हिन्दी साहित्य

अमीर खुसरो का हिन्दी साहित्य : परिचय एवं विशेषताएँ

अमीर खुसरो का हिन्दी साहित्य : परिचय एवं विशेषताएँ
अमीर खुसरो का हिन्दी साहित्य : परिचय एवं विशेषताएँ

हिन्दी साहित्य में अमीर खुसरो के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।

अमीर खुसरो का हिन्दी साहित्य : परिचय एवं विशेषताएँ

अमीर खुसरो (1253-1225)

अबुल हसन यामिनुद्दीन खुसरू जिसको अमीर खुसरो के नाम से जाना जाता है, तुर्की प्रवासी वंश का था। उसका जन्म तुर्क परिवार में हुआ था, जो उत्तर प्रदेश के आधुनिक एटा जिला के पटियाली नामक स्थान में आकर बसा था। अमीर खुसरो ने सबसे पहले अलाउद्दीन किक्षलूखों के दरबार में और उसके बाद बुगरराखाँ के दरबार में नौकरी की। साहित्य प्रेमी बलवन ने उसके गुणों को पहिचाना और अपने दरबार में नियुक्त किया। बन के कथनानुसार, “अमीर हसन और अमीर खुसरो उसके दरबार के सबसे अधिक चमकीले सितारे थे।” कहा जाता है कि एक बार अमीर खुसरो ने बलबन के दरबार में एक मरसीया ((शोक-गीत) पढ़ा, जिसे सुनकर सभी की आँखों में आँसू निकल आये।

अमीर खुसरो शेख निजामुद्दीन औलिया का शिष्य और परम भक्त था। लोग मुझसे पूछ सकते हैं कि मुझे भारत से इतना प्रेम क्यों है और मैं इसकी इतनी प्रशंसा क्यों करता हूँ ? कारण यह है कि भारत मेरी जन्म भूमि है और यह मेरा स्वयं का देश है। वह अपने को “हिन्दुस्तानी तुर्क” और तोतये हिन्द कहा करता था। डॉ. युसुफ हुसैन के अनुसार उसने अन्य देशों -से भारत की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अधोलिखित तर्क दिए-

1. व्यक्तियों में ज्ञान और विद्वता एक सामान्य बात है।

2. वे संसार की सब भाषाओं को ठीक-ठीक बोल सकते हैं।

3. समय-समय पर संसार के सभी भागों से विद्वान् लोग भारत में अध्ययन के लिए आये हैं पर किसी भी भारतीय विद्वान् ने ज्ञान की खोज के लिए देश से बाहर जाना आवश्यक नहीं समझा है।

4. शून्य का अविष्कार भारत में हुआ है और ‘हिन्दसा’ शब्द ‘हिन्द’ और आसा से बना है। आसा भारत का प्रसिद्ध गणितज्ञ था

5. शतरंज के खेल का आविष्कार भारत में हुआ है।

6. भारतीय संगीत अन्य देशों के संगीत से बहुत श्रेष्ठ है। कोई भी विदेशी वर्षों के परिश्रम के बाद भी इस पर पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं कर पाया है।

7. ‘ककील व दिन्म, नामक ज्ञान की प्रसिद्ध पुस्तक की रचना भारत में हुई है जिसका अनुवाद फारसी, अरबी और तुर्की भाषाओं में किया गया है।

8. संसार के किसी भी देश में ऐसा निपुण व्यक्ति नहीं है जैसा कि खुसरो । यद्यपि वह महान सुल्तान का तुच्छ वैतालिक है।

खुसरो ने अपनी मसनवी ‘देवल रानी और खिज्र खाँ’ में भी भारत के प्रति अपने प्रेम का वर्णन किया है और उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है-

“भारत की सुन्दरता के बारे में कोई भी व्यक्ति यह कह सकता है कि चीन जैसे सैकड़ों देशों की सुन्दरता उसकी सुन्दता के बाल के बराबर भी नहीं है।”

इस प्रकार जैसा कि डॉ. युसूफ हुसैन ने लिखा है- “यह सिद्ध हो जाता है कि वह सच्चा देश प्रेमी था जो अपनी जन्म भूमि और उसके जीवन तथा वातावरण से प्रेम करता है। “

दिल्ली का स्तुतिगान

अमीर खुसरो ने अपनी मसनवी ‘किरानस सादयन’ दिल्ली की प्रशंसा करते हुए उसको ‘हजरते दिल्ली’ (पवित्र दिल्ली) कहा और लिखा है- “पवित्र दिल्ली धर्म और न्याय का स्थान है। संसार में कोई ऐसा दूसरा नगर नहीं है जिसकी तुलना इसके वैभव से की जा सके। इसका नाम इतना प्रसिद्ध हो गया है कि खूतान के लोग भी इसकी ओर आकर्षित हुए हैं। यदि मक्का भी इसकी कहानी सुनता है तो वह भी भारत के सामने नतमस्तक हो जाता है। इसकी प्रत्येक सड़क अपने वैभव के स्वर्ग के समान है, इसकी प्रत्येक गली में गुण सम्पन्न मनुष्य है, इसकी प्रत्येक मेहराब में अमूल्य वस्तुएँ हैं, यह नगर एक आश्चर्यजनक रचना है।”

अंतः खुसरो ने वह गजल लिखी जिसमें उसने दिल्ली के पवित्र सौन्दर्य का स्तुति गान किया है।

साहित्यिक रचनायें

‘तारीख ए फरिश्ता’ के अनुसार अमीर खुसरो ने 92 साहित्यिक और ऐतिहासिक पुस्तकों की रचना की। इनमें से बहुत-सी नष्ट हो जाने के कारण उपलब्ध नहीं है। उनकी साहित्यिक रचनाओं में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-

