हिन्दी साहित्य

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का विवेचन करते हुए उसमें आचार्य शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी का सापेक्षिक मूल्यांकन कीजिए।

जिस प्रकार जीवन गतिशील है, उसी प्रकार साहित्य भी। जिस साहित्य में गति नहीं होती है, वह निष्प्राण एवं मरणोन्मुख प्रवृत्ति की सीमा में बंधकर रह जाता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास को ही लीजिए वह समय-समय पर हुए सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं दार्शनिक प्रभावों और परिस्थितियों का परिणाम है। साहित्य की धाराएँ जब निरन्तर गतिशील बनी रहती हुई एक लम्बी यात्रा तय कर लेती है तो आवश्यक होती है कि सृजित साहित्य की परम्परा को सुरक्षित रखा जाए। साहित्य प्रेमी अथवा कहें कि साहित्य के जिज्ञासु अपनी समय साहित्यिक विरासत को ऐतिहासिक रूप प्रदान करने के लिए लालायित होते हैं, वे ये हैं-1. संकलिक सामग्री की व्यवस्था, 2. व्यवस्थित सामग्री का क्रम निर्धारण, 3. क्रम निर्धारण के पश्चात् उपलब्ध सामग्री का वर्गीकरण तथा, 4. वर्गीकृत सामग्री का प्रवृत्तिगत विश्लेषण।

आभास ग्रन्थ- हिन्दी साहित्य के मध्यकाल में सर्वप्रथम कुछ ऐसे ग्रन्थ भी मिलते हैं जो साहित्य के इतिहास तो नहीं कहे जा सकते हैं, किन्तु आगामी साहित्य के इतिहास लेखकों के लिए आधार भूमि अवश्य प्रस्तुत करते हैं। ऐसे प्रन्थों में भक्तमाल, चौरासी- वैष्णववार्ता और दो सौ वैष्णव की वार्ता आदि का नाम लिया जा सकता है। वस्तुतः ये मन्थ इतिहास नहीं, इतिहास का आभास मात्र हैं।

गार्सादतासी – हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का प्रवर्तक एक फ्रेन्च विद्वान् गार्सादतासी द्वारा किया गया। इन्हीं के द्वारा हिन्दी साहित्य के इतिहास का लेखन प्रारम्भ हुआ। इनके इतिहास की प्रमुख बातें ये हैं-

1. कवियों और लेखकों की विस्तृत सूची इस इतिहास में दी गयी है।

2. प्रमुख इतिहासकारों की रचनाओं का परिचय भी यत्र-तत्र संकेतित है।

3. इस इतिहास में इतिहास तत्व कम है और सन् सम्वत् का कोई विशेष ध्यान न रखकर मनमाने ढंग से विवेचन किया गया है।

इन सब बातों के होते हुए भी हम उस फ्रेंच विद्वान् का महत्व स्वीकार कर सकते हैं। विद्वान ने इतिहास लेखन प्रवृत्ति की परम्परा का सूत्रपात किया है। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि गार्सादतासी ने आगामी इतिहासकारों के लिए मार्ग दर्शन का काम किया। ऐसी स्थिति में फ्रेंच विद्वान् के इस इतिहास को इतिहास लेखन की परम्परा का प्रथम पुष्प मानते हुए भी इतिहास कम और साहित्यकारों की विवरणिका कहना अधिक उचित प्रतीत होता है।

ठाकुर शिवसिंह सरोज- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में दूसरा महत्वपूर्ण नाम ठाकुर शिवसिंह सरोज का है जिन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में एक कड़ी जोड़ी है। फ्रेंच विद्वान् की तुलना में यह इतिहास कोई अधिक विस्तृत सामग्री प्रदान नहीं करता है। यह तो ठीक उसी प्रकार का इतिहास है, जिसमें घटनाओं का संकलन मनमाने ढंग से किया जाता है और जैसे चाहे वैसे प्रसंगों को मोड़ दिया गया है। शिवसिंह सरोज में हिन्दी साहित्य और उसके साहित्यकारों की जो झलक प्रस्तुत की गयी है वह उतनी प्रभावी नहीं बन पाई है जितनी की अपेक्षा की जा सकती है। वस्तुतः ये दोनों इतिहास नाम के इतिहास हैं। इन इतिहास लेखकों की दृष्टि न तो उतनी वैज्ञानिक है जितनी कि इतिहासकार की होनी चाहिए और न प्रस्तुतीकरण एवं विवेचन में तारतम्य ही दिखाई देता है। इस दृष्टि से एक अच्छे इतिहासकार (साहित्यिक इतिहासकार) के रूप में डॉ. प्रियर्सन का नाम अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण है।

डॉ. ग्रियर्सन ने अपने से पूर्व के विद्वानों द्वारा लिखित इतिहासों का गहन व सूक्ष्म अध्ययन किया था और अध्ययन के उपरान्त प्रियर्सन ने जाना कि हिन्दी साहित्य की विशाल सम्पदा को व्यवस्थित रूप देकर प्रस्तुत करना अनिवार्य था। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि प्रियर्सन ने हिन्दी साहित्य के इतिहास के रूप में इसी अनिवार्यता को पूरा किया है। उनका इतिहास जिन विशिष्टताओं और जिन विशिष्ट बिन्दुओं पर आधारित है, वे निम्नलिखित हैं-

1. प्रियर्सन ने हिन्दी साहित्य और भाषा के अधिकांश प्रमुख और अप्रमुख कवियों तथा उनकी रचनाओं के नाम के आधार पर साहित्य को वर्गीकृत किया है।

2. ग्रियर्सन के इतिहास में उपलब्ध कवियों और उनकी रचनाओं के आधार पर समीक्षात्मक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया गया है। इस दृष्टिकोण में प्रियर्सन का ध्यान साहित्य में उपलब्ध विशिष्ट प्रवृत्तियों का परिचायत्मक रूप प्रस्तुत करना ही है। इतना ही नहीं ग्रियर्सन ने अपने इतिहास के माध्यम से यह प्रतिपादित किया कि समय की परिवर्तनशीलता के कारण रचनाकारों की चिन्तनधारा भी बदलती रही है।

3. प्रियर्सन के इतिहास में एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि उन्होंने पहली बार अपने प्रन्थ से संयोजित और ऐतिहासिक दृष्टिकोण को अपनाया है यह सब होते हुए भी मियर्सन के इतिहास में कुछ ऐसी कमियाँ रह गई हैं, जिनके आधार पर जो उसे समयता का सूचक इतिहास नहीं माना जा सकता है। प्रमुखतः प्रियर्सन का दृष्टिकोण व्यापक नहीं है। वे सभी कवियों के साथ दृष्टिकोण नहीं अपना सके हैं। कुछ कवि तो उनकी लेखनी का अतिरिक्त प्रसाद प्राप्त कर गये हैं और कुछ अपनी महत्ता रखते हुए भी उपेक्षित से होते चले गये हैं।

मियर्सन के इतिहास में एक अन्य त्रुटि यह है कि कालखण्डों के रूप में किया गया विभाजन भी तार्किक व वैज्ञानिक नहीं प्रतीत होता है। इस कार्य में भी लेखक के स्वच्छन्दता से काम लिया है। इस प्रकार प्रियर्सन का इतिहास अब तक के प्रारम्भिक इतिहासों के महत्व तो रखता है, किन्तु उसमें वैसी अपेक्षित व्यवस्था नहीं है, जैसे कि आगे के इतिहास लेखक मिश्रबन्धु के इतिहास में दिखायी देती है।

मिश्रबन्धुओं का इतिहास- मिश्रबन्धु हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखकों में प्रथम लेखक माने जा सकते हैं, जिन्होंने ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाते हुए अपना इतिहास प्रस्तुत किया है। इस ऐतिहासिक दृष्टिकोण में मिश्र बन्धु की सूक्ष्म चिन्तन-शक्ति, तटस्थ, दृष्टि और नीर-क्षीर विवेकी प्रज्ञा का पता चलता है। मिश्रबन्धुओं द्वारा प्रस्तुत हिन्दी साहित्य के इतिहास में निम्नांकित उपलब्धियाँ और विशिष्टताएं हैं-

1. मिश्रबन्धुओं ने हिन्दी साहित्य के इतिहास को सन्, संवत की सीमाओं में बाँधकर जो काल-खण्ड प्रस्तुत किया उनका नामकरण भी सोच समझ कर कर दिया। उनके द्वारा प्रस्तावित काल-खण्ड और उनके नामकरण इस प्रकार हैं-

  • प्रारम्भिक गुण,
  • मध्य युग तथा
  • आधुनिक युग

उपर्युक्त नामकरण मिश्रबन्धुओं ने काल विशेष की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर किया है। इतना ही नहीं मिश्रबन्धुओं ने यह भी कहा है कि अमुक काल खण्ड में कौन-कौन प्रमुख कवि हुए हैं ?

आचार्य शुक्ल का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित हिन्दी साहित्य का इतिहास एक ऐसा इतिहास है जो कि अपनी प्रामाणिकता एवं वैज्ञानिकता में अकेला है। जब वह इतिहास लिखा गया तब सबसे पहले शुक्ल जी ने अपने से पूर्व के इतिहासों का मन्थन किया तदुपरान्त उन्होंने अपना वैज्ञानिक इतिहास प्रस्तुत किया।

आचार्य शुक्ल ने 900 वर्ष के इतिहास को निम्नलिखित कालखण्डों में प्रस्तुत किया है-

  1. वीरगाथा काल संवत् 1075 से 1375 तक
  2. भक्तिकाल संवत् 1375 से 1700 तक
  3. रीतिकाल संवत् 1700 से 1900 तक
  4. आधुनिक काल संवत् 1900 से आज तक या अद्यावधि ।

उपर्युक्त काल विभाजन शुक्ल जी की मौलिक चिन्तना का परिणाम है। इस विभाजन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि प्रत्येक काल खण्ड की अवधि भी निश्चित कर दी गयी है। आचार्य शुक्ल के इतिहास की दूसरी विशेषता प्रवृत्तिगत अध्ययन सम्बन्धी है। इस अध्ययन में प्रत्येक कालखण्ड की प्रमुख प्रवृत्तियों के साथ-साथ गौण प्रवृत्तियों का विवेचन किया गया है जो अब तक के समस्त लेखन की नवीनता है। आचार्य शुक्ल ने प्रत्येक काल खण्ड का नामकरण उस काल खण्ड में प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर किया। उसकी मौलिकता यह है कि उन्होंने किसी दुराग्रह और पूर्वाग्रह से काम नहीं लिया है। शुक्ल जी के इतिहास में प्रत्येक खण्ड के अन्तर्गत प्रमुख और गौण सभी उपलब्ध प्रवृत्तियों का उनके कृतित्व और जन्म-मरण आदि के साथ किया है। आचार्य शुक्ल जी ने इतिहास में कुछ ऐसे तत्वों की ओर भी संकेत किया है, जो विवेचित कालखण्ड की प्रमुख प्रवृत्तियों और प्रेरणाओं को स्पष्ट करते हैं।

मौलिकता और वैज्ञानिकता – शुक्ल जी ने प्रत्येक कालखण्ड के प्रमुख कवियों में से शीर्षस्थ कवि के आधार पर विवेचित कालखण्ड के प्रवर्तक का भी निर्धारण किया है। ऐसा करके आचार्य शुक्ल ने एक स्वस्थ परम्परा डाली है तथा आगे के इतिहासकारों के मौलिक विवेचन व चिन्तन का मार्ग प्रशस्त किया है। आचार्य शुक्ल के इतिहास में इतनी गहराई है कि प्रत्येक काल खण्ड के अन्तर्गत प्रवाहित छोटी-छोटी धाराओं का विवेचन सूक्ष्मता के साथ किया गया है। इतना सब होते हुए भी आचार्य शुक्ल का इतिहास आज के समीक्षकों और इतिहास लेखकों के मानस में अनेक प्रश्नों पर ध्यान देता है। निश्चय ही शुक्ल जी द्वारा लिखित इतिहास की सीमाएँ हैं और वे इतनी स्पष्ट हैं कि आज उन पर खुलकर विचार किया जा सकता है। यह सब होते हुए भी इतना निश्चित है कि यदि शुक्ल जी ने इतना व्यवस्थित और मौलिक इतिहास प्रस्तुत न किया होता तो आज जो नये-नये अनुसन्धान हो रहे हैं, वे इस रूप में नहीं हो पाते। आचार्य शुक्ल के इतिहास में विद्वानों ने जो कमियाँ खोजी हैं, वे नये अनुसन्धान के आलोक में ही अपना महत्व रखती हैं। वे प्रमुखतः कालखण्डों के नामकरण उनके प्रवर्तकों तथा उनमें विवेचित रचनाओं के स्वरूप वैशिष्ट्य आदि से सम्बन्धित है। शुक्ल जी ने जो इतिहास प्रस्तुत किया है वह वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तथ्यों से भरपुर होने पर भी आगे के इतिहासकारों के लिए चुनौती बना हुआ है। इस चुनौती को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं डॉ. रामकुमार वर्मा ने स्वीकार नहीं किया जो इन विद्वानों के इतिहास में देखी जा सकती है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- आचार्य द्विवेदी जी ने यद्यपि कोई व्यवस्थित इतिहास प्रस्तुत नहीं किया है, किन्तु हिन्दी साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित उनकी दो कृतियाँ उपलब्ध हैं। प्रथम कृति का नाम ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ है और दूसरी कृति का नाम ‘हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास’ है। इन कृतियों के अतिरिक्त उनकी एक कृति ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’ के नाम से भी प्रकाशित हुई है। आचार्य शुक्ल ने प्रत्येक युग के साहित्य की प्रवृत्तियों के निर्धारण में युगीन परिस्थितियों को प्रमुखता दी थी जबकि आचार्य द्विवेदी जी ने इस देश की प्राचीन परम्पराओं, संस्कृति और धारावाहिक रूप और शास्त्रीय एवं लोक परम्पराओं के व्यापक सन्दर्भ में प्रत्येक युग के साहित्य का मूल्यांकन किया है। उदाहरण के लिए द्विवेदी जी ने प्रमाण देकर सिद्ध किया है कि हिन्दी साहित्य में भक्ति का आन्दोलन न तो निराशा से उत्पन्न परिस्थितियों का परिणाम है न ही यह इस्लाम धर्म की प्रतिक्रिया की उपज है। वह तो भारत के दर्शन धर्म व साधना का प्रस्फुटन है। इतना ही नहीं, आचार्य द्विवेदी जी ने यह भी स्थापित किया है कि संत मत पर विदेशी प्रभाव की कोई भी छाया नहीं है। वास्तविकता यह है कि सन्त साहित्य का मूल सिद्धों और नाथों की वाणियों में छिपा हुआ है। द्विवेदी जी ने प्रेमकाव्यों का स्रोत, प्राकृत और अपभ्रंश काव्यों में प्रेमात्मकत रूढ़ियों और परमपराओं में तलाश किया है। हिन्दी साहित्य का आदिकाल पुस्तक के माध्यम से द्विवेदी जी ने हिन्दी के प्रारम्भिक काल को एक नई दिशा और नई रोशनी प्रदान की। ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि आचार्य द्विवेदी जी ने मध्यकालीन साहित्य स्रोतों और परम्पराओं का महत्वपूर्ण गवेषणात्मक अध्ययन मानवतावादी दृष्टि से किया है। आचार्य शुक्ल जी ने युगीन प्रवृत्तियों का विश्लेषण केवल एकपक्षीय परिस्थितियों के आधार पर किया है जबकि द्विवेदी जी ने उन्हें संस्कृति और शास्त्र पूर्व परम्पराओं का सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आचार्य शुक्ल के नामकरण का विरोध करते हुए हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक काल को ‘आदिकाल’ नाम दिया है। आज तक यही नाम मान्य भी है ।

डॉ. रामकुमार वर्मा – डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है। इसमें लेखक ने 1693 से 1693 ई. की कालावधि को लेकर भक्तिकाल तक के इतिहास का आलोचनात्मक अध्ययन किया है। डॉ. वर्मा ने आचार्य शुक्ल की पद्धति का अनुकरण किया है। उन्होंने काल खण्डों और काव्य धाराओं के नामकरण में थोड़ा परिवर्तन कर दिया है। वीरगाथा काल को चारण काल कहा है और इससे पूर्व सन्धि काल को जोड़ दिया है। जिसमें अपभ्रंश भाषा के प्रायः सारे कवियों को समेट लिया है और अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयं भू को हिन्दी साहित्य का अदि कवि घोषित किया है जो कि ऐतिहासिक, साहित्यिक और भाषा वैधानिक दृष्टि से सर्वथा अवांछनीय है। काव्यधाराओं के नामकरण में लेखक ने ‘सन्त काव्य’ व ‘प्रेम काव्य’ आदि शीर्षकों का सार्थक प्रयोग किया है। साहित्यकारों के मूल्यांकन में लेखक ने कलात्मक, सहृदयता एवं नैसर्गिक कवि हृदय का परिचय दिया है। परिणामतः शैली प्रवाहपूर्ण, रोचक, सरस और हृदयावर्जक है और यही इस ग्रन्थ की लोकप्रियता का मुख्य कारण है

डॉ. धीरेन्द्र वर्मा- विभिन्न विद्वानों के सहयोग से लिखित एवं डॉ. धीरेन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित ‘हिन्दी साहित्य’ कई दृष्टियों से उल्लेखनीय है। इसमें साहित्य के इतिहास को तीन काल खण्डों में आदिकाल, मध्यकाल तथा आधुनिक काल में विभक्त किया है। समस्त काव्य परम्पराओं का वर्णन स्वतन्त्र रूप से किया है। ‘रासो काव्य परम्परा’ को नवीन रूप से जोड़ा गया है। काल विभाजन, विषय निरूपण एवं शैली आदि की दृष्टि से उक्त ग्रन्थ आचार्य शुक्ल के इतिहास से काफी भिन्न है। विभिन्न लेखकों द्वारा रचित होने के कारण इसमें एकरूपता और अन्वति का अभाव है।

नागरीप्रचारिणी सभा का योगदान- नागरीप्रचारिणी सभा का योगदान हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में अवश्य उल्लेखनीय है। नागरीप्रचारिणी में प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास 16 खण्डों में विभक्त है। ये सभी खण्ड हिन्दी साहित्य के इतिहास को विस्तृत भूमिका प्रदान करते हैं। प्रत्येक खण्ड अलग-अलग काव्य-प्रवृत्तियों और तत्कालीन परिस्थितियों की विवेचना करता हुआ समग्रता के साथ प्रस्तुत हुआ है। उल्लेखनीय बात यह है कि नागरीप्रचारिणी द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास अभी तक पूरा प्रकाशित होकर सामने नहीं आया। इसके 16 खण्डों में से केवल दस खण्ड ही हमारे सामने आ सके हैं जो 16 खण्ड इस इतिहास को पूर्णता प्रदान करेंगे वे इस प्रकार हैं-

1. प्रथम भाग हिन्दी साहित्य की पीठिका

2. हिन्दी भाषा का विकास।

3. हिन्दी साहित्य का उदय और विकास।

4. भक्तिकाल-निर्गुण साहित्य ।

5. भक्तिकाल का सगुण भक्ति साहित्य ।

6. श्रृंगार काल का रीति मुक्त काव्य ।

7. हिन्दी साहित्य का अभ्युत्थान (भारतेन्द्र युग) ।

8. द्विवेदी युग

9. हिन्दी साहित्य का उत्कर्ष काल ।

10. हिन्दी साहित्य का नाटक साहित्य ।

11. हिन्दी का उपन्यास, कथा और आख्यियिका, साहित्य

12. समालोचना एवं निबन्ध

13. अद्यतन काल ।

14. हिन्दी में शास्त्र तथा विज्ञान ।

15. हिन्दी का लोक साहित्य ।

नागरीप्रचारिणी द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य के उपर्युक्त 16 खण्ड इतिहास की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। स्पष्टता एवं सुबोधता की दृष्टि से यह इतिहास अत्यन्त उपयोगी है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ और उपलब्धियाँ हैं-

1. इतिहास में सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का विभाजन प्रवृत्तियों के आधार पर किया गया है।

2. इस इतिहास में प्रत्येक कालखण्ड में प्रमुख कवियों और लेखकों के विवेचन के साथ-साथ उस युग की परिस्थितियों और प्रवृत्तियों का मूल्यांकन भी किया गया है जिससे कि इसका मूल्य हिन्दी साहित्य के इतिहासों में काफी बढ़ जाय ।

3. इस इतिहास में हिन्दी साहित्य के उद्भव विकास, उत्कर्ष और अपकर्ष के वर्णन में ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाया गया। प्रत्येक खण्ड में विवेचन प्रस्तुतीकरण और उपलब्धियों का मूल्यांकन वैज्ञानिक दृष्टि को काम में लिया गया है।

4. हिन्दी साहित्य के इस इतिहास में साहित्य शास्त्रीय दृष्टिकोण को अपनाया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस इतिहास में साहित्यिक व शास्त्रीय दोनों दृष्टियों को महत्व देकर प्रस्तुत किया गया है।

नागरीप्रचारिणी के प्रकशित इतिहास की श्रृंखला में, भारतीय हिन्दी परिषद् द्वारा प्रकाशित इतिहास का नाम भी आता है। वह इतिहास दो खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में हिन्दी साहित्य की भूमिका प्रस्तुत की गई है, एवं द्वितीय खण्ड में साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर साहित्य की विभिन्न धाराओं का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। अपनी सीमाओं में बँधा हुआ होने के कारण यह इतिहास अधिक लोकप्रिय नहीं हुआ है।

इन इतिहासों के पश्चात् डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त एवं डॉ. शिवकुमार वर्मा द्वारा लिखित क्रमशः हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास तथा हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ भी प्रकाशित हुई। डॉ गणपतिचन्द्र का इतिहास प्रवृत्तियों के आधार पर लिखा गया है और उसमें किसी विशेष प्रवृत्ति का विवेचन प्रारम्भ से लेकर अन्त तक कर दिया गया है। इसमें लेखक ने वैज्ञानिकता का दावा किया है, किन्तु पढ़ने पर पता चलता है कि यह इतिहास समस्याओं को सुलझाने की अपेक्षा उलझाता भी है। डॉ. शिवकुमार शर्मा का हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ छात्रोपयोगी है। इसमें युग और प्रवृत्तियों के आधार पर कालों का विवेचन किया गया है और आचार्य शुक्ल की परम्परा को स्वीकार किया गया है।

हिन्दी साहित्य के इतिहास के परम्परा में प्रमुखतः ये ही इतिहास लिखे गये हैं। यों कुछ छोटे-छोटे इतिहास भी उपलब्ध हैं, किन्तु मौलिकता की दृष्टि से वे परीक्षापयोगी सामग्री ही प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक युग में इतिहास लेखन का कार्य पर्याप्त जटिल हो गया है। अतः कोई भी विद्वान् समूचे इतिहास लेखन का श्रेय नहीं उठाना चाहता है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक विधा और प्रत्येक काल को आधार बनाकर ही कुछ इतिहास लिखे जा रहे हैं। इस प्रकार के लेखन में प्रत्येक विधा का विशेषण अपना-अपना योगदान देना चाहता है। ऐसी स्थिति में इस प्रकार उन्हें इतिहास मानने में भी संकोच होता है।

डॉ. नगेन्द्र द्वारा सम्पादित इतिहास- आधुनिक युग में इतिहास लेखन के क्षेत्र में कुछ सहयोगी लेखन के प्रयास भी सामने आ रहे हैं। इन प्रयासों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयास डॉ. नगेन्द्र द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य का इतिहास विशेष उल्लेखनीय है। यह इतिहास एक दर्जन से भी अधिक विद्वानों द्वारा लिखा गया है। सम्पादक का दावा है कि यह प्रत्येक विधा व खण्ड के विशेषज्ञ एवं अधिकारी विद्वान् द्वारा लिखा गया है। लगभग एक हजार पृष्ठों का यह इतिहास चार खण्डों में है जो हिन्दी साहित्य के इतिहास के चारों युगों के सूचक हैं। प्रथम खण्ड में भक्तिकाल से सम्बन्धित है जिसका विवेचन चार भागों में, अध्यायों में किया गया है। तीसरा खण्ड रीतिकाल श्रृंगार काल से सम्बन्धित है। इसमें विशद विवेचन किया गया है। चौथा खण्ड आधुनिक काल की नवीन साहित्यिक धाराओं का विवेचन प्रस्तुत करता है।

उपर्युक्त इतिहास व्यवस्थित, संगठित एवं सन्तुलित है, इस इतिहास के काल खण्डों के नामकरण के सम्बन्ध में पूर्व प्रचलित मान्यताओं को ही यथावत् स्वीकार कर लिया गया है। जहाँ तक विवेचन का प्रश्न है इसमें पर्याप्त गहराई है, सामान्यतः प्रत्येक कालखण्ड के विवेचन में उस काल खण्ड की पीठिका, प्रेरक शक्तियाँ प्रवृत्तियाँ प्रमुख कवियों एवं लेखकों के विवेचन के साथ-साथ फुटकर कवियों का विवेचन भी अन्य शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है। इस इतिहास के पढ़ने के बाद हिन्दी साहित्य के इतिहास की निर्भान्त एवं व्यवस्थित रूपरेखा हमारे सामने आती है। हाल ही में डॉ. नगेन्द्र के अतीव कुशल सम्पादन में ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ तथा ‘हिन्दी वाड्मय बीसवीं शती’ इतिहास सम्बन्धी दो महत्वपूर्ण प्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। इनमें अनेक अधिकारी विद्वानों ने इतिहास के विभिन्न पक्षों पर व्यापक व गहन दृष्टि से लिखा है। इनमें इतिहास के कई अज्ञात पक्षों को प्रकाश में लाया गया है तथा ज्ञात पक्षों को वैज्ञानिक तथा विकासवादी नये आलोक में प्रस्तुत किया गया है। इस दिशा में कृति सम्पादक तथा लेखक वर्ग का प्रयास नितान्त स्तुत्य है ।

निष्कर्ष- उपर्युक्त विवेचना के आधार पर कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। जिस इतिहास लेखन की परम्परा का सूत्रपात अव्यवस्थित रूप से गार्सादतासी ने किया था, उसे व्यवस्था एवं वैज्ञानिकता प्रदान करने का कार्य आचार्य शुक्ल, डॉ. रामकुमार वर्मा ने किया। बीच में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी मौलिक मान्यताओं के प्रकाश में हिन्दी साहित्य का पुनः मूल्यांकन किया। अद्यतन रूप में जो इतिहास हमें उपलब्ध होता है, वह सभी परम्परा प्राप्त इतिहासों और समय-समय पर हुई नवीन खोजों का परिणाम है। वस्तुतः हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की आवश्यकता तो आज भी बनी हुई है, किन्तु इस क्षेत्र में अब स्वतन्त्र विधाओं के रूप में कार्य हो रहा है, यह स्वतन्त्र कार्य जहाँ हिन्दी साहित्य की नित्य प्रति बदलती हुई स्थितियों और परिस्थितियों का सूचक है वहीं गहनता और व्यापकता का भी ।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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