हिन्दी साहित्य

सूफी काव्य धारा के प्रमुख कवियों का परिचय

सूफी काव्य धारा के प्रमुख कवियों का परिचय
सूफी काव्य धारा के प्रमुख कवियों का परिचय

सूफी काव्य धारा के प्रमुख कवियों का परिचय दीजिए।

प्रेमाख्यान काव्य और जायसी

जीवन वृत्तः सूफी कवियों में सर्वश्रेष्ठ मलिक मुहम्मद जायसी के जन्म सम्वत् के सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना कठिन है। हां, अन्तःसाक्ष्य के आधार पर अनुमानतः इस विषय में अवश्य कुछ कहा जा सकता है। जायसी ने अपनी रचना ‘आखिरी कलाम’ में एक स्थान पर लिखा है-

भौ अवतार मोर नौ सदी।

तीस बरस ऊपर कवि वदी ।

अर्थात् वे नवीं सदी हिजरी में जन्मे थे और तीन वर्ष की अवस्था में उन्होंने आखिरी कलाम का प्रणयन आरंभ कर दिया था। जायसी के आखिरी कलाम की रचना 936 हि० में से 30 वर्ष निकाल देने पर 906 हि० सन् आता है जो कि इनका जन्म संवत् स्वीकार किया जा सकता है। उन्होंने अपनी रचना पद्मावत में शेरशाह को शाहे वक्त बताया है-“शोरशाह देहली सुलतानू, चारित खंड तपै जस भानू।” शेरशाह का शासन काल 947 हि० से आरंभ होता है। पद्मावत का रचना काल उन्होंने 927 हि बताया है-

सन नव से सताइस थहा,

कथा आरंभ वैन कवि कहा।

कुछ विद्वानों ने यहां 927 के स्थान पर 947 हि उपयुक्त माना है। उनके कथनानुसार इस प्रकार जायसी के शेरशाह सूरी के समसामयिक होने में कोई असंगति नहीं आती। परन्तु हमारे विचार में यह मत असमीचीन है। कवि ने कथा का आरंभ तो 927 हिजरी में कर दिया था, परन्तु जब कथा समाप्ति पर आई उस समय शेरशाह दिल्ली की गद्दी पर आसीन हो चुके थे। बंगाल के कवि अलाबल ने पद्मावत का जो अनुवाद बंगला में किया है उसमें उसने इसका रचना काल 927 हि० ही बताया है। अस्तु, अन्तःसाक्ष्य के आधार पर हम कह सकते हैं कि इनका जन्म 906 ई० में अर्थात् सन् 1448 में हुआ। इनकी मृत्यु सन् 1542 में बताई जाती है। 911 हि में एक बहुत बड़ा भूकम्प आया था और 912 में सूर्य ग्रहण भी हुआ था। जायसी ने अपनी रचनाओं में इन दोनों बातों का उल्लेख किया है।

निवास स्थान- “जायस नगर मोर अस्थान” के अनुसार जिला रायबरेली में जायस नगर में ये जन्मे। जायस नगर में जन्म लेने के कारण ही ये जायसी कहलाये। डॉ. सुधाकर द्विवेदी तथा आचार्य प्रियर्सन ने निम्नांकित पंक्तियों के आधार पर-

जायस नगर मोर अस्थान,

तहां आई कवि कीन्ह बखानू । तथा

तहां दिवस दस पाहुने आएऊं।

अनुमान लगाया है कि जायसी किसी दूसरे स्थान से आकर यहां बसे थे, किन्तु शुक्ल जी का कहना है कि ये जायस नगर के ही निवासी थे। मेहमान तो वे साधक के नाते थे। दूसरे, यहां पर लाक्षणिक प्रयोग ही है। जायसी ने अपनी रचनाओं में अन्य किसी स्थान का उल्लेख नहीं किया है।

गुरु- इन्होंने अपने पीर के सम्बन्ध में स्वयं लिखा है-

सैय्यद अशअफ पीर हमारा।

जेहि मोहि पंथ दीन्ह उजियारा ॥

माता-पितादि- इनके पिता का नाम मलिक शेख ममरेज या मलिक राजे अशरफ था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु के कारण ये साधुओं और फकीरों की संगति में रहने लगे। किंवदन्तियों के अनुसार जायसी का विवाह भी हुआ था और इनके पुत्र मकान के नीचे दबकर मर गये थे। अन्तःसाक्ष्य के द्वारा यह स्पष्ट है कि जायसी कुरूप, एक नेत्र से विहीन तथा एक कान से रहित थे। यह सब कुछ शीलता के प्रकोप का फल था। एक दफा जब शेरशाह ने इनकी कुरूपता का उपहास उड़ाया तो इन्होंने बड़े शांत भाव से उत्तर दिया “मोहि का हंससि के कोहरहिं ?” अर्थात् तुम मुझ पर हंसे हो या उस कुम्हार (ईश्वर जिसने मुझे बनाया है) पर ? शेरशाह अत्यंत लज्जित हुए और इनका अत्यधिक सम्मान किया। अमेठी नरेश रामसिंह भी इन पर बड़ी श्रद्धा रखते थे। जायसी उनके गुरु थे। कहा जाता है कि जायसी के आशीर्वाद के फलस्वरूप अमेठी नरेश के यहां पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ था। भगवान ने जहां इन्हें रूप देने में कृपणता दिखाई थी, वहां शुद्ध प्रेमपरायण हृदय देने में तथा मधुर कंठ प्रदान करने में उतनी ही उदारता दिखाई थी। जायसी के नागमती के बारहमासे के नीचे के दोहे से अमेठी नरेश बहुत प्रभावित हुए थे-

कंवल जो विगसा मानसर बिन जल गएउ सुखाय ।

रूखि वेल फिर पलुहै जो पिउ सींचे आय ॥

इनका प्राणान्त अमेठी के आस-पास के जंगलों में एक शिकारी के तीर से हुआ। अमेठी नरेश ने जायसी की यहीं पर एक समाधि बनवा दी, जो अब भी मौजूद है।

रचनाएँ- अभी तक जायसी की तीन रचनाएं प्रकाश में आई हैं- (1) आखिरी कलाम 927-936 हि. (2) पद्मावत 927-947 हिo, (3) अखरावट पद्मावत के बाद की रचना। आखिरी कलाम और अखरावट का साम्प्रदायिक दृष्टि से महत्व है. साहित्यिक दृष्टि से कुछ महत्व नहीं। आखिरी कलाम में सृष्टि के अन्त तथा मुहम्मद साहब के महत्व का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि सृष्टि के अन्त में क्या अवस्था होती है तथा उस समय जिब्राइल आदि फरिश्ते क्या करते हैं। यह सूफी सिद्धांतों का ग्रंथ है।

अखरावट में ईश्वर, जीव, ब्रह्म, सृष्टि-निर्माण, गुरु तथा धर्माचार आदि की सैद्धान्तिक विवेचना की गई। कवि की आध्यात्मिक विचारधारा के अध्ययन के लिए अखरावट का अध्ययन आवश्यक है। इसकी रचना बारह खड़ी प्रणाली पर की गई है।

‘पद्मावत’ हिन्दी साहित्य का एक अनमोल रत्न है। इसमें रत्नसेन और पद्मावती की लौकिक प्रेम कहानी के द्वारा अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना की गई है। जहाँ दूसरे सूफी कवियों ने अपने प्रेमाख्यानों में काल्पनिक कहानियां अपनाई वहां जायसी ने पद्मावत में लोकप्रचलित कथा में ऐतिहासिकता का भी सुन्दर समन्वय कर दिया है। इस ग्रंथ की एक खास विशेषता है कि इसमें प्रेम की साधना और सिद्धि दोनों अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। पद्मावत बाबर के शासन काल की सहानुभूतिशीलता और उदारता का साहित्यिक रूप है। सहिष्णुता, समन्वयात्मकता और संग्राहक बुद्धि का उदय उस युग की एक खास विशेषता है। इसी पंथरत्न के द्वारा वे हिन्दू-मुस्लिम हृदयों के अजनबीपन को मिटाने में समर्थ हो सके थे। पद्मावत को अन्योक्ति काव्य न कहकर समासोक्ति काव्य कहना अधिक समीचीन है। इस पंथ के बीच-बीच में रहस्यवाद की सुन्दर सृष्टि हुई है। इस ग्रंथ का सांस्कृतिक तथा साहित्यिक दोनों दृष्टियों से बहुत महत्व है। इसकी प्रबन्ध कुशलता दर्शनीय है। इसमें केवल ऐकान्तिक प्रेम ही नहीं बल्कि लोक-पक्ष भी है। विप्रलंभ शृंगार के वर्णन में जायसी अपने उपमान आप ही हैं। निःसन्देह प्रेम के उदात्त स्वरूप की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की दृष्टि से पद्मावत हिन्दी का सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ है। फ्रेंच और इंगलिश आदि भाषाओं में उसका अनुवाद भी हो चुका है। बाबू गुलाबराय के शब्दों में-

