रति प्रदान करो।’
श्रीगणेश-स्तुति-
‘माँगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं राम-सिय मानस मोरे।’
सूर्य-स्तुति-
‘वेद पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम भगति वर मांगे।’
शिव-स्तुति-
‘देहु काम-रिपु राम चरन रति, तुलसीदास कहँ कृपानिधान ।’
‘तुलसिदास जाचक जस गावै। विमल भगति रघुपति की पावै।’
‘तुलसिदास हरि चरन-कमल-बर, देहु भगति अविनासी ।’
‘देहि कामरि ! श्रीराम-पद-पंकजे भक्ति अनवरत गत भेद-माया।’
देवी-स्तुति-
‘देहि मा, मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनश्याम तुलसी पपीहा।’
गांगा-स्तुति-
‘देहि रघुवीर-पद-प्रीति निर्भर मातु, दास तुलसीदास आसहरिण भव-भामिनी ।
काशी-स्तुति-
‘तुलसि बसि हरपुरी राम जप, जो भयो चहै सुवासी।’
चित्रकूट- स्तुति
‘तुलसी जो रामपद चहिय प्रेम सेइय गिरि करि निरुपाधि नेम।
हनुमत्- स्तुति
राम पद पदा-मकरन्द-मधुकर, पाहि, दास तुलसीशरण, शूलपाणी।’
इसी प्रकार सामूहिक रूप से उन सभी देव समाज की वन्दना करते हैं जो तुलसीदास के परम स्नेही तथा सर्वस्व हैं-
‘मंगल मूरति मारुत नंदन ! सकल-अमंगल मूल निकंदन।
पवन तनय संतन हितकारी हृदय विराजत अवध बिहारी।
मातु-पिता-गुरु, गनपति-सारद। सिवा समेत संभु सुक नारद ।
चरन बन्दि बिनब सब काहू । देहू राम पद-नेह निबाहू ।
बदौ राम-लखन बैदेही । जे तुलसी के परम सनेही ॥’
अन्त में एकमात्र अवलम्ब राम से यही कहते हैं-
‘दीन को दयाल दानि दूसरो न कोऊ ।
जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ ।
तू गरीब को निवाज, हौ गरीब तेरो ।
बारक कहिये कृपालु ! तुलसिदास मेरो ।।’
तुलसी की भक्ति भावना की प्रमुख विशेषता ही ऐसे भाव-तत्व हैं। विनय पत्रिका की भक्ति भावना में तुलसी का आराध्य में विश्वास और निष्ठा, आत्मसमर्पण, भक्त की दीनता तथा दास्य एवं राम नाम का माहात्म्य का विशेष प्रतिपादन है।
(क) आराध्य में विश्वास और निष्ठा- भगवान राम के पारलौकिक सर्वशक्तिमान रूप ‘विनयपत्रिका’ के प्रत्येक पद में प्रतिपादित है। भक्त भगवान के इसी सर्वव्यापक रूप के प्रति भक्ति भाव से आसक्त हैं। भगवान राम सबसे बड़े हैं और भक्त सबसे छोटा है-
‘राम सों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो ।
राम सों खरो है कौन, मोसो कौन खोटो।’
जीव तथा ब्रह्म मूलतः अंग तथा अंगी हैं। भक्त को इस पर पूरा विश्वास है। वह मानता है कि प्रभु दयालु हैं तो भक्त दीन। प्रभु दानी हैं तो भक्त भिखारी । प्रभु पाप के पुंजों को क्षय करने वाले हैं तो भक्त पापी। प्रभु नाथ हैं तो भक्त अनाथ। प्रभु ब्रह्म हैं, भक्त जीव ! प्रभु ठाकुर हैं, भक्त नौकर हैं। प्रभु सब प्रकार के भक्त के हितैषी हैं। यद्यपि प्रभु तथा भक्त के बीच अनेक प्रकार के सम्बन्ध हैं परन्तु भक्त की पुकार यही है ‘हे प्रभु ! जो नाता आपको अच्छा लगे मुझे उसी रूप में ग्रहण कीजिये-
