संयोग श्रृंगार और विप्रलम्भ-शृंगार के लिए बिहारी सिद्धहस्त कवि हैं।
बिहारी को रीतिकाल का रीतिसिद्ध ही नहीं, अपितु रससिद्ध कवि भी स्वीकार किया जाता है। इसका कारण यह है कि उन्होंने दोहा जैसे छोटे छन्द और मुक्तक काव्य में भी रस-योजना की दृष्टि से इतनी अधिक कुशलता का परिचय दिया है, जितनी कुशलता बहुत-से कवि प्रबन्ध काव्यों में भी प्रदर्शित नहीं कर सके हैं। बिहारी ने अपनी सतसई के सम्बन्ध में निम्नांकित उद्गार व्यक्त किए हैं-
हुकुम पाइजयसाहि कौ श्री राधिका प्रसाद ।
करी बिहारी सतसई, भरी अनेक संवाद ।।
अर्थात् मैंने श्री राधिका जी की अनुकम्पा तथा महाराज जयसिंह की आज्ञा से ऐसी सतसई की रचना की है, जिसके दोहे अनेक रसों का आस्वादन करते हैं। बिहारी ने प्रेम को छिछली भावना समझने वालों की निन्दा तथा प्रेम के उदात्त रूप को रेखांकित करते हुए लिखा है-
गिरि ते ऊंचे रसिक मन बूड़े जहाँ हजार।
वह सदा पसु नरन कहँ प्रेम पयोधि पागार ।।
अर्थात् उत्तम प्रकृति के लोगों के लिए तो प्रेम रूपी सागर एक ऐसी पावन निधि है, जिसमें हजारों लोग अपने जीवन को न्यौछावर कर देते हैं। दूसरी ओर उसने ‘छिछली तलैया’ समझने वाले नर-पशुओं का भी उल्लेख किया है। यहाँ प्रेम की वास्तविक महत्ता को न समझकर उस पर टीका-टिप्पणी करने वालों पर गहरा व्यंग्य किया गया है। उनका प्रेम समुद्र की भाँति अटल, निर्वाधित और अनन्त है। बिहारी ने उपचार-निरपेक्ष प्रेम की चर्चा की है-
“नैक न झुरसी बिरह झर, नेहलता कुम्हिलाति।
नित-नित होति हरी-हरी, खरी झालरति जाति ॥ “
बिहारी सतसई में श्रृंगार रस अंगीरस के रूप में आया है। 713 दोहों में से 558 दोहे श्रृंगार रस से सम्बन्धित हैं। इनमें से नायिका भेद पर सर्वाधिक (150) दोहे लिखे गये हैं। उससे कुछ कम (124) प्रेम की विभिन्न अनुभूतियों पर लिखे गए हैं। इसी प्रकार नारी (आलम्बन) के सौन्दर्य-वर्णन की संख्या 110 है। बिहारी ने शृंगार के दोनों पक्षों-संयोग और वियोग के ही विषय में लिखा है। किन्तु उनकी दृष्टि संयोग पक्ष पर अधिक रही है। उन्होंने संयोग पक्ष का अधिक वर्णन किया है, वियोग का कम ।
शृंगार-रस की योजना में नायिका का रूप वर्णन ही अधिकतर कवि का मुख्य आकर्षण केन्द्र रहा है। इसी को शास्त्रीय शब्दावली में ‘नख-शिख’ वर्णन के नाम से अभिहित किया गया है- श्रृंगार रस के आलम्बन विभाव (नायिका) के चित्रण को सुविधा के लिए निम्नलिखित तीन शीर्षकों में विभाजित कर सकते हैं-
- समग्र अंग छवि का सौन्दर्य-चित्रण
- हाव-भावादि के सौन्दर्य का चित्रण ।
- विभिन्न शरीरांगों तथा
- वस्त्राभूषणों का सौन्दर्य चित्रण
1. समग्र अंग छवि का सौन्दर्य-चित्रण- नायिका के सौन्दर्य में उसके विभिन्न शरीरांगों की सुडौलता, मसृणता, कृशता या पृथुता आदि तथ्यों का तो हाथ होता है, किन्तु इसके साथ ही वह बात कुछ और ही होती है, जिसके कारण उसकी समग्र शोभा में चार चाँद लगा करते हैं। इस सम्बन्धों में स्वयं बिहारी का ही एक दोहा अवलोकनीय है-