“जायसी महान कवि हैं, उनमें कवि के समस्त सहज गुण विद्यमान हैं। उन्होंने सामयिक समस्या के लिए प्रेम की पीर की देन दी। उस पीर की उन्होंने शक्तिशाली महाकाव्य के द्वारा उपस्थित किया। वे अमर कवि हैं।”

जायसी काव्य का लोक-पक्ष- कबीर हिन्दू-मुसलमानों के कट्टरपन को फटकार चुके थे। कबीर की भर्त्सनामयी वाणी का प्रभाव पण्डितों और मुल्लाओं पर तो नहीं पड़ा किन्तु साधारण जनता राम और रहीम की एकता मानने लगी थी। बहुत दिनों तक दोनों एक-दूसरे के साथ रहने के कारण परस्पर अपना हृदय खोलने लगे थे। हिन्दू-मुसलमानों की दास्तान हमजा सुनने को तैयार हो चुके थे तो मुसलमान हिन्दुओं की राम कहानी सुनने के लिए लालायित हो उठे थे। मुसलमान हिन्दुओं की नल-दमयन्ती की कथा को जानने लगे थे तो हिन्दू लैला-मजनू की। दोनों एक-दूसरे के साथ बैठकर सामान्य मार्ग की सलाह भी कर लिया करते थे। इधर आचार्य और महात्मा भगवत्-प्रेम की लीला और महिमा गा रहे थे तो उधर सूफी इश्के हकीकी की। हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच साधुकता का सामान्य आदर्श प्रतिष्ठित हो गया था। बहुत से मुसलमान फकीर अहिंसा का सिद्धान्त स्वीकार कर मांस भक्षण को बुरा कहने लगे थे। ऐसे समय में कुछ भावुक मुसलमान फकीर प्रेम की पीर की कहानियां लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे। ये कहानियां हिन्दुओं के घरों की थीं। इनकी मधुरता और कोमलता का अनुभव करके इन कवियों ने यह दिखा दिया कि एक ही गुप्त तार मनुष्य मात्र के हृदय में विद्यमान है जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूप-रंगों के भेदों की ओर से ध्यान हटाकर एकत्व का अनुभव करने लगता है।

अमीर खुसरो ने दोनों जातियों के हृदयों के योग करवाने में बहुत कुछ काम किया परन्तु अलाउद्दीन की कट्टरता के कारण दोनों हृदय दूर खिंच गए थे। कबीर की अटपटी वाणी से दोनों दिल साफ न हो सके। मनुष्य-मनुष्य के बीच में जो रागात्मक सम्बन्ध है, वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के व्यवहार में जिस हृदय साम्य का अनुभव मनुष्य कभी-कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। जिस प्रकार दूसरी जाति या मत वालों का हृदय है, इसी प्रकार हमारे यहां भी है, प्रिय का वियोग जैसे दूसरे को व्याकुल करता है वैसे हमें भी, माता का जो हृदय दूसरे के यहां है वह हमारे यहां भी है, जिन बातों से दूसरों को सुख-दुःख होता है, वैसे ही हमें भी, इस तथ्य का प्रत्यक्षीकरण जायसी की प्रेम कहानी द्वारा हुआ। अपनी प्रेम कहानियों द्वारा उन्होंने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए सामान्य जीवन की उन दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्य-मात्र के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में दोनों हृदयों को आमने-सामने रखकर अजनबीपन मिटाने वालों में उन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। उन्होंने मुसलमान होकर हिन्दुओं की कहानी को हिन्दुओं की बोली में सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी वह जायसी द्वारा पूरी हुई।

इन प्रेम गाथाओं का समय बाबर के समय से लेकर मुगल साम्राज्य के अन्त तक रहा। कबीर का ज्ञान शुष्क होने के कारण सर्वप्रिय न बन सका। बाबर के समय में सहानुभूतिपूर्ण वातावरण ने सभी को उदार बना दिया था। उसी उदारता का साहित्यिक रूप ये कहानियां हैं। सबके प्रति सहिष्णुता, सबमें समन्वयता और सबमें संग्राहक बुद्धि का उदय इस युग की विशेषता थी और ये सभी तत्व जायसी में पूर्णतः स्पष्ट हुए हैं। पद्मावत उस युग की साधना ही सिद्ध हुई और उसके प्रतिनिधि हुए जायसी । उनका यह उदघोष सर्वत्र गूंज उठा-

बिरछि एक लागी डारा, एकहि ते नाना परकारा।

माता के रकत पिता के बिन्दू उपने दुवौ तुरक और हिन्दू

यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जायसी कबीर की अपेक्षा कहीं अधिक जन-जीवन के निकट पहुंचे थे। लोक समूह के लिए कहानी का माध्यम सबसे आकर्षक होता है। कहानी में अद्भुत घटनाओं का समावेश, लोकप्रचलित धर्म एवं विश्वासों का अवलम्ब और बोलचाल की भाषा को अपनाना ऐसे तत्व हैं, जो जायसी में मिलते हैं और ये उपकरण जायसी को लोक कवि बना देते हैं। जायसी ने जहां हिन्दू घराने की लौकिक प्रेम कहानी के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना की वहां हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों का भी समन्वय किया।

जायसी हठयोग से तो प्रभावित थे ही, साथ-साथ हिन्दू जीवन के लोकप्रिय सिद्धांतों से भी परिचित थे। उन्होंने अपनी कथा को हिन्दू धर्म की प्रधान बातों पर आधारित किया और उनकी हंसी न उड़ाकर गम्भीरतापूर्वक उन्हें सामने रखा। जहाँ उन्होंने अवधी भाषा का प्रयोग किया, वहां भारतीय छंदों-दोहा, चौपाई आदि का भी सुन्दर निर्वाह किया। हिन्दू संस्कृति के अंतर्गत अनेक दार्शनिक और धार्मिक बातों की चर्चा की हालांकि यह चर्चा अनेक रूपों में अपूर्ण है। उनका संयोग और वियोग शृंगार यद्यपि मसनवी शैली से प्रभावित है पर अन्ततः हिन्दू संस्कृति के आधार पर ही है। उन्होंने हिन्दू पात्रों में हिन्दू आदशों की प्रतिष्ठा की है। पात्रों का चरित्र-चित्रण हिन्दू जीवन से साम्य रखता है। इनके पात्र दो प्रकार के हैं-सतोगुणी और तमोगुणी । अन्त में पुण्य की पाप पर विजय होती है। इनका पॠतु वर्णन और बारहमासा वर्णन हिन्दू शैली में हैं। इन्होंने अलंकारों के वर्णन में भी हिन्दी-काव्य की परिपाटी का अनुसरण किया है। लगता है जैसे कि ये मुसलमान संप्रदाय के हिन्दू अनुयायी हों और शरीर से अभारतीय होते हुए भी हृदय से भारतीय हों। जायसी ने यद्यपि मसनवी शैली के प्रेम का स्वरूप प्रधान रखा किन्तु बीच-बीच में भारत के लोक-व्यवहारों का समावेश भी उसमें हो गया है। उनका पद्मावत लोकपक्ष से शून्य नहीं है। राजा का जोगी होकर घर से निकलना, माता तथा रानी का उसे रो-रोकर रोकना, रत्नसेन तथा पद्मावती का रस रंग वर्णन, विदा होते समय पद्मावती की सखियों का दुःख, प्रथम समागम के समय व्रीड़ा और आशंका, सपत्नी कलह, पति के भावी अनिष्ट से घबराकर पद्मावती का राघवचेतन को स्वर्ण कंकण देना, शिव आदि अनेक देवी-देवताओं का उल्लेख, दाम्पत्य जीवन के साथ-साथ यात्रा और युद्धादि का वर्णन, मातृस्नेह, स्वामिभक्ति, वीरता, कृतघ्नता, छल और सतीत्व आदि विषयों के समावेश से इनकी प्रेम कहानी एकांगी होने से बच गई है, किन्तु फिर भी इसमें रामचरित मानस के समान मनुष्य जीवन के विभिन्न सम्बन्धों और परिस्थितियों की विविध झांकियां नहीं हैं। राजा के बन्दी होने पर रानी के विरह व्याकुल हृदय में उद्योग और साहस का अच्छा प्रदर्शन किया गया है। वह गोरा बादल के पास जाकर उन्हें राजा की मुक्ति के लिए तैयार करती है। नागमती पति-परायणा आदर्श हिन्दू पत्नी के रूप में चित्रित की गई है। अभिसार, पासा खेलना और ज्यौनार आदि का वर्णन भी पद्मावत में उपलब्ध होता है। पुरुषों के बहु-विवाह से उत्पन्न प्रेम की व्यावहारिक जटिलता का वर्णन दार्शनिक ढंग से किया गया है। गोरा बादल की क्षात्र तेज से परिपूर्ण प्रतिज्ञा, दूरी के आने पर पद्मावती के सतीत्व गौरव की अपूर्व व्यंजना, लोभ-निन्दा, दान-महिमा और रिश्वत आदि की बुराई की बातें प्रत्यक्षतः लोक जीवन से सम्बद्ध हैं। अपने पद्मावत में सैरंध्री, गांगेय, भीष्म, पारथ आदि पौराणिक नामों का भी इन्होंने उल्लेख किया। पौराणिक जानकारी इन्हें थी तो अवश्य पर वह पक्की नहीं थी। इन्होंने नारद को शैतान के रूप में रखा है। स्वर्ग को आसमान कहा है। रत्नसेन को रावण की उपमा दे दी और चन्द्रमा को स्त्री के रूप में चित्रित किया। इनके पद्मावत में भारतीय ज्योतिष, हठयोग, कामशास्त्र और रसायन शास्त्र की बातों का भी उल्लेख है।

