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समायोजन का क्या अर्थ है? सुसमायोजित व्यक्ति के लक्षण बताईये। अथवा परिवार और विद्यालय बालक के समायोजन में किस प्रकार बाधक और सहायक सिद्ध हो सकते हैं?
समायोजन का क्या अर्थ है?
समायोजन की व्याख्या मनोवैज्ञानिकों ने समायोजन की व्याख्या दो दृष्टिकोणों से की है- (अ) समायोजन – एक निष्पत्ति के रूप में तथा (ब) समायोजन – एक प्रक्रिया के रूप में प्रथम दृष्टिकोण समायोजन की गुणता या कार्य-कुशलता पर बल देता है और दूसरा दृष्टिकोण उस प्रक्रिया की ओर संकेत करता है जिससे मनुष्य बाह्य वातावरण के साथ समायोजन करता है। अब हम दोनों दृष्टिकोणों की सविस्तार व्याख्या करेंगे।
समायोजन को एक मानसिक प्रक्रिया के रूप में समझा जाना चाहिए क्योंकि इसमें मन की सभी शक्तियां कार्य करती हैं। इस संबंध में बोरिंग, लैंग्फेल्ड तथा वेल्ड ने ठीक ही कहा है कि “समायोजन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा जीवित प्राणी अपनी आवश्यकताओं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में संतुलन रखता है।” इससे स्पष्ट है कि समायोजन व्यक्ति के द्वारा अथवा पशु के द्वारा की जाने वाली वह सचेतन क्रिया है जिसमें वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति एवं आवश्कताओं तथा परिस्थितियों में संतुलन स्थापित करता है, तभी तो वह अपना कार्य व्यवहार उचित ढंग से करने में समर्थ होता है।
(अ) समायोजन निष्पत्ति- के रूप में- निष्पत्ति के रूप में समायोजन का अर्थ – है कि व्यक्ति कितनी कुशलता के साथ विभिन्न परिस्थितियों में अपने कर्तव्यों का पालन कर सकता है। व्यापार, सेना तथा शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे कार्यकुशल तथा सुसमायोजित व्यक्तियों की आवश्यकता है जो राष्ट्र का विकास कर सकते हैं।
यदि हम समायोजन की व्याख्या निष्पत्ति के रूप में करते हैं तो हमें उन कसौटियों का निर्धारण करना पड़ेगा जिनके आधार पर हम व्यक्ति के समायोजन की गुणता का मूल्यांकन कर सकें।
अच्छे समायोजन की कसौटियां (विशेषताएँ)
समायोजन की कसौटियों का निर्धारण हमेशा के लिए नहीं किया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक समुदाय की संस्कृति तथा मूल्य भिन्न-भिन्न होते हैं और वे समय की मांग तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। मनोवैज्ञानिकों द्वारा सुसमायोजन की कुछ कसौटियों का निर्धारण किया गया है जो निम्नवत हैं-
(1) शारीरिक स्वास्थ्य – व्यक्ति को सिर दर्द, अलवर, मंदाग्नि तथा बदहजमी आदि शारीरिक रोगों से मुक्त होना चाहिए। इन रोगों का कारण कभी-कभी मनोवैज्ञानिक होता है जो शारीरिक कुशलता में गिरावट ला सकता है।
(2) मनोवैज्ञानिक शांति – इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति में किसी प्रकार के मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक रोग नहीं होने चाहिए। यदि किसी भी प्रकार के मनोवैज्ञानिक विकार पाये जाते हैं तो उसके लिए मानसिक चिकित्सकों की सलाह लेनी चाहिए।
(3) कार्य की कुशलता – यदि मनुष्य अपनी सामाजिक तथा व्यावसायिल, क्षमताओं का पूर्ण उपयोग करता है तो उसे हम समाज में सुसमायोजित व्यक्ति कह सकते
(4) सामाजिक स्वीकृति – प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक स्वीकृति की अभिलाषा रखता है। यदि व्यक्ति समाज के मूल्यो, मानकों, विश्वासों आदि के अनुरूप आचरण करता है तो हम उसे सुसमायोजित कह सकते हैं किन्तु यदि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज विरोधी क्रियाओं द्वारा करता है तो उसे हम कुसमायोजित व्यक्ति कहते हैं।
( ब ) समायोजन एक प्रक्रिया के रूप में – मनोवैज्ञानिकों के लिए समायोजन – एक प्रक्रिया के रूप में अधिक महत्व रखता है। समायोजन की प्रक्रिया का विश्लेषण करने के लिए हमें व्यक्ति के विकास का लम्बवत् अध्ययन करना चाहिए। बालक जन्म के समय अपनी बुनियादी आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए पूर्णरूपेण दूसरों पर निर्भर करता है। लेकिन धीरे-धीरे वह उम्र के साथ-साथ अपनी आवश्यकताओं को नियंत्रित करना सीख लेता है। उसका समायोजन अब मुख्य रूप से उसके बाह्र वातावरण जिसमें वह रहता है, पर निर्भर करेगा। जब बच्चा पैदा होता है, उस समय यह संसार एक बहुत बड़ा भ्रमजाल प्रतीत होता है वह अपने वातावरण की वस्तुओं को पहचानने, उनमें अंतर स्थापित करने में असमर्थ होता है किन्तु जैसे-जैसे वह परिपक्व होता है वैसे-वैसे वह संवेदन, प्रत्यक्षण तथा संप्रत्ययन की प्रक्रियाओं द्वारा अपने वातावरण की वस्तुओं को पहचानने लगता है। शैशवावस्था में बालक वातावरण की मूर्त वस्तुओं के प्रति ही अनुक्रिया करता है। प्रत्याहार की प्रक्रिया बाद में आरंभ होती है। शिशुगण अपनी मूल प्रवृत्तियों पर भी नियंत्रण स्थापित करने में असमर्थ होते हैं। समायोजन का स्वभाव कई कारकों (आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य मांगों द्वारा) से निर्धारित होता है।
