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अष्टछाप कवियों का परिचय
(1) सूरदास
जीवन परिचय- बड़े आश्चर्य का विषय है कि हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य महात्मा सूरदास का, जिसमें भक्ति काव्य और संगीत का एक अभूतपूर्व समन्वय था, जीवन वृतान्त पूर्णतया ज्ञान नहीं है। आज से कुछ वर्ष पहले उन पर विल्व मंगल आदि अन्य सूरदासों की जीवन-घटनायें इस प्रकार अच्छादित थीं कि इनका वास्तविक जीवन-वृत्त दब सा गया था।
सूर-साहित्य के अन्तःसाक्ष्य तथा समकालीन परवर्ती रचनाओं के बहिःसाक्ष्य के आधार पर सूर के शोधकर्ता विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सं० 1535 की बैसाख शुक्ल 5 को इनका जन्म हुआ । इनका जन्मस्थान बल्लभगढ़ (गुड़गांव) के निकटवर्ती ‘सीही’ नामक गांव है। ये एक निर्धन सारस्वत ब्राम्हण के चतुर्थ पुत्र थे। इसके अतिरिक्त इनके माता-पिता, कुटुम्बी जनों एवं बन्धु-बांधवों का कुछ भी पता नहीं है। कुछ विद्वानों ने अकबर के दरबारी गायक बाबा रामदास को इनका पिता माना है किन्तु यह मत अब अप्रमाणित हो चुका है। सूर की साहित्य लहरी में इनकी वंशावली का परिचय इस प्रकार मिलता है-वे ब्रह्म भट्ट थे और चन्दबरदायी के वशंज थे, किन्तु विद्धानों ने साहित्य-लहरी के उस पद को जिसमें उक्त वंश का परिचय है, प्रक्षिप्त माना है। बहुत से विद्वान तो साहित्य लहरी को ही अप्रामाणिक मानते हैं।
यह तो निर्विवाद है कि सूरदास नेत्र-विहीन थे। किन्तु वे जन्मांध थे अथवा बाद में अन्धे हुए थे, यह विवादमस्त है। सूर-काव्य में दृश्य जगत् के सूक्ष्मातिसूक्ष्म यथार्थ, पारदर्शी और सर्वांगीण वर्णन को देखकर यह विश्वास नहीं होता है कि वे जन्मांध थे। इसलिए आज के अनेक विद्वान सूर की जन्मांधता पर विश्वास नहीं करते हैं, अन्यथा उनके पास जन्मांधता के विरुद्ध कोई ठोस प्रमाण नहीं है। सूरदास ने जहाँ अपने आपको जन्मांध तथा अभागा कहा है वहाँ कदाचित उन्होंने ऐसा आत्मग्लानि कहा है। ऐसे स्थलों में अक्षरार्थ को अधिक महत्व देना नहीं चाहिए। ऐसे प्रसंगों में लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता है। संभव है कि ज्ञान चक्षुओं के अभाव के द्योतन के लिए ऐसा कहा गया हो। सूरदास का साहित्य किसी जन्मांध व्यक्ति का लिखा हुआ नहीं हो सकता है।
चौरासी वैष्णवन की वार्ता के अनुसार सूरदास अपने बहुत से सेवकों के साथ संन्यासी वेष में मथुरा के बीच गऊघाट पर रहा करते थे। प्रभु वल्लभाचार्य जब अडेल से ब्रज पधारे तब गऊघाट पर सूर ने उनसे भेंट की। वल्लभ के कहने पर सूर ने बड़ी तन्मयता से ‘प्रभु हौ सब पतितन को टीका’ गाया जिसे सुनकर आचार्य जी ने कहा, “जो सूरे है के ऐसो काहे को घिघियात है। कछु भगवत-लीला वर्णन करि।” वल्लभ ने इन्हें अपने संप्रदाय में दीक्षित करके भागवत के आधार पर लीलापद रचना के लिये कहा। तत्पश्चात् सूरदास आचार्य की आज्ञा से श्रीनाथ के मन्दिर में कीर्तन करने लगे और नित्य सुललित पदों से भगवान कृष्ण की पावन लीलाओं का गान करने लगे। श्रीनाथजी के मन्दिर से कुछ दूरी पर पारसौली नामक स्थान में सूरदास रहा करते थे। वहाँ श्रीनाथ जी के मन्दरि में आकर कीर्तन करना और सांयकाल को वापस लौट जाना उनका दैनिक कार्यक्रम था। उन्होंने लगभग अपनी 33 वर्ष की अवस्था में श्रीनाथ के मन्दिर में कीर्तन करना आरंभ किया था और वे अपने देहावसान काल 1960 तक नियमित रूप से लीलागान में निरत रहे। अपने 105 वर्ष के सुदीर्घ जीवनकाल में उन्होंने प्रायः एक लाख पदों की रचना की थी जो कि बाद में सूर की कृतियों में संकलित किये गये हैं। पारसौली में गुसाई विट्ठलनाथ, रामदास, कुम्भनदास, गोविन्दस्वामी और चतुर्भुजदास आदि की उपस्थिति में, इन्होनें अपने महाप्रयाण के समय “खंजन नैन रूप रस माते” पद का गान करते हुए अपने भौतिक शरीर को छोड़ा और कृष्ण के नित्य लीला धाम में प्रविष्ट हुए।