हिन्दी के प्रेमाख्यानों में जायसी का स्थान निश्चित रूप से सर्वोच्च है और उनका पद्मावत हिन्दी के प्रेमाख्यान-परम्परा का एक जगमगाता रत्न है। इन्होंने ईरान या ईराक के शहजादों तथा शहजादियों की प्रेम कथा को न कहकर हिन्दू राजकुमार तथा राजकुमारी की कथा कही है और उसे पूर्ण भारतीय संस्कृति के रूप में उपस्थित किया है। कथा के बीच-बीच में पीर और पैगम्बरों की अवतारणा न करके साधु-सन्तों और शिव आदि की अवतारणा की है। यह कहना कि जायसी ने पद्मावत के ब्याज से इस्लाम का प्रच्छन्न रूप से प्रचार करना चाहा है, सर्वथा भ्रम होगा।

निःसन्देह इनके पूर्व कबीर आदि सन्त ‘अरे इन दोउन राह न पाई’ कहकर हिन्दू-मुस्लिम एकता की नींव डाल चुके थे पर वे अपनी भर्त्सनामयी वाणी तथा ज्ञान की शुष्कता के कारण इस दिशा में अधिक सफल न हो सके। कबीर ने अपने निर्गुण पर प्रेम और माधुर्य का आवरण चढ़ाया तो अवश्य किन्तु वह उसकी झीनी बीनी चदरिया के समान इतना झीना था कि उसमें निर्गुण की शुष्कता न छिप सकी और कबीर की ज्ञान-महल की सेज सूनी पड़ी रही। जायसी ने प्रेम की अत्यंत मनोवैज्ञानिक पद्धति के द्वारा बड़ी कोमलता और काव्यमयता के साथ हिन्दू-मुस्लिम हृदयों के अजनबीपन को मिटाया।

जायसी का रहस्यवाद – रहस्यवाद आत्मा की वह स्थिति है जबकि वह बाह्य वस्तुओं से सम्बन्ध तोड़कर भावनामय लोक में पहुंच जाती है, जहाँ वह अपने और परमात्मा के बीच एकरूपता का अनुभव करने लगती है और उसे एक अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती हैं। जायसी में सूफी रहस्यवाद पूर्ण रूप में पाया जाता है किन्तु वे भारत के कवि थे अतः उनके रहस्यवाद पर अद्वैतवाद की भावना का भी यथेष्ट प्रभाव है। सूफी कवियों ने अपने प्रेम कथानकों की प्रेमिका को परमात्मा का प्रतीक माना है और प्रेमी को आत्मा जायसी ने भी अपनी प्रेम कहानी में पद्मावत को परमात्मा और रत्नसेन को आत्मा के रूप में कल्पित करके अनेक लौकिक प्रसंगों से अलौकिक पक्ष का संकेत किया है। जायसी ने जगत् के समस्त पदार्थों को ईश्वरीय छाया से उद्भासित कहा है। उनके काव्य में समस्त प्रकृति उस प्रियतम के समागम के लिए उत्कंठित दिखाई पड़ती है। पद्मावत का प्रेम खंड रहस्यवाद का सुन्दर निदर्शन है। नख-शिख वर्णन तथा अन्य कुछ वर्णन भी रहस्यवादी प्रवृत्ति लिये हुए हैं। पद्मावत सम्पूर्ण रूप से रहस्यवाद को खोजने का प्रयास बुद्धि-विलास के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। इसी प्रकार पद्मावत को अन्योक्ति काव्य न कहकर समासोक्ति काव्य कहना अधिक समीचीन है।

रत्नसेन हीरामन तोते के द्वारा पद्मावती के नख-शिख के सौन्दर्यमय वर्णन को सुनकर बेसुध हो जाता है, उसे इस अवस्था में परम ज्योति के आनन्द की अनुभूति होने लगती है, जिसके भंग होने पर उसे ऐसा लगता है जैसे कोई बावला जायत अवस्था को प्राप्त हो गया हो। रत्नसेन नवजात बालक के समान रोता हुआ कहता है कि हाय मैंने ज्ञान खो दिया, हाय मैं अमरपुर को जाकर फिर मृत्युलोक में कैसे वापस आ गया-

जब भी चेत उठा बैरागा। बाउर जनों सोई उठि जागा।

आवत जग बालक जस रोवा उठा रोड़ हा ज्ञान खो खोवा।।

हों तो रहा अमरपुर जहाँ इहां मरनपुर आय हु कहाँ।

उन्होंने प्रकृति के कण-कण में परोक्ष ज्योति और सौन्दर्य की झलक देखी है-

रवि, ससि, नखत दिपहिं ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती ॥

जहं जहं विहंसि सुभावहं हंसी। तह तह छिटिक जोति परगसी ।।

जायसी ने यद्यपि यह दिखाया है कि परमात्मा की ज्योति सर्वत्र व्याप्त है तथापि उन्होंने अपने अन्तर को भी परमात्मा के प्रकाश से रहित माना है। उनका यह कथन है कि परमात्मा हृदय में निहित है, केवल उसके साक्षात् कराने वाले की आवश्यकता है-

पिउ हृदय महे भेट न होई। को रे मिलाव कहीं केहि रोई ।।

जिस दिन जीव को उक्त रहस्य का पता चलता है तो उसी दिन वह विरह ज्वाला में दग्ध होने लगता है, उसे समस्त जगत् प्रियतम के विरह-बाणों से विद्ध दिखाई देता है-

उन्ह बानन अस को जो न मारा ? बेधि रहा सगरो संसारा ।।

गगन नखत जो जाहिं न गर्ने। वै सब बान ओहि कै हनै ।।

जायसी की तीव्र विरह अनुभूति बहुत कम कवियों में पाई जाती है। उनका विश्वास है कि प्रेम में ही प्रियतम निवास करता है-

पेमहिं माह विरह सरसा। मेन के घर वधु अमृत बरसा।

इस विरह की चरम अनुभूति ही मानस में प्रियतम के सामीप्य को दृष्टिगोचर कराती है और उससे जो आनन्द प्राप्त होता है, वह विश्व में व्याप्त दिखाई देता है-