(1) पाँच दीवाने – यह खुसरो द्वारा की जाने वाली रचनाओं का संग्रह है। ये पाँच दीवान निम्नलिखित हैं-

  • (i) तोहफ तूस्सिगार- इसमें खुसरो की वे रचनायें हैं जो उसने 15 वर्ष की आयु से 29 वर्ष की आयु तक की थीं।
  • (ii) वस्तुल हयात- इसमें वे रचनायें हैं जो खुसरो ने 19 वर्ष की आयु से 34 वर्ष की आयु तक बलवन के बड़े लड़के और अमीरों के बारे में की थी।
  • (iii) गुर्रतुल कपाल- इसमें 34 वर्ष की आयु से सन् 1293-94 तक की रचनाएँ हैं।
  • (iv) वाकि आये न किया- इसकी रचनाएँ खुसरो ने 1314-16 में की थी।
  • (v) निहायतुल कमाल- इसमें खुसरो के जीवनकाल की अन्तिम रचनाएँ हैं।

(2) खामसा – यह निजामी के ‘खमसे’ के आधार पर लिखा गया है और इसके अन्तर्गत निम्नलिखित 5 ग्रन्थ हैं-

  • (i) मतउल अनवार- इसमें 20 अध्याय हैं जिसमें खुसरो ने ईश्वर भक्ति और चारित्रिक बातों का वर्णन किया है। उसने यह पुस्तक 1298-99 में लिखी थी।
  • (ii) शीरी व खुसरू – इसमें शीरी और खुसरू की कहानी है। इसकी रचना 1299-1300 में हुई थी।
  • (iii) मजनू लैला- इसमें मजनू और लैला की प्रेम कहानी है। इसकी रचना 1299-1300 में हुई थी।
  • (iv) आइए-ए-सिकन्दरी- इसमें सिकन्दर की कहानियाँ हैं और 1300-1302 में लिखी गई थी।
  • (v) हस्त- बहिश्त- इसमें बहराम और दिलराम की कहानी है। यह 1301-1302 में लिखी गई थी।

(3) ऐं जाजे-शुशरबी- आलंकारिक भाषा में लिखी गई पुस्तक में अमीर खुसरो की कविताओं का संकलन है। यह पुस्तक पाँच भागों में विभाजित है।

(4) अफजलुल फवायद – यह पुस्तक गद्य में है। इसमें खुसरो ने अपने गुरू निजामुद्दीन औलिया के कथनों का संग्रह किया है।

(5) किस्सए चहार दरवेश- इसमें चार दस्वेशों की कहानी का वर्णन किया गया है।

ऐतिहासिक रचनाएँ

अमीर खुसरो के ऐतिहासिक ग्रन्थों में 6 उल्लेखनीय हैं-

(i) किरानुस्सादैन- खुसरो ने इसकी रचना 1289 में की थीं। गद्य की पुस्तक होने पर इसका ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि इसमें बुगराखाँ और उसके पुत्र कैकुबाद की भेंट का वर्णन किया है।

(ii) मिफताउलफूतूह— इसकी रचना 1291 में हुई थी। इसमें जलालुद्दीन खिलजी की उन विजयों का वर्णन मिलता है जो उसने राजसिंहासन पर बैठने के प्रथम वर्ष में की थीं।

(iii) देवलरानी खिज्रखाँ – इसकी रचना का काल 1316 है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी के बड़े लड़के और गुजरात के राजा कर्ण की पनि देवल रानी के प्रेम का वर्णन है। प्रारम्भ में यह वर्णन दोनों के विराह तक का था। गियासुद्दीन तुगलक के शासनकाल में इसमें खिज्रखाँ की हत्या, अलाउद्दीन की बीमारी और मलिक काफूर के अत्याचारों का वर्णन बढ़ा दिया गया, इस दृष्टिकोण से इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व हो जाता है।

(iv) नूरसिफ- खुसरो ने इस पुस्तक की रचना सन् 1319 में की थी। यह पुस्तक 9 भाग में विभाजित है।

1. पहिले भाग में मुबारक शाह की प्रशंसा की गई है और देवगिरि पर उसके आक्रमण का वर्णन किया गया है। 2. दूसरे भाग में मुबारक शाह द्वारा बनवाई जाने वाली इमारतों का वर्णन है। 3. तीसरे भाग में भारत की जलवायु, पशु, पक्षियों, पशुओं, विज्ञानों, धार्मिक विश्वासों और भाषाओं का वर्णन बताया गया है। 4. चौथे भाग में राजाओं, स्वामियों और सेवकों को विभिन्न प्रकार की शिक्षायें दी गई हैं। 5. पाँचवें भाग में भारत की शीत ऋतु और शिकार का वर्णन है। 6. छठे भाग में मुबारकशाह के पुत्र मुहम्मद के जन्म के बारे में लिखा है। 7. सातवें भाग में नौरोज बसन्त ऋतु और मोहम्मद के जन्म से सम्बन्धित उत्सवों का वर्णन है। 8. आठवें भाग में चौगान का वर्णन किया गया है। 9. नवें भाग में खुसरो ने अपने कविता सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन किया है।

(v) तुगलकनामा- इस पुस्तक में 1320 में खुसरूखों पर गयासुद्दीन तुगलक की विजय का वर्णन है। इसकी रचना विजय के बाद की गई थी।

