मध्यकालीन भक्ति साहित्य, सन्त कवियों, प्रेममार्गी काव्यधारा एवं गीतिकाव्य पर अपभ्रंश साहित्य के प्रभाव का उल्लेख कीजिए ।
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अपभ्रंश साहित्य का परवर्ती हिन्दी साहित्य पर प्रभाव
आचार्य डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ ग्रन्थ में अपभ्रंश – साहित्य के हिन्दी साहित्य पर प्रभाव का निरूपण किया है। उन्होंने भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक स्रोत को अविच्छिन्न गति से प्रभावित होते हुए दिखाकर यह बताने की चेष्टा की है कि, “परवर्ती हिन्दी साहित्य अपभ्रंश की अनेक विशेषताओं को अपने में धरोहर के रूप में समाविष्ट किए हुए हैं। अतः हिन्दी भाषा और साहित्य के क्रमिक विकास को खोजने के लिए हमें अपभ्रंश के नाम से अभिहित साहित्य की ओर जाना पड़ेगा।” डॉ. हरिवंश कोछड़ ने लखा है कि हिन्दी साहित्य के भिन्न-भिन्न कालों पर अपभ्रंश साहित्य का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। प्रभाव से हमारा यह तात्पर्य नहीं है कि हिन्दी साहित्य में अनेक प्रवृत्तियाँ एकदम नई थीं या ये प्रवृत्तियाँ सीधी अपभ्रंश-साहित्य में आविर्भूत हुई और वे उसी रूप में हिन्दी साहित्य में प्रविष्ट हो गई। प्रभाव से हमारा यही अभिप्राय है कि भारतीय साहित्य की एक अविच्छिन्न धारा चिरकाल से भरत खण्ड में प्रवाहित होती चली आ रही है। वही धारा अपभ्रंश- साहित्य से होती हुई हिन्दी साहित्य में प्रस्फुटित हुई। समय-समय पर इस धारा का बाह्य रूप परिवर्तित होता रहा किन्तु मूल रूप में परिवर्तन की सम्भावना नहीं। इस प्रकार हिन्दी साहित्य के विकास में अपभ्रंश साहित्य का योगदान महत्वपूर्ण रहा है ।
मध्यकालीन भक्ति साहित्य पर अपभ्रंश-साहित्य का प्रभाव
भक्तिकाल के महान् कवि गोस्वामी तुलसीदास ने जिन प्राकृत कवियों के रामकाव्यों का अध्ययन करके उनसे कुछ रूढ़ियाँ पहण की, उन्हें समझने के लिए हमें प्राकृत और अपभ्रंश के जैन राम-साहित्य का अध्ययन करना आवश्यक है। वाल्मीकि रामायण में प्रारम्भ में गुरू- वछन, सज्जन- दुर्जन-स्तुति आदि रूढ़ियों का निर्वाह नहीं हुआ है। यह परम्परा प्राकृत और अपभ्रंश के जैन राम साहित्य में प्राप्त होती है। स्वयंभू (आठवीं शती ई) ने ‘पउमचरिउ’ में प्राकृत की इन रूढ़ियों को ग्रहण किया, जिसे आगे चलकर तुलसी ने अपनाया। तुलसी ने ‘नानापुराण-निगमागमसम्मत’ के अतिरिक्त ‘क्वचिदन्योपि’ भी लिखा है। यह अन्य प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में लिखा हुआ जैन राम साहित्य हो सकता है। पठमचरिउ नामक अपभ्रंश की रामकथा में स्वयंभू के रामकथा की तुलना सरिता से करते हुए सांगरूपक के द्वारा उसका पूर्ण रूप प्रस्तुत किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी बालकाण्ड में रामकथा का सरोवर और सरित के रूपक में (दोहा 36 से 41 तक) वर्णन किया-
चली सुभग कविता सरिता सो।