देख मानसर रूप सोहावा। हिय हुलास पुरइनि होइ छाया ।।

भा अंधियार रैन मसि छूटी। भा भिनुसार किरन रवि फूटी ।।

कंवल विगस तज विहंसि देहि भंवर दसन होई के रस लेहि ।।

जायसी के पद्मावत के अन्त में जो निम्नांकित संकेत कोष दिया है उससे भी उनकी रहस्यवादी प्रवृत्ति अर्थात् लौकिक प्रेम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना का आभास मिलता है-

तन चितउर मन राउर कीन्हा

हिय सिंहल बुधि पदमिनि चीन्हा ॥ आदि,

इस प्रकार हम देखते हैं कि इनका रहस्यवाद सूफी रहस्यवाद के अनुकूल है और साथ-साथ उसमें भारतीय अद्वैतवाद की भी झलक है। आचार्य शुक्ल का कहना है कि हिन्दू कवियों में यदि रमणीय और सुन्दर अद्वैतवादी रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही उच्च कोटि की है।

इसके अतिरिक्त इनमें साधनात्मक रहस्य भी उपलब्ध होता है, जहां इन्होंने योग की नौ पौरी आदि का वर्णन किया है। कुछ आलोचकों ने रत्नसेन तथा पद्मावती के रतिरंग के वर्णन में आध्यात्मिक अर्थ लगाना चाहा है, किन्तु यह उनका व्यर्थ का प्रयास है। ऐसे प्रसंगों में अश्लीलता आ गई है। वहां परोक्ष सत्ता का आभास नहीं मिला। डॉ० कुलश्रेष्ठ के शब्दों में, “जिस प्रकार सागर की कुछ लहरें सागर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती उसी प्रकार जायसी का पद्मावत रहस्यवादी काव्य नहीं कहा जा सकता। हम उसे रहस्यवादी काव्य नहीं कह सकते हैं। हम उसे सरलता से लौकिक प्रेमगाथा का रूप दे सकते हैं।”

कबीर और जायसी का रहस्यवाद- आचार्य शुक्ल का इस विषय में कथन है कि “कबीर में जो कुछ रहस्यवाद मिलता हैं वह बहुत कुछ उन पारिभाषिक संज्ञाओं के आधार पर जो वेदान्त तथा हठयोग में निर्दिष्ट हैं पर इन प्रेम प्रबन्धकों ने बीच-बीच मैं जिस रहस्यवाद के संकेत किए हैं, वे स्वाभाविक तथा मर्मस्पर्शी हैं।” शुक्ल जी के अनुसार जायसी में शुद्ध भावनात्मक रहस्यवाद मिलता है और कबीर में चिन्तनात्मक । आचार्य श्यामसुन्दरदास के अनुसार कबीर हिन्दी के आदि रहस्यवादी कवि हैं और इनमें शुद्ध भावात्मक रहस्यवाद की सुन्दर सृष्टि हुई है। हम यहां कबीर और जायसी के रहस्यवाद के मौलिक अन्तर को स्पष्ट करेंगे। जायसी के लिए रहस्यात्मकता कबीर की भांति साध्य नहीं है। इन्होंने कथा के बीच समासोक्ति द्वारा कई स्थलों पर परोक्ष सत्ता की ओर सुन्दर संकेत किये हैं। कबीर ने अपने प्रियतम का साक्षात्कार केवल अन्तस्तल में किया है। बाह्य जगत इनके लिए मिथ्या और माया का प्रतीक है। जबकि जायसी ने उस परम ज्योति की छटा जहां अन्तस्तल में देखी- “पिठ हिरदय मह भेंट न होई। को रे मिलाव कहौ केहि रोई।” वहां बाह्य जगत में भी उसी दीप्ति को द्योतित देखा- “रवि ससि नखत दिपत ओह जोती।” यही कारण है कि जायसी के रहस्यवाद में अपेक्षाकृत अधिक मर्मस्पर्शिता तथा अनेकरूपता है। कबीर का रहस्यवाद साधना क्षेत्र में आता है जबकि जायसी का रहस्यवाद भावना क्षेत्र में ये दोनों भारतीय अद्वैतवाद से प्रभावित हैं। अद्वैतवाद का अर्थ है आत्मा और परमात्मा का एकत्व तथा जगत और ब्रह्म का एकत्व। जायसी के लिए जगत तथा प्रकृति मिथ्या नहीं है। इनके लिए प्रकृति के कण-कण में वह ब्रह्म व्याप्त है और प्रकृति-प्रेमी अपने प्रियतम के मिलनार्थ विरहातुर है। कबीर की दाम्पत्य भावना भारतीयता से प्रभावित है। इन्होंने आत्मा को पत्नी तथा परमात्मा को पति माना है। जबकि जायसी की दाम्पत्य भावना विदेशीपन को लिए हुए है। जायसी ने आत्मा – रत्नसेन को पति और पद्मावती परमात्मा को पत्नी रूप में कल्पित किया है। जायसी के रहस्यवाद में मिलनातुरता और तड़प दोनों हैं। जायसी का आराध्य आराधक के लिए उतना ही तड़पता है जितना कि आराधक स्वयं और इसका कारण है जायसी के हृदय की प्रशस्त द्रवणशीलता ।।

आत्मा-परमात्मा की एकता दो साधनों से संभव है-एक कोरी साधना से तथा हठयोग की प्रक्रिया से और दूसरा सर्वात्मना भाव से अपने-आपको ईश्वर में मिला देने से। इस प्रकार रहस्यवाद दो प्रकार का होता है- साधनात्मक तथा भावात्मक । साधनात्मक रहस्यवाद में चिन्तन की प्रधानता है और इसमें हठयोग का लेखा-जोखा भी होता है। भावात्मक रहस्यवाद में भावावेश की प्रधानता है। साधक इसी के द्वारा संसार में अद्वैत सत्ता का अनुभव करने लगता है। कबीर रहस्यवाद की उक्त प्रथम श्रेणी में आते हैं जबकि जायसी दूसरी श्रेणी में । भावात्मक रहस्यवाद को शुद्ध रहस्यवाद माना गया है। जायसी में भी हठयोग का प्रभाव है। वैसे तो दोनों रहस्यवादी कवि हैं किन्तु इनके रहस्यवाद के प्रकार तथा मात्रा में अंतर है। एक साधना क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं तो दूसरे भावना क्षेत्र के । कबीर मुख्य रूप से चिन्तक हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि उनमें भावात्मक रहस्यवाद है ही नहीं। कबीर की विरहिणी आत्मा जहां प्रिय-मिलन के लिए तड़प उठी है, वे चित्र निःसन्देह मार्मिक और हृदयस्पर्शी हैं किन्तु ऐसे चित्र अपेक्षाकृत कम हैं। जायसी प्रेम पीर के प्रचारक हैं। रहस्यवाद में विरहानुभूति अत्यंत आवश्यक है। विरह में अमरत्व का गुण है। वियुक्ति जीव में विरह व्यथा का होना अनिवार्य है। जायसी विरह परमाणुओं से बने हुए थे और उनकी प्रत्येक सांस विरह की थी। रहस्यवाद प्रेम की अकथ कहानी है। रहस्यवाद के तीन अंग हैं- विरह, प्रयत्न और मिलन । जायसी में इन सभी दशाओं का खुलकर वर्णन मिलता है। उनके अनुसार सूर्य की विरह की आग में तप्त है। समासोक्ति के आधार पर इन्होंने प्रयत्न और मिलन के अतीव मनोरम चित्र उतारे हैं।

कबीर और जायसी दोनों रहस्यवादी कवि हैं। दोनों सन्त और फकीर हैं। दोनों का ईश्वर निराकार है। दोनों का उद्देश्य परम सत्ता के साथ एकत्व स्थापित करना है। दोनों में साधना, प्रेम और ज्ञान है। जायसी में प्रेम की प्रधानता है जबकि कबीर में ज्ञान की। दोनों हठयोग तथा भारतीय अद्वैतवाद से प्रभावित हैं। किन्तु दोनों में प्रकार और मात्रा का भेद है। कबीर की प्रणय- भावना भारतीय है जबकि जायसी की सूफी मत से प्रभावित । कबीर के लिए जगत मिथ्या है जबकि वह जायसी के परम-ज्योति के दिव्य सौन्दर्य से अनुप्राणित है। कबीर साधनात्मक क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं जबकि जायसी भावात्मक और साधनात्मक दोनों के शुद्ध रहस्यवाद कबीर की अपेक्षा जायसी में अधिक है।”

पद्मावत अन्योक्ति अथवा समासोक्ति- समस्त पद्मावत में रूपक तत्व ढूंढ़ना व्यर्थ होगा। वस्तु-वर्णन में कवि ने कई प्रसंगों में ऐसे विशेषणों का प्रयोग किया है जिससे प्रस्तुत अर्थ के साथ अप्रस्तुत अर्थ का भी बोध अनायास हो जाता है। उदाहरणार्थ- सिंहलगढ़ के वर्णन के प्रसंगों में नौ पौरी, तथा दसवें दरवाजे वाले नगर का संकेत पाठक को अपने नौ छिद्रों और दसवें ब्रह्मरन्ध्र वाले शरीर का बोध करा देते हैं। राजा रत्नसेन बन्दी बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। वहां कवि ने इस प्रसंग को रखते हुए भी दिल्ली को परलोक के रूप में प्रस्तुत किया है। अर्थ-द्योतन की इस पद्धति को सप्मासोक्ति पद्धति कहा गया है। समासोक्ति एक अलंकार है, जिसमें समान विशेषणों के बल पर अप्रस्तुत प्रस्तुत की व्यंजना की जाती है। इसमें अभिधेयार्थ तथा व्यंग्यार्थ दोनों को मुख्यता दी जाती है। इसे विशेषण-विशेष्य-विच्छिति मूलक अलंकार कहा गया है। यह अन्योक्ति और श्लेष दोनों से भिन्न है। अन्योक्ति में व्यंग्यार्थ को मुख्यता दी जाती है, जैसे-“बाज पराये पानि परि तू पच्छीनु न मारि” में बाज और पक्षियों की प्रधानता नहीं है। इसमें मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा मुगलों के आश्रय में हिन्दू राजाओं के सताये जाने की बात मुख्य है। समासोक्ति में दोनों पक्ष प्रधान रहते हैं जैसे रत्नसेन को बन्दी बनाकर दिल्ली भेजने के प्रसंग में, जहां दिल्ली का अप्रस्तुत अर्थ परलोक लिया जायेगा वहां इसके प्रसंगत घटनात्मक अर्थ को छोड़ा नहीं जा सकता है। पद्मावत की कथा को प्रस्तुत मानकर व्यंग्य द्वारा हम आध्यात्मिक अर्थ लगाते हैं। श्लेष और समासोक्ति में भी अंतर है। श्लेष में कवि दो अर्थ बताने के लिए वचनबद्ध होता है। किन्तु समासोक्ति में यह आवश्यक नहीं कि कवि आदि से अन्त तक दोनों अर्थों का निर्वाह करता जाय। हां, जहाँ उसे मौका मिल जाता है, वह विशेषणों के प्रयोग से अप्रस्तुत अर्थ की भी अभिव्यंजना कर देता है। जायसी ने अपने प्रबन्ध काव्य में इसी समासोक्ति पद्धति को अपनाया है। ग्रंथ के अन्त में दिये गये-

तन चितउर मन राउन कीन्हा ।

के सम्बन्ध में आचार्य द्विवेदी का कहना है-“काव्य के अन्त में ‘तन चितउर मन राउर कीन्हा’ का जो संकेत है वह मूल ग्रंथ का नहीं है। पद्मावत की प्राचीन प्रतियों से यह बात सिद्ध हो चुकी है। इसलिए जो लोग पद-पद पर पद्मावत में रूपक-निर्वाह की बात सोचते हैं वे गलती करते हैं। पद्मावत का कवि रूपक निर्वाह के लिए प्रतिज्ञाबद्ध नहीं है।” वैसे पद्मावत के अन्त में आजकल मिलने वाले संकेत कोश में रूपक का निर्वाह कहां तक बन पड़ा है, प्रासंगिक रूप से इसकी समीक्षा कर लेना अनुपयुक्त नहीं होगा। यहां सचा साधक राजा रत्नसेन मन का प्रतीक है, पद्मिनी ईश्वर से मिलने वाला ज्ञान या बुद्धि है अथवा चैतन्य स्वरूप परमात्मा है। उसकी प्राप्ति का मार्ग बताने वाला सुआ सद्गुरु है, नागमती दुनिया धन्धा है, राघव चेतन शैतान है और अलाउद्दीन माया है। वास्तव में नामगती को दुनिया धन्धा कहना उसके साथ अन्याय है। वह एक आदर्श भारतीय पत्नी है जो कि विलास की अपेक्षा पति दर्शन को ही अधिक महत्व देती है। तोता यदि गुरु है तो उसे मार्जारी का भय क्यों ? अलाउद्दीन को माया कहा गया है और नागमती को दुनिया । माया और दुनिया धन्धा प्रायः एक ही चीज है। पद्मिनी को सिंहल द्वीप माना गया है जो कि गोरखपंथ का सिद्धि पीठ है, नहीं तो शुक्ल जी के मतानुसार वहां का सौन्दर्य कोई आकर्षक नहीं और वहां के लोग काले होते हैं। इस संकेत कोश को देखते हुए कतिपय और प्रश्न भी सहज ही में उठ पड़ते हैं- रत्नसेनन और सिंहल दोनों मन के प्रतीक क्यों बनाये गये ? मनःरूपी रत्नसेन का ज्ञान रूपी पद्मिनी से मेल हो जाने पर माया रूपी अलाउद्दीन और शैतान रूपी राघवचेतन द्वारा उनका विच्छेद क्यों ? शैतान और माया का काम साधक के मार्ग में व्याघात उपस्थित करना होता है, तब राघवचेतन और अलाउद्दीन को कथा के पूर्वार्ध में भी आना चाहिए था। इस विवेचन के पश्चात् ऐसा लगता है कि यह अंश प्रक्षिप्त है और ग्रंथ का मूल अंश नहीं। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इतनी व्यापक कथा में सर्वत्र आध्यात्मिकता का प्रतिपादन जायसी का उद्देश्य नहीं है। हाँ, प्रसंगवश समासोक्ति द्वारा जहां वे परोक्ष सत्ता का संकेत कर सके वहां आध्यात्मिकता अवश्य है। आचार्य द्विवेदी का इस सम्बन्ध में कहना है कि “परोक्ष सत्ता की ओर संकेत करने का उत्साह जायसी में इतना अधिक है कि वे ऐसे प्रसंगों को मानो खोजते फिरते हैं जिससे परोक्ष सत्ता की ओर इशारे करने का मौका मिल सके। ऐसा मौका बाह्य चित्रण में अधिक मिलता है जैसे सिंहल गढ़, उसके बगीचे, मानसरोवर, पद्मावती का बाह्य रूप आदि।” जायसी में भी महाकवि बाण की-सी वर्णन-विस्तार प्रियता है। कहीं-कहीं इन्होंने छोटी सी बात को भी इतना विस्तार दे दिया है कि विषय के विश्लेषण में सारी आध्यात्मिकता खो सी जाती है। पद्मावती और रत्नसेन के प्रथम मिलन के प्रसंग में किये गये प्रेम वर्णन में रूपक तत्व या आयात्मिकता खोजना व्यर्थ होगा। अन्त में हम डॉ० कुलश्रेष्ठ के शब्दों में कह सकते हैं- “जिस प्रकार सागर की कुछ लहरें सागर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकतीं उसी प्रकार जायसी का पद्मावत रहस्यवादी काव्य नहीं कहा जा सकता। हम इसे सरलता से लौकिक प्रेम गाथा का रूप दे सकते हैं।”

पद्मावत का महाकाव्यत्व- निःसंदेह पद्मावत हिन्दी का महाकाव्य है। पृथ्वीराज रासो को विशाल काव्य भले ही कहा जा सकता है, किन्तु महाकाव्य नहीं क्योंकि उसमें व्यापक जातीय चेतना का अभाव है। महाकाव्य के सभी लक्षणों का इस ग्रंथ में सम्यक निर्वाह हुआ है। कथा का पूर्वार्ध लोकप्रचलित और काल्पनिक है तथा उत्तरार्ध ऐतिहासिक। इसका नायक राजकुल से सम्बद्ध है। पूरी कथा 52 सर्गों, जिन्हें खंड कहा गया है, में विभक्त है। इसमें नाटक की सभी संधियां मिलती हैं। कथावस्तु में वस्तु वर्णन भी यथास्थान हुआ है। इसमें प्रधान रस शृंगार है किन्तु अन्य रसों का भी समावेश है। इसमें ऐकान्तिक प्रेम कहानी ही नहीं बल्कि लोकपक्ष का भी सुन्दर समन्वय हुआ है। कथा में स्वाभाविक प्रवाह है। इसमें एक महाकाव्योचित कल्पना. आन्तरिकता तथा बाह्य अनुभूतियों और विचारों का अत्यंत कलात्मक प्रकाशन हुआ है। मंगलाचारण, सज्जनप्रशंसा तथा दुर्जन निंदा आदि सभी बातें मिलती हैं।

काव्य समीक्षा- जायसी के काव्य में प्रधानता रसराज शृंगार की है। पद्मावत में श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनो का अच्छा परिपाक हुआ, किन्तु उसमें प्रधानता वियोग पक्ष की है। नागमती के माध्यम से वर्णित विप्रलम्भ शृंगार इनके अक्षय यश का एक आलोक स्तंभ है। इस क्षेत्र में कदाचित् ही कोई अन्य हिन्दी कवि इनकी समता कर सके। एक तो विरह जनित प्रेम में एक विलक्षण तीव्रता, अनिर्वचनीय क्रियाशीलता तथा निराली तड़प होती है, दूसरे जायसी ने अपने प्रेम विधुर हृदय की कोमल • वेदना के अविरल आंसुओं से भिगोकर उसमें मणि-कांचन योग कर दिया है। जायसी के विरह वर्णन में इतनी व्यापकता, तीव्रता, मार्मिकता और तन्मयता है कि समस्त जगत् जड़ एवं चेतन उससे द्रवीभूत हो जाता है। उनके विरह की व्यापकता का एक चित्र देखिए-

नैनन चली रकत के धारा, कंथा भीजि भएउ रतनारा ।।

सूरज बूडि उठा हुई राता, औ मजीठ टेसू बन राता ।।

औ बसन्त राती वनस्पती, औ राते सब जोगी जती ।।

यहां प्रकृति के द्वारा सहानुभूति प्रदर्शित की गई है। अंग्रेजी कवि रस्किन ने संवेदना को हेत्वाभास (Pathetic Falacy) कहा है। जायसी के ऐसे कथन कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, किन्तु इनका लाक्षणिक अर्थ लेने पर प्रभावाधिक्य का भी बोध होता है। सूर ने भी कृष्ण विरह में प्रकृति को व्यथित दिखाया है। किन्तु इस विषय में उन्होंने कुछ अधिक मार्यादा से काम लिया है। सूर ने प्रकृति के वे ही अंग लिए हैं जो कृष्ण से सम्बद्ध थे। यमुना के विरह ज्वर से काले पड़ने पर गोपियां मधुवन से पूछ उठती हैं- “मधुवन तुम कत रहत हरे ?” साहित्य में विरह वर्णन के प्रकरण में पशु, पक्षी, पुष्प और पादपों से प्रियतम का पता पूछने के उदाहरण तो मिल जाते हैं जैसे कालिदास के मेघदूत में विरही यक्ष धुएं और जल के संघात बदल को अपनी प्रेमिका के लिए सन्देश देता है, राम सीता के वियोग में वन के खग, मृग और मधुकर श्रेणी से अपनी मृगनयनी के सम्बन्ध में पूछते हैं, किन्तु किसी पक्षी ने व्यथित होकर विरही के साथ सहानुभूति प्रदर्शित की हो, ऐसी नवीनता केवल जायसी में ही मिलेगी। नागमती रत्नसेन के विरह में वन-वन में दिन-रात विलख और कलप रही है-

फिरि-फिरि रोय कोई नहिं डोला, आधी रात विहंगम बोला।

तू फिरिफिरि दाहे सब पांखी, केहि दुख रैन न लाघसि आंखी ।।

पद्मावत के प्रेम में किसी प्रकार की न्यूनता नहीं है फिर भी नागमती के विरह में एक विशेष तीव्रता और मार्मिकता है। नागमती को पति वियोग तो था ही साथ-साथ सपत्नी के प्रति ईर्ष्याभाव ने उसे और भी तीव्र बना दिया था। वह विरह में जलकर कोयला हो गई, उसके शरीर में तोला भर मांस न रहा, उसमें रक्त तो नामात्र को भी न था। जायसी के शब्दों में-

हाड़ भये सब किंगरी, नसै भई सब तांति ।

रोम रोम से धुनि उठें, कहौ विधा केहि भांति ॥

नागमती एक आदर्श हिन्दू महिला है। उसमें पतिभक्ति पूर्ण रूप में विद्यमान है। उसके प्रेम में ऐन्द्रियता की अपेक्षा मानसिक पक्ष की प्रधानता है। उसमें एक महान त्याग है जो उसे बहुत ऊंचा उठा देता है-

मोहि भोग सो काम न बारी, सौह दिस्टि की चाहनि हारी ।।

नागमती के विरह-वर्णन में बारहमासा का एक विशेष स्थान है। प्रत्येक मास की प्राकृतिक दशा के साथ नागमती के हृदय के शोक और हर्ष की जो अभिव्यंजना की गई है वस्तुतः अनुपम है। नागमती के निम्नांकित शब्दों में कितनी स्वाभाविकता, कितना दैन्य, कितनी उत्कंठा और कितनी प्रेम-निष्ठा है, इसका एक विरही हृदय ही अनुमान लगा सकता है-

यह तन जारी छार कै, कहौ कि पवन उड़ाय ।

मकु तिहि मारग उड़ि परै, कन्त धेरै जहं पाय ।

नागमती का व्यथापूर्ण सन्देश अत्यंत हृदयहारी बन पड़ा है-

पिउ सो कहेउ संदेसड़ा, हे भौरा हे काग।

सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहिक धुआं हम लाग ॥

आचार्य शुक्ल नागमती के विरह के सम्बन्ध में लिखते हैं-“नागमती के इस विरह वर्णन में जायसी ने यद्यपि कहीं-कहीं ऊहात्मक पद्धति का सहारा लिया है, फिर भी उसमें गाम्भीर्य बना हुआ है। बिहारी की विरह-व्यंजना की भांति उसमें उछल-कूद और मजाक नहीं है। जायसी की अत्युक्तियां बात की करामात नहीं जान पड़तीं हृदय की अत्यंत तीव्र वेदना के शब्द संकेत प्रतीत होते हैं। फारसी की काव्य शैली से प्रभावित होने के कारण जायसी का विरह-वर्णन कहीं-कहीं वीभत्स हो उठा है, परन्तु जहां कवि ने भारतीय पद्धति का अनुसरण किया है वहां कोई अरुचिकारी वीभत्स दृश्य नहीं आने पाया। “

संयोग पक्ष- जायसी को अपने पद्मावत में जितनी सफलता वियोग-पक्ष में मिली है उतनी संयोग पक्ष में नहीं। यद्यपि उनका यह पक्ष भी सजीव है और इस दिशा में उन्होंने काफी मर्मस्पर्शी चित्र अंकित किए हैं, पर उनमें इतनी व्यापकता, तीव्रता और गंभीरता नहीं जितनी कि विप्रलम्भ शृंगार में है। इन्होंने संयोग- शृंगार के वर्णन में षट्-ऋतु का वर्णन किया है, जो कि आकर्षक है। रत्नसेन तथा पद्मावती के प्रथम समागम का बड़ा विशद वर्णन किया है और उसमें कुछ हास्य विनोद का भी विधान किया है। समागम के समय के हाव भावों के वर्णन में कहीं-कहीं तो कोरी छेड़-छाड़ है जो फटकार और अश्लीलता की कोटि में पहुंच जाती है। प्रेमिका के वार्तालाप में श्लेप और अन्योक्ति द्वारा वाक्चातुर्य दिखाया गया है जो रसचर्वणा में सहायक की अपेक्षा बाधक सिद्ध हुआ है। समागम की रसधारा के बीच रसायनशास्त्र के लम्बे ब्यौरे देकर अपनी बहुजता दर्शाने लगते हैं जिससे रसास्वादन में आघात पहुंचा है। उनके संयोग में एक-एक अंग का अलग-अलग बिखरा हुआ सौन्दर्य भले ही हो पर वह किसी समन्वित प्रभाव की सृष्टि नहीं कर सकता। इनके संयोग के चित्रों में इतनी मार्मिकता नहीं कि वे पाठक को संयोग के मधुर वातावरण में डुबो सकें। डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में, “संयोग पक्ष के अन्य अंगों व क्रिया-कलापों के वर्णन में भी जायसी ने असंयम से काम लिया है। उसके फलस्वरूप उनके संयोग-वर्णन अत्यंत स्थूल, शिथिल एवं अश्लील हो गये हैं।”