‘तू दयाल दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी ! तू पाप पुंज हारी।
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मो सो।
मो समान आरत नहि, आरति हर तो सो।
ब्रह्म तू हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात- मात, गुरु, सखा तू सब विधि हितु मेरो।
तोहि मोहि नाते अनेक मानिये जो भावै।
ज्यों-ज्यों तुलसी कृपालु चरन सरन पावै ।।’
मात्र चरण-कमलों में शरण प्राप्त करके ही भक्ति करनी तुलसी को अभीष्ट है। यही तुलसी की दास्य-भक्ति है जिसका सर्वाधिक प्रतिपादन विनयपत्रिका में मिलता है-
‘तुलसीदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई ।’
‘रामचरन अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै।’
‘तुलसिदास निज भवन द्वार प्रभु दीजै रहन पर्यो।’
आत्मसमर्पण – भक्ति भाव से प्रेरित होकर तुलसी ने भगवान् राम के चरणों में आत्मसमर्पण कर दिया है। बस अपने आपको सब प्रकार से असहाय, निरालम्ब पाकर मात्र प्रभु के सहारे ही छोड़ दिया है। यद्यपि भक्त का व्यक्ति अवगुणों की राशि है, पर जो है सो है ही। इसका उद्धार मात्र राम से ही संभव है। भगवान राम के विधु वदन को देखकर ही तो भक्त का मन प्रसन्न होता है। तुलसी कहते हैं बचपन से ही पिता, माता, भाई, गुरु, नौकर, मन्त्री आदि यही कहते हैं कि कभी भी भगवान के मुख पर क्रोध नहीं देखा। उनके चरण-स्पर्श से अहिल्या का उद्धार हो गया था। हनुमान उनकी सेवा में लगकर उपकृत हो गये थे। भक्तों पर आपने सदैव दया की है। जो एक बार भी आपको प्रणाम करता है और शरण में आ जाता है, आप सदा उसके यश का वर्णन करते हैं। ऐसे कोमल हृदय श्रीराम जी के गुण समूहों को समझ कर मेरे हृदय में प्रेम की बाढ़ आ गई है। हे तुलसीदास । इस प्रेमानंद के कारण तू अनायास ही श्रीराम के चरण-कमलों को प्राप्त करेगा-
‘सुनि सीतापति सील सुभाउ ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ ।।
सिसुपन तें पितु, मातु, बंधु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाऊ ।
कहत राम बिधु-वदन रिसौ हैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ||
समुझि समुझि गुन ग्राम राम के, उर अनुराग बढ़ाउ ।
तुलसिदास अनयास राम पद पाड़ है प्रेम पसाउ ।
भक्त आत्मसमर्पण कर चुका है। वह भगवान के चरणों की रति को छोड़कर कहीं जाये भी तो भला कहाँ ? वह कौन से देवता हैं जिसे दीन अत्यधिक प्रिय हों। वह और कौन देवता है जो चुन-चुन कर नीचों का उद्धार करता हो। राम से इतर देवताओं के समक्ष तुलसी को आत्मसमर्पण से भला लाभ ही क्या ?