(vi) खजादूनुल-फतह- इस पुस्तक में 1311 में की गई अलाउद्दीन खिलजी की विजयों का वर्णन है। यह पुस्तक गद्य में है और इसे ‘तारीख-ए-अल्लाई’ भी कहा जाता है।

हिन्दी कविता में रूचि

खुसरो वास्तव में फारसी का कवि था पर उसे हिन्दी कविता में बहुत रूचि थी। डॉ. युसूफ हुसैन के अनुसार खुसरो ने अपनी रचनाओं में हिन्दी का प्रयोग किया है कभी-कभी वह अपनी फारसी की कविताओं में हिन्दी का प्रयोग इस प्रकार करता है कि कवितायें अत्यधिक प्रभावपूर्ण हो जाती है। उसने स्पष्ट रूप में लिख है कि उसने हिन्दी में कविताएं लिखी है। उसका कहना था “मैं भारतीय तुर्क हूँ और तुम्हें हिन्दी में उत्तर दे सकता हूँ क्योंकि मैं भारत का तोता हूँ इसलिए मुझसे हिन्दी में बातचीत करो ताकि मैं मधुरतापूर्वक बोल सकूँ।”

कवियों का सम्राट

अमीर खुसरो अपने समय का सर्वश्रेष्ठ कवि था। डॉ. ईश्वरीप्रसाद के अनुसार- “भारत का तोता अमीर खुसरो कवियों का सम्राट था।’

उसकी कविताएँ हृदय और मस्तिष्क में हलचल मचा देने वाली है।

संगीत में रूचि

डॉ. युसूफ हुसेन ने लिखा है- “खुसरो में समन्वय का महान गुण था। वह पहिला भारतीय मुसलमान था जिसने फारसी और भारतीय रोगों के सम्मिश्रण के बारे में विचार किया और इस प्रकार भारतीय संगीत को सम्पन्न बताया।”

खुसरो ने भारतीय ‘वाणी’ और ईरानी ‘तम्बूरे’ के सम्मिश्रण के ‘सितार’ का आविष्कार किया। उसने भारतीय ‘मृदंग’ को तबले का रूप दिया। वाद्य यन्त्रों के अतिरिक्त उसने राग-रागनियों का भी आविष्कार किया ।

खुसरो की सहिष्णुता

डॉ. युसूफ हुसेन के अनुसार, “खुसरो धार्मिक मनुष्य था पर वह धर्मान्ध नहीं था। उसके चरित्र का प्रमुख गुण अन्य धर्मों में विश्वास करने वालों के प्रति सहिष्णुता थी । “

खुसरो हिन्दुओं की धार्मिक भक्ति और उत्साह का प्रशंसक था और वह मुसलमानों से इन बातों में हिन्दुओं के समान बनने को कहा करता था क्योंकि हिन्दू मूर्तिपूजक थे इसलिए मुसलमान उनका उपहास करते थे। खुसरो मुसलमान से ऐसा न करने के लिए कहता था, वह उनसे कहता था कि हिन्दू भले ही मूर्ति पूजक हो पर उनकी भक्ति से मुसलमानों को पाठ सीखना चाहिये । हिन्दुओं के प्रति उसका दृष्टिकोण सिद्ध करता है कि उसे उनसे घृणा नहीं थी वस्तुतः वह मानव प्रेमी था ।

उपरोक्त के आधार पर हम कह सकते हैं कि अमीर खुसरो ने मध्यकालीन भारतीय संस्कृति में प्रशंसनीय योग दिया है।

(vi) अन्य काव्य रूप

जयचन्द प्रकाश तथा जसमयंक चन्द्रिका- ये दोनों रचनायें अभी तक प्राप्त नहीं हुई हैं। इनकी चर्चा केवल राठौड़ा से ख्यात’ में मिलती है। प्रथम रचना के लेखक केदार नामक कवि बताए जाते हैं। इस महाकाव्य में महाराज जयचन्द के पराक्रम और प्रताप का वर्णन था । जसमयंक चन्द्रिका के लेखक मधुकर कवि बताए जाते हैं। दोनों ग्रन्थों की विषयवस्तु मिलती-जुलती है। सुना जाता है कि दयालदास ने इन्हीं रचनाओं के आधार पर कन्नौज का वृत्तान्त लिखा था । अतः किसी समय में इन गन्थों का अस्तित्व अवश्य था ।

बसन्त विलास का रचयिता अभी तक अज्ञात है । डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने अनेक प्रमाणों के आधार पर इस रचना का समय ईसा की तेरहवीं शती निर्धारित किया है। यद्यपि इसमें चौरासी दोहे हैं किन्तु उनमें कामिनियों के प्रेमी जीवन पर बसन्त और उसके मादक प्रभाव का चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ में स्त्री-पुरुष और प्रकृति तीनों में प्रवहमान अजस्र मदोन्मत्तता का जैसा रूप मिलता है वैसा रीतिकालीन शृंगारी कवि में भी नहीं मिलता है। इसमें कालिदास के ऋतु संहार तथा हाल की गाथा सतसई की परम्परा को निभाया गया है और राउलबेल की शृंगार-परम्परा के चरम सीमा पर पहुँचा दिया गया है। उदाहरणार्थ-

इणि परि कोइलि कूजइ पूजई युवति मजोर।

विधुर वियोगिनि धूजई कूजई मयण किसोर ||

एक ओर हृदय को सालता हुआ कोयल का मंदिर कूजर और दूसरी ओर पति संयुक्ताओं का विलासमय कामपूजन वियोगिनि विधुर प्रेमदाओं को कंपायमान कर देते हैं और वे मनोज की मधुर अनुभूति को करने लगती हैं।