“अनियारे दीरघ दुर्गानि किसी न तरुणि समान ।
वह चितवन और कछु जेहि बस होत सुजान।।”
अर्थात् मात्र किसी की कटोती और बड़ी-बड़ी आँखें होने से ही वह नायिका मनोहारिणी शोभा नहीं प्राप्त कर लेतीं, बल्कि वह चितवन कुछ और ही प्रकार की हुआ करती है, जो सुजानों को वशीभूत किया करती है। यही कारण है कि बिहारी ने नायिका के विभिन्न शरीरांगों के सौन्दर्य का भी वर्णन किया तो है, किन्तु उन्होंने उसकी समय छवि के अंकन और हाव-भावादि के सौन्दर्य का चित्रण करने में विशेष अभिरुचि प्रदर्शित की हैं।
समग्र छवि का अंकन- बिहारी ने यह प्रदर्शित किया है कि नायिका का सम्पूर्ण सौन्दर्य आकर्षण अत्यधिक प्रभावशाली है। इस प्रकार के सौन्दर्य चित्रण करने से बड़े-से-बड़े कुशल चित्रकार भी असमर्थ हो जाते हैं; जैसे-
“लिखन बैठी जाकी सबी, गहि-गहि गरब गरुर ।
भये न केते जगत के; चतुर्चितेरे क्रूर ।।”
नायिका का सौन्दर्य अनायास ही मन प्राणों को मोहने वाला है, एक अन्य उदाहरण में नायिका के छरहरे शरीर की लावण्य- आभा से अलौकिक कान्ति और दीप्ति अवलोकन कीजिए-
“अंग-अंग छवि की लपट अधवत जानि अछेह ।
झरी पातरिउ तऊ लगै भरी-सी देह ॥”
इस दोहे में सभंगी नायिका के गदराए शरीर के सुडौलता के रूप में उसके बाह्य-सौन्दर्य की झलक प्रस्तुत की गई है तो अंग-अंग में छवि की लपट की दीप्ति का वर्णन करके उसकी शोभा-कान्ति आदि आन्तरिक सुन्दरता का चित्रण किया गया है। बिहारी ने नायिका के इस सलोने सौन्दर्य, अद्भुत मधुरिमा का वर्णन करके इसे रतिभाव का उपयुक्त आलम्बन सिद्ध किया है-
किती मिठास दयो दयि, इहै सलौने रूप।
बिहारी ने आलम्बन-विभाव (नायिका) के अंग-प्रत्यंगों के सौन्दर्य प्रायः परम्परित वर्णन ही किया है, इसमें परम्परागत उपमानों से हटकर नए परिवेश में अगो-प्रत्यंगों का चित्रण किया हैं, जैसे-
“खेलन सीखे अलि, चतुर अहेरी भार ।
कानक चारि नयन मृग नागर नरनु शिकार ।”
अर्थात् नायिका के नेत्ररूपी मृग शिकार बनने के स्थान पर शिकार कर रहे हैं। वह भी नागर (चतुर) व्यक्तियों का इस प्रकार इस कवि की मौलिक उद्भावना ही कही जाएगी। इस प्रकार अलकावती के द्वारा बढ़ी मुखछवि का अनुष्ठापन देखा जा सकता है-
“कुटिल अलक छुटी, परतमुख बढ़िगी इतो उदोतु ।
बँक बंकारी देत ज्यों, दाम रुप्पैया होत।।”
कवि जहाँ पर सम्पूर्ण अंगों का वर्णन करता है वही कुछ नयापन दिखाई देता है, जैसे-
“भूपन भार सम्हारिए, क्यों इहितन सुकुमार।
सुधै पाइए न घर परै, शोभा ही के भार ।।”
इसमें सुकुमार का अनूठा चित्र है, नायिका के आभूषणों का भी भार वहन करने में असमर्थ कहा गया है।
2. हाव-भाव चित्रण- शृंगार रस की परिपुष्टि के क्षेत्र में नायक-नायिका की भंगिमाओं का विशेष हाथ रहता है। काव्याचायों द्वारा भंगिमाएँ दो प्रकार की मानी जाती हैं- स्वाभाविक और सचेष्ट स्वाभाविक भंगिमा वह होती है जिसमें अपने व्यापार के मूल में व्यक्ति का कोई मनोविकार अनुस्थत नहीं रहता। सचेष्ट भंगिमा वह होती है जो सोद्देश्य होती है। शृंगार-काव्य में निरपेक्ष भगिमाओं का कोई महत्व नहीं होता, इसलिए स्वभाविक भंगिमाओं को भी दृष्टा की प्रतिक्रियाओं से बाँध दिया गया है। दूसरे शब्दों में इन भंगिमाओं को नायक की दृष्टि से महत्त्व दिया गया है। उदाहरणार्थ यह दृश्य देखिए-