‘जाऊं कहाँ तजि चरन तुम्हारे
काको नाम पतित-पवन जग, केहि अति दीन प्यारे ।
कौन देव बराइ विरद-हित, हठि हठि अधम उधारे ।
खग मृग, व्याध, पषान, विटप जड़ जवन कबन सुर तारे।
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब माया-बिबस विचारे ।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपी हारे । ‘
डॉ० रामचन्द्र मिश्र के शब्दों में- “राम के ऐसे असाधारण और महत्तम स्वरूप को तुलसी ने अपनी भक्ति का आलम्बन माना है। वह शक्तिशील और सौन्दर्य से युक्त हैं। ये तत्व प्राथमिक रूप में विद्यमान होने के कारण वह अलौकिक और दिव्य हैं। उनके ऐसे अप्रतिम होने के कारण ही उनकी महत्ताओं का गान करने में तुलसी ने गौरव और आश्रयस्वरूप अपने अभावों, पापों, लौकिक विचारों आदि का उल्लेख कर सुख और सन्तोष की अनुभूति की है। “
दास्य-भाव- ‘सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि’ दास्य भक्ति का मूलभूत सिद्धान्त है। विनयपत्रिका में तुलसी का आचरण ईमानदार दासवत् है। तुलसी को अपनी दीनावस्था को सूक्ष्मातिसूक्ष्म करते हुए यहाँ तक कह देते हैं-
‘आपसे कहूँ सौ पिये मोहि जो पै अतिहि घिनात ।
दास तुलसी और विधि क्यों चरन परिहरि जात ।।’
भक्त तो राम पर अपने आपको न्योछावर कर देने के लिए दृढ़ निश्चय कर चुका है। भक्त तो कहता है- ‘कानों से दूसरी बात नहीं सुनूँगा, जीभ से दूसरे की चर्चा नहीं करूँगा। नेत्रों को दूसरी ओर देखने से वर्जित करूँगा। मस्तक केवल भगवान राम को ही झुकाऊंगा। भगवान राम साथ प्रेम का नाता जोड़कर अन्य सभी नाते तोड़ दूँगा। स्वामी राम का दास कहलवा कर अपने कर्मों का सारा बोझ उन्हीं पर छोड़ दूँगा-
‘जानकी जीवन की बलि जैहौं।
छित कहै राम-सीय पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहाँ ॥
उपजी उर प्रतीति सपनेहु सुख, प्रभु-पद विमुख न पैहौं ।
मन समेत या तनके बासिन्ह इहै सिखावन दैहौं ।।
नातौ नेह-नाथ सों करि सब नातो नेह बहैहौं।
यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ।।’
इसी दास्य-भाव तथा प्रभु की शक्ति, शील तथा प्रभुता के समक्ष श्रद्धावनत होकर भक्त अपने पाप-पुंज को बिखरेता हुआ आत्मोद्धार की कामना करता है-
‘जानत हूँ निज पाप जलधि जिय, जल सीकर सम सुनत लगै।
रज सम पर अवगुन सुमेरु करि गुन गिरसम रजते निदशै।
तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो ।।’
तुलसी की इस दास्य-भक्ति में आत्मनिवेदन अपनी पराकष्ठा को पहुँचा हुआ है।
राम-नाम महिमा – तुलसी ने राम-नाम माहात्म्य को बहुत महत्व दिया है। भक्ति भावना की सबसे सरल तथा महत्वपूर्ण प्रणाली यही तो है। इस स्मरण भक्ति के विशिष्ट काव्यांश इस प्रकार हैं-
‘राम भरोसो राम बल, रामनाम विस्वास ।
सुमिरि नाम मंगल कुसल माँगत तुलसीदास ॥
‘राम कहत चल, राम कहत चलु राम कहत चलु भाई रे ।
नाहि तौ भव-बेगारि महँ परि हैं, छूटत अति कठिनाई रे ।’
मूलतः यह राम नाम की महिमा तुलसी काव्य की प्रमुख विशेषता है जिसे चरम विकास ‘विनयपत्रिका’ में मिला है।
उपर्युक्त विश्लेषण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भक्त प्रवर तुलसीदास भगवान को सर्वोपरि तथा सर्वशक्तिमान मानते हैं। ‘विनयपत्रिका’ में तुलसी का दास्यभाव ही प्रमुखता निर्दिष्ट है जिसमें भक्तपूर्णरूपेण समर्पित होकर, चातकवत् साधक बन कर भगवान राम के अनुग्रह की इच्छा करता है।
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