जब कोई संघर्ष की स्थिति आंतरिक आवश्यकताओं तथा बाह्य मांगों द्वारा उत्पन्न होती है तो व्यक्ति के समक्ष तीन विकल्प होते हैं, प्रथम व्यक्ति अपनी आंतरिक आवश्यकता या मांग का दमन करे, द्वितीय- वह वातावरण में अपनी आवश्यकताओं और मांगों की पूर्ति के लिए वांछित परिवर्तन करे तथा तृतीय- वह अपनी मानसिक प्रतिरक्षात्मक युक्तियों का प्रयोग संघर्ष की स्थिति से बचने तथा व्यक्तित्व के संतुलन को बनाये रखने के लिए करता है।
पीगेट (1925) ने समायोजन प्रक्रिया का अध्ययन दूसरे दृष्टिकोण से किया है। उसने आत्मीकरण का अभियोजन को समायोजन का दो प्रमुख साधन बतलाया है। एक व्यक्ति जो कि अपने मूल्यों तथा मानकों को समाज की परिवर्तित परिस्थितियों में अपरिवर्तित रखता है उसे आत्मीकरणकर्ता कहते हैं और जो व्यक्ति सामाजिक संदर्भों से अपने मूल्यों तथा मानकों को बदल लेता है और जो अपने विश्वासों तथा मान्यताओं को परिवर्तित सामाजिक – मूल्यों के अनुसार करता है वह अभियोजक कहलाता है।
बालकों में कुसमायोजन हेतु उत्तरदायी कारण
परिवार और विद्यालय, बालकों में कुसमायोजन के लिए निम्नलिखित कारणों से उत्तरदायी होते हैं—
(1) कुरूपता एवं विकलांगता- गिलबर्ट का विचार है कि विकलांग एवं कुरूप बच्चे हीन भावना से ग्रसित होते हैं। इसके कारण वे स्वयं को समायोजित नहीं कर पाते तथा असंतुलित व्यवहार करते हैं।
(2) परिवार का वातावरण- माता-पिता के बीच परस्पर विवाद, उनमें सम्बन्धविच्छेद पारिवारिक सदस्यों की असामाजिक गतिविधियों आदि के कारण छात्र असहज अनुभव करता है तथा सुसमायोजित नहीं हो पाता। प्राकृतिक वातावरण के दोषपूर्ण एवं प्रतिकूल होने पर भी बालक कुसमायोजन के शिकार हो जाते हैं।
(3) मविष्य की चिन्ता- कुछ बालक अपने भविष्य की अधिक चिन्ता के कारण कुसमायोजन की ओर चले जाते हैं। यदि बालक अपने भावी पेशे व व्यवसाय का चयन करने के बारे में अधिक सोचने लगते हैं तो वे सुसमायोजन नहीं कर पाते।
(4) सामाजिक व धार्मिक रीति- रिवाजों से टकराव बालकों को अपने सामाजिक व धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुकूल व्यवहार व आचरण करना पड़ता है। जब वे तर्क के आधार पर अपना व्यवहार तय करने लगते हैं तो कभी-कभी सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं तथा बालकों के निर्णयों में टकराव होने लगता है जो कि उन्हें कुसमायोजन की ओर प्रवृत्त करता है।
(5) मनोवैज्ञानिक न्यूनता- ऐसे बालक जिनमें बुद्धि, याददाश्त, चिन्तन अथवा समस्या को हल करने की क्षमता कम होती है दे अध्ययन में पीछे रह जाने से अपने समूह में भी पिछड़ जाते हैं। इससे उनमें भय व हीनता जैसे नकारात्मक भाव आ जाते हैं। इससे वे कुसमायोजन का शिकार हो जाते हैं।
(6) विद्यालय का पर्यावरण जब किसी बालक के व्यक्तित्व का विद्यालय में सम्मान नहीं किया जाता, उसकी इच्छाओं को महत्व नहीं दिया जाता, उसे अपने विचार व्यक्त नहीं करने दिए जाते, उसे भय के वातावरण में रहना पड़ता है तो वह कुसमायोजन में चला जाता है।
( 7 ) अन्य कारण- उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त निम्नलिखित कारण भी बालकों के कुसमायोजन के लिए जिम्मेदार होते हैं
- पास-पड़ोस का मतावस्म गन्दा वातावरण,
- योग्यता एवं क्षमता से अधिक अपेक्षा करना,
- अधिक शारीरिक एवं मानसिक भार डालना,
- मनोरंजन हेतु समय एवं साधन उपलब्ध न होना आदि इसके लिए उत्तरदायी हैं।
समायोजन वास्तव में जीवन के साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया कही जाती है। यदि समायोजन या संतुलन नहीं रहता है तो जीवन की सुधारता समाप्त हो जाती है। इसे स्पष्ट हुए गेट और उनके सहयोगी लेखकों ने बताया, “समायोजन लगातार चलने वाली प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने और अपने पर्यावरण के बीच अधिक समरूप संबंध रखने के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तन करता रहता है। ” इस प्रकार से समायोजन के कारण मनुष्य का व्यवहार बदलता है और इस परिवर्तन में उसके व्यवहार में सुधार और संगठन होता है।
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