“जज्यौं उझकि झाँपति वदन, झुकति विहसि सकराइ ।
तत्या गुलालमुठी झुठी झझकावत पिय जाइ ।।”
फाग का अवसर है। नायक-नायिका पर गुलाल फेंकने के लिए प्रस्तुत है। आँखों में गुलाल पड़ जाने के भय से नायिका घूँघट से मुँह ढाँपती है, कुछ-झुक जाती है, फिर हंस देती है, आखिर में झल्ला भी जाती है नायक को उसकी चेष्टाएँ इतनी सुखद प्रतीत होती हैं कि वह फिर-फिर उन्हें देखने की अभिलाषा से झूठ-मूठ को ही मुट्ठी ताने रहता है।
प्रस्तुत संदर्भ में यह दूसरा उदाहरण भी दृष्टव्य है-
“नाक चढ़े सीवी करै, जितै छबीली छैल ।
फिरिफिरि भूलि वह गहै प्यौ ककरील गैल ।।”
रत्नाकर जी के शब्दों में, “नायक-नायिका दोनों कहीं जा रहे हैं। मार्ग का एक भाग तो लोगों के चलते-चलते चिकना हो गया और दूसरा भाग कंकड़ीला है। नायक प्रेम के मारे नायिका को तो अच्छी दुरहरी पर लिवाए जाता है, और स्वयं उनके पाँव में कंकड़ियाँ चुभती हैं, उसकी इस चेष्टा से यह बात ज्ञात करके नायिका प्रेमाधिक्य के कारण उसकी पीड़ा से पीड़ित होकर, सीबी करती हैं और नायक को उस मार्ग पर चलने को बरजती हैं। नायक उसका कहना मानकर कुछ दूर तो इस प्रकार सिमिट कर चलता है कि उसको कंकड़ियाँ न चुर्भे, पर नायिका का वह नाक चढ़ाकर सीबी करना उसे ऐसा भा गया है कि वह फिर जान-बूझकर उसे चिढ़ाने तथा उसकी मोहिनी चेष्टा देखने के निमित्त ऐसा करता है, ताकि वह फिर उसी प्रकार नाक चढ़ाकर सीबी करे। यहाँ सीबी का व्यापार निश्रेष्ठ है, पर नायक को उससे सुखानुभूति प्राप्त होती है। “
हाव-भाव चित्रण का यह दृश्य भी अवलोकनीय है-
“विहंसति सकुचति-सी हियें, कुच-आँचर बिच बाँहि।
भीजे पठ तट को चली न्हाय सरोवर माँहि ।।”
स्तन नारी का सर्वाधिक आकर्षक अंग है। स्नान के उपरान्त झीना वस्त्र उसके शरीर में चिपक जाता है। अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार वह बाँहों से स्तनों को ढक लेती है, कामजन्य डर के अभाव में लज्जा की भावना प्रकट नहीं होती है। एकान्त स्थान में स्नान करती हुई स्त्री के लिए गोपन क्रिया बहुत आवश्यक होती है। यह कामजन्य संकोच दूसरे व्यक्ति के सामने ही उत्पन्न होता है। विशेष रूप से पुरुष के सामने समझने का विषय यह है कि बिहारी की नायिका सरोवर से निकल रही है सरोवर के लिए आवश्यक तट पर बिहारी जैसे रसिकों का जमघट लगा होगा। अतः शालीन नायिका के लिए आवश्यक था कि वह अपनी बाँहों से स्तनों को ढक ले । विद्यापति की सद्यः रहा तो नायिका के सामने कोई पुरुष या नारी नहीं है। इसलिए कवि को उसे नग्न सौन्दर्य के वर्णन में कोई शालीनताजन्य बाधा प्रतीत नहीं हुई। यह शुद्ध लज्जा शालीनता का उदाहरण है। अतः स्वाभाविक भंगिमा के अन्तर्गत आता है।