पूर्व संस्कार, जन्मजात प्रतिभा, गुणियों के सत्संग और निजी अभ्यास के कारण छोटी आयु में ही सूरदास विभिन्न विद्याओं के ज्ञाता हो गए। इनकी ख्याति गायक और महात्मा के नाते खूब फैली। कहा जाता है कि सम्राट अकबर ने मथुरा में इनसे भेंट की थी। गोस्वामी तुलसीदास भी इनसे मिले थे। उस समय सूरदास अति वृद्ध थे और अपने अधिकांश काव्य की रचना कर चुके थे। जबकि तुलसीदास युवा थे और उन्होनें अपनी काव्य-रचना का आरंभ ही किया था। तुलसीदास सूर के लीला-पदों से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने बाद में सूर की शैली पर भगवान राम की बाल लीलाओं का वर्णन किया। तुलसीदास की गीतावली में ऐसे कई प्रसंग हैं, जो सूरदास से स्पष्ट प्रभावित हैं।
रचनाएँ- सूरदास ने श्रीमद्भागवद के आधार पर कृष्ण सम्बन्धी अनेक पदों की रचना की थी जिनकी संख्या सवा लाख बताई जाती है। उनके जीवन काल में ही इतने असंख्य पद सागर कहलाने लगे थे जो कि बाद में संगृहित होकर सूरसागर कहलाने लगे। परन्तु अभी तक सूरसागर के चार-पांच हजार पद ही प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा की अनुसंधान विवरण पत्रिका ओर आधुनिक विद्वानों की खोज के अनुसार सूर-प्रणीत चौबीस ग्रंथों का उल्लेख और मिलता है। इनमें से साहित्य-लहरी, सूरसारावली आदि उल्लेखनीय हैं। सूरदास के इन दोनों ग्रंथों की प्रमाणिकता विवादास्पद है।
सूरसारावली में 1103 पद हैं। संग्रहकार ने पुस्तक के प्रारंभ में लिख दिया है कि रचना सूरकृत है तथा यह सूरसागर का सार एवं उनके पदों की अनुक्रमाणिका है। परन्तु उक्त ग्रंथ के अध्ययन से विदित होता है कि यह अनुक्रमणिका न होकर स्वतंत्र ग्रंथ है। दूसरे सूरसारावली में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनका उल्लेख सूरसागर में नहीं हैं। इन दोनों ग्रंथों में कृष्ण जीवन सम्बन्धी घटनाओं में वैषम्य पाया गया है। डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा की धारणा है कि संभव है कि इस ग्रंथ के प्रणेता सूर-सागर के कर्त्ता सूरदास से विभिन्न कोई दूसरा हो। अस्तु! इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है।
साहित्य लहरी को सूरसागर का अंश बताया गया है। इसमें सूरदास के वे पद हैं जिनमें नायिका भेद, अलंकार एवं रस निरुपण है। इसमें अनेक दृष्टिकोण के पद भी संकलित हैं। किंवदन्ती है कि अष्टछाप के दूसरे प्रमुख कवि नन्ददास को रस रीति से परिचित भी कराने के लिए इस ग्रंथ का प्रणयन किया था। साहित्य लहरी के 112 वें पद में सूर का वंश परिचय दिया गया है जिसमें उन्हें चन्दबरदाई का वंशज माना गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि किस प्रकार जन्मांध-सूर कुएं में गिरे और भगवान ने सातवें दिन उन्हें निकाला और फिर अन्तर्धान हो गए। भगवान ने उन्हें यह भी बताया कि दक्षिण के ब्रह्मण कुल से शत्रु का नाश होगा। दक्षिण के ब्रह्मण कुल से पेशवाओं का बोध होता है। अधिकतर विद्वानों ने इस पद को प्रक्षिप्त माना है। आचार्य द्विवेदी ने इस सारी की सारी रचना को संदेहास्पद माना है। उनका कहना है कि यह बहुत अजब है कि सूरदास जैसा सहज-भक्त अलंकार और नायिका भेद के प्रदर्शन की उलझन में उलझा हो, दूसरे ग्रंथ के 109 वे पद में ग्रंथ की तिथि और समाप्ति का निर्देश कर चुकने के बाद वह अपने वंश और जाति का उल्लेख करने लगेगा। इस ग्रंथ का निर्माण समय 1620 ई० पड़ता है जो कि सूरदास की मृत्यु के बाद का समय है। जहाँ तक द्विवेदी जी के प्रथम तर्क का सम्बन्ध है वह कोई इतना पुष्ट नहीं। कृष्णदास अधिकारी की प्रेरणा से सूरदास को नन्ददास के लिए अलंकार नायिका भेद और रस रीति पर कुछ लिखना पड़ा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। सूर-साहित्य में कई घोर शृंगारिक पद मिलते है जिन्हें अधिकारी जी का प्रभाव कहा जा सकता है। ऐसे पदों का आध्यात्मिक अर्थ लगाना केवल अटकलपच्चू मात्र होगा। अस्तु । द्विवेदी जी के अन्य दो तर्क बड़े सबल हैं। यह बहुत संभव है कि साहित्य लहरी किसी का अन्य सूरदास की रचना हो और इसमें सूरदास के भी कुछ पद मिल गये हो। डॉ० बजेश्वर वर्मा का अनुमान है कि यह किसी भाट या सूरदास को स्वजातीय बनाने का प्रयत्न है। डॉक रामकुमार वर्मा ने भी इस कृति को सूरदास-कृति नहीं माना है। अस्तु इस पुस्तक को इतना अधिक महत्व देना उचित नहीं ।