राम विमल जस जलभरिता ।
इस प्रकार यह अनुमान लगाया जा सकता है कि तुलसीदास ने स्वयं द्वारा वर्णित सांगरूपक से प्रेरणा ली है। डॉ. हरिवंश कोछड़ ने लिखा है कि “रामचरितमानस तथा अन्य हिन्दी प्रबन्ध काव्यों की मंगलाचरण, सज्जन-प्रशंसा, खलनिन्दा, आत्मविनय आदि की प्रणाली संस्कृत-साहित्य से अपभ्रंश में होती हुई हिन्दी साहित्य में आई। रामचरितमानस की चौपाई दोहा पद्धति का बीज अपभ्रंश के चरिउ ग्रन्थों की कडवक शैली में निहित है।’ अपभ्रंश के महाकाव्यों में छन्दों की जो विविधता मिलती है। (विशेष रूप से नयनन्दी के सुदंसणचरिउ आदि में), वह केशव की रामचन्द्रिका का पूर्वरूप है।
सन्त कवियों पर अपभ्रंश का प्रभाव
सिद्ध एवं नाथ-सिद्धों के अपभ्रंश भाषा में रचित साहित्य का प्रभाव हिन्दी के सन्त कवियों पर स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। हिन्दी के सन्त कवियों ने प्रायः उन्हीं रूढ़ियों, मान्यताओं एवं छन्दों को अपने काव्यों में प्रस्तुत किया है जो सिद्धों एवं नाथ सिद्धों के काव्यों में पाई जाती है। उदाहरण के लिए-
1. सद्गुरू की जिस महिमा का गान हमें सन्त काव्य में पग-पग पर मिलता है, वह हम उनमें पूर्ववर्ती सहजयानियों, वज्रयानियों और नाथ, सिद्धों के काव्य में पाते हैं।
2. कबीर आदि सन्त कवियों ने जिस पद-रचना की परम्परा को अपनाया, वह उनके पूर्ववर्ती ‘बौद्ध गानों’ में मिलती है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने अपभ्रंश के सन्त कवियों पर पड़े इस प्रभाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है-“वे ही पद, वे ही राग-रागनियाँ, वे ही दोहे, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदि ने व्यवहार की है, जो उक्त मत के मानने वाले उनके पूर्ववर्ती सन्तों ने की थीं।”
3. योग साधना का साम्य- सिद्धों ने जिस यौगिक साधना का निरूपण किया है, सन्त कवियों ने उसे बहुत-कुछ ज्यों का त्यों अपनाया है।
4. रूपक परम्परा- सिद्धों के काव्य में हमें जो रूपक-परम्परा मिलती है, वह आगे चलकर सन्त कवियों द्वारा भी अपनाई गई।
जैन मुनियों एवं सिद्धों ने धर्म-प्रभावना एवं उपदेशात्मक प्रवृत्ति के प्रसार के हेतु प्रमुख रूप से दोहों और पर्दों को चुना है। इसी प्रकार सन्त कवियों ने भी साखी, पद आदि काव्यरूपों में अपने उपदेश प्रस्तुत किये हैं। डॉ. हरिवंश कोछड़ के शब्दों में, “हिन्दी का सन्त काव्य सिद्धों की विचारधारा का ही परवर्ती विकास है। हमें तो सन्त शब्द की उत्पत्ति का स्रोत भी अपभ्रंश साहित्य की मुक्तक काव्यधारा ही प्रतीत होती है, जिसमें अनेक पद्यों में ‘शान्त’ शब्द के स्थान पर ‘सन्त’ शब्द का प्रयोग मिलता
प्रेममार्गी काव्यधारा पर अपभ्रंश काव्य का प्रभाव