भक्ति और रीतिकालीन शृंगारी प्रवृत्ति के अध्ययन के लिए यह रचना अतीव उपयोगी है। हिन्दी भाषा के क्रमिक विकास की दृष्टि से भी यह रचना उपादेय है।

विद्यापति

जीवन वृत्त-विद्यापति का जन्म संo 1425 में बिहार के दरभंगा जिले में विसपी गांव में हुआ था। ये विद्वान वंश से संबंध रखते थे। इनके पिता गणपति ठाकुर ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘गंगा भक्ति तरंगिनी’ अपने मृत संरक्षक मिथिला के महाराज गणेश्वर की समृति में समर्पित की थी। ये तिरहुत के महाराज शिवसिंह के आश्रय में रहते थे। महाराज शिवसिंह के अतिरिक्त रानी लखिमा देवी भी इनकी बड़ी भक्त थीं। विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ आसैर ‘कीर्तिपताका’ में अपने आश्रयदाता शिवसिंह और कीर्तिसिंह की वीरता का बड़े ही अजस्वी और प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया है। आज से लगभग 40-50 वर्ष पहले बंगाली लोग विद्यापति को बंगला का कवि समझते थे किन्तु जब उनके जीवन की घटनाओं की जाँच-पड़ताल बाबू रामकृष्ण मुकर्जी और डॉ० म्रियर्सन ने की तब से बंगाली अपने अधिकार को अव्यवस्थित पाते हैं।

ग्रन्थ- विद्यापति एक महान पंडित थे। उन्होंने अपनी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली भाषा में लिखी हैं। संस्कृत पर इनका असामान्य अधिकार था और इन्होंने अपनी अधिकतर रचनायें संस्कृत में ही लिखीं। विद्यापति संक्रमण-काल के कवि थे। एक ओर वे वीरगाथा काल का प्रतिनिधित्व करते हैं तो दूसरी ओर वे हिन्दी में भक्ति और शृंगार की परम्परा के प्रवर्तक माने जाते हैं। कीर्तिलता और कीर्तिपताका में उनका वीर कवि का रूप है। पदावली में उनका श्रृंगारी रूप है और शैव सर्वस्व सार में वे भक्तिभाव में झूमते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार भाव और भाषा की दृष्टि से इनकी रचनाओं के तीनों भागों में विभाजित किया जा सकता है। भाषा के आधार पर इनकी रचनायें ये हैं-

(क) संस्कृत- (1) शैव सर्वस्वसार, (2) शैव सर्वस्वसार प्रमाणभूत पुराण संग्रह, (3) भूपरिक्रमा, (4) पुरुष परीक्षा, (5) लिखनावली, (6) गंगा वाक्यावली, (7) दान वाक्यावली, (8) विभाग सार, (9) गया पत्तलक, (10) वर्ण कृत्य, (11) दुर्गा भक्ति तरंगिणी ।

(ख) अवहट्ट – कीर्तिलता और कीर्तिपताका ।

(ग) मैथिली- पदावली ।

व्यक्तित्व- हिन्दी साहित्य में विद्यापति की अक्षुण्ण कीर्ति का आधार उनके तीन ग्रन्थ हैं- पदावली, कीर्तिलता और कीर्तिपताका। विद्यापति पदावली में इन्होंने राधा-कृष्ण की प्रणय लीलाओं का अत्यंत हृदयहारी वर्णन किया है। इस संबंध में इनके आदर्श कवि जयदेव रहे हैं। जयदेव का गीत-गोविन्द इनका उपजीव्य ग्रन्थ है। भाव और शैली दोनों दृष्टियों से विद्यापति जयदेव के ऋणी हैं। पदावली में इनका श्रृंगारी रूप पूर्णतः उभर आया है। वैसे तो शृंगार के दोनों पक्षों-संयोग और वियोग – का वर्णन इस ग्रन्थ में उपलब्ध होता है पर जो तन्मयता संयोग शृंगार के चित्रण में दृष्टिगोचर होती है वह वियोग-पक्ष में नहीं। वस्तुतः विद्यापति संयोग-पक्ष के सफल गायक हैं और प्रेम परख पारखी हैं। इन्होंने आलम्बन विभाव में नायक कृष्ण और नायिका राधा का मनोहर चित्र खींचा है। उनके बीच में ईश्वरीय भावना की अनुभूति नहीं मिलती। एक ओर नवयुवक चंचल नायक है। और दूसरी ओर यौवन और सौन्दर्य की सम्पत्ति लिए राधा नायिका-

कि आरे नव जौवन अभिरामा ।

जत देखल तत कहएन पारिअ छओ अनुपम इकठामा ॥

अंग्रेजी कवि बायरन के समान विद्यापति का भी यही सिद्धान्त वाक्य है कि “यौवन के दिन ही गौरव के दिन हैं।” डॉ० रामकुमार “विद्यापति का संसार ही दूसरा है। वहाँ सदैव कोकिलायें ही कूजन करती हैं। फूल खिला करते हैं पर उनमें कांटे नहीं होते। राधा रात भर जागा करती है। उसके नेत्रों में ही रात समा जाती है। शरीर में सौन्दर्य के सिवाय कुछ भी नहीं हैं। पथ है उसमें भी गुलाब हैं, शैया है उसमें भी गुलाब है, शरीर है उसमें भी गुलाब। सारा संसार ही गुलाबमय है। उनके संसार में फूल फूलते हैं, काँटों का अस्तित्व नहीं है। यौवन शरीर के आनन्द ही उसके आनन्द हैं।”