अन्य रस- पद्मावत एक प्रबन्ध काव्य है, अतः इसमें शृंगार रस के अतिरिक्त अन्य रसों का समावेश भी हुआ है। रत्नसेन के सिंहल गमन, रानियों का विलाप तथा रत्नसेन की मृत्यु के प्रकरणों में करुण रस का अच्छा परिपाक हुआ है। युद्ध वर्णन में वीभत्स का अच्छा उद्रेक है। क्षात्र तेज सम्पन्न गोरा-बादल आदि पात्रों में वीर रस की भी सुन्दर व्यंजना हुई है। जायसी का वात्सल्य वर्णन कुछ शिथिल सा है। अलाउद्दीन की रत्नसेन को भेजी चिट्ठी के प्रसंग में रौद्र रस है पर उसका यथेष्ट परिपाक नहीं हुआ है। रत्नसेन के वैराग्य वृत्ति धारण करने पर शान्त रस का निर्वाह हुआ है।

पद्मावत एक घटना प्रधान काव्य है। जायसी ने इसे रसात्मक बनाने के लिए वर्णनात्मकता पर अत्यधिक बल दिया है। कहीं-कहीं पर वर्णनात्मकता की वृत्ति इतनी बढ़ी हुई दिखाई देती है कि पाठक ऊबने लगता है। उदाहरणार्थ, सिंहल द्वीप में फूलों और फलों का वर्णन, पकवानों की लम्बी सूची, रसायन सम्बन्धी क्रियाएं तथा हठयोग का विस्तृत वर्णन, ये कुछ ऐसे प्रकरण हैं, जिनसे कथा के प्रवाह में बाधा पहुंची है। इन सब बातों से जायसी एक वर्णक कवि ठहरते हैं।

प्रकृति-चित्रण- प्रकृति चित्रण दो प्रकार का होता है- अन्तःप्रकृति-चित्रण और बाह्य प्रकृति-चित्रण अन्तः प्रकृति चित्रण की दृष्टि से पद्मावत का कोई विशेष महत्व नहीं है। मनुष्य प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण का प्रमाण पद्मावत में नहीं मिलता। मनुष्य के स्वभाव चित्रण की जो सूक्ष्मता और क्षमता तुलसी में है वह जायसी में नहीं और यही कारण है कि पद्मावत में पात्रों का सर्वांगीण विकास नहीं हो सका। बाह्य प्रकृति के चित्रण में यह स्मरण रखना होगा कि जायसी का प्रकृति प्रेम विशुद्ध प्रकृति प्रेम न होकर ईश्वर तक पहुंचने का साधन है। जायसी ने भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रकृति का चित्रण किया है। उनकी प्रकृति चित्रण की शैलियां ये हैं-परिगणन शैली, अतिशयोक्तिपूर्ण शैली, प्रतीक शैली और रहस्यात्मक शैली ।

चरित्र-चित्रण – जायसी का चरित्र-चित्रण एकदेशीय है। पद्मावत में रामचरित मानस जैसी अनेकरूपता नहीं है। तुलसी के राम में जैसे शील, शक्ति और सौन्दर्य का समन्वय है वह जायसी के रत्नसेन में नहीं है। रत्नसेन एक आदर्श प्रेमी हैं, पद्मावती आदर्श प्रेमिका, नागमती एक आदर्श हिन्दू रमणी और गोरा-बादल आदर्श वीर है। हां, इतना अवश्य है कि जायसी ने अन्य सूफी कवियों की भांति अपनी कथा को ऐकांतिक प्रेम कहानी होने से बचा लिया है। क्योंकि इन्होंने उसमें लोकपक्ष का समावेश भी कर दिया। कथा की घटनात्मकता तथा इनकी वर्णन विस्तार प्रियता ने चरित्रों को उभरने नहीं दिया है। आचार्य द्विवेदी के शब्दों में, “मनोभावों का चित्रण तो ये बड़ी कुशलता से कर लेते हैं किन्तु विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न पात्रों की व्यक्तिगत विशिष्टता और विलक्षणता प्रकट करने में वे सफल नहीं हो सके हैं। उनका आदर्श चित्रण एकदेशीय है। रत्नसेन प्रेमी का आदर्श है और नागमती पतिव्रता का, किन्तु जीवन की बहुमुखी परिस्थितियों के पड़ने पर इनका कौन-सा रूप निखरेगा, यह स्पष्ट नहीं हो सकता, सर्वत्र एक सामान्यीकरण का प्रयास है।” इन्होंने सात्विक और तामसिक दोनों प्रकार के पात्रों का चित्रण किया है। अलाउद्दीन तामसी पात्र है जो कामी और लोभी है, राघवचेतन छली और कृतघ्न । हिन्दू पात्रों का उनकी संस्कृति के अनुरूप बड़ी सहृदयता से चित्रण किया है।

अलंकार – जायसी ने सादृश्यमूलक अलंकारों का सफल प्रयोग किया है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इन्हें विशेष प्रिय हैं। अनेक स्थानों पर इन्होंने स्वभावोक्ति, अन्योक्ति और रूपकातिशयोक्ति अलंकारों का भी बहुत मनोरम प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त श्लेष, व्यतिरेक, तद्गुण, विभावना, सन्देह, अनुप्रास तथा निदर्शना आदि अलंकारों का भी इन्होंने सफल प्रयोग किया है। इनके साहित्य में उपमानों की इतनी अधिक संख्या है जो शायद ही हिन्दी साहित्य के किसी अन्य कवि में मिले।

छन्द- जायसी ने दोहा, चौपाई छंदों को अपनाया है और उनका अवधी भाषा में इतना सफल प्रयोग किया है कि वे कदाचित् हिन्दी के अमर ग्रंथ रामचरितमानस के कर्त्ता तुलसी के भी इस दशा में पथ-प्रदर्शक कहे जा सकते हैं।

भाषा- इन्होंने ठेठ अवधी के पूर्वीपन को अपनाया है। यद्यपि जायसी का अवधी प्रयोग असंस्कृत हैं किन्तु भाषा की स्वाभाविकता, सरसता और मनोगत भावों की प्रकाशन-सामग्री ने जायसी को अवधी साहित्य क्षेत्र में मान्य बना डाला है। जायसी की अवधी में तुलसी की सी साहित्यिकता और पांडित्य नहीं है और यह अच्छा भी हुआ, क्योंकि इससे उसका स्वाभाविक रूप बना रहा है अन्यथा संस्कृत के तत्सम शब्दों की भरमार से वह क्लिष्ट न बन जाती। उनकी भाषा प्रसाद और माधुर्य गुण से परिपूर्ण है। इनकी भाषा कई स्थलों में अव्यवस्थित है। उसमें च्युत-संस्कृति दोष है जो कि खटकता भी है, किन्तु फिर भी इन्होंने अवधी को साहित्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान दिलाने का स्तुत्य प्रयत्न किया है।

निःसंदेह जायसी के काव्य में अत्यधिक पुनरुक्तियां हैं, उसमें अनावश्यक पांडित्य-प्रदर्शन भी है, अत्युक्तियों की भरमार है। हिन्दू-संस्कृति का अपूर्ण ज्ञान है, भाषा सम्बन्धी च्युति संस्कृत दोष भी है, किन्तु फिर भी जायसी का भारतीय साहित्य और संस्कृति में एक विशिष्ट स्थान है। हिन्दू मुस्लिम हृदय के सांस्कृतिक समन्वय का श्रेय तो इनको है ही, कवि के नाते हिन्दी साहित्य में भी ये अत्यंत उच्च ठहरते हैं। बाबू गुलाबराय के शब्दों में हम कह सकते हैं “जायसी महान कवि हैं। उनमें कवि के समस्त सहज गुण विद्यमान हैं। उसने सामयिक समस्या के लिए प्रेम की पौर की देन दी। उस पीर को अपने शक्तिशाली महाकाव्य के द्वारा उपस्थित किया। वह अमर कवि हैं।”

