शिक्षा के मनोवैज्ञानिक उपागम से आप क्या समझते है? इस उपागम की प्रमुख विशेषतायें बताइये।
गत शताब्दी की शिक्षा मनोवैज्ञानिक उपागम से अत्यधिक प्रभावित थी। शिक्षा के मनोवैज्ञानिक उपागम का तात्पर्य है- शिक्षा को मनोविज्ञान पर आधारित करना। इस प्रवृत्ति में बालक को समझने का प्रयास किया जाता है। बालक एक पुस्तक के समान है जिसका अध्ययन प्रत्येक शिक्षक के लिए आवश्यक है। बालक की रुचि, योग्यता, रुझान एवं इच्छा को जानना एवं शिक्षा को तदनुरूप नियोजित करना मनोवैज्ञानिक उपागम का आशय है। इसमें शिक्षा के उद्देश्यों को बालक की क्षमता के अन्दर एवं उसके द्वारा प्राप्य माना जाता है तथा शिक्षण विधि में बालक की रुचि को प्रमुखता दी जाती है।
आधुनिक मनोविज्ञान ने वैयक्तिक भिन्नता के तथ्य को बड़ा महत्व दिया है। प्राचीन समय में लोगों का यह आम विश्वास था कि कुछ सिद्धान्त विशेष प्रकार के होते हैं। एक प्रकार के बालकों के लिए एक प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। किन्तु अब प्रकार सिद्धान्त पर से मनोवैज्ञानिकों का विश्वास उठ गया है। वस्तुतः प्रकृति ने प्रत्येक मानव को दूसरे से भिन्न बनाया है। सभी बालक एक ही साँचे में नहीं ढाले गये हैं। प्रत्येक बालक की रुचि, योग्यता एवं बुद्धि दूसरे से भिन्न होती है। ऐसी दशा में आधुनिक एकमार्गीय शिक्षा उपयुक्त नहीं कही जा सकती है।
विशेषतायें-मनोवैज्ञानिक उपागम के विकास का परिणाम शिक्षा के प्रत्येक अंग में परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है। इस उपागम की मुख्य विशेषताओं का नीचे संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है-
(1) शिक्षा का आधार मनोविज्ञान हो- शिक्षा में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का अनुसरण करना चाहिए। मनोविज्ञान मानव के व्यवहार का अध्ययन है। शिक्षा मानव-व्यवहार में सुधार लाने का उपक्रम । अतः शिक्षा का आधार मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त होने चाहिए।
(2) प्रकृतिवादी शिक्षा का विकास- शिक्षा में मनोवैज्ञानिक उपागम का अर्थ है प्रकृतिवादी शिक्षा को विकसित करना। मानव में निहित प्राकृतिक क्षमताओं का विकास करना शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य है। मनोवैज्ञानिक उपागम इस कार्य को प्रमुखता देता है।
(3) बाल मनोविज्ञान पर बल- मनोवैज्ञानिक उपागम में बालक की प्रवृत्तियों के अध्ययन पर बल दिया जाता है। बालक की रुचियों व योग्यताओं के अध्ययन को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है। बाल मनोविज्ञान की प्रगति होती है।
(4) बालक को बालक मानकर शिक्षा— यह उपागम इस बात पर बल देता है। कि बालक को बालक माना जाये, न कि लघु प्रौढ़। बालक की शिक्षा की योजना बनाते समय बालक का ही ध्यान रहे, न कि उसके भावी जीवन का ।
(5) बालक के प्रति सहानुभूति – मनोवैज्ञानिक उपागम में बालक के प्रति सहानुभूति रखकर विषय में भली प्रकार जानकारी प्राप्त करने पर बल दिया जाता है।
(6) बालक के व्यक्तित्व का आदर- मनोवैज्ञानिक उपागम में बालक के व्यक्तित्व का आदर किया जाता है और उसे साध्य समझा जाता है, न कि साधन । सम्पूर्ण शिक्षा के लक्ष्य के रूप में बालक ही स्वीकार किया जाता है।
(7) शिक्षा को रुचिकर बनाना – इस उपागम में शिक्षा को रुचिकर बनाने का संकेत विद्यमान है। शिक्षण विधि एवं पाठ्य-वस्तु रुचिकर हो ताकि बालक स्वाभाविक रूप से शिक्षा ग्रहण कर सके।
( 8 ) व्यक्तिगत भिन्नताओं पर बल- मनोवैज्ञानिक उपागम में यह माना जाता है कि एक बालक दूसरे बालक से भिन्न है। प्रत्येक बालक की अपनी योग्यता, रुचि, आवश्यकता एवं शक्ति होती है। अतः इन विभिन्नताओं का ध्यान रखकर ही शिक्षा की योजना बनानी चाहिए।
(9) शिक्षक निर्देशक के रूप में- मनोवैज्ञानिक उपागम में शिक्षक की अभिवृत्ति। अधिकारी की तरह न होकर पथ-प्रदर्शक के रूप में होती है।
(10) प्रारम्भिक स्तर पर अधिक ध्यान – शिक्षा में प्रारम्भिक अवस्था में जो बालक होते हैं उनमें संस्कार अधिक स्थायी पड़ते हैं। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को ध्यान में रखकर शिक्षा में प्रारम्भिक स्तर की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है।
(11) जनसाधारण की शिक्षा पर बल- मनोवैज्ञानिक उपागम के परिणामस्वरूप जनसाधारण की शिक्षा पर भी बल दिया गया और इसे केवल कुछ वर्गों तक सीमित नहीं रखा गया।
(12) मनोवैज्ञानिक क्षण का महत्व इस उपागम में यह माना गया कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ मनोवैज्ञानिक क्षण आते हैं जिनमें वह अधिक अच्छी तरह सीख सकता है। अतः इस क्षण को निकलने नहीं देना चाहिए।
(13) तार्किक क्रम की अपेक्षा मनोवैज्ञानिक क्रम पर बल – पाठ्यक्रम की योजना बनाते समय और शिक्षण विधि के सोपान निश्चित करते समय इस उपागम में तार्किक क्रम को अधिक महत्वपूर्ण न मानकर मनोवैज्ञानिक क्रम को तुलनात्मक दृष्टि से अधिक महत्व दिया जाता है।
(14) व्यक्तिवाद का पोषण- इस उपागम में व्यक्तित्व के विकास एवं व्यक्ति की योग्यताओं आदि पर अधिक बल है। इस दृष्टि से इसमें समाज की अपेक्षा व्यक्ति को महत्वपूर्ण माना जाता है।
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