राधा तथा कृष्ण के प्रेम की तन्मयता का अनुपम चित्र निम्नांकित पंक्तियों में दर्शनीय है। राधा के मुख से बार-बार राधा शब्द निकलता रहा है और कृष्ण के मुख से कृष्ण-कृष्ण की रट लग रही है। राधा के हृदय में कृष्ण इस रूप से बस चुके हैं। कि वह कृष्णमय हो चुका है और एतदर्थ वह राधा-राधा की पुकार कर रहा है और उधर दूसरी ओर कृष्ण का हृदय इतना राधामय हो चुका है कि उससे कृष्ण प्यारे की निरन्तर धुन लग रही है। यह है प्रेम की पराकाष्ठा- अनुखन माधव माधव सुमरित

सुन्दरि भेल मधाई।

सद्यःस्नाता का एक नयनाभिराम चित्र देखिये-

कामिनी करए सनाने हेरतहि हृदय हनए बन बाने ।

चिकुर गरए जलधारा जनि मुख सनि उर रोअए अंधारा ।।

राधा का नख-शिख सौन्दर्य भी दर्शनीय है-

चाँद सार लए मुख घटना करु लोचन चकित चकोरे ।

अमिय धोय आंचर धनि पोछलि दह दिति भेल उंजोरे ।।

कुछ विद्वानों ने विद्यापति द्वारा चित्रित राधा-कृष्ण के प्रणय के लीला-पदों को देखकर इन्हें भक्त कवि कहा है किन्तु हमारे विचारानुसार विद्यापति राधा और कृष्ण के भक्त न होकर शैव भक्त थे। विद्यापति को कृष्णभक्त परम्परा में न समझना चाहिए । आचार्य शुक्ल का इस संबंध में कहना है कि “आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत-गोविन्द के पदों को आध्यात्मिक संदेश बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।” सच यह है कि विद्यापति ने राधा-कृष्ण संबंधी पदों की रचना शृंगार काव्य की दृष्टि से की है। डॉ० रामकुमार के शब्दों में, ‘विद्यापति पदावली संगीत के स्वरों में गूंजती हुई राधा-कृष्ण के चरणों में समर्पित की गई है। उन्होंने प्रेम के साम्राज्य में अपने हृदय के सभी विचारों को अन्तर्हित कर दिया है। उन्होंने शृंगार पर ऐसी लेखनी उठाई है जिससे राधा और कृष्ण के जीवन का तत्व प्रेम के सिवाय कुछ भी नहीं रह गया है।” वे आगे चलकर और स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं-“विद्यापति के बाह्य संसार में भगवद भजन है कहां, इस वयः सन्धि में ईश्वरसन्धि कहां, सद्यस्नाता में ईश्वर से नाता कहां, अभिसार में भक्ति का सार कहाँ ? उनकी कविता विलास की सामग्री है, उपासना की साधना नहीं।” कुछ भी हो, विद्यापति की पदावली में भाषा के माधुर्य और भावों के माधुर्य का एक अद्भुत समन्वय हुआ है। भले ही उनमें प्रेम के बाह्य संसार पर अधिक बल है किन्तु फिर भी वह अत्यंत मनोरम है।

विद्यापति का व्यक्तित्व विविधमुखी है। उसमें पांडित्य, कला, रसिकता और भावुकता का अद्भुत समन्वय है। संक्रान्तिकालीन कवि होने के कारण उनके साहित्य में विगत तथा अनागत युगों के साहित्य की प्रवृत्तियाँ सहज में प्रतिबिम्बित हो उठी हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उनके साहित्य को तीन भागों में बाँटा जा सकता है- (क) शृंगारिक, (ख) भक्ति संबंधी, (ग) विविध विषयक नीति वीरगाथात्मक आदि। उनके शृंगारी साहित्य के सिंहावलोकन के पश्चात् यह निःसंकोच रूप से कहा जा सकता है कि भले ही वे शिव-भक्त हों, किन्तु कम से कम वे कृष्ण भक्त नहीं हैं। पदावली में चित्रित राधा-माधव की केलि-लीलाओं के पीछे किसी भी प्रकार की कोई भक्ति, धार्मिकता, सांकेतिकता, प्रतीकवाद या रहस्यवाद नहीं है। विद्यापति द्वारा गृहीत राधा-माधव साधारण नायिका नायक हैं तथा उनकी लीलाओं और प्रेम-व्यापारों का चित्रण विशुद्ध लौकिक स्तर पर हुआ है। उनकी मिलन-कालीन क्रीड़ाओं में मांसलता और स्थूलता इतने उत्कृष्ट रूप में उभरी हुई है कि उनमें किसी प्रकार के रूपक या उज्ज्वल रस एवं मधुर रस की कल्पना – यथार्थ से आंखें मेंदना है तथा कवि के पदावली संबंधी प्रणयन के उद्देश्य को न समझना है। सच तो यह है कि पदावली पर हठात् अध्यारोपित रूपक या रहस्यवाद निभाने पर भी निभ नहीं सकता है। चैतन्य महाप्रभु एक महाप्राणी थे। उनके सामने शूद्र और चांडाल, श्लील और अश्लील सब समान थे। यदि वे भावविभोर होकर पदावली के गीतों को गुनगुनाते थे, तो इससे पदावली या विद्यापति की कृष्ण भक्ति परायणता कदापि सिद्ध नहीं होती है। भक्त लोग तो गलदश्रु भाव से गीत-गोविन्द के गीतों को भगवदाराधना के निमित्त गाते हैं और खोजने वाले तांत्रिकों के अति-कामुकता से अभिभूत बौद्ध-साहित्य में अतीन्द्रियता और रहस्यमयता को उद्घोषित करने तक का साहस कर दिया करते हैं, किन्तु न हो तो गीत-गोविन्द और न ही सिद्ध-साहित्य में किसी प्रकार की कोई आध्यात्मिकता है। पदावली में केवल राधा-कृष्ण के नामों के ग्रहण से किसी अतीन्द्रिय प्रेम से भक्ति की कल्पना का तात्पर्य यह होगा कि हमें समूचे हिन्दी के रीति-साहित्य में भी इसी प्रकार के प्रेम और भक्ति की कल्पना करनी होगी जो कि नितान्त अवैज्ञानिक तथा असंगत है।