कबीर और जायसी- दोनों प्रतिभा सम्पन्न कवि हैं। कबीर केवल बहुश्रुत हैं किन्तु जायसी इसके साथ फारसी के अच्छे विद्वान भी हैं। जायसी की भाषा लोकप्रचलित अवधी है जबकि कबीर की भाषा सघुक्कड़ी है। इन दोनों से तुलसी के पांडित्य और नन्ददास के भाषा सौष्ठव की आशा नहीं की जा सकती है। जायसी ने मसनवी शैली को अपनाया है, कबीर ने दोहे और भजन लिखे हैं।

दोनों का उद्देश्य जन सामान्य में निर्गुण का प्रचार करना है। ये पहले सन्त और साधक हैं बाद में कवि। अतः कविता इनके लिए साधन थी न कि साध्य । कबीर का स्थान सन्त काव्य में सर्वोच्च है जबकि जायसी का स्थान सूफी काव्य में। कबीर का ज्ञान मस्तिष्क से सम्बद्ध है जबकि जायसी का प्रेम रहस्य से जनता को प्रभावित करने में जायसी कबीर की अपेक्षा अधिक सफल रहे हैं और वे इससे भी अधिक सफल रहते यदि उनका पद्मावत फारसी लिपि में निबद्ध न होता। दोनों हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षपाती हैं किन्तु उनके साधन भिन्न-भिन्न हैं। कबीर ने खंडनात्मकता की पद्धति को अपनाया जबकि दूसरे ने मंडनात्मक पद्धति को। कबीर ने दोनों जातियों को धार्मिक क्षेत्र में परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया जबकि जायसी ने सांस्कृतिक समन्वय के द्वारा प्रत्यक्ष जीवन की आवश्यकता को पूरा किया और दोनों हृदयों के अजनबीपन को मिटाया।

जायसी कबीर की अपेक्षा अधिक उदार और सहिष्णु हैं। जायसी के लिए जैसे तीर्थ-व्रत हैं वैसे रोजा-नमाज, किन्तु कबीर बुरी तरह विपक्षी मत का खंडन करते हैं। कबीर किसी भी कीमत पर अपने मत का प्रचार करना चाहते हैं। कबीर स्वभाव से अक्खड़, फक्कड़, मस्तमौला, निर्भीक और स्वतंत्र हैं, जबकि जायसी विनम्र और मुलायम तबियत के हैं।

दोनों विविध मतों से प्रभावित हैं। दोनों पर अद्वैतवाद, सर्वेश्वरवाद तथा हठयोग का प्रभाव है। दोनों के साधन ज्ञान और प्रेम हैं, पर उनके अनुपात में अंतर है। दोनों भारतीय संस्कृति से प्रभावित हैं पर दोनों को उसका सम्यक् ज्ञान नहीं है। कबीर कभी एकेश्वरवाद की ओर जाते हैं तो कभी अद्वैतवाद की ओर और कभी वैष्णवों के प्रपत्तिवाद की ओर झुकते हैं। वे बहुश्रुत थे अतः कभी कुछ और कभी कुछ कहते रहे। जायसी ने अपने पद्मावत में भारतीय संस्कृति का अनेक स्थलों पर उल्लेख किया है पर कहीं-कहीं पर वे भूल भी कर गये हैं। उन्होंने नारद को शैतान कह दिया हैं और अपने नायक को रावण की उपमा दे दी है।

जायसी का ज्ञान क्षेत्र कबीर की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत था, अतः वे खंडन पर नहीं उतरे। इस्लाम संस्कृति के साथ उन पर भारतीय संस्कृति का भी प्रभाव था। वे कबीर के समान केवल सत्संगी जीव नहीं थे प्रत्युत उन्हें फारसी साहित्य का गम्भीर ज्ञान था। उन्हें काव्यशास्त्रीय ज्ञान भी था, कदाचित इसीलिए वे हिन्दी क्षेत्र में भी उसी गति के साथ बढ़ सके।

काव्य के भाव पक्ष और कला-पक्ष में जायसी कबीर की अपेक्षा श्रेष्ठ ठहरते हैं। कबीर सूक्तिकारों तथा गीतिकारों में आते हैं, जबकि जायसी हिन्दी के प्रथम सफल प्रबन्धकार ठहरते हैं और जिन्हें तुलसी का भी इस दिशा में मार्गप्रशस्ता माना जा सकता है। जायसी के काव्य में सभी रसों का समावेश है किन्तु विप्रलम्भ शृंगार का परिपाक तो अपनी चरम सीमा पर है और इस विषय में शायद ही हिन्दी का कोई दूसरा कवि इनकी समता कर सके। कबीर में शान्त और श्रृंगार रस है, किन्तु उसमें जायसी जैसी बुलन्दी नहीं। भले ही जायसी हिन्दी के प्रथम कोटि के कलाकारों में न आते हों परन्तु वे निश्चित रूप से कबीर की अपेक्षा श्रेष्ठ ठहरते हैं। हमारे विचारानुसार साहित्यिक दृष्टि से जायसी को कबीर की अपेक्षा श्रेष्ठ कहना साहित्यिक न्याय  होगा।

2. कुतुबन

कुतुबन प्रेम गाथा परम्परा का सूत्रपात करने वाले कवि हैं। ये शेरशाह के पिता हुसैनशाह के आश्रय में रहते थे। सं० 1558 में उन्होंने अपने प्रेम-काव्य ‘मृगावती’ की रचना की। मृगावती में चन्द्रगिरि के राजा गणपतिदेव के पुत्र तथा कंचनपुर को राजकुमारी मृगावती की प्रणय कथा वर्णित है। अपने अप्रतिम सौन्दर्य पर मुग्ध राजकुमार को छोड़कर जब मृगावती कहीं तिरोहित हो जाती है तो राजकुमार उसे प्राप्त करने के लिए अनेक कष्ट सहन करता है। अन्त में वह उसे प्राप्त करके ही रहता है। इससे पूर्व वह एक रुक्मिणी नाम की सुन्दरी की राक्षस से रक्षा कर उसे पत्नी के रूप में ग्रहण कर लेता है। एक दिन हाथी से गिर जाने के कारण राजकुमार की मृत्यु हो जाती है। भारतीय परम्परा के अनुसार दोनों पत्नियाँ सती हो जाती हैं। कवि ने उनके सती होने का मर्म स्पर्शी वर्णन किया है।

3. मंझन

मंझन रचित ‘मधुमालती‘ मृगावती से भी अधिक मार्मिक है। इसमें कनेसर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर तथा महाराम नगर की राजकुमारी मधुमालती के मिलन-वियोग के स्पर्श-प्रधान चित्र प्रस्तुत किये गये हैं। अव्यक्त की ओर मधुर संकेत और प्रकृति के मनोमाही चित्र इस ग्रन्थ की परमनिधि हैं।

4. शेख नवी

शेख नवी जौनपुर के मऊ नामक स्थान के निवासी थे तथा सं० 1676 में जहाँगीर के काल में विद्यमान थे। आपने ज्ञान दीपक नामक प्रेम काव्य की रचना की। जिसमें राजा ज्ञान दीप और रानी देवज्ञा की प्रेम कहानी का वर्णन बड़े रोचक ढंग से किया गया है।

5. नूर मुहम्मद

नूर मुहम्मद दिल्ली के बादशाह ‘मुहम्मद शाह’ के समय में थे। इनका निवास स्थान जौनपुर के ‘सबरहद’ नामक स्थान है। इन्होंने संo 1801 में ‘इन्द्रावती‘ नामक प्रेम गाथा की रचना की ।

6. उस्मान

उस्मान गाजीपुर के निवासी थे तथा ‘जहाँगीर के समय में विद्यमान थे। इन्होंने शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परम्परा में हाजी बाबा से दीक्षा ग्रहण की थी। इन्होंने अपना उपनाम मान रखा था। इन्होंने सन् 1613 में पद्मावत के आधार पर ‘चित्रावली’ नाम से प्रेमाख्यान की रचना की थी। इसमें नेपाल के राजकुमार सुजानकुमार की राजकुमारी चित्रा।

7. कासिम शाह

ये बाराबंकी के अन्तर्गत दरियाबाद के निवासी थे और संवत् 1788 में विद्यमान थे। इन्होंने हंस- जवाहर नाम के प्रेमाख्यान की रचना की। इसमें राजा हंस और रानी जवाहर की प्रणय कथा वर्णित है।

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Anjali Yadav

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