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व्याख्यान पद्धति
व्याख्यान पद्धति के अन्तर्गत शिक्षक मौखिक रूप से छात्रों के समक्ष अभिव्यक्ति करता है, तथा आवश्यक तथ्यों, सूचनाओं, प्रदत्तों आदि का विभिन्न प्रविधियों की सहायता से स्पष्टीकरण करता है। इस पद्धति में शिक्षक का विशेष महत्त्व होता है तथा यह मानकर छात्रों के समक्ष शिक्षण करता है कि छात्रों में उसके द्वारा प्रदत्त अनुभवों को ग्रहण करने की क्षमता है। इस पद्धति में शिक्षक द्वारा प्रस्तुत विभिन्न अनुभव, निर्धारित उद्देश्या एवं लक्ष्यों से सम्बन्धित होते हैं। अध्यापक को व्याख्यान विधि में पारंगत होने के लिये पर्याप्त तैयारी की आवश्यकता होती है। उसकी विस्तृत अध्ययनशीलता, प्रस्तुतीकरण के कौशल आदि का व्याख्यान पर विशेष प्रभाव पड़ता है। पाठ्यवस्तु पर स्वामित्व एवं पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण का कौशल ही किसी शिक्षक के व्याख्यान को प्रभावपूर्ण बना सकता है। प्रायः समस्त कक्षाओं में इस विधि का प्रयोग सम्भव है। व्याख्यान विधि के अर्थ को स्पष्ट करते हुए रिस्क ने लिखा है-“व्याख्यान उन तथ्यों, सिद्धान्तों अथवा अन्य सम्बयों का स्पष्टीकरण है, जिनको शिक्षक चाहता है कि उसको सुनाने वाले समझें । “
जेम्स एम० ली के अनुसार- ” व्याख्यान एक शिक्षण शास्त्रीय विधि है, जिसमें शिक्षक औपचारिक रूप से, नियोजित रूप में किसी प्रकरण या समस्या पर भाषण देता है। “
व्याख्यान प्रणाली का प्रयोग सभी स्तरों पर किया जाना सम्भव है और इसके द्वारा छात्र विभिन्न प्रकार से लाभान्वित होते हैं। पाठ्यवस्तु को समझने, उसके उपयुक्त अंशों को चयनित करने तथा आवश्यक नोट्स लेने का प्रशिक्षण इसके द्वारा प्राप्त होता है। प्रायः प्रत्येक पाठ के शिक्षण में इसका प्रयोग सम्भव है। जोसेफ लैंडन के अनुसार भी-“कुछ सीमा तक प्रत्येक पाठ में इसकी आवश्यकता होती है और अनेक पाठ मुख्य रूप से इसको निर्मित करते हैं।”
इस प्रकार व्याख्यान पद्धति के माध्यम से पाठ्यवस्तु का सफल प्रस्तुतीकरण करते हुए छात्रों को वांछित ज्ञान प्रदान किया जाना सम्भव है।
व्याख्यान पद्धति हेतु सुझाव
1. व्याख्यान पद्धति के मध्य प्रश्नों के माध्यम से छात्रों की जाँच भी की जानी चाहिये
2. व्याख्यान में छात्रों की रुचि एवं ध्यान हेतु प्रस्तुतीकरण की शैली रोचकतापूर्ण होनी चाहिये।
3. व्याख्यान की भाषा सरल एवं स्पष्ट होनी चाहिये ।
4. व्याख्यान पूर्व नियोजित होना चाहिये तथा शिक्षक को शिक्षण से पूर्व उसकी रूपरेखा का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिये।
5. व्याख्यान के समय यथा आवश्यक भाव-भंगिमाओं के प्रदर्शन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये।
6. मात्र इसी प्रणाली पर निर्भर न रहकर अन्य प्रणालियों का भी समुचित प्रयोग किया जाना चाहिये।
7. विषय अथवा प्रकरण से असम्बद्ध, क्रमविहीन तथा निरर्थक एवं उद्देश्यविहीन तथ्यों के प्रस्तुतीकरण के कारण व्याख्यान उद्देश्यविहीन, हास्यास्पद एवं प्रभावहीन हो जाता है।
8. निम्न स्तरीय कक्षाओं में व्याख्यान पद्धति का प्रयोग केवल आवश्यक परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिये।
9. व्याख्यान का स्तर छात्रों की आयु, योग्यता, क्षमता आदि के अनुरूप ही होना चाहिये।
10. समस्त व्याख्यान एक ही स्वर में नहीं होना चाहिये, वरन् उसमें तय की महत्तानुसार उतार-चढ़ाव का भी ध्यान रखा जाना चाहिये।
11. व्याख्यान के प्रस्तुतीकरण में विचारों की क्रमबद्धता एवं सुसम्बद्धता अत्यन्त आवश्यक है।
12. स्पष्टीकरण हेतु आवश्यक उदाहरणों, दृष्टांतों एवं सहायक सामग्रियों का यथेष्ट प्रयोग किया जाना चाहिये।
13. मध्यम गति से प्रस्तुत किया गया व्याख्यान ही छात्रों के लिये अवबोधनीय हो सकता है।
14. व्याख्यान से पूर्व शिक्षक को, व्याख्यान से सम्बन्धित उद्देश्यों की स्पष्ट जानकारी होना आवश्यक है।
व्याख्यान विधि के गुण
1. इस विधि के माध्यम से अल्पावधि में पाठ्यवस्तु का शिक्षण सम्भव होता है।
2. व्याख्यान विधि उच्च कक्षाओं के छात्रों हेतु विशेष रूप से सहायक है।
3. इस विधि के माध्यम से पाठ्यवस्तु को समन्वित एवं क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
4. इस विधि का प्रभावपूर्ण प्रयोग छात्रों में विषय के प्रति रुचि उत्पन्न करता है।
5. व्याख्यान विधि के द्वारा पाठ्यवस्तु की पुनरावृत्ति भी सम्भव होती है।
6. श्रवण के माध्यम से अनुभवों को प्राप्त करने, आवश्यक तथ्यों का चयन करने, मानसिक रूप से तथ्यों को व्यवस्थित करने आदि अनेक क्षमताओं का विकास इसके द्वारा सम्भव होता है।
7. इसके माध्यम से छात्र विभिन्न अनुभवों में सम्बन्ध स्थापित करना सीखते हैं। 8. व्याख्यान विधि का प्रयोग अन्य विधियों की सहायक विधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
व्याख्यान विधि के दोष
1. इस पद्धति के प्रयोग से छात्रों में निष्क्रियता उत्पन्न हो जाती है।
2. इस विधि के अन्तर्गत समय एवं श्रम का भी पर्याप्त अपव्यय होता है।
3. इस विधि के द्वारा छात्रों को जो ज्ञान प्रदान किया जाता है, उसके सम्बन्ध में यथासमय यह निर्धारित करना कठिन होता है कि छात्रों ने उस ज्ञान को किस सीमा तक प्राप्त किया है।
4. इस विधि के द्वारा प्रस्तुत ज्ञान की समझ छात्रों के पूर्व ज्ञान पर निर्भर करती है। अतः छोटी कक्षाओं में इसका सफल प्रयोग सम्भव नहीं है।
5. इसके द्वारा छात्रों की विचार शक्ति का विशेष विकास नहीं होता।
6. यह पद्धति अनेक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है।
7. अकुशल अध्यापकों की दशा में यह विधि छात्रों में अनुशासनहीनता उत्पन्न करती है।
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