हिन्दी की प्रेममार्गी काव्यधारा पर अपभ्रंश का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। अपभ्रंश के ‘रासो’ काव्य प्रेमाख्यानक काव्यों के लिए आदर्श रहे हैं। संदेशरासक में जो मार्मिक प्रणय-सन्देश है, वह प्रेमाख्यानक काव्यों में भी अपनाया गया है। अपभ्रंश के भविस्सयत्त कहा, जसहर चरिउ, करकंडचरिउ तथा हिन्दी के पद्मावत, मधुमालती, मृगावती आदि प्रेमाख्यानक काव्यों में समानताएँ हैं- प्रेमकथा में गुण श्रवण या चित्रदर्शन से प्रेम का प्रारम्भ, विवाह से पूर्व नायक के प्रयत्न, सिंघल यात्रा, शुक का संदेश ले जाना, आध्यात्मिक संकेत आदि जायसी के पद्मावत पर अपभ्रंश काव्य ‘रयण सेअरी कहा’ का प्रभाव है। इस अपभ्रंश काव्य में रत्नशेखर नामक नायक रत्नावली का रूप वर्णन सुनकर सिंहल द्वीप जाता है और अन्त में रत्नावली को प्राप्त करता है। पद्मावत में राजा रत्नसेन पद्मावती के रूप का बखान सुनकर सिंहल द्वीप जाकर उसका वरण करता है। दोनों काव्यों में प्रेम कथानक के अन्तर्गत आध्यात्मिक तत्व प्रस्तुत किये गये हैं। निष्कर्ष यह है कि निजंधरी कथाओं की प्रयोग रूढ़ियों तथा विषय-वस्तु की दृष्टि से प्रेमाख्यानक काव्य अपभ्रंश काव्यों के ऋणी है। डॉ. भायाणी का कथन है कि जायसी के पद्मावत की रचना शैली, वर्णन शैली और सन्देशरासक की शैलियों में बहुत साम्य है। दोनों के मंगलाचरण भाव की दृष्टि से एकरूप है। दोनों के वियोग वर्णन में भी साम्य है। दोनों ने वस्तु वर्णन में कहीं-कहीं वस्तु परिगणन शैली को अपनाया है। यह प्रवृत्ति पुष्पदन्त ने जहरचरि में भी विद्यमान है। इस प्रकार जायसी का अब्दुलरहमान के संदेशरासक से प्रभावित होना स्पष्ट परिलक्षित होता है।
रीतिकाव्य पर अपभ्रंश काव्य का प्रभाव
डॉ. हरिवंश कोछड़ ने अपभ्रंश की परम्परा में विकसित रीतिकाव्य का निरूपण इस प्रकार किया है, “हिन्दी साहित्य की रीतिकालीन प्रवृत्तियों की परम्परा अपभ्रंश-साहित्य से होती हुई हिन्दी में आई। वर्तमान उपलब्ध अपभ्रंश-साहित्य से स्पष्ट है कि रीतिकालीन परम्परा की एक धारा अपभ्रंश काव्य में भी वर्तमान रही होगी। रीतिकालीन की नखशिख आदि की परम्परा का रूप जो हिन्दी साहित्य में हमें दिखाई देता है, उसकी मूल प्रेरणा संस्कृत साहित्य से ही चली। संस्कृत के काव्यों में अंग-प्रत्यंग का वर्णन मिलता ही है। कालिदास ने अपने ‘कुमार-सम्भव’ में पार्वती के नखशिख का मनोरम वर्णन किया है। इसी वर्णन में यह नियम विधान का पड़ा कि देवता-वर्णन चरणों से और मानव वर्णन सिर से प्रारम्भ हो। इस प्रकार अंग-प्रत्यंग का यह वर्णन यह नखशिख वर्णन संस्कृत साहित्य से अपभ्रंश से होता हुआ हिन्दी में आया है।”
हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत नायिका वर्णन सम्बन्धी दोहों की बिहारी के दोहों से तुलना करने पर यह साम्य स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है-
साव-सलोणी गोरडी, नक्खी क-वि विस-गँठि ।
भडु पच्चलिओ सो मरड़, जासु न लगगई कँठि ॥
पोडसी नायिका को विष की गाँठ कहा है। सब अंगों से वह सुदरी जैसे कोई नई विष की गाँठ हो, किन्तु आश्चर्य है कि जिसके कण्ठ से वह नहीं लगती, वह भट मरता है, पीड़ित होता है।