सूरसागर इनकी एकमात्र प्रमाणिक रचना है। यह एक गये मुक्तक काव्य है जिसमें भगवान् की लीलाओं का विस्तारपूर्वक फुटकर पदों में वर्णन किया गया है श्रीमद्भागवत के समान इसमें भी बारह स्वन्थ है। यह ग्रंथ भागवत को अधार बनाकर लिखा गया है किन्तु इसे भागवत का अनुवाद समझना भूल होगी। इसमें सूरदास ने पर्याप्त मौलिक उद्भावना से काम लिया है। सूरसागर के दशम स्कन्ध में 3632 पद हैं जो कि कृष्ण-भक्ति काव्य का गौरव और सूर साहित्य की अमूल्य संपत्ति हैं। भागवत कार कृष्ण के समूचे जीवन को लेकर चला है जबकि सूर ने कृष्ण के जीवन के कोमलतम अंशों पर असंख्य लीला-पद रचे और दूसरे प्रसंगों को चलता-सा किया। भागवत में कृष्ण की अनन्य प्रेमिका किसी गोपी का उल्लेख है जबकि यहां प्रेम-रस में आमूल-चूल सिक्त सधा की कल्पना की गई है। भ्रमर गीत की कल्पना उनकी कृष्ण भक्ति-काव्य को एक मौलिक देन है। सूरदास ने लोकप्रचलित कृष्ण की प्रेमकथाओं का अपने सागर में स्तुत्य प्रयोग किया है। सूरदास का काव्य मुक्तक काव्य होते हुए श्री प्रबन्धात्मकता के सूत्रों को भी संभाले हुऐ है। इनके लीलापदों में कृष्ण जीवन की क्रमात्मक कथा मिल जाती है। आचार्य द्विवेदी इस सम्बन्ध में लिखते हैं- ‘शिल्प में गीतिकाव्यात्मक मनोरागों को आश्रय करके महाकाव्यात्कम शिल्प का निर्माण हुआ है। ताजमहल सा ही महाकाव्यात्मक शिल्प है, जिसका मूल मनोराग गीतिकाव्यात्मक या लिरिकल है। सूरसागर भी इसी प्रकार का महाकाव्यात्मक शिल्प है, जिसका मूल मनोराग लिरिकल या गीतिकाव्यात्मक है।”
भक्ति भावना – सूरदास की भक्ति भावना का मेरुदंड पुष्टिमार्ग का सिद्धांत भगवदनुग्रह है। इसी को आधार मानक वे वात्सल्य, संख्य और माधुर्य भाव की नाना पद्धतियों में भाव व्यंजना में लीन रहे। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के पूर्व वे विनय के पदों की रचना किया करते थे। उनके कुछ पद ऐसे भी हैं जिनमें निर्गुण साधना-पद्धति का संकेत मिलता है-
नैननि निरखि स्याम स्वरूप
रह्यो घट-घट व्यापि सोई जोति रूप अनूप।
-सूरसागर
ऐसे पद्यों में सूर ने ब्रम्हाज्ञानियों के समान माया का वर्णन किया है। वैष्णव भक्ति परम्परा में विनय भक्ति की भावना में सात भूमिकाएँ- दीनता, मानमर्पता, भयदर्शन, भर्त्सना, आश्वासन, मनोराज्य और विचारणा स्वीकार की गई हैं। सूरदास ने दीनता का अच्छा परिचय दिया है। वल्लभ की साधना-पद्धति लीला प्रधान है। दास्य-भाव की भक्ति में भक्त भगवान् के समकक्ष नहीं हो सकता। यह बात लीला सिद्धांत के विरुद्ध पड़ती है। वल्लभ संप्रदाय में लीला के महत्व को बताते हुए कहा गया है कि भगवान् का साक्षात्कार बड़ी बात नहीं, बड़ी बात है भगवत्प्रेम । भगवान् के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है और लीला उसी प्रेम का प्रपंच है। लीला का प्रयोजन लीला ही है। वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी होने के पश्चात् सूर ने विनय भाव और दास्य भाव भक्ति को छोड़कर संख्य भाव की भक्ति को अपनाया। उन्होनें भगवान की लीला का गान करते हुए नवधा भक्ति की कीर्तन. स्मरण आदि सभी रूपों का वर्णन किया। पुष्टिर्माग में भगवान के अनुग्रह पर सार्वधिक बल दिया गया है। भगवान् का अनुग्रह हो भक्त का कल्याण कर सकता है। इस साधना पद्धति में ज्ञान, योग और कर्म को निरर्थक कहा गया है। सूर-साहित्य में नारद भक्ति सूत्र की ग्यारह आसक्तियों का वर्णन है पर उनका मन संख्य, वात्सल्य, रूप, कान्ता, और तन्मयता शक्ति में अधिक रमा है। भ्रमरगीत में विरहासक्ति का अत्यंत उत्कृष्ट रूप देखा जा सकता है। सूर- साहित्य में जहाँ दार्शनिक विवेचन हुआ है वह वल्लभ के शुद्धद्वैतावाद के अनुसार है। सूर ने जहाँ राम कथा का उल्लेख किया है वहां विष्णु के अवतार होने के नाते कृष्ण और राम कथा की भक्ति को रागानुगाभक्ति कहा जा सकता है। व्यक्तिगत सम्बन्ध की निकटता और अनन्यता की दृष्टि से कान्ताभाव की भक्ति सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। सूर ने गोपियों के माध्यम से माधुर्य-भाव की अभिव्यंजना की है। सूर द्वारा वर्णित गोपी-कृष्ण-प्रेम में ऐन्द्रियता नहीं बल्कि हृदय की पवित्रता, उदारता, अनन्यता और सर्वात्मसमर्पण है। उनमें किसी प्रकार की अश्लीलता नहीं। सूरदास ने माधुर्य भाव की भक्ति द्वारा स्वयं भी ब्रज रस का खुलकर पान किया और ब्रजवासियों को आकठ उस रस से आप्लावित किया।
