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सहसम्बन्ध का अर्थ एवं प्रकार | सहसम्बन्ध का गुणांक एवं महत्व | सहसम्बन्ध को प्रभावित करने वाले तत्व एवं विधियाँ

सहसम्बन्ध का अर्थ एवं प्रकार | सहसम्बन्ध  का  गुणांक एवं  महत्व | सहसम्बन्ध को प्रभावित करने वाले तत्व एवं विधियाँ
सहसम्बन्ध का अर्थ एवं प्रकार | सहसम्बन्ध का गुणांक एवं महत्व | सहसम्बन्ध को प्रभावित करने वाले तत्व एवं विधियाँ

सह सम्बन्ध का अर्थ, प्रकार, गुणांक एवं महत्व को स्पष्ट करते हुये, सहसम्बन्ध को प्रभावित करने वाले तत्व एवं विधियाँ का वर्णन कीजिए। 

सहसम्बन्ध का अर्थ- सहसम्बन्ध अंग्रेजी के शब्द Correlation का हिन्दी रूपान्तर है, जो Co और Relation इन दो शब्दों के योग से बना है, जिसका अर्थ है- पारस्परिक सम्बन्ध अर्थात जब दो समंक मालाओं अथवा समूहों के मध्य यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि उनमें पारस्परिक सम्बन्ध है अथवा नहीं और यदि है तो वह किस सीमा अथवा मात्रा तक इस प्रकार दो चरों या समंक मालाओं के मध्य पाया जाने वाला सम्बन्ध ही सहसम्बन्ध कहलाता है। किंग ने सहसम्बन्ध के विषय में लिखा है- “सहसम्बन्ध का अर्थ है कि दो समंक मालाओं अथवा समंकों के समूहों के मध्य कुछ कार्य-कारण सम्बन्ध विद्यमान है।” फर्ग्युसन इस विषय में लिखते हैं- “सहसम्बन्ध चरों के मध्य सम्बन्ध की मात्रा को वर्णित करने से सम्बन्धित है।” सहसम्बन्ध के अर्थ को स्पष्ट करते हुए बालिस ने लिखा है- “सहसम्बन्ध आँकड़ों के दो या अधिक भिन्न समूहों के मध्य तुलना, उनके मध्य विद्यमान सम्बन्ध को जानने तथा उस सम्बन्ध की मात्रा की अंकात्मक अभिव्यक्ति प्राप्त करने से सम्बन्धित है।” इस प्रकार दो या दो से अधिक समंक मालाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने, उनके पारस्परिक सम्बन्ध का विश्लेषण करने तथा पूर्वानुमान लगाने में सहसम्बन्ध सिद्धान्त विशेष उपयोगी है।

सहसम्बन्ध के प्रकार

 इसके प्रमुख दो उपभेद हैं-

(क) गुणात्मक सहसम्बन्ध (ख) संख्यात्मक सहसम्बन्ध

गुणात्मक सहसम्बन्ध

जब सहसम्बन्ध दो चरों या मापों के गुणों को दृष्टिगत रखकर ज्ञात किया जाता है, तो वह गुणात्मक सहसम्बन्ध कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है-

(क) रेखीय सहसम्बन्ध- जब दो चरों या मापों के युग्म मूल्यों के सम्बन्ध को सरल रेखा द्वारा व्यक्त किया जाता है, तो उसे रेखीय सहसम्बन्ध कहा जाता है। इस प्रकार का सहसम्बन्ध भौतिक एवं अन्य विज्ञानों में पाया जाता है।

(ख) वक्रीय सहसम्बन्ध- जब दो चरों या मापों के युग्म मूल्यों के सम्बन्ध को सरल रेखा द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सके और उसकी अभिव्यक्ति किसी प्रकार के वक्र द्वारा हो तो इसे वक्रीय सहसम्बन्ध कहते हैं। आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में अधिकांशत: वक्रीय सहसम्बन्ध पाया जाता है।