उपर्युक्त सभी भंगिमाएँ सुन्दर और संवेद्य हैं। गत्यात्मक होने के कारण श्रेष्ठ भी हैं। कवि ने जीवन के यथार्थ प्रसंगों को लेकर चित्र खींचे हैं, जो स्वाभाविक एवं संवेद्य से पूरित हैं-
3. शरीरांगों तथा वस्त्राभूषणों का सौन्दर्यमयी चित्रण- बिहारी ने कोई लक्षण ग्रन्थ नहीं लिखा। फिर भी उनकी दृष्टि से लक्षण ओझल नहीं थे, उन पर रीति परम्परा और शास्त्रीय रूढ़ियों का अधिक प्रभाव था, रीतिकाल में नखशिख वर्णन की बहुलता दिखाई देती है। बिहारी ने नखशिख वर्णन क्रमबद्ध रूप में तो नहीं किया है, लेकिन नारी विभिन्न अवयवों का चित्रण जो भी प्रस्तुत किया है, वे परम्परायुक्त ही हैं-
केस-
“सहज सचिचकन स्याम रुचि सुचि सुगन्ध सुकुमार।
गनत न मन पथ अपथ सखि विपुर सुधरे बार ॥”
मुख-
“पत्रा ही तिथि पाइए वा घर के चहुँ पास।
नित्य प्रति ही रहत आनन ओप उजास ।।”
नायिका के उरोजों का वर्णन करते समय कवि सौन्दर्य के संहारक व्यंजना का आश्रय लेता है, रसिक नायिका की दृष्टियाँ ही मेरु कूच पर पड़ती हैं, वह वहाँ से फिसलकर सदा के लिए चिबुक के गड्ढे में जाकर गिरती हैं-
“कूच गिरि चढ़ि अति थकित है, चलि ठुडि मुँह गाड़।
फिरि नहरि परे रहि गिरि चिब्रूकि गाढ़ ।।’
इसके अतिरिक्त बिहारी ने कटि-नितम्ब, जंघा, एड़ी, नाखून आदि के सौन्दर्य का वर्णन भी किया है। जैसे-
कटि-
लगि अनलगि सीजु विधिकरी खरी काटि खीन।
किए मौन ही कसर कूच नितम्ब अति पीन ।।
जंघा-
जंघ जुगन लोइ निरे करै मनौ विधि मैन।
केलि तरुन दुख दैन, ए कटि तरुन सुख छैन ।।
एड़ी-
पाइ महावर दैन कौ नाइन बैठी आइ।
फिरि-फिरि जानि महावरि, एड़ी भीदुति जाइ ।।
नखशिख- नखशिख वर्णन में यद्यपि बिहारी ने अतिरंजना से काम लिया है, तथापि बिहारी के उपमानों तथा उत्प्रेक्षाओं की मौलिकता का अपना ही महत्व है।
वय: सन्धि को प्राप्त नायिका की शृंगारिक चेष्टाएँ- संयोग का दूसरा पक्ष वयः सन्धि के बाद प्रारम्भ होता है। नायिका को प्रेम का आभास होता है और वह अनुभव करती है कि यह क्या है, जो उसके मर्म को स्पर्श करता है। बरबस उसकी आँखें कहीं, किसी में उलझ जाती हैं। नायक का साथ नायिका को मिलने लगता है, नायिका का संकोच दूर होने लगता है। नवोढ़ा के इसी रूप को बिहारी ने निम्नांकित रूप में स्पष्ट किया है-
“हँसि ओठनु-बिच करू उजै, किये रिचा हैं नैन।
खरै अरै प्रिय कैं प्रिया, लगी बिरी मुख दैन ।”
प्रेम को क्रीड़ा का रूप देने के लिए नवोढ़ा नायिका ‘आँख मिचौनी’ के खेल में नायक को आलिंगन करने का अवसर देती है-
“दोऊ चोर मिहीचरी, खेलु व खेलि अघात ।
दुरत हयैं लपटाइ कै छुवत हियै लपटात ॥”
एक स्थान पर नायक और नायिका दोनों की चेष्टाओं का एक साथ वर्णन करके बिहारी ने संयोग शृंगार का सुन्दर चित्र अंकित किया है-
“कहत नटत रीझत, खिझत मिलत खिलत लजियात।
भरे मौन में करत हैं, नैननु हीं सौ बात ।।”
इसी क्रम में बिहारी की कुछ सुरतिमूलक मुद्राओं का भी उल्लेख किया जा सकता है-
“न्हाइ, पहिरि पटु डटि कियौ बैंदी-मिसि परनासु ।
दृग चलाइ घर को चली बिदा किए घनश्यामु ।। “
नायिका भेदों का भी बिहारी ने सुन्दर वर्णन किया है। प्रौढ़ा की क्रीड़ाएँ अपेक्षाकृत मुक्त और झिझकहीन होती हैं, अटारी पर स्थित नायिका की संयोग क्रीड़ा दृष्टव्य है-
“छिनकु चलिति, ठिठुकति छिनकु, भूज प्रीतम गल डारि ।
चढ़ि अटा देखन घटा बिज्जु छटा-सी नारि ॥”
बिहारी का मन स्वकीया मुग्धाओं से अधिक ‘परकीया मुग्धाओं के संयोग वर्णन में अधिक रमा है, क्योंकि उसमें उत्कंठा की अपार तीव्रता होती है। मध्या में वाणी का संयम होता है, वह प्रिय के अपराध को लाक्षणिक शब्दावली में ही प्रकट करती है-
“पलनु पीक, अंजुन अधर, घरे महावरू भाल।
आजु मिलै, समली करि, भले बनै हौ लाल ।’
सात्विक भावों की योजना – कविवर बिहारी ने रसों के भावपूर्ण चित्रण के अन्तर्गत संयोग शृंगार रस का जो चित्र प्रस्तुत किया है उसमें एक महत्वपूर्ण चित्र यह भी है कि इसमें सात्विक भावों का अत्यधिक उन्मेष हुआ है। इस आशय का एक दोहा इस प्रकार दिया जा रहा है-
“स्वेद सलिल रोमांच कूच गहि दुलही अरुनाथ।
दियौ हियौ संग हाथ के हथलैबे ही हाथ ।।”
इस दोहे में ऐन्द्रिय-चेतना को तीव्रतर बनाने में पूर्ण सक्षम स्पर्शजनित सात्विक अनुभावों का चित्रण करके कवि ने अपने रस सिद्धान्त का सुन्दर परिचय दिया है।
उद्दीपन विभाव की योजना- कविवर बिहारी ने उद्दीपन और आलम्बन विभाव दोनों ही क्षेत्रों में कमाल की सफलता दिखाई है, इसलिए यह कहना अत्यन्त समाचीन ही होगा कि कवि ने दोनों ही क्षेत्रों में लगभग समान ही सफलता और श्रेय प्राप्त किया है। आलम्बन उद्दीपन से सम्बन्धित यह चित्र अत्यन्त दर्शनीय है-
“गदराने तन गोरटी, एयन आड़ लिलार ।
हठयो दे इठलाइ जुग करै, गँवारी सुखार ।।”
कविवर बिहारी ने षट्ऋतु वर्णन से सम्बन्धित अनेक दोहों की रचनाएँ की हैं। दक्षिण दिशा से आने वाली पवन का एक अत्यन्त मादक और उद्दीपन चित्र कवि ने इस तरह किया है।
“चुअत स्वेद मकरद कन, तरु-तरु तर विरमाइ ।
आवतु दच्छिन देस ते, थपयो बटोही आइ ।।”
इसी तरह कवि ने वन विहार, नट-पान, हास-परिहास से सम्बन्धित उद्दीपन विभाव पर चित्र अंकित किए हैं। वन विहार करने पर श्रमपूर्ण नायिका की दशा का सुन्दर दृश्य इस तरह बिहारी सतसई में मिलता है-
“चलित ललित श्रम स्वेद कन, ललित अरुन मुख लैन ।
वन विहार थाकी तरुनि, खरे थकायै नैन ।”
वियोग श्रृंगार से संयोग श्रृंगार की भाव स्थिति में अनुभाव से उत्पन्न हावों और भावों का मोहक वर्णन यत्र-तत्र बिहारी सतसई में दिखाई देते हैं। इस प्रकार के हाव का यह चित्र देखिए-
“सुनि यग घुनि चितई इतै न्हाति दियौ ही गोठ ।
चकी झुकी सकुची, डरी, हँसी तजी सो दीठि ॥”
एक अन्य स्थल पर नायिका को नायक के स्पर्श सुख की प्रतीति हो जाए। इसी भ्रम में बावरी होकर वह नायक की पतंग की छाया छूने को आँगन में दौड़ती फिरती है-
“उड़ति गुडी लखि लाल की अंगना- अंगना माँह ।
बौरी-सी दौरी फिरति छुवति छबिली छाँह ।।”