इसी प्रकार अपभ्रंश के दोहों में विप्रलम्भ श्रृंगार का वर्णन चमत्कारपूर्ण अपभ्रंश के नीति सम्बन्धी दोहों की झलक हमें रीतिकालीन कवियों के नीति सम्बन्धी दोहों में दिखाई पड़ती है।
कलापक्षान्तर्गत प्रभाव
यह प्रभाव वस्तुपक्ष तक ही सीमित नहीं है। कलापक्ष के अन्तर्गत भी अपभ्रंश का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। अपभ्रंश में ‘रासा’ नामक काव्य रूप प्रसिद्ध था। इस पद्धति पर ‘नेमि राजुल रास’ लिखा गया। बारहमासा लेखन की इस पद्धति का अनुकरण जायसी ने अपने पदमावत में किया है। अपभ्रंश की कड़वक पद्धति को जायसी और तुलसीदास ने अपने महाकाव्यों में अपनाया है। कड़वक बद्ध काव्यों में कवि पज्झटिका या अडिल्ल छन्द की कई पंक्तियाँ लिखकर एक घत्ता का घुवक देता है। कई पज्झटिका, अरिल्ल या ऐसे ही किसी छोटे छन्द में देकर अन्त में घत्ता का ध्रुवक कड़वक है। तुलसी ने रामचरितमानस में इसी कड़वक पद्धति को आठ या सात चौपाइयों में दोहा या घत्ता देकर स्वीकार किया है। तुलसी रामायण के इन कड़वकों को दोहा-घत्तक कड़वक कह सकते हैं क्योंकि उसमें घत्ता के स्थान पर दोहा छन्द प्रयुक्त है। नूर मुहम्मद ने अवधी भाषा में रचित अपने ‘अनुराग बाँसुरी’ काव्य में दोहा के स्थान पर वरवै का घत्ता रखा है।
अपभ्रंश के गेय पदों का प्रभाव सूरदास की पद-शैली पर लक्षित होता है तो दीनदयाल गिरि की कुण्डलियाँ भी अपभ्रंश की ऋणी हैं। केशव की रामचन्द्रिका में अपभ्रंश के लोकप्रिय छन्दों का सफल प्रयोग हुआ है। दोहा या ‘दूहा’ अपभ्रंश का लाड़ला छन्द है जिसे महाकवि बिहारीलाल ने अपनी सतसई में अपनाया है। सोरठा छन्द भी अपभ्रंश से ग्रहीत है। अपभ्रंश का अडिल्ल छन्द हिन्दी में चौपाई के रूप में उपस्थित हुआ है तो ‘उल्लास’ हिन्दी में रोला बनकर आया है। इस प्रकार अपभ्रंश के अनेक छन्द परवर्ती हिन्दी काव्य में अपनाए गए हैं।
हिन्दी अलंकार के क्षेत्र में प्रस्तुत में अप्रस्तुत का विधान, रूपक के सहारे अथवा सांकेतिक भाषा में नवीन भावों को प्रस्तुत करना, अपभ्रंश की दार्शनिक बुद्धिवादी परम्परा से लिया गया है। अपभ्रंश की ध्वन्यात्मक शब्दों की पद्धति का प्रभाव भी हिन्दी में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। हिन्दी में अपभ्रंश की अनेक लोकोक्तियों, मुहावरों और कथानक रूढ़ियों को भी अपनाया गया है।
निष्कर्ष- उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तु एवं शैली दोनों ही दृष्टि से हिन्दी काव्य अपभ्रंश काव्य का ऋणी है। हिन्दी ने परम्परा के रूप में अपभ्रंश से बहुत कुछ ग्रहण किया है। हिन्दी साहित्य के आदिकालीन, भक्तिकालीन एवं रीतिकालीन साहित्य पर अपभ्रंश-साहित्य का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। यह प्रभाव भावपक्ष और कलापक्ष दोनों के अन्तर्गत देखा जा सकता है।
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