कीर्तिलता – इस रचना का हिन्दी साहित्य में दो दृष्टियों में महत्व है- साहित्यिक प्रवृत्तियों तथा भाषा संबंधी परिवर्तन के कारण । इस ग्रन्थ में अपने आश्रयदाता कीर्तिसिंह की वीरता का वर्णन और यशोगान है। यह एक अपूर्व ऐतिहासिक काव्य है। पृथ्वीराज रासो से यह अपने ऐतिहासिक महत्व के कारण भिन्न हो जाता है। कवि ने अपने समसामयिक राजा का गुणगान बड़ी अलंकृत भाषा में किया है फिर भी कवि ने ऐतिहासिक तथ्यों के कल्पित घटनाओं एवं सम्भावनाओं से धूमिल नहीं होने दिया है। इस ग्रन्थ में उस समय का पूर्ण प्रतबिम्ब है। कवि ने उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी परिस्थितियों का चित्र सा उतार दिया है। हिन्दू मुसलमान, खान, वेश्याओं तथा सैनिकों के सजीव एवं पक्षपातरहित चित्रण से ग्रन्थ के साहित्यिक सौन्दर्य में और भी अभिवृद्धि हुई है। विद्यापति ने अपने चरित नायक के चरित्र-चित्रण में बड़े चातुर्य से काम लिया है। ग्रन्थ में जहाँ कीर्तिसिंह का उज्ज्वल वीर रूप स्पष्ट है वहाँ जौनपुर के सुल्तान फिरोजशाह के सामने उसका अति नम्र रूप भी प्रकट हुआ है। लेखक ने कहीं भी ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत करने का प्रयत्न नहीं किया है।

कीर्तिलता के काव्य रूप की चर्चा करते हुए डा० द्विवेदी लिखते हैं- “ऐसा जान पड़ता है कि कलिता बहुत कुछ उसी शैली में लिखी गई थी, जिसमें चन्दबरदायी ने पृथ्वीराज रासो लिखा था। यह भृंग और भृंगी के संवाद रूप में है। इसमें संस्कृत और प्राकृत के छन्दों का प्रयोग है। संस्कृत और प्राकृत के छन्द रसों में बहुत आये हैं। रामो की भांति कीर्तिलता में भी गाया (गाहा) छन्द का व्यवहार प्राकृत भाषा में हुआ है। यह विशेष लक्ष्य करने की बात है कि संस्कृत और प्राकृत पदों में तथा गद्य में भी तुक मिलाने का प्रयास किया गया है जो अपभ्रंश परम्परा के अनुकूल ही है।” इसमें अपभ्रंश की पद्धतियों, बंध-शैली का प्रयोग हुआ है। विद्यापति ने अपने इस काव्य को कथा-काव्य न कहकर काहाणी कहा है। कथा काव्य में राज्य लाभ के साथ ही कन्याहरण, गंधर्व विवाह एवं बहुविवाह का प्राधान्य रहता है। कीर्तिलता केवल राज्य-लाभ तक ही सीमित है। यही कारण है कि कीर्तिलता में इतनी अधिक कल्पित घटनाओं और सम्भावनाओं का आयोजन नहीं हो पाया जितना पृथ्वीराज रासो में है। उसमें रोमांस के प्रकरण निकल जाने से बहुत कल्पित घटनाओं के लिए स्थान नहीं रहा है, साथ-साथ स्वाभाविकता भी बनी रही है। संभवतः कथा काव्य और काहाणी का अंतर बहुत कुछ संस्कृत साहित्य के कथा और आख्यायिका का सा है। कीर्तिलता में बीच-बीच में गद्य का प्रयोग भी हुआ है। कारण, इस ग्रन्थ से पूर्ववर्ती कथा काव्यों में तथा संस्कृत में चम्पू काव्यों में उक्त प्रयोग प्रचलित था।

भाषा के विकास की दृष्टि से भी यह मन्य महत्वपूर्ण बन पड़ा है। कीर्तिलता में परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश से कुछ आगे बढ़ी हुई भाषा के दर्शन होते हैं। विद्यापति ने उसे अवहट्ट कहा है। इसमें तत्कालीन मैथिली भाषा का सम्मिश्रण है। कीर्तिलता में गद्य में तत्सम शब्दों के व्यवहार की अधिकता है तथा पद्य में तद्भव शब्दों का एकछत्र राज्य है। ये दोनों प्रवृत्तियों परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा में देखने को मिलती है। आदिकाल की प्रामाणिक रचनाओं में कीर्तिलता का महत्वपूर्ण स्थान है। विद्यापति की कीर्तिलता में अपनी भाषा को देसिलबअना नाम दिया है। विद्यापति की कीर्तिलता में भाषाविषयक यह गर्वोक्ति प्रसिद्ध है-

बालचन्द विज्जावड़ भाषा, दुहु नहि लग्गई दुज्जन हासा ।

ओ परमेसर सिर सोहइ ई त्रिच्चय नाअर मन मोहड़ ।।

विद्यापति के साहित्य के संक्षिप्त विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वीर कवि, भक्त कवि और शृंगारी कवि सभी रूपों में परिपूर्ण दिखाई देते हैं। एक ओर उनकी कीर्तिलता और कीर्तिपताका चारण काव्य की वीरगाथाओं का स्मरण दिलाती है तथा दूसरी ओर उनकी पदावली कृष्ण कवियों विशेषतः रीतिकालीन कवियों की शृंगारपरक सुकोमल भाव सामग्री की मूल प्रेरक सिद्ध होती है। विद्यापति हिन्दी साहित्य में पदशैली के प्रवर्तक और सूर के पथप्रदर्शक जान पड़ते हैं। इनमें भाषा की सुकुमारता और भाव मधुरिमा का मणि-कांचन योग है। विद्यापति अपने समय के बड़े सफल कवि थे यही कारण है कि इनके प्रशंसकों ने उन्हें नाना उपाधियों से विभूषित किया है- अभिनय जयदेव, कवि शेखर सरस कवि, खेलन कवि, कवि कंठहार और कवि रंजन आदि । अस्तु विद्यापति ने मध्य युग के प्रायः समस्त काव्य को प्रभावित किया है। श्रृंगार-काव्य की सारी मान्यतायें इसमें दृष्टिगोचर होती हैं। कल्पना, साहित्यिकता और भाषा की भंगिमा में ये अनुपम हैं। डॉ० रामरल भटनागर इनके संबंध में लिखते हैं- “जयदेव के गीतों में जिस माधुर्य भाव की प्रतिष्ठा है उनमें जो भावसुकुमारता और विदग्धता है, जो पद-लालित्य हैं, वह तो विद्यापति में है ही, परन्तु साथ ही सामन्ती कला के तीव्र आकर्षक रंग भी उस पर चढ़े हैं और कवि की सभाचातुरी वचनविदग्धता और भावविभोरता ने उसके काव्य को जयदेव के काव्य से कहीं अधिक मार्मिक बना दिया है। यहाँ कारण है कि परवर्ती युग में कवियों और साधकों ने जयदेव के स्थान पर राधा-कृष्ण का नेतृत्व उन्हें दे दिया।” विद्यापति तथा जयदेव के काव्य संबंधी दृष्टिकोणों में भी पर्याप्त साम्य दृष्टिगोचर होता है। गीत-गोविन्दकार जयदेव विद्यापति के परम अनुकरणीय रहे हैं। इन दोनों की साहित्यिक परिस्थितियों और व्याख्यात्मक दृष्टिकोणों में साम्य का होना अनिवार्य था। यदि जयदेव के काव्य में हरिरमरण, विलास कला (काम कला), काव्य कला (नायिका भेद), और संगीतकला का समन्वित रूप है, तो विद्यापति की पदावली में रस-रीति (कामानन्द संभोग कलायें) काव्य-कला (नायिका भेद) और संगीत का विचित्र सम्मिश्रण है। जयदेव में भक्ति का झीना आवरण फिर भी जहां-तहाँ बना रहा है (यद्यपि वह है अवास्तविक) किन्तु विद्यापति की पदावली. किसी प्रकार के धर्म या भक्ति की ग्रंथि से ग्रस्त नहीं है। अतः उसमें राधा-माधव की सहकेलियों का और भी उन्मुक्त गान हुआ है।

विद्यापति का परवर्ती साहित्य के प्रति दाय

विद्यापति को संस्कृत साहित्य के शृंगार- वर्णन की परम्परा परम्परागत सम्पत्ति के रूप में मिली और उसका उन्होंने यथासम्भव सदुपयोग भी किया। जयदेव विद्यापति के अत्यंत अनुकरणीय रहे हैं, जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। जयदेव ने काव्य-कला, काम-कला, संगीत-कला तथा हरि-स्मरण का संतुलित रूप, गीत-गोविन्द में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है किन्तु इस कार्य में उन्हें पूर्ण सफलता नहीं मिली। गीत-गोविन्द की संगीत लहरी में नायिका भेद तथा केलिरह (काव्य कलायें) मुख्य रूप से गुजरत हो उठी हैं जहां हरि-स्मरण की क्षीण ध्वनि विलीन हो जाती है। विद्यापति में जयदेव काव्य की उपर्युक्त सर्व प्रवृत्तियाँ हैं, किन्तु उनके साहित्य में रस-रीतिवाद का सर्वप्राधान्य है। यद्यपि विद्यापति ने किसी निश्चित रूपरेखा के अनुसार पदावली में नायिका भेद-प्रभेद प्रस्तुत नहीं किया है, किन्तु राधा-कृष्ण के परकीया प्रेम के सीमित वृत्त में नायिका भेद का जो भाग सहज में समाविष्ट हो सकता था, वह सब कुछ पदावली में है। अतः विद्यापति ने परवर्ती कवियों, कृष्ण भक्ति साहित्य तथा रीतिकालीन साहित्य के लिए राधा-कृष्ण के ब्याज से नायिका भेद वर्णन की प्रवृत्ति का परोक्ष रूप से मार्ग प्रशस्त कर दिया। रीतिकाल में रीतिबद्ध कवियों के लक्षण-प्रन्थों में यह प्रवृत्ति स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है। रीतिकाल में रस-रीति-परक, अर्थात् विलासिता तथा कामानन्द से सम्बद्ध साहित्य के प्रणयन की प्रेरणा विद्यापति द्वारा मिलना कोई अकल्पनीय नहीं है। रीति कवि के लिए राधा और कृष्ण के नाम पर लौकिक शृंगार की अभिव्यक्ति का मार्ग विद्यापति के द्वारा पहले से प्रशस्त कर दिया गया था। राधा-कान्ह के सुमिरन का बहाना करके प्रणयलीलाओं के उन्मुक्त मांसल चित्र उपस्थित करने वाले रीतिकालीन कवि तथा विद्यापति के दृष्टिकोण उद्देश्य तथा परिस्थितियों में पर्याप्त साम्य है। हाँ, इस दिशा में विद्यापति में फिर भी थोड़ी-बहुत कलात्मकता बनी रही है जबकि रीति कवि में उसका सर्वथा अभाव है।

विद्यापति की कीर्तिलता से वीर रसात्मक तथा पुरुष परीक्षा जैसे ग्रन्थों से नीति और उपदेशमय प्रत्थों की शैली का हिन्दी के परवर्ती युगों में अनुसरण होता रहा।

विद्यापति का काव्य और व्यक्तित्व विविधमुखी है। एक ओर जहां विद्यापति के द्वारा मिथिला भाषा के कवि गोविन्ददास तथा लोचन आदि कवि प्रभावित हुए वहीं दूसरी ओर कृष्ण भक्त व काव्यकार भक्तवर सूरदास आदि भी इस प्रभाव से अछूते न रहे। हालांकि सूर में भक्ति भावना, कलात्मकता और संयम अधिक है। इसके अतिरिक्त रीतिकाल का साहित्य कई दिशाओं में विद्यापति से अत्यधिक प्रभावित हुआ है।

आदिकालीन साहित्य की उपलब्धियां व निष्कर्ष

हिन्दी के प्रारंभिक काल का साहित्य विविधोन्मुखी और समृद्ध है। इसमें जहां एक ओर धर्माश्रित काव्यों में वैराग्य की शांत स्त्रोतस्विनी है, वहां दूसरी ओर उसमें शृंगाररस की कलकल निनादिनी सुन्दर कल्लोलिनी भी है। इसमें जहां एक और वीर रस के अदम्य वेग से सम्पन्न गरजती-तरजती कड़कड़ाती तटिनी है वहां इसमें लोकाश्रित काव्यों में अनुरंजनकारिणी सरस पयस्विनी भी है। इसमें हमारा समस्त जातीय जीवन अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं और परिसीमाओं सहित निबद्ध है। उक्त काल का साहित्य हिन्दी का संक्रमणकालीन साहित्य है। इसमें पूर्ववर्ती अपभ्रंश काव्यों की परम्पराओं का मात्र अन्धानुकरण नहीं है। हिन्दी एक जीवन्त भाषा है और वह पूर्ववर्ती साहित्य की जीवन प्राणधारा को लेकर चली है। उसमें उस समय के साहित्यकार की प्रतिभा का यथेष्ट विकास हुआ। इसमें हिन्दी के स्वतंत्र चेता कलाकार की स्वयं की प्राणचेतना भी यत्रतत्र प्रस्फुटित हुई है। और वह कई दिशाओं में पूर्व परम्परा को पीछे छोड़कर आगे निकल गई है। उसने आगामी हिन्दी साहित्य की अनेक विध-परम्पराओं का मार्ग प्रशस्त किया।

वीरगाथात्मक साहित्य में वीर रस के रोमांचकारी दृश्य तथा आश्रयदाताओं का उद्दाम प्रशस्तिगान है। इसमें वीर रस को सशक्त कलात्मक अभिव्यंजना हुई है। वीररस के कवि ने जिस पार्श्व को लिया है, वह सजीव हो उठा है। उसकी प्रतिभा प्राकृतिक सौन्दर्य के ग्रहण और उसके प्रतिफलन में समर्थ है। उसकी वीररस पूर्ण कविता में जनजीवन को दीप्त व प्रोत्साहित करने की पूर्ण शक्ति है। उसके शृंगारी वर्णनों में रमणी के सुखद- पुष्पाच्छादित पर्यंक से लेकर वीरांगना को अपने पति को वीरगति की कामना तक चित्रित है। इससे स्पष्ट है कि इन सब विषयों तक तत्कालीन कवि की प्रतिभा का विस्तार था। इन सब विषयों का उसने कौशलपूर्ण अभिव्यंजन किया है। उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने डिंगल व पिंगल दोनों शैलियों का कलात्मक उपयोग किया।

उस समय दृश्य काव्य का अभाव था तथा काव्य की गद्य विधा का यथेष्ट विकास नहीं हुआ था। वीरगाथा काल के कवि का कथ्य और शिल्प विधान दोनों मनोरम हैं। छन्दों के क्षेत्र में तो मानो उस समय एक क्रांति सी आ गई थी। छन्द प्रयोग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका उपयोग श्रोता और पाठक की बदलती हुई चित्तवृत्ति की अनुरूपता में हुई है। काव्य रूढ़ियां शिल्प विधान का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। उस समय के रासो तथा अन्य श्रृंगारी काव्यों में शुक दूती दैवी शक्ति तथा संवाद शैली आदि काव्य रूढ़ियां प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुई हैं जो कि एक विशिष्ट काव्य संस्कृति की सूचक हैं।

संक्षेपतः यह कहा जा सकता है कि हिन्दी के प्रारंभिक काल की वीरगाथाओं का साहित्य कथ्य और शिल्प विधान को दृष्टियों से पर्याप्त सम्पन्न है। इस साहित्य की अनेक परम्परायें और शैलीगत विशेषतायें परवर्ती हिन्दी काव्य में पल्लवित और पुष्पित हुई।

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Anjali Yadav

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