सूर की भक्ति और समाज- सूर भक्ति क्षेत्र में इतने आगे निकल गये कि समाज की आवश्यकताओं का उन्हें ध्यान नहीं रहा। वे पहले भक्त हैं और बाद में कवि शुद्ध लीलावादी कवि होने के नाते कला के लिए कला के सिद्धांत की तर्ज पर उनका काव्य स्वान्त सुखाय है। लीला का प्रयोजन लीला ही है। सूर में तुलसी की भाँति लोकसंग्रह भावना नहीं मिलती है। वस्तुतः वे कृष्ण के रंग में इतना लीन हो गये थे कि समाज चाहे नष्ट हो जाए या रहे, उन्हें कोई परवाह नहीं थी। वे सांसारिक प्रलोभनों से दूर थे, यहाँ तक कि कृष्ण के समक्ष भी उन्हें कोई प्रलोभन नहीं था। एक उदारात्मा खिलाड़ी के समान विजय, पराजय से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। उन्हें तो प्रेम की सकरी गली में कृष्ण-लीलानन्द का खेल खेलना है। सूर के साम्राज्य में केवल वे और कृष्ण ही रहे। सूर का अपना एक छोटा सा प्रेम का एक संसार है जिसमें वे और उनका बाल-गोपाल है, गोप और गोपियाँ हैं, मनसुखा, और राधा है, रास और रंग है, लीला और विहार है, मुरली और तानपुरा है, माखन और दूध है, गौएं और बछड़े हैं। यमुना और कुंज हैं, यशोदा और नन्द हैं, जहाँ सदा उल्लास, पाधुर्य और आनन्द हैं। वहाँ विषाद का चिन्ह नहीं है, खिन्नता का आभास नहीं। वहां नित्य नवजीवन और यौवन-उन्माद है। सचमुच उनकी मथुरा तीन लोक से न्यारी है जो कि एकमात्र कृष्ण लीलाधाम है। उनमें रीति और नीति का प्रवेश नहीं है।
सूर का युग वही है जो कि तुलसी का है। तुलसी साहित्य में उस युग की राजनीतिक छाप स्पष्ट है जिसे वे प्रच्छन्न रूप से रामत्व की रावणत्व पर विजय की कल्पना से अभिव्यक्ति करते हैं। उनके ‘कलि-महिमा’ वर्णन में तात्कालीन समाज का यथार्थ चित्रण हैं। और राम-राज्य में आदर्श भावी समाज का सूर का साहित्य तत्कालीन राजनीतिक घात-प्रतिघातों तथा सामाजिक क्रियाओं से एकदम अछूता है। उनके साहित्य में सर्वत्र कृष्ण के प्रेम रस की मधुर महर लगी हुई है। समाज किधर जा रहा है, शासक क्या कर रहे हैं, समय को गतिविधि क्या है, इन प्रश्नों से मानों उन्हें कोई लगाव ही नहीं था। सूरदास उस अष्टछाप के अन्यतम कवि हैं, जिसके एक कवि का कहना है-“सन्तन को कहा सीकरी सौ काम।” सूर के समाज के प्रति इस तटस्थता में पुष्टिमार्गी दार्शनिकता का भी कोई कम हाथ नहीं। उसके अनुसार संसार दुःखमय है। जीव को आनन्द का आविर्भाव करने के लिए आनन्दस्वरूप श्रीकृष्ण की लीलाओं में प्रवेश करना है, कृष्ण के असुरनिकन्दन या दुष्टदलन रूप में नहीं। राक्षस वध, कोई पूर्व नियोजित वस्तु नहीं। पूतना वध, बकासुर और अधासुर वध तथा कालियदमन आदि तो कृष्ण की लीला ही लीला में संपन्न हो गये हैं। पुष्टिमार्गी भक्त भगवंदनुग्रह के अतिरिक्त अन्य किसी साधन पर विश्वास नहीं रखता। लोभादर्श सद्विवेक आदि का इस भक्ति पद्धति में प्रवेश नहीं है। पुष्टिमार्ग में कृष्णार्पणम् की भावना ही प्रमुख है।
मार्धुय-भाव की उपासिका गोपियां समाज-सम्बन्ध तोड़कर कृष्ण लीला में सम्मिलित होती हैं। सूरदास स्वयं एक गोपी के रूप में उस लीला-बिहारी के साथ विहार करते होंगे। प्रेम का पूर्ण निर्वाह लोक-समाज और शास्त्र की अवहेलना में है न कि उनकी मर्यादाओं के पालन में। सूरदास का कहना है-
प्रेम प्रेम ते होई, प्रेम ते पारहिं पाइए।
प्रेम बन्ध्यों संसार, प्रेम परमास्थ लहिए ।।
एकै निश्चय प्रेम को, जीवन मुक्ति रसाल।
साँचौ निश्चय प्रेम को, जहिरै मिलें गोपाल ।।
प्रेमी अपने प्रेम पात्र के सौन्दर्य पर सदा न्यौछावर होता है। सूर की गोपियाँ सौन्दर्य के अथाह सागर श्रीकृष्ण में आजीवन गोते लगाती रहीं और उसकी थाह प्राप्त करने का यत्न करती रहीं, उनके पास समाज और संसार की थाह पाने का अवकाश ही कहाँ था ? सूर के कृष्ण सुन्दर के प्रतीक हैं। सुन्दर चित्रण कोई आसान कार्य नहीं, क्योंकि सौन्दर्य क्षण-प्रतिक्षण नित्यं नवीन होता है।
