हिन्दी साहित्य

हिन्दी साहित्य के मूल्यगत आधार ( हिन्दी साहित्य का काल विभाजन : आधार और नामकरण )

हिन्दी साहित्य के मूल्यगत आधार ( हिन्दी साहित्य का काल विभाजन : आधार और नामकरण )
हिन्दी साहित्य के मूल्यगत आधार ( हिन्दी साहित्य का काल विभाजन : आधार और नामकरण )

हिन्दी साहित्य के मूल्यगत आधार ( हिन्दी साहित्य का काल विभाजन : आधार और नामकरण )

साहित्य का इतिहास अपने समय की मानव-मनोवृत्तियों और भावनाओं का प्रतिरूप होता है। जब कभी कोई इतिहास लिखा जाता है तो उसमें अनेक समस्याएँ बाधक बनकर आती हैं। समय और स्थिति के अनुरूप साहित्य की गति में स्वतः ही परिवर्तन होता रहता है। साहित्यकार जिस युग में जीवित रहता है, अपनी परम्पराओं से अविच्छिन्न रहते हुए भी वह जीवंत परिवेश एवं आयाम से समग्र प्रभाव ग्रहण करता है। मानव संस्कृति की परम्परा अबाध है । अतः मानव संस्कृति को स्वयं में एक सबल अंग मानकर साहित्यकार अपनी कृति में एक तो शाश्वत मूल्यों एवं सत्यों को ग्रहण करता है, दूसरे वह सामाजिक प्रभावों, रीति-नीतियों, धर्म, समाज, अर्थ और राजनीति आदि प्रभावों को भी ग्रहण करता है। सामयिक परिस्थितियों और प्रवृत्तियों का प्रभाव अनिवार्य होता है। ये परिस्थितियाँ और प्रवृत्तियाँ ही साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करने का आधार बन सकती हैं। प्रायः इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए इतिहास लेखकों ने थोड़े बहुत अन्तर के साथ हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन किया है।

ग्रियर्सन का काल विभाजन- जहाँ तक काल विभाजन का प्रश्न है इस संबंध में गार्सदतासी और शिवसिंह ठाकुर के इतिहास में कोई प्रयत्न नहीं किया गया है। काल विभाजन की दृष्टि से पहले-पहल हमारे समक्ष प्रियर्सन का इतिहास आता है। यह ठीक है कि प्रियर्सन के हिन्दी साहित्य के इतिहास का मूल आधार शिवसिंह सरोज था किन्तु फिर भी निश्चित है कि उन्होंने पहले पहल हिन्दी साहित्य के इतिहास को ग्यारह भागों में विभाजित किया- 1. चारण काल, 2. पन्द्रहवीं शताब्दी का धार्मिक पुनर्जागरण, 3. मलिक मोहम्मद जायसी की प्रेम कविता, 4. ब्रज का कृष्ण सम्प्रदाय, 5. मुगल दरबार, 6. तुलसीदास, 7. रीतिकाव्य, 8. तुलसीदास के परवर्ती कवि, 9. अठारहवीं शताब्दी, 10. कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान तथा 11. महारानी विक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान

ग्रियर्सन के इस विभाजन में आज की दृष्टि में कई कमियाँ नजर आ सकती है किन्तु शुक्ल जी द्वारा प्रस्तुत हिन्दी की मूल रूपरेखा इसमें दिखलाई ही देती है। “रीति काव्य” का उल्लेख प्रियर्सन ने भी किया है और शुक्ल जी ने बाद में यह नाम शायद ग्रियर्सन से ही ग्रहण किया था। भक्ति काव्य की तीन शाखाओं का भी अलग-अलग वर्णन प्रियर्सन के इस विभाजन में दिखाई देता है। प्रेम काव्य अथवा सूफी काव्य, कृष्ण काव्य और तुलसीदास अर्थात् राम काव्य । शुक्ल जी का वीरगाथा काल यहाँ चारण काल के रूप में है। डॉ. रामकुमार वर्मा ने भी “हिन्दी साहित्य” का आलोचनात्मक इतिहास में चारणकाल नाम स्वीकार किया है।