कवि ने धैर्य और शालीनता से सुरतान्त के वर्णन भी किए हैं-
“नीठि-नीठि उठि बैठि हूँ प्यौ प्यारी परभात ।
दोऊ नींद भरै खरै, गरै लागि, गिरि जात ॥”
अभिप्राय यह है कि “शास्त्रीय दृष्टि से विशेषण करने पर बिहारी का संयोग श्रृंगार सफलता की कसौटी पर पूर्णतः खरा उतरता है। आज के कवि मनोविज्ञान की आड़ में शृंगार के अन्तर्गत काम भावना के विकृत रूप को प्रस्तुत करते हैं और बिहारी जैसे रसज्ञ और मर्मस्पर्शी कवि के वर्णनों को अश्लील कहकर नाक-भौं सिकोड़ने का अभिनय करते हैं। बिहारी के सर्जन कर्म को उन्होंने सतही दृष्टि से देखा है जबकि बिहारी का एक-एक दोहा अपने आप में प्रबन्ध है। उनकी सारी सतसई एक विशाल चित्र वीथिका है जिसमें विभाव, अनुभाव और संचारी भावों की स्थूल-से-स्थूल और सूक्ष्म से सूक्ष्म दशाओं के मार्मिक, सजीव एवं स्वाभाविक चित्र हैं। विलक्षण कल्पना प्रतिमा-पाटव तथा पैनी अन्तर्दृष्टि की तूलिका से जो फड़कता रंगरूप इन चित्रों को प्राप्त हुआ है, वह बिहारी जैसे कुशल-कलाकार का अपना चमत्कार है।”
आचार्य शुक्ल ने बिहारी की शृंगार रस योजना की प्रशंसा करते हुए लिखा है-
” शृंगार रस के ग्रन्थों में जितनी ख्याति और जितना मान बिहारी सतसई का हुआ उतना और किसी का नहीं। इसका एक-एक दोहा – हिन्दी साहित्य में रत्न माना जाता है। इनके दोहे क्या हैं ? रस की छोटी-छोटी पिचकारियाँ हैं। वे मुँह से छूटते ही श्रोता को सिक्त कर देते हैं।”
बिहारी की श्रृंगारिक महत्ता के संदर्भ अन्ततः पं० पद्मसिंह शर्मा का वह मत अवलोकनयी है-
“ब्रजभाषा के साहित्य में बिहारी सतसई का दर्जा बहुत ऊँचा है। अनूठे भाव और उत्कृष्ट काव्यगुणों की खान है। व्यंग्य और ध्वनि का आकार है। संस्कृत कवियों में कवि-कुल-गुरु कालीदास जिस प्रकार शृंगार-रस वर्णन, प्रसाद गुण, उपमालंकार आदि के कारण सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं, उसी प्रकार हिन्दी कवियों में बिहारीलाल जी का आसन सबसे ऊंचा है। शृंगार रस वर्ण पद विन्यास, चातुरी, माधुर्य, अर्थ गाम्भीर्य स्वभावोक्ति और स्वाभाविक बोल-चाल आदि में वह अपना जोड़ नहीं रखते। “
डॉ० शिवकुमार शर्मा के शब्दों में कहा जा सकता है कि-
” बिहारी रीतिकाल के एक सजग कलाकार हैं। वे वचन भंगिमा के सिद्धहस्त हैं। बिहारी की वैयक्तिक और उनके युग की परिसीमाएँ उनके साथ हैं। उनके द्वारा चित्रित जीवन कहीं-कहीं मटमैला और गन्दला है, पर आखिर धरती का ही तो जीवन है। इतना तो निश्चित है कि बिहारी और उनकी सतसई का एक ऐतिहासिक महत्व है। जैसे चन्दबरदाई, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त और जयशंकर के बिना काव्य के विभिन्न युगों का इतिहास नहीं लिखा जा सकता, वैसे ही रीतिकाल के दो सौ वर्षों कड़ी टूटी हुई दिखाई देगी, यदि उसमें से बिहारी का नाम निकाल दिया जाए। बिहारी का काव्य उस युग की रुचियों और प्रवृत्तियों का एक सुन्दर निदर्शन है।”
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