प्रबन्ध काव्य में समाज का चित्रण सहज में होता है, किन्तु वैयक्तिकता प्रधान गीति काव्य में ऐसा होना संभव नहीं है। गीत-काव्य में भावों की तीव्रानुभूति होती है और उसकी परिमित परिधि में व्यापक लोक चेतना का समावेश होना कठिन हैं। सूरदास गीतिकार थे। उनके गीतों में छायावादी गीतों के समान सामाजिकता नहीं आ सकती थीं।
सूरदास की एक ही आशा और अभिलाषा है-कृष्ण लीलागान। उनकी सख्य भाव की भक्ति में किसी प्रकार के मर्यादा नियम, विधि-विधान एवं आदर्श की अपेक्षा नहीं। कृष्ण भक्ति के अनुसार कृष्ण ही केवल मात्र पुरुष हैं, शेष सभी जीवात्मायें हैं जो कि सदा कृष्ण लीला और बिहार में लिप्त रहती हैं। उन्हें समाज की कोई चिन्ता नहीं है। सूरदास राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं के चित्रण में इतने तन्मय थे और शुद्ध भावना ने इन्हें इतना आध्यात्मिक रूप दिया है कि “नीवी खोलते धीरे यदुराई” तक निःसंकोच कह डाला और राधा-कृष्ण के शुद्ध प्रेम को उनके बिहार और रीति भावना को अनेक तरल पदों में गा दिया। उन्हें कदाचित यह ज्ञात नहीं था कि इसका प्रभाव साधारण जन-समाज पर क्या पड़ेगा। उन्हें यह भी पता नहीं था कि उनके राधा और कृष्ण रीतिकालीन कवियों के अनधिकारी हाथों में पहुंचकर साधारण नायिका और नायक बन जायेंगे। रीति कवि ने राधा कृष्ण की आड़ में मानसिक फफोले फोड़े, इससे हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी भली-भाँति परिचित है। यहाँ तक कि रीतिकाल के कवि ने “केलि के राति अघाने नहि आदि में विपरीत रति-सुख का वर्णन राधा-कृष्ण की आड़ में कर डाला।
सुरदास ने यशोदा और नन्द के स्वस्थ गृहस्थी जीवन का चित्र भी खींचा है, उसमें कृष्ण अपनी लीलायें दिखाते हैं। ऐसे दृश्य हम पहले अपने साधारण घरों में नित्यप्रति देखते हैं। किन्तु कृष्ण के व्यापक जीवन से केवल इतने ही अंश का समाज के साथ सम्बन्ध नगण्य सा है। वास्तव में बात तो यह है कि सूर ने कृष्ण के जीवन के मृदुल एवं माधुर्यमय अंशों पर अपने तानपूरे का ऐसा सुर अलापा कि वहाँ समाज का कोलाहल पहुंच ही नहीं पाया। सूर का मस्त कलाकार निःशंक रूप से गाता रहा-
देखा भाई सुन्दरता को सापर। तथा
प्रभु ही सब पतितन को टीका।
आचार्य द्विवेदी के शब्दों में “भक्तों में मशहूर है कि सूरास उद्भव के अवतार थे। यह उनके भक्त और कवि जीवन की सर्वोत्तम आलोचना है।”
सर की काव्य साधना- सूर हिन्दी साहित्य के कमनीय कलाकार हैं। उनके साहित्य में न तो कबीर के समान कलापक्ष की अवहेलना है और न ही तुलसी के समान मर्यादा और नैतिकता का आग्रह । यद्यपि तुलसी के समान सुर का काव्य क्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की विभिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्य-भूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुंची वहाँ तक और किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।” सूर का समस्त काव्य-विनय, वात्सल्य और शृंगार की त्रिवेणी है। उनमें भक्ति कविता और संगीत इस रूप में घुल-मिल गये हैं कि उन्हें पृथक करना सहज व्यापार नहीं है।
विनय के पद- वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित होने से पूर्व सूरदास दैन्यपूर्ण पदों की रचना किया करते थे। इन पदों में भक्त हृदय की समस्त ग्लानि, दीनता, पश्चाताप, निरीहता, संसार के प्रति विरक्ति, आत्मविस्मृति और सर्वभावेन आत्मसमर्पण ओतप्रोत है। इन पदों में किसी प्रकार की दार्शनिकता नहीं है बल्कि इनमें है भक्त का कातर तथा निश्छल हृदय । इन पदों में उनका आत्मनिवेदन अतीव सुन्दर बन पड़ा है- “माधव नैक हटको गाइ”, “प्रभु हो सब पतितन को टीको” तथा “जैसेहि राखौ तैसेहि रहौ।”
वात्सल्य वर्णन- सूर वात्सल्य है और वात्सल्य सूर है। यह एक बड़ी ही आह्लादक एवं आश्चर्यपूर्ण बात है। कि सूर से पूर्व किन्हीं हिन्दी कवि ने वात्सल्य रस का चित्रण नहीं किया पर सूर ने पहली बार इस क्षेत्र में इतना सुन्दर कहा है कि इस सम्बन्ध में औरों के लिए कुछ कहने को नहीं रहा। सूर के वात्सल्य वर्णन के बाद सब उसकी जूठन है। सूर वात्सल्य रस का कोना-कोना झांक आये हैं। उन्होंने बाल्य जीवन की साधारण से साधारण घटनाओं और चेष्टाओं का अत्यंत मनोवैज्ञानिक और कलात्मक वर्णन किया है। इनके वात्सल्य रस के वर्णन में पृथ्वी भी स्वर्ग बन जाती है। इस प्रसंग में सूर का पाठक सूर के स्वर में स्वर मिलाकर कह उठता है-
जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ सो नित जसुमति पावे ।
सूर को माता-पिता के हृदय और बालकों के मन की गहरी पहचान है। सूर गोपाल कृष्ण का कभी भी साथ छोड़ते नहीं है। कभी तो यशोदा के ममतापूर्ण हृदय में बैठकर गोपाल कान्ह की नयनाभिराम लीलाओं को निहारते हैं तो कभी बाबा नन्द के दिल की गहराइयों में बैठकर कन्हैया की स्नेहमय झाँकियाँ देखते हैं। कभी वे रेता, पेता और मनसुखा बनकर कृष्ण के साथ माखन चुराने, दूध और दहि लुढ़काने और गौएं चराने में कृष्ण के साथ-साथ बने रहते हैं, तो कभी इस सम्बन्ध में गोपियों के द्वारा कृष्ण को दिलाये गये उपालंभों में मीठा आनन्द लेते हैं तो कभी बलराम और कृष्ण की परस्पर की छोड़ छाड़ में रसास्वादन करते हैं। कभी वे यशोदा द्वारा भिजवाये करुणार्द्र संदेशों में द्रवित होते हैं तो कभी वृद्ध गोप और गोपियों के प्रेमोद्गारों में गद्गद् हो उठते हैं। सूर के कलाकार का भोले-भाले बालक का सा हृदय है। उनकी विराट् प्रतिभा के सामने बाल्य जीवन की कोई भी वृत्ति तिरोहित न रही। कृष्ण के बाल्य जीवन से सम्बद्ध संपूर्ण क्रीड़ाओं- कृष्ण-जन्म, नाक छेदन, नामकरण, वर्षगांठ, कृष्ण को पालने में झूलना, अंगूठा चूसना, लोरियों के साथ सोना, प्रभातियों के साथ जागना, हंसना, मचलन, बहाने बनाने का अत्यंत सूक्ष्म और विशद विवेचन सूर ने किया है।
नन्द और यशोदा को प्रौढ़ अवस्था में बालक कृष्ण की प्राप्ति होती है। उनका कृष्ण के प्रति अतिशय स्नेह स्वाभाविक था। जैसे कृष्ण-साहित्य में राधा प्रेमरूपिणी है वैसे ही यशोदा वात्सल्य रसधारिणी है। उनका समस्त व्यक्तित्व ही कृष्ण प्रेम में घुलमिल गया है। उठते-बैठते, सोते-जागते, खाते-पीते चौबीसों घंटे उन्हें कृष्ण का ही ध्यान है। वे कृष्ण को सुलाती, झूला झुलातों और लोरियां गाती हैं- “यशोदा हरि पालने झुलावै।” वे कृष्ण के घुटनों के बल चलने और उनकी दंतुलियों के निकलने पर उल्लसित हो उठती हैं। वे उसे आंगन में अंगुली के सहारे चलना सिखाती है, और नाना प्रलोभन देकर दूध पिलाती है और उन्हें कृष्ण की मीठी-मीठी बातों “मैया कबहि बढ़ेगी चोटी” के सुनने का सुअवसर मिलता है। बालकों में सहज ईर्ष्या का चित्र भी कितना हृदयकारी बन पड़ा है- “मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायो” तथा “तू मोहि को मारन सीखी दाउहिं कबहु न खीझै।” गोधियों के उलाहना देने पर कृष्ण का चातुर्यपूर्ण उत्तर- “मैया मैं नहि माखन खायो” सूर की बाल मनोविज्ञान की गहरी पहचान का परिचायक है और अन्ततोगत्वा कृष्ण की माँ को खरी तीखी बात- “मैया मैं न चरैहो गया” कितनी मार्मिक और रसपूर्ण बन पड़ी है। कृष्ण के खेलने के लिए दूर चले जाने पर ममतामयी माँ का हृदय आशंका से भर जाता है और वह कह उठती है- “खेलन दूर जात कित कान्ह” । कहने का तात्पर्य यह है कि सूर ने बाल-सुलभ हृदय की किसी वृत्ति या भाव को छोड़ा ही नहीं। सूर के वात्सल्य वर्णन का वैशिष्ट्य इस बात में है कि उनके कृष्ण तुलसी के राम के समान जन-जीवन से अलग नहीं हैं। आज भी सद्ग्रहस्यिों के घर कृष्ण जैसे बालकों की क्रीड़ाओं, हर्ष, उल्लास, हास्य और परिहास से भर जाता है और लाखों यशोदायें खिल उठती हैं। तुलसी ने भी बालभाव का वर्णन किया है किन्तु वे अपनी ऐश्वर्योपासना के कारण यह नहीं भूलते कि उनके राम राजकुमार हैं। उनके बालक राम भी मर्यादा में बंधे हैं। तुलसी ने सूर के समान कौशल्या से पालनादि झुलवाया है, पैदल चलना सिखाया है, और बड़े होने की अभिलाषा भी प्रकट की है किन्तु राजकुमार राम में शील का प्राबल्य है। उनके पास रेता, पेता और मनसुखा की पहुंच नहीं है। सूर के कृष्ण अपने सखाओं के साथ गौएं चराते हैं। उन पर खीजने पर सुननी भी पड़ती हैं–“खेलन में को काका गुसैया”। तुलसीदास राम के प्रति दास्य भाव को भूल नहीं सके। वात्सल्य के लिए जो स्वतंत्रता चाहिए वह तुलसीदास अपने बालचरित वर्णन में नहीं ला सके। वस्तुतः सूरदास इस क्षेत्र में असंदिग्ध