मिश्र बन्धुओं का वर्गीकरण- प्रियर्सन के बाद 1913 ई. में मिश्र, बन्धुओं का “मिश्र बन्धु विनोद” प्रकाशित हुआ । यह ग्रन्थ चार भागों में प्रकाशित हुआ और इन चार भागों में 5000 से अधिक लेखकों का परिचय दिया गया है। मिश्र बन्धुओं ने अपनी इस रचना में हिन्दी साहित्य के इतिहास का युग विभाजन और नामकरण निम्न प्रकार से किया है-

  1. पूर्व आरम्भिक काल    (700 से 1343 वि.)
  2. उत्तरारम्भिक काल    (1344 से 1444 वि.)
  3. पूर्व माध्यमिक काल    (1445 से 1560 वि.)
  4. प्रौढ़ माध्यमिक काल    (1561 से 1680 वि.)
  5. पूर्वालंकृत काल     (1681 à 1790 वि.)
  6. उत्तरालंकृत काल   (1791 से 1889 वि.)
  7. परिवर्तन काल    (1890 से 1925 वि.)
  8. वर्तमान काल   (1926 वि. से)

मिश्र बन्धुओं ने अपने काल विभाजन तथा नामकरण में प्रियर्सन से भिन्न तरीका अपनाया है। उनके विभाजन में आरम्भ, मध्यम और वर्तमान काल की प्रधानता है। प्रियर्सन ने प्रवृत्ति मूलक विभाजन की दिशा में कदम बढ़ाया था, मिश्र बन्धुओं ने उसकी जगह प्रौढ़ मध्यकाल तथा अलंकृत काल का उपविभाजन प्रसिद्ध कवियों (जैसे सूर, तुलसी, देव, सेनापति, पद्माकर आदि) के नाम पर किया। रीतिकाल का नाम उन्होंने “अलंकृत काल” रखा है। मियर्सन ने आधुनिक काल का विभाजन राजनैतिक आधार पर (कम्पनी का शासन तथा रानी विक्टोरिया शासन) पर किया, उसकी जगह मिश्र बन्धुओं ने “परिवर्तन काल” तथा ” वर्तमान काल” के नाम से पसन्द किए। शुक्ल जी ने अपने इतिहास में इस अव्यवस्था की आलोचना की और मिश्र बन्धुओं के प्रयास को अप्रमाणिक एवं गम्भीर अध्ययन और चिन्तन से रहित माना ।

पं. रामचन्द्र शुक्ल का काल विभाजन एक सफल प्रयास

शुक्ल जी का विभाजन आचार्य शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप में किया है। उन्होंने अपने काल विभाजन और नामकरण का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि यद्यपि इन कालों की रचनाओं की विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया है, परन्तु यह नहीं समझना चाहिए कि किसी काल और प्रकार की रचनाएँ होती ही नहीं है। जैसे भक्तिकाल या रीतिकाल को ही लें तो उसमें वीर रस के अनेक काव्य मिलेंगे, जिनमें वीर काव्यों में राजाओं की प्रशंसा उसी ढंग की होगी जिस ढंग की वीरगाथा काल में हुआ करती थी।” आचार्य शुक्ल जी ने स्पष्ट ही प्रवृत्ति विशेष के आधार पर हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल हिन्दी प्रस्तुत किया है। उनके विभाजन को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. आदि काल (वीरगाथा काल, सं. 1050-1375)
  2. पूर्व मध्य काल (भक्ति काल सं. 1375-1700)
  3. उत्तर मध्य काल (रीति काल 1700-1900)
  4. आधुनिक काल (मध्य काल 1900 से अब तक)।

शुक्ल जी के इस काल विभाजन में मिश्र बन्धु विनोद (आरम्भ, पूर्व मध्य उत्तर मध्य परिवर्तन तथा वर्तमान काल ) तथा ग्रियर्सन के प्रवृत्ति मूलक विभाजन का समन्वय किया गया। शुक्ल जी ने अपने इतिहास में भक्तिकाल तथा रीतिकाल के फुटकर कवियों का वर्णन किया है। शुक्ल जी ने फुटकर कवि उसको माना है जो किसी काल की मुख्य प्रवृत्ति से बाहर थे। रीतिकाल में ऐसे कवियों की रचना काफी थी। रीतिकाल की मुख्य प्रवृत्ति के अन्तर्गत पुनः कवियों का वर्णन शुक्ल जी ने किया है और 49 कवियों का फुटकर के रूप में। इस प्रकार शुक्ल जी के नामकरण में आधे से कुछ कम कवि मुख्य प्रवृत्ति से बाहर रह गये हैं। शुक्ल जी की वीरगाथा काल की विवेचना बाद में काफी विवादास्पद रही है और अब वीर गाथकाल की धारणा का आधार बनने वाले मन्य अप्रामाणिक या अर्द्ध-प्रामाणिक सिद्ध हो गये हैं। निस्सन्देह आचार्य शुक्ल का काल विभाजन अपनो संक्षिप्तता, सरलता और प्रवृत्तिगत स्पष्टता के कारण आज भी हिन्दी जगत में बहुत सम्मान और मान पाए हुए हैं।

शुक्ल जी के काल विभाजन का आधार तथा उसकी समीक्षा- शुक्ल जी के काल विभाजन के दो आधार निम्नलिखित-

(i) किसी कालखण्ड में किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता ।

(ii) ग्रन्थों की प्रसिद्धि ।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि शुक्ल जी ने इतिहास के काल विभाजन के जो आधार माने हैं उन्हें वे भली-भाँति प्रतिष्ठित नहीं कर सके। अतः उनका काल विभाजन सर्वथा संगत एवं निर्दोष नहीं है। यदि मानव मनोविज्ञान का सहारा लें तो शुक्ल जी द्वारा किया गया आदि, मध्य तथा आधुनिक काल नामकरण अभिनन्दनीय है किन्तु काल विशेष को विशिष्ट प्रमुखता के आधार पर किया गया नामकरण और विवेचन वीरगाथा काल, भक्तिकाल तथा रीतिकाल का नामकरण चिन्तनीय है। यद्यपि यह ठीक है कि आचार्य शुक्ल जैसे अधिकारी विद्वान् ने जिन परिस्थितियों में इस इतिहास लेखन का कार्य पूरा किया वह उस समय के अनुसार ठीक ही था। उसके समक्ष सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि इतिहास से सम्बन्धित अपेक्षित सामग्री प्रकाश में नहीं आई थी। आज स्थिति काफी बदल गयी है। पिछले लगभग 50 वर्षों में पर्याप्त अनुसंधान हुए हैं और नये दृष्टिकोण विकसित हुए हैं। इन अनुसंधानों और नवीन दृष्टिकोण के विकसित होने के कारण आज आचार्य शुक्ल का इतिहास अथवा प्रवृत्तिमूलक काल विभाजन दोषपूर्ण दिखाई देता है। उसमें कुछ त्रुटियाँ हैं। जिन्हें नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है।

शुक्ल जी के काल विभाजन की असंगतियाँ- आचार्य शुक्ल द्वारा किए गए काल विभाजन में जो त्रुटियाँ दिखाई देती हैं, वे इस प्रकार है-

(क) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी के प्रारम्भिक काल की सीमाओं का निर्धारण 1050 विक्रम से 1375 विक्रम तक करके इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है। इस सम्बन्ध में पहली बात तो यह है कि काल सीमा ही दोषपूर्ण है। कारण यह है कि हिन्दी भाषा का विकास बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था। अतः 1050 के समय हिन्दी भाषा के प्रन्थों की सना मान्य नहीं होती। शुक्ल जी ने तथा उनके अनेक अनुकर्ता इतिहास लेखकों ने अपभ्रंश साहित्य को पुरानी हिन्दी या प्राकृत भाषा की परिधि में समेटना चाहा है जो उचित नहीं है।

एक बात यह भी है कि आचार्य शुक्ल जी ने जिन रचनाओं के आधार पर इस काल का नामकरण किया है और जिन्हें वीरगाथात्मक और प्रामाणिक माना है वे सबकी सब न तो वीर रसात्मक हैं और न ही प्रामाणिक हैं। उनमें कुछ रचनाएँ तो ऐसी भी हैं जो कि इस काल में ही नहीं आती हैं। हिन्दी साहित्य के प्रारम्भिक कॉल में कुछ साहित्य ऐसा भी लिखा गया है जो धर्मश्री और लोकाश्रयी है। यदि हम शुक्ल जी की बात को मान लेते हैं तो इस प्रकार का साहित्य उपेक्षित हो जाता है जो कि उचित नहीं है। यह भी नहीं माना जा सकता है कि राजाओं के आश्रय में केवल वीर रसपूर्ण रचनाओं का प्रणयन ही हुआ होगा। डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. राहुल और महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा इस काल के लिए जो नाम दिए गए हैं वे भी एकांगी हैं। अतः कह सकते हैं कि हिन्दी के प्रारम्भिक काल में साहित्य अनेक धाराओं में विभाजित होकर प्रवाहित हुआ है। ऐसी स्थिति मैं उसे न तो वीरगाथा काल कह सकते हैं और न चारण काल ही और न सिद्ध सामान्त काल ही कहा जा सकता है।

(ख) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल की संज्ञा से अभिहित किया है। यह एक प्रवृत्ति विशेष को सूचित करता है। वास्तविकता यह है कि इस काल में भक्ति की धारा के साथ-साथ साहित्य की अनेक धाराएँ भी पर्याप्त सक्रिय रही हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने निर्गुण ज्ञानाश्रयी, निर्गुण प्रेमाश्रयी, भक्ति और रामभक्ति जैसी चार काव्य परम्पराओं का उल्लेख किया है। ये परम्पराएँ तो चलती ही रही होंगी कुछ और परम्पराएँ भी चलती होंगी। अतः आचार्य शुक्ल की बात को यथावत स्वीकार नहीं किया जा सकता। डॉ. गणपतिचन्द गुप्त ने मध्यकालीन हिन्दी साहित्य की काव्य परम्पराओं का उल्लेख इस प्रकार किया है।

1. धर्माश्रय में- (क) संत काव्य परम्परा, (ख) पौराणिक नीति परम्परा, (ग) पौराणिक प्रबन्ध काव्य परम्परा, (घ) रसिक भक्ति काव्य परम्परा

2. राज्याश्रय में- (क) मैथिली गीति परम्परा, (ख) ऐतिहासिक रस काव्य परम्परा, (ग) ऐतिहासिक चरित्र काव्य परम्परा, (घ) ऐतिहासिक मुक्तक परम्परा, (ङ) शास्त्रीय मुक्तक परम्परा ।

3. लोकाश्रय में- रोमांटिक कथा काव्य परम्परा,

4. स्वच्छन्द प्रेमकाव्य परम्परा ।

इससे स्पष्ट होता है कि आधुनिक खोजों के द्वारा पर्याप्त नवीन सामग्री प्रकाश में आ गयी है। अतः पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल कहना उचित नहीं जान पड़ता है।

(ग) आचार्य शुक्ल ने उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल नाम से पुकारा हैं। कुछ इतिहास लेखकों ने जिनमें आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का नाम प्रमुख है, इस काल को श्रृंगार काल कहा है। यह ठीक है कि रीति के द्वारा नायक-नायिकाओं की रसिकता प्रधान श्रृंगार का निरूपण इस काल में हुआ है, किन्तु उसका मतलब यह नहीं है कि उस काव्य की अन्य परम्पराएँ समाप्त हो चुकी हैं। रीति पद्धति की प्रमुखता की स्वीकृति का कारण कदाचित यह रहा है कि रीति कविता बहुधा अवध, बुन्देलखण्ड तथा राजस्थान के राजदरबारों में पली । अतः उसमें रीतिरचना, श्रृंगारिकता एवं अलंकरण की प्रवृत्ति की प्रमुखता रही है। अब आधुनिक अनुसंधानों के कारण कुछ नई बातें सामने आई हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. शिवकुमार शर्मा ने लिखा है कि “इस काल में साहित्य की रचना केवल राजाश्रयों में ही नहीं हुई बल्कि धर्माश्रय और लोकाश्रयों में भी प्रभूत साहित्य का प्रणयन हुआ। जिसे किसी भी दशा में रीति पद्धति पर रचे साहित्य से गौण नहीं कहा जा सकता है। कुछ वर्ष पहले गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और मिथिला जनपद में सैकड़ों पद सन्त, सुफी और जैन कवियों की असंख्य, शुद्ध भक्तिभाव से युक्त रचनाओं का पता लगता है। जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि इस काल में भक्ति काव्य भी काफी मात्रा में लिखा गया है। डॉ. टिकमसिंह तोमर ने 1700 से 1900 में रचित 90 वीर काव्यों की सूची प्रस्तुत की है। इसी प्रकार डॉ. जयभगवान गोयल ने पंजाब और हरियाणा में प्राप्त गुरूमुखी लिपि में लिखे हुए 25 वीर काव्यों की सूची दी है। इससे स्पष्ट होता है कि भक्तिकाल के समान ही रीतिकाल की स्थिति भी नवीन खोजों के प्रकाश में बदलती नजर आती हैं।

परम्परागत दृष्टिकोणों के अनुसार आधुनिक काल के साहित्य को प्रायः भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग, छायावाद युग, प्रगतिवाद युग, प्रयोगवाद युग और प्रयोगत्तर युग के रूप में विभाजित किया जा सकता है। यह वर्गीकरण भी विवादास्पद है। डॉ. गणपति चन्द गुप्त ने हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल को निम्नांकित रूपों में विभाजित किया है-

1. पुनर्जागरण काल      (भारतेन्दु काल 1857 से 1900 ई.)।

2. जागरण सुधार काल    (द्विवेदी काल 1900-1918 ई.)

3. छायावाल काल      (1918-1938 ई. )

4. छायावादोत्तर काल ।

(क) प्रगति प्रयोगकाल    (1938 से 1953 ई)

(ख) नवलेखन काल       (1953 से अब तक)।

निश्चय ही डॉ. गणपति चन्द गुप्त का यह विभाजन औचित्यपूर्ण है। उनके द्वारा किया गया प्रगति प्रयोगकाल नामकरण उचित प्रतीत होता है। उसका कारण यह है कि इस समय एक ओर तो प्रगतिशील रचनाएँ लिखी जा रही हैं और दूसरी ओर साहित्य के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग किए जा रहे हैं। प्रारम्भ में प्रगतिवाद का दौर था जो कुछ वर्षों में समाप्त हो गया। इसके कुछ समय बाद प्रयोगवाद का विकास हुआ और वह भी थोड़े समय ही चल पाया। 1953 के आसपास नया लेखन शुरू हुआ, जिसे नवलेखन कहा जा सकता है। कुछ लेखकों का दावा है कि नवलेखन का युग भी 1960 के बाद समाप्त हो गया और इसके बाद ही साहित्य चेतना यथार्थबोध की प्रखरता के कारण अपनी पूर्ववर्ती साहित्य चेतना से भिन्न है। ऐसी स्थिति में यह एक चिन्तनीय प्रश्न है कि आधुनिक काल का विभाजन कैसे किया जाए। हमारी दृष्टि से ऊपर जो आधुनिक काल का विभाजन किया गया है वह उचित है। इस विवेचन के पश्चात् समग्र हिन्दी साहित्य के इतिहास को निम्नलिखित कालों में विभाजित करके इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-

आदिकाल- सातवीं शती के मध्य से चौदहवीं शती के मध्य तक ।

भक्तिकाल – चौदहवीं शती के मध्य से सत्रहवीं शती के मध्य तक ।

रीतिकाल – सत्रहवीं शती के मध्य से उन्नीसवीं शती के मध्य तक ।

आधुनिक काल- उन्नीसवीं शती के मध्य से अब तक :

(अ) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल) 1857 से 1900 ई.

(ब) जागरण-सुधार काल (द्विवेदी काल) 1900 से 1918 ई.

(स) छायावाद काल 1918 से 1938 ई.

(द) छायावादोत्तर काल

(क) प्रगति-प्रयोग काल 1938 से 1953 ई.

(ख) नवलेखनकाल 1953 से अब तक

कतिपय नवीन तथ्य – डॉ. नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक इतिहास और आलोचना में हिन्दी साहित्य के काल विभाजन की समस्या पर विचार किया है और कुछ प्रश्न उठाये हैं। ये प्रश्न इस बात की सूचना देते हैं कि आज हिन्दी साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि “इतिहास का पुनर्विचार मुख्यतः इतिहास का पुनर्मूल्यांकन है। और यह पूनर्मूल्यंकन अन्ततः मूल्यांकन का प्रतिमान है। इसलिए इतिहास में किसी साहित्यकार, साहित्यिक कृति अथवा साहित्यिक युग का पुनर्मूल्यंकन करते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि वह केवल नवीन मूल्यांकन भर न हो। इस बात की ओर ध्यान दिलाना इसलिए जरूरी है कि इधर पुनर्मूल्यांकन के नाम पर प्रायः कोरी नवीनता और मौलिकता का प्रदर्शन हुआ है। किसी को लगा कि एक इतिहासकर ने सूर को तुलसी से घट कर दिखलाया है। इसलिए उसने अपनी मौलिकता दिखाने के लिए सूर को तुलसी से श्रेष्ठ साबित कर डाला। किसी को महसूस हुआ कि केशवदास के उद्धार में लग गया। इसी प्रकार मूल्यांकन के नाम पर इधर रीतिकाव्य के पुनरोद्धार के लिए काफी प्रयत्न किया जा रहा है। इधर एक सम्पादित इतिहास की भूमिका में कृष्णभक्ति काव्य को ही काल विस्तार रचना प्राचुर्य तथा साहित्यिक महत्व सही दृष्टियों में हिन्दी की सबसे प्रधान काव्यधारा घोषित किया गया है। शोध के उत्साह में अनेक शोधकर्ताओं ने हिन्दी के गौण कवियों का जीवनोद्धार करते समय उनके साहित्यिक महत्व की प्रतिष्ठा में संतुलन को ताक पर रख दिया है।

काल विभाजन का साहित्यिक रूप वीरगाथा काल, भक्तिकाल, रीतिकाल, भारतेन्दुकाल, द्विवेदी-काल, छायावाद-युग, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि नामों से स्थापित है। काल-विभाजन का यह ढाँचा बहुत कुछ शुक्ल जी के इतिहास द्वारा प्रतिष्ठित हुआ द बहुत दिनों से इसमें संशोधन उपस्थित किये जा रहे हैं। एक भक्तिकाल को छोड़कर प्रायः सभी नामों के औचित्य को चुनौतियों महत्वपूर्ण दी गई हैं। प्रायः प्रत्येक युग के अन्तर्गत एक से अधिक साहित्यिक प्रावृत्तियों के अस्तित्व की ओर संकेत किया गया है। एक में युग के अन्दर अनेक प्रवृत्तियों के मिलने से हर युग के अन्तर्विरोध का पता चलता है और कभी-कभी इस अन्तर्विरोध के कारण युग विभाजन का ढांचा चरमराता दिखता है। कुछ लोगों ने इस काल विभाजन व्यवस्था के अन्तर्गत सीमा रेखाओं को कहीं कहीं दस बीस वर्ष इधर उधर भी करने की कोशिश की है। और कुछ लोगों ने यदि प्राचीन नहीं तो आधुनिक काल राजनीतिक घटनाओं के अनुसार युग की सीमा रेखाएँ निर्धारित करने का सुझाव रखा है।

निष्कर्ष- संक्षेप में यही कह सकते हैं कि हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन की समस्या बड़ी विचित्र है। आचार्य शुक्ल का विभाजन आज भी महत्व रखता है, किन्तु नये अनुसंधानों के प्रकाश में उपलब्ध तथ्यों और खोजों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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