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सूफी धर्म से आप क्या समझते हैं ? सूफियों के मत और सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय देते हुए बताइये कि ‘पद्मावत’ में इसका निर्वाह कहां तक हुआ है ?
सूफी शब्द की व्युत्पत्ति
सूफी शब्द के उद्भव एवं प्रयोग के सम्बन्ध में विद्वानों में अत्यधिक वैचारिक मतभेद हैं। जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
(1) कुछ विद्वान् ‘सूफी’ शब्द ‘सफा’ से मानते हैं। उनके अनुसार पवित्र आचारों और विचारों के व्यक्ति को ‘सूफी’ कहते हैं।
(2) कुछ के अनुसार मुहम्मद साहब द्वारा निर्मित मस्जिद के सूफ या चबूतरे पर सोकर जो फकीर रात व्यतीत करते थे, वे सूफी कहलाते थे ।
(3) “सूफी” का एक अर्थ है ‘पंक्ति’, जो लोग कयामत और इन्साफ के बिना ईश्वर भक्त होने के कारण प्रथम पंक्ति में खड़े होते हैं, उन्हें ‘सूफी’ कहते हैं।
(4) अरब में एक ‘सफा’ नामक जाति थी, उस जाति के साधकों को सूफी कहा जाने लगा।
(5) ‘सूफ’ का अर्थ है ‘ऊन’। जो ऊन का चोंगा पहनते थे उन्हें सूफी कहते थे।
(6) कुछ विद्वान् ‘सूफी’ शब्द की व्युत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘सोफिया’ से मानते हैं जिसका अर्थ ज्ञान होता है, अर्थात् जो ज्ञानी सन्त होते थे उन्हें ‘सूफी’ कहते थे। इस प्रकार ‘सूफी’ शब्द की विद्वानों ने अनेक व्याख्यायें की हैं फिर भी इन सभी व्युत्पत्ति के आधार पर यह निर्विवाद सत्य स्वीकार किया जा सकता है कि यह एक संत सम्प्रदाय था जिसमें पवित्रता, सरलता और शुचिता को विशेष महत्व दिया जाता था और उसकी निजी साधना सम्बन्धी मान्यतायें भी थीं। इस प्रकार का विचार डा० त्रिगुणायत का भी है।
सूफी मत और उसका भारत में आगमन
मुहम्मद साहब की मृत्यु के लगभग दो सदी उपरान्त इस्लाम धर्म की कट्टरता, रक्तपात, धार्मिक संकीर्णता आदि विभिन्न प्रवृत्तियों की प्रतिक्रिया स्वरूप सूफी सम्प्रदाय का अभ्युदय हुआ । सर्वप्रथम सूफी मत में वे लोग आये जो अत्मा के शुद्धीकरण में विश्वास रखते थे। सूफी मत के प्रारम्भिक सन्तों में अल्हसन इब्राहीम बिन अधम अयाज और राविया आदि की गणना की जाती है। राबिया बसरा की रहने वाली थीं। उसने ही सर्वप्रथम प्रेम को उदात्त और प्रखर रूप में जनता के सामने रखा था उसका कथन था-
‘खुदा के प्रेम ने मुझे इतना अभिभूत कर दिया है कि मेरे हृदय में अन्य किसी के प्रति न तो प्रेम शेष रहा, न वृणा शेष रही।’
सूफी मत में ‘प्रेम’ को ही ब्रह्म प्राप्ति का एकमात्र साधन माना गया है। सूफी सन्त संसार के कण-कण में उसी ब्रह्म के अस्तित्व का दर्शन करते हैं। सूफी साधक प्रेम की साधना करके ब्रह्म से तादत्म्य करना चाहते हैं। भारतीय दर्शन में जो ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की स्थिति है, वह सूफी साधना में ‘अन-हल-हक’ कहलाती है।
डा० त्रिगुणायत ने सूफी संतों को दो वर्गों में विभाजित किया-
(1) वाशरा (2) वेशता
प्रथम वर्ग के लोग कुरान की शरीयतों के पालन में अधिक रूढ़िवादी थे । वेशरा सूफी संत अधिक स्वतन्त्रतावादी थे जो कुरान की शरीयतों के अनुमान में अत्यधिक आस्था नहीं रखते थे ।
सूफी साधना पद्धति
सूफियों में साधक की चार अवस्थायें मानी जाती हैं- (1) शरीयत, (2) तरीकत, (3) हकीकत, (4) मारिफत ।
(1) शरीयत – इस अवस्था में धर्मग्रन्थों के विधि निषेधों का सम्यक् निर्वाह किया जाता है। सच्चे मुसलमान के लिए नमाज रोजा, हज्ज और जकात आदि का पालन करना आवश्यक माना जाता है। इस अवस्था में सूफी ‘मोमिना’ कहलाता है।
(2) तरीकत- द्वितीय अवस्था में सूफी बाहरी क्रियाकलाप से परे होकर केवल हृदय की शुद्धता द्वारा भगवान का ध्यान करता है। ‘तरीकत’ शब्द का अर्थ है रहस्य मार्ग। इस रहस्य मार्ग पर साधक स्वयं साधना द्वारा आगे बढ़ नहीं सकता जब तक कि अनुभवी पौर या गुरु पथ-प्रदर्शक के रूप में न प्राप्त हो जाय। जायसी के पद्मावत में हीरामन तोता रत्नसेन के सम्मुख पद्मावती के अपूर्व सौन्दर्य का वर्णन कर उसके हृदय में पद्मावती के प्रति प्रेम उत्पन्न कर मिलने के लिए व्याकुल बना देता है।
(3) हकीकत- इस तीसरी अवस्था में भक्ति उपासना के प्रभाव से सत्य का तात्विक बोध हो जाता है। इस कारण साधक तत्व दृष्टि सम्पन्न और त्रिकालता होता है। इस अवस्था को ज्ञान की अवस्था कहा जाता है।
(4) मारिफत- चतुर्थ अवस्था में सूफी साधक कठिन व्रत और मौनावस्था धारण करते हुए परमात्मा में लीन हो जाता है। इस अवस्था को मुक्ति की अवस्था कहा जा सकता है या अन्य शब्दों में यह सिद्धावस्था है जिनमें साधक साध्य में लीन होकर प्रेममय हो जाता है।
जायसी ने सूफी साधना के इन चार सोपानों का उल्लेख किया है-
नवी खण्ड नौ पौरी ओ तह वज्र किवार।
चारि बसेरे सौ चढ़े सत सौ उतरे पार ।।
सूफी मत के प्रमुख रूप से तीन सिद्धान्त हैं-
(1) ईश्वर तत्व (2) सृष्टि तत्व (3) मारन तत्व ।
(1) ईश्वर तत्व- ईश्वर तत्व के सम्बन्ध में प्रायः तीन प्रकार के मत दिखाई देते हैं। प्रथम मत ‘इजादिया’ लोगों का है जो ईश्वर का अस्तित्व जगत् से पृथक स्वीकार करते हैं और इस बात में विश्वास करते हैं कि उस नयी सृष्टि को शून्य से उत्पन्न किया। सूफी मत पूर्णतया एकेश्वरवादी है। इसी प्रकार दूसरे वर्ग के लोग ‘शुदूदिया’ कहलाते हैं जिनका विश्वास है कि ईश्वर जगत से परे है किन्तु उसकी सभी बातें जगत में किसी दर्पण के भीतर प्रतिबिम्ब की भांति प्रतिभाषित होती है। तृतीय वर्ग उन लोगों का है जो ‘बुजूदिया’ कहे जाते हैं जिनका विश्वास है कि ईश्वर के अतिरिक्त वास्तव में अन्य कोई वस्तु नहीं है। वही एक मात्र सत्ता है और विश्व में अन्य जितनी भी वस्तुयें हैं उनमें हम उसी का रूप देखते हैं। शेष अन्तिम दो सिद्धान्त सूफी मत से ही सम्बद्ध है और प्रथम का सम्बन्ध इस्लाम की विचारधारा से है।
(2) सृष्टि तत्व- सूफियों ने जगत् की सृष्टि के अन्तिम उद्देश्य पर भी विचार किये हैं। सुफी परम्परानुसार कहा जाता है। कि हजरत दाऊद ने ईश्वर से प्रश्न किया कि उन्होंने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ? उत्तर- “मैंने अपने गूढ़ रहस्य को व्यक्त करने के लिए ही ऐसा किया है”। इस प्रकार की कल्पना भारतीय परम्परा में भी विद्यमान है कि ईश्वर एक से अनेक होने के लिए सृष्टि का निर्माण करता है। सृष्टि की प्रक्रिया के बारे में सूफियों का विश्वास है कि अल्लाह ने सर्वप्रथम अपने नाम के आलों के ‘नूरुलमुहम्मदिया’ की सृष्टि की और फिर उसी से पृथ्वी, जल, वायु, और अग्नि इन चार तत्वों की सृष्टि हुई। फिर आकाश और तारे हुए तथा उसके पश्चात् सात भुवन धातु, जीव जन्तु तथा मानव की रचना हुई, जिनके द्वारा संसार बना और इस प्रकार सारी सृष्टि निर्मित हुई।
(3) चार लोकों की कल्पना- सूफियों ने चार अवस्थाओं के अनुरूप ही चार लोकों की कल्पना की है। यह चार लोक हैं-नासूत (नरलोक), मलकूलक (देव-लोक), जबरूत (ऐश्वर्य लोक) और लाहूत (सत्यलोक अथवा माधुर्य लोक)। इस प्रकार नरलोक से सत्यलोक की कल्पना की है। वस्तुतः इन लोकों की स्थिति बाह्य ब्रह्माण्ड में न मानकर मानव शरीर में स्थित मन में ही मानते हैं।
भारत में आगमन
सूफी मत का आगमन भारत में कब हुआ यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। इस्लाम का सातवी-आठवीं शताब्दी में उत्तरी भारत में प्रसार हो चुका था, लेकिन उसी समय इस्लाम के माध्यम से सूफी सम्प्रदाय भी भारत आ गया हो यह अनिवार्य नहीं है। अधिकांश विद्वान् सूफी सम्प्रदाय का भारत में आगमन ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी मानते हैं। ये सम्प्रदाय भारत में तुर्किस्तान, ईरान, अफगानिस्तान में सूफी सन्तों द्वारा प्रसारित हुआ। इस सम्प्रदाय का भारत में प्रवेश चार सप्रदाय के रूप में हुआ जो इस प्रकार हैं-
(1) चिश्ती सम्प्रदाय-सन् बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ।
(2) सुहरावादी सम्प्रदाय- सन् तेरहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध
(3) कादरी सम्प्रदाय- सन् पन्द्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ।
(4) नकशलवादी सम्प्रदाय- सन् सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ।
ये चारों सम्प्रदाय अपने मूल सिद्धान्तों में समान हैं। सूफी धर्मानुयायियों का सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण उदारवादी था। इसलिए धार्मिक सहिष्णुता, उदारता और आत्मीयता ने हिन्दुओं का भी प्रभावित किया और साथ ही यह सूफी सन्त भी वेदान्त और सिद्ध एवं नाथ सम्प्रदाय से विशेषकर प्रभावित हुए।
श्री राजनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘जायसी और उनका पद्मावत एक सर्वेक्षण में ‘सूफी’ साधना की व्याख्या करते हुए लिखा है-
‘सिद्धान्त: सूफी-साधना प्रेम-प्रधान साधना है। सूफी साधक परमात्मा को प्रियतम (रमणी) के रूप में देखता है, उसके सौन्दर्य पर रीझता है और उसका सतत् साहचर्य प्राप्त करने के लिए प्रबलशील रहता है। उसका प्रेम स्थूल से सूक्ष्म और वासनामय से शुद्ध सात्विक मनोवृत्ति की ओर अग्रसर होता है। इसी कारण सूफियों में इश्क-मिजाजी (लौकिक प्रेम) को इश्क हकीकी (ईश्वर प्रेम) की पहली सीढ़ी माना है। उस पर पैर रखकर ही उन्हें आगे बढ़ाना पड़ता है। इसी कारण सुफियों में ईश्वर-मात्र कल्पना (Concept) न होकर साक्षात् (Precept) माना गया है। उसको मानवीय धातुओं से देखा जा सकता है। सुफी साधक ‘इलहाम जिक्र’ (ईश्वराधना), शराब आदि में विश्वास रखते हैं। साथ ही कष्ट सहिष्णुता गुरु पूजा, पीरों की समाधि पूजा, नजम (शकुन विचार) आदि में भी उनकी आस्था रहती है। वे सतत् चिन्तन में रत रहते हैं, इसलिए आसनों का भी उनके यहां महत्व माना जाता है। आसन चित्र को एकाग्र करने में सहायक होते हैं। विद्वानों का मत है कि सूफियों ने आसनों का महत्व भारत में ही आकर सीखा था, इसलिये उनके काव्य में सूफी साधना का रूप मिलता है।’
जायसी पर सूफी मत का प्रभाव
सूफी मत का जायसी के साहित्य पर प्रभाव पड़ा है। पद्मावत नामक ग्रन्थ में सूफी सिद्धान्तों का पूर्णतः समावेश है। डा० रामकुमार वर्मा ने पद्मावत पर सूफी प्रभाव के सम्बन्ध में लिखा है-
“समस्त कथा सूफी सिद्धान्त बादल में पानी की बूंद की भांति छिपी हुई।”
जायसी ने ‘अखरावट’ में सूफी मत की चार अवस्थाओं का उल्लेख इस प्रकार किया है-
कही सरीअत पित्तो पीरु। उधरति असरफ औ जह गीरी ।।
पाँव रखै तेहि सीढ़ी, निरभय पहुँचे सोई ।।
बाह्य और जगत् के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर उन्होंने सूफियों की भांति लिखा है कि परमात्मा जगत् का कर्ता है और जगत् परमात्मा की कृति पद्मावत की प्रथम पंक्ति में कवि ने उसके कर्ता रूप का ही स्मरण किया है-
सुमिरौ आदि इक करतारू। जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥
सूफियों की दृष्टि में परम्परागत की सत्ता का सार प्रेम है। सृष्टि से पूर्व परमात्मा का प्रेम अपने तक ही सीमित था लेकिन पीछे उस अद्वैत प्रेम का बाह्य रूप में देखने की इच्छा से अपने ही समान प्रतिबिम्ब को निर्मित करके उसे ‘आदम’ नाम दिया।
आपुहि आपुहि चाह दिलावा। आदम रूप भेष घरि आवा ||
इसी प्रकार अहंकार के नाश पर सूफी बहुत जोर देते हैं। जायसी ने इस पर बल देते हुए कहा कि-
हौं हौं कहत सबै मति खोई। जो तू नाहि आहि सब कोई ।।
आपुहि गुरु सो आपुहि चेला। आपुहि सब और आप अकेला ॥
जायसी ने सूफी कवियों की भांति गुरु को विशेष महत्व दिया है इसीलिए वे सैयद अशरफ पीर के सम्बन्ध में लिखते हैं।
“सैयद असरफ पीर पियारा। जेहि मोहि पंथ दीन्ह उजियारा।
लेसा हिय प्रेम कर दीया उठी ज्योति आ निरमल हीया ॥
जायसी मुसलमानी एकेश्वरवाद पर विश्वास करते थे। ‘आखिरी कलाम’ की रचना में जायसी ने अद्वैतवादी विचारधारा की पुष्टि की है। जिस प्रकार अद्वैतवादी ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्महैवनापर: सिद्धान्त को स्वीकार करता है उसी प्रकार जायसी ने भी मिथ्या और स्वप्न संसार की कल्पना की है।
“साँचा सोइ और सब झूठे ठांव न कतहुँ ओहि के रूठे ।।
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