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‘सूर-सूर तुलसी शशी’ Essay on “Sur-Sur Tulsi Shashi”
हिन्दी साहित्य में सूर तुलसी दोनों की रचनाओं पर हिन्दी जगत को गर्व है। सूर एवं तुलसी दोनों भावुक भक्त थे और अपने आराध्य के प्रति आत्म-समर्पित भी। सूरदास के आराध्य देवलोक रंजक वृन्दावन बिहारी श्रीकृष्ण थे और तुलसी के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम थे। सूर ने अपने आराध्य के बाललीलाओं का मधुर गायन किया है तो तुलसी ने दास्य-भाव से लोक रंजक के विविध रूपों की मनोहारी छटा का निरूपण किया है। वस्तुतः दोनों कवियों में कौन श्रेष्ठ है, यह निर्णय करना कठिन है क्योंकि दोनों कवि अपने-अपने क्षेत्र में अप्रतिम एवं अद्वितीय हैं। जहाँ तक व्यापक एवं विस्तृत क्षेत्र का सम्बन्ध है वहाँ तुलसी सूर के आगे हैं। किन्तु जहाँ क्षेत्र सीमित है वहाँ सूर बाजी मार ले गए हैं। अतः इन दोनों कवियों के कवित्व शक्ति का विवेचन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत करेंगे।
रस-निरूपण की दृष्टि से
बात्सल्य एवं शृंगार रस के निरूपण में सूरदास तुलसी से अधिक श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास के आराध्य लोक रक्षक एवं मर्यादावादी हैं। वे संसार में लोक-धर्म की रक्षा हेतु अवतरित होते हैं। इसलिए उनमें शृंगार का समावेश नहीं हो सका है। सूरदास के उपास्य कृष्ण संसार को आनन्दमय बनाने के लिए अवतरित होते हैं। उन्होंने अपनी बाल-लीलाओं एवं यौवन-क्रीड़ाओं से दुखी जीवन को क्षण भर के लिए आनन्दमय बना दिया है। यही कारण है कि बाल लीला एवं शृंगार के वर्णन में सूर अधिक सफल हुए हैं। आचार्य शुक्ल का कथन है कि ‘शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक सूर की दृष्टि पहुंची है वहाँ तक किसी कवि की नहीं। सूर के इसी गीत-शैली से प्रभावित होकर तुलसी ने अपने ‘गीतावली’ में बाल-लीला का वर्णन बहुत कुछ सूर के कृष्ण के समान किया है। कहीं कहीं यह सभ्यता इतनी निकट है कि वह पद किस कवि का है कहा नहीं जा सकता। उदाहरण स्वरूप देखिए ।
सूरसागर-
हरि जू की बाल छवि कहो वरनि ।
सकल सुख की सीव, कोटि मनोज शोभा हरनि
गीतावली-
रघुबर बाल छवि कहीं वरनि।
सकल सुख की सींव, कोटि मनोज शोभा हरनि ।
इसी तरह यशोदा एवं कौशल्या के पुत्र-वियोग की मनः स्थिति का चित्रण भी दोनों कवियों ने किया है। अन्तर केवल इतना है कि यशोदा कृष्ण के अभाव में गायों की दशा से चिन्तित हैं, कौशल्या राम के अभाव में घोड़ों की दशा से ।
सूरसागर-
ऊधो इतनी कहियो जाय।
अति कृसगात भई हैं तुम बिनु परस दुखादी गाय ।
कवितावली-
राधी फिर एक बार आवौ ।
ये वर वाजि विलोकि आपने बाहरी बनहिं सिधावी।
सुर ने बाल कृष्ण के साथ-साथ ग्वालों, यशोदा तथा नन्द के मृदुल हृदय का जो मार्मिक चित्र खींचा है वह तुलसी नहीं कर सकते हैं। तुलसी के राम बालकों के साथ खेलते तो अवश्य हैं परन्तु वे बच्चों से मिल ही नहीं पाते। वहाँ भी उनका अभिजात्य रूप ही प्रमुख रहता है। इस तरह तुलसी के बाल चरित के ढंग इतने सरल, स्वाभाविक और सुहावने नहीं हैं, जितने सूर के हैं, बाल-सुलभ बातों का चित्रण सूर ने बड़े मार्मिक एवं स्वाभाविक ढंग से किया है। एक उदाहरण देखिये-
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो।
मोयो कहत मोल को लीन्हों तु जसुमति कब जायो
चुटकी दे-दे हँसत ग्वाल सब सिखे देत बलवीर ।
वात्सल्य के अन्तर्गत तुलसी ने मातृ-हृदय का जो वर्णन किया है वह मार्मिक होने के साथ मोहक भी हो गया है।
वन को निकरि गये दो भाई ।
सावन गरजै भादो बरसै पवन चलै पुरवाई।
जहाँ तक शृंगार रस के वर्णन का प्रश्न है तुलसी ने स्पष्ट कहा है कि ‘जगत मात-पितु सम्भु भवानी’ ‘रहि शृंगार न कहऊँ बखानी’। यह सब होते हुए भी कहीं तुलसी के काव्य में शृंगार रस की झलक मिल गयी है। सूर ने प्रेम के अन्तर्गत सभी मनोदशाओं का सुन्दर चित्रण किया है। सूर प्रेम का वर्णन करते हैं, तुलसी प्रेम के संयम का। सीता में समक्ष है और संकोच है, राधा में भोलापन और स्वाभाविकता है। एक प्रेम करती हुई छिपाती है और दूसरी प्रेम के वशीभूत होकर अपने मन के समस्त भावों को प्रकट करने में नहीं हिचकती। राधा का प्रेम लरकाई का प्रेम है जिसमें एक-दूसरे के स्वभाव पर मोहित होकर परस्पर हृदय समर्पित किया जाता है। सीता का प्रेम सामाजिक बन्धन है जिसका हृदय से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। अस्तु श्रृंगार के संयोग-वर्णन में सूर में जो रमणीयता है वह तुलसी में नहीं है। इसी प्रकार विरह-वर्णन में भी सूर का वियोग-वर्णन. बढ़-चढ़कर है। सूर की राधा विरह में जो सन्देश भेजती है उसमें माधुर्य है जबकि सीता राम के विरह में संदेश भेजती हैं उसमें दास्यभाव की गंध आती है, माधुर्य की नहीं।’
इसके अतिरिक्त अन्य रसों के वर्णन में सूर की अपेक्षा तुलसी अधिक श्रेष्ठ रहे हैं वीर, रौद्र, वीभत्स, भयानक, करुण एवं शान्त रस के वर्णन में तुलसी निःसन्देह सूर से आगे हैं।
अलंकार योजना की दृष्टि से
सूर एवं तुलसी दोनों कवियों ने अलंकारों की सुन्दर योजना की है। अन्तर केवल इतना है कि सूरदास जी अलंकारों के मूर्त चित्र उपस्थित करते हैं, तुलसीदास अलंकारों के भाव चित्र उपस्थित करते हैं। सूर के प्रिय अलंकार उत्प्रेक्षा, उपमा एवं रूपक हैं तो तुलसी के अनुप्रास एवं उत्प्रेक्षा । एक उदाहरण देखिए-
सूर-
अद्भुत एक अनुपम बाग ।
जुगल कमल पर गजवर क्रीड़त तापर सिंह करत अनुराग ।
तुलसी-
कंकन किंकन नूपुर ध्वनि सुनि ।
कहत लपत सब राम हृदय गुनि ।
मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्हीं ।
मनसा विश्व विजय कह कीन्हीं ॥।
भाषा की दृष्टि से
भाषा की दृष्टि से तुलसीदास सूर से अधिक शक्तिशाली हैं अपने समय में प्रचलित सभी प्रमुख काव्य भाषाओं का प्रयोग तुलसीदास ने अपने काव्य-रचनाओं में किया है। अवधी एवं ब्रजभाषा पर उनका समान अधिकार था। जबकि सूरदास ने केवल शुद्ध एवं साहित्यिक ब्रजभाषा के ही अपनाया है।
शैली की दृष्टि से
शैली की दृष्टि से भी सूरदास तुलसी की क्षमता नहीं कर सके हैं। तुलसीदास ने अपने युग में प्रचलित छप्पय, दोहा, चौपाई, सोरठा, गीत, पद एवं बरवे शैली को अपनाया है जबकि सूरदास ने गीत-शैली में मुक्तक-काव्य की ही रचना की है। तुलसी की भाँति उनका विभिन्न शैलियों पर अधिकार नहीं था। उन्होंने मुक्तक गीत लिखकर मुक्तक-काव्य की रचना की जबकि तुलसी का रामचरित मानस हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ प्रबन्ध काव्य है।
निष्कर्ष स्वरूप हम यह कह सकते हैं कि वात्सल्य एवं शृंगार पक्षों के वर्णन में सूर को तुलसी से अधिक सफलता मिलती। है। किन्तु यदि समय रूप से कवित्व-शक्ति पर हम विचार करें तो तुलसी सूर से आगे हैं। भाषा अलंकार, शैली आदि की। दृष्टि से तुलसी अधिक सफल हैं। तुलसी का क्षेत्र विस्तृत है, सूर का सीमित है। यही कारण है कि तुलसी समग्र रूप से अधिक श्रेष्ठ साबित हुए हैं।
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