संख्यात्मक सहसम्बन्ध

जब दो चरों या मापों के गुणों या प्राप्तांकों में सम्बन्ध संख्या द्वारा व्यक्त किया जाता है तो इसे संख्यात्मक सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके तीन उपभेद हैं-

(1) धनात्मक सहसम्बन्ध- जब दो समंक मालाओं में होने वाला परिवर्तन एक ही दिशा में हो अर्थात जब एक समंक माला के किसी एक चर मूल्य में वृद्धि होने से दूसरे चर मूल्य में वृद्धि हो तो ऐसा सहसम्बन्ध प्रत्यक्ष या धनात्मक सहसम्बन्ध कहलाता है। गैरिट ने इस सम्बन्ध में लिखा है “धनात्मक सहसम्बन्ध यह संकेत करता है कि एक राशि की बड़ी मात्रा की प्रकृति दूसरी राशि की बड़ी मात्रा की ओर झुकती है।”

(2) ऋणात्मक सद्सम्बन्ध- जब दो समंक मालाओं में होने वाला परिवर्तन विपरीत दिशा में हो अर्थात जब एक समंक माला के चर मूल्यों में वृद्धि हो तो दूसरी समंक माला के चर मूल्यों में कमी आ जाती है अथवा एक में चर-मूल्य घटने से दूसरे के चर-मूल्य बढ़ने लगते हैं तो इसे अप्रत्यक्ष या ऋणात्मक सहसम्बन्ध कहते हैं। गैरिट ने इस विषय में लिखा है- “ऋणात्मक सहसम्बन्ध यह संकेत करता है कि एक चर की थोड़ी राशियाँ दूसरे चर की अधिक राशियों का अनुसरण करती हैं।”

(3) शून्य सहसम्बन्ध- जब दो समंक मालाओं में परस्पर सम्बन्ध न हो अर्थात् जब एक समंक माला के चर-मूल्य में घटाव या वृद्धि का दूसरे चर-मूल्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तो यह शून्य सहसम्बन्ध असंगत सहसम्बन्ध की ओर संकेत करता है।”

सहसम्बन्ध (ρ) =1-6ΣD2/N(N2-1)

सहसम्बन्ध गुणांक

सहसम्बन्ध गुणांक एक अंक होता है। जब हम दो या अधिक पदमालाओं का तुलनात्मक अध्ययन करके यह ज्ञात करना चाहते हैं कि उनमें पारस्परिक सम्बन्ध है या नहीं और है तो धनात्मक है या ऋणात्मक और किस मात्रा तक है? इसे सहसम्बन्ध गुणांक द्वारा व्यक्त किया जाता है। गिलफोर्ड लिखते हैं- “सहसम्बन्ध गुणांक एक अंक होता है, जो हमें बताता है कि दो वस्तुओं का किस सीमा तक सम्बन्ध है और एक अंक में होने वाले परिवर्तन के कारण दूसरी में किस सीमा तक परिवर्तन होता है। “

सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा की व्याख्या

सहसम्बन्ध गुणांक की परिमाणात्मक मात्रा की गुणात्मक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-

1. पूर्ण सहसम्बन्ध- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में परिवर्तन समान अनुपात में तथा एक ही दिशा में होता है तो उनमें धनात्मक पूर्ण सहसम्बन्ध होता है। इसे सहसम्बन्ध गुणांक +1 से व्यक्त किया जाता है।  इसके विपरीत जब दोनों चरों के मूल्यों में परिवर्तन समान अनुपात में परन्तु विपरीत दिशा में होता है तो उनमें ऋणात्मक पूर्ण सहसम्बन्ध होता है। इसे सहसम्बन्ध -1 द्वारा व्यक्त किया जाता है।

2. अति उच्च सहसम्बन्ध- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.81 से +.99 तक हो तो इसे धनात्मक अति उच्च सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके विपरीत अर्थात् -.81 से -.99 होने पर ऋणात्मक उच्च सहसम्बन्ध कहा जाता है।

3. उच्च सहसम्बन्ध- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.61 से +.80 तक होती है तो इसे धनात्मक उच्च सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके विपरीत अर्थात् -.61 से -.80 होने पर ऋणात्मक उच्च सहसम्बन्ध कहा जाता है।

4. साधारण सहसम्बन्ध- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.41 से +.60 तक होती है तो इसे धनात्मक साधारण सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके विपरीत अर्थात् -.41 से -.60 होने पर ऋणात्मक साधारण सहसम्बन्ध कहा जाता है।

5. निम्न सहसम्बन्ध – जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.21 से +.40 तक होती है तो इसे धनात्मक निम्न सहसम्बन्ध कहा जाता है। इसके विपरीत अर्थात् -.21 से -.40 होने पर ऋणात्मक निम्न सहसम्बन्धं कहा जाता है।

6. नगण्य या बहुत कम सहसम्बन्ध – जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों में सहसम्बन्ध गुणांक की मात्रा +.00 से +.20 तक होती है तो इसे धनात्मक नगण्य सहसम्बन्ध कहते हैं। इसके विपरीत अर्थात् -.00 से -.20 होने पर ऋणात्मक नगण्य सहसम्बन्ध कहते हैं।

7. सहसम्बन्ध का अभाव- जब किन्हीं दो चरों के मूल्यों के परिवर्तनों में कोई भी सम्बन्ध न हो तो सहसम्बन्ध का अभाव होता है। इसे सहसम्बन्ध गुणांक शून्य द्वारा व्यक्त किया जाता है।

सह-सम्बन्ध का महत्व या उपयोगिता

सांख्यिकी में सह-सम्बन्ध का सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है। इस सिद्धान्त के जन्मदाता फ्रान्सिस एवं कार्ल पियर्सन हैं। इसके द्वारा वैज्ञानिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में दो या दो से अधिक घटनाओं में आपसी सम्बन्धों का स्पष्टीकरण सम्भव हो पाता है। सह-सम्बन्धों के द्वारा घटनाओं के परिवर्तन के आधार पर सामाजिक घटनाओं की विवेचना की जाती है तथा सह-सम्बन्ध आर्थिक व्यवहारों को समझने में सहायता प्रदान करता है। यह पूर्वानुमानों को अधि कि विश्वसनीय बनाकर वास्तविकता के निकट लाता है। इसकी उपयोगिता तब अधिक होती है. जब एक समूह के प्रत्येक सदस्य के हो अथवा अधिक गुणों को मापा जाता है। सह-सम्बन्ध के प्रमुख उपयोग निम्नलिखित हैं-

(i) पूर्वानुमान- सह-सम्बन्ध का प्रयोग पूर्वानुमान में किया जाता है, जिससे छात्रों को आगे की कक्षाओं में पदोन्नति कर चढ़ाया जा सके।

(ii) विश्वसनीयता- सह-सम्बन्ध का प्रयोग परीक्षणों की विश्वसनीयता का पता लगाने में किया जाता है। सांख्यिकी विधि द्वारा प्रयोग करके यह पता लगाया जाता है कि यह परीक्षण दो विभिन्न समय पर उसी वस्तु का परीक्षण करता है या नहीं।

(iii) वैधता- किसी भी परीक्षण का मूल्य सह-सम्बन्ध द्वारा निकाला जाता है। जब कभी भी परीक्षण बनाया जाता है तो वह दिये प्रश्नों की माप करता है।

(iv) परीक्षण निर्माण- सह सम्बन्ध का प्रयोग परीक्षण निर्माण में भी किया जाता है। जब कभी भी नया परीक्षण निर्मित किया जाता है, तब परीक्षण द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि उसका प्रत्येक एकांक दूसरे से सम्बन्धित है या नहीं अथवा पूरे परीक्षण से सम्बन्धित है या नहीं। इन सब सम्बन्धों का निर्धारण सह-सम्बन्ध की विधि द्वारा किया जाता है।

सहसम्बन्ध को प्रभावित करने वाले तत्व

सहसम्बन्ध को निम्नलिखित प्रमुख तत्व प्रभावित करते हैं-

1. जब संकलित आँकड़ों का न्यादर्श बड़ा होता है तो प्राप्त सहसम्बन्ध गुणांक कम होते हुये भी अधिक सार्थक होता है।

2. जब संकलित आँकड़ों का न्यादर्श छोटा होता है तो .5 से अधिक प्राप्त सहसम्बन्ध गुणांक ही सार्थक माना जाता है।

3. जब प्राप्त आँकड़ों में विचरणशीलता अधिक होती है तो सहसम्बन्ध गुणांक का मान कम होता है।

4. प्राप्त आँकड़ों में विचरणशीलता जितनी ही कम होती है, सहसम्बन्ध गुणांक उतना ही अधिक होता है।

5. वर्गीकृत आँकड़ों में वर्गान्तर का आकार भी सहसम्बन्ध को प्रभावित करता है। यदि वर्गान्तर का आकार बड़ा हो तथा प्राप्तांकों की संख्या कम हो तो सहसम्बन्ध का मान सत्य के अधिक निकट नहीं होगा। वर्गान्तर का आकार सामान्य होने पर सहसम्बन्ध गुणांक अधिक सार्थक होता है।

सहसम्बन्ध गुणांक ज्ञात करने की विधियाँ

सहसम्बन्ध गुणांक ज्ञात करने की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित है-

  1. आलेखीय विधि
  2. विक्षेपचित्र विधि
  3. गुणन विभ्रमिषा विधि
  4. क्रम अन्तर विधि

आलेखीय विधि- यह विधि दो श्रेणियों में सहसम्बन्ध ज्ञात करने की अत्यन्त सरल विधि है। इस विधि द्वारा सहसम्बन्ध की अंकात्मक मात्रा का ज्ञान नहीं होता है वरन् इसकी दिशा और मात्रा का अनुमान लगाया जाता है।

रचना विधि- इसकी रचना में क्रम संख्या, समय और स्थान आदि को य-अक्ष पर और अन्य दोनों सम्बद्ध श्रेणियों को र-अक्ष पर समुचित पैमाना मानकर अंकित करते हैं। तदनुसर जितने पदयुग्म होते हैं, उतने ही बिन्दु ग्राफ पेपर पर अंकित करके दो वक्र अलग-अलग बना लेते हैं। दोनों श्रेणियों के मूल्यों में समानता और समान इकाई में व्यक्त होने पर उन्हें बायीं ओर के र-अक्ष पर ही मापदण्ड लेकर गणनाएँ की जाएँगी। इस प्रकार बने आलेख को सहसम्बन्ध आलेख भी कहा जाता है।

सहसम्बन्ध व्याख्या

1. यदि दोनों श्रेणियों के वक्र साथ-साथ उतार-चढ़ाव प्रदर्शित करते हों तो उनमें धनात्मक सहसम्बन्ध होगा।

2. यदि दोनों श्रेणियों के वक्र विपरीत दशाओं में उतार-चढ़ाव व्यक्त करते हों तो उनमें ऋणात्मक सहसम्बनध होगा।

3. दोनों वक्रों में उतार-चढ़ाव की गति जितनी अधिक समान होगी, उतनी सहसम्बन्ध की मात्रा अधिक होगी।

4. यदि दोनों वक्रों में एक ही दिशा या विपरीत दिशाओं में उतार-चढ़ाव की कोई प्रवृत्ति परिलक्षित न हो तो दोनों में कोई सहसम्बन्ध नहीं होगा।

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Anjali Yadav

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