रूप से सम्राट हैं। आचार्य द्विवेदी जी इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “संसार के साहित्य की बात कहना तो कठिन है क्योंकि वह बहुत बड़ा है और उसका अंश मात्र हमारा जाना है। परन्तु हमारे जाने हुए साहित्य में इतनी तत्परता, मनोहारिता और सरसता के साथ लिखी हुई बाललीला अलभ्य है। बालकृष्ण की एक-एक चेष्टाओं के चित्रण में कवि कमाल की होशियारी और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देता है। न उसे शब्दों की कमी होती है, न अलंकारों की, न भावों की न भाषा की।” सूर काव्य की यह अपनी विशेषता है उसमें पुनरुक्तियाँ होते हुए भी हृदय पर द्विगुणित प्रभाव डालता है। ईश्वरोपासना में बालभाव अपनी निरीहता और निश्छलता के लिए प्रशस्त माना है। क्राइस्ट (Christ) ने कहा था “Suffer little children to come unto me for theirs is the kingdom of Heaven ” मनु कृतात्मा के लिए कहते हैं-“वाइवज्जड वच्चापि मूकवच्च महीं चरेत् । “
श्रृंगार वर्णन- सूर ने श्रृंगार रस की विश्वव्यापक भावभूमि को भक्त की उच्चतम भव्यता प्रदान करके उसे उज्जवल रस की संज्ञा से विभूषित किया है। सूर ने शृंगार रस के पुटपाक से जितना सौम्य और भव्य बनाया है वह कदाचित ही अन्यत्र मिले ! सूर के श्रृंगार रस में रति स्थायी भाव का पूर्ण और अलौकिक परिपाक हुआ है। गोपियों और राधा का प्रेम आकस्मिक घटना न होकर सचमुच एक बिवा या बेल के समान बढ़ा है। उनके शैशव का प्रेम यौवन के माधुर्य रस में परिणत हो गया है-
लरिकार्ड को प्रेम कहाँ अलि कैसे छूटता।
बारे ते बलबीर बढ़ाई, पोसी प्याई पानी।
सूर की गोपियों में प्रेम के संस्कार पक्के हैं। इनमें विद्यापति की गोपियों के समान रूपलिप्सा नहीं वरन् सहचर (Fellowship) की भावना है। वे भावना प्रधान है, नन्ददास की गोपियों के समान वकील नहीं। “वास्तव में सूरदास की राधिका शुरू से आखिर तक सरल बालिका है। उनके प्रेम में चण्डीगढ़ की राधिक की तरह पग-पग पर सास-ननद का डर भी नहीं है और विद्यापति की किशोरी राधिका के समान रुदन में हास और हास में रुदन की चातुरी भी नहीं है। इस प्रेम में किसी प्रकार की जटिलता भी नहीं है। घर में, वन में, घाट पर, कदम्ब तले हिंडोले पर जहाँ कहीं भी इसका प्रकाश हुआ है, वहीं पर अपने आप में ही पूर्ण है, मानो वह किसी की अपेक्षा नहीं रखता और न कोई दूसरा ही उसकी खबर रखता है।” सूर ने आलम्बन के रूप में कृष्ण के रूप और सौन्दर्य का विस्तृत चित्रण किया और गोपियों के रूप माधुर्य का इस रूप में कम वर्णन किया है। हम भले ही इस रूप में सूर के शृंगार को एकांगी कह सकते हैं, किन्तु शृंगार के इस एकांगी रूप में भी उन्होंने प्रेम की विविध दशाओं का वर्णन किया है। सूर ने बड़ी सच्चाई के साथ प्रेमी हृदय में रति की उत्पत्ति, प्रिय मिलन की लालसा, प्रिय मिलन का हर्ष और चापल्य, प्रियस्मृति, लोक-लाज, प्रेम की विकलता, साहस और उन्माद का ऐसा प्रभावोत्पादक विशद चित्रण किया है कि एकांगीपन खटकता नहीं। पनघट यमुना स्नान, दान लीला और रस के प्रसंगों में गोपियों का प्रेम उज्जवलतम है। गोपियों का यह प्रेम विलास नहीं बल्कि वह आत्मानुराग का स्वच्छंद प्रकाशन है, उसमें किसी प्रकार का लुकाव-छिपाव नहीं। गोपियों के स्वकीया-प्रेम में सात्विकता है।”
सूर ने गोपियों और राधा के माध्यम से अपने हृदय को द्राक्षाफल के समान निचोड़कर रख दिया है। इन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम-वर्णन में प्रेम का चरम आदर्श उपस्थित किया है। राधा और कृष्ण की युगल लीलाओं के वर्णन में सुर समस्त प्रतिभा और सकल काव्य कौशल का उपयोग किया है। इन्होंने भागवतकार की अपेक्षा कृष्ण गोपियों और राधा के ने अपनी प्रेम-निरूपण में अधिक कलात्मकता का परिचय दिया है। प्रेम के इस व्यापक चित्रण-नखशिख और संयोगादि में कहीं-कहीं पर रीतिशास्त्र का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है, किन्तु उसमें किसी प्रकार का वासना कालुष्य नहीं है। यह सारी प्रेम-कहानी आध्यात्मिक भूमि पर प्रतिष्ठित है। उसमें आत्मा का उज्जवल प्रकाश है और सर्वत्र है भक्ति रस।
विप्रलम्भ शृंगार- सूर का संयोग चित्रण जितना सुखद और उल्लासमय है वियोग चित्रण उतना ही करुण, मर्मस्पर्शी और हृदयग्राही है। इसका कारण कृष्ण की वियोगानुभूतियों का निरूपण वल्लभ भक्ति के अत्यंत अनुकूल पड़ता है। सूर संयोग और वियोग चित्रण में दुनिया को भूल अपने आप में मस्त हैं। “सूर का प्रेम संयोग के समय सोलह आने संयोगमय है और वियोग के समय सोलह आने वियोगमय है। क्योंकि उनका हृदय बालक का था जो अपने प्रिय के क्षणिक वियोग में अधीर हो उठता है, क्षणिक सम्मिलन में सब कुछ भूलकर किलकारियाँ मारने लगता है।” इनका वियोग वर्णन अत्यंत संयमित एवं मनोवैज्ञानिक है। इन्होनें जायसी की भांति प्रत्येक वस्तु में विरह की झलक नहीं दिखाई और न ही गेहूँ का हृदय विरह से विदीर्ण दिखाया है। इन्होंने विरह-वर्णन में उन वस्तुओं को लिया है जो कृष्ण से सम्बद्ध हैं। तुलसी की कौशल्या और सूर की यशोदा का विरह एक जैसा है, किन्तु सूर में जो अनोखी व्यंजना है वह तुलसी में नहीं। तुलसी का मर्यादाबाद पग-पग पर अड़ जाता है। राम के एक पत्नीव्रत होने के कारण उसमें उपालम्भ और असूया का अभाव है।
सूरसाहित्य में वियोग श्रृंगार का आरंभ कृष्णा के मथुरागमन से होता है। कृष्ण मथुरा क्या गये कि समस्त बज का उल्लास और आनन्द समाप्त हो गया। माता यशोदा का हृदय विरह व्यथा से पीड़ित है और वह शतशः फटा जा रहा है। गोपियों के आंसुओं से ब्रज डूबने को हो जाता है। गऊए बछड़े व्याकुल हो उठते हैं। गोपी और कृष्ण के सखाओं का बुरा हाल हो जाता है। प्रकृति उन्मनी हो जाती है मानो समस्त ब्रज की वनिताओं पर तूषारापात हो जाता है। यशोदा मानसिक सन्ताप से विक्षिप्त होकर नन्द से लड़ने लगती है। यह दीनताभरी आवाज में कह उठती है- “नन्द ब्रज लीजै टोक बजाय । व्रजेश के विरह में गोपियों का दुःख अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। वे एकमात्र जड़ हो जाता हैं। कृष्ण के बिछुड़ते समय उनका हृदय टुकड़े टुकड़े क्यों न हो गया, ये निर्माही अभागे प्राण चले क्यों न गये, बस इसी भर्त्सना में उन विचारियों के पहाड़ जैसे दिन बीतते हैं। कृष्ण से सम्बद्ध बज की प्रत्येक वस्तु इन्हें खाने को दौड़ती हैं। पावस के घन और शीतल राशि उन्हें सामान से प्रतीत होते हैं- “प्रिया विनु सांपिन कारी रात ।” इस प्रकार गोपियों का कोमल हृदय करुणा की सहसुधा तरल तसा में द्रवित हो जाता है। यही नहीं कृष्ण के विरह में प्रकृति की प्रत्येक वस्तु इसका अनुभव करती है। उसको प्यारी गौएं दीन और हीन हो गयी हैं और वे कृष्ण को न देख कर पछाड़ खाकर गिर जाती हैं। गोपिया की आशालता तो एकदम छिन्न भिन्न तथा विदीर्ण हो गई। वे ये बार-बार सोचती हैं कि यदि उस सावले का पुनर्मिलन होना होता तो बताकर तो जाते या कम से कम मथुरा से सन्देश तो भेजते। बस कृष्ण की यही हृदय कठोरता उन्हें रात-दिन आँसू बहाने पर विवश कर देती है।
राधा वियोग वर्णन में सूर ने और भी कमाल कर दिया है। सूर ने राधा के माध्यम प्रेम का जो परिमार्जित रूप उपस्थित किया है वह शायद ही भारतीय साहित्य में मिले। आचार्य द्विवेदी के शब्दों में- “वियोग के समय की राधिका का जो चित्र सुरदास ने चित्रित किया है वह भी इस प्रेम के योग्य है। मिलन समय की मुखरा, लीलावती, चंचला और हंसोड राधिका, वियोग के समय मौन, शांत और गंभीर हो जाती है। उद्भव के साथ अन्य गोपिया काफी बकझक करता है पर राधिका वहाँ जाता भी नहीं। उद्धव ने श्रीकृष्ण से उनकी जिस मूर्ति का वर्णन किया है उसमें पत्थर भी पियल जाता है।” उन्होंने राधिका की आँखों से निरंतर आँसुओं को गिरते देखा था। आँखें धंस गई थीं और शरीर कंकाल मात्र रह गया था। राधा दरवाजे से आग नहीं बढ़ सकी। प्रिय के लिए संदेश मांगने पर वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। वह माधव-माधव रटते रटते स्वयं माधव हो गई थी। सच यह है कि सूर का यह एकान्त विरह अमर है। उनका भ्रमरगीत विरह और उपालंभ काव्य का चरम-निदर्शन है। वैसे तो सूर ने कृष्ण की संयोग-लीलाओं में पर्याप्त रस लिया है पर वियोग पक्ष में उनकी वृत्ति अधिक रमी हैं। कारण रति की आध्यात्मिक परिणति वियोग विरह से जितनी संभव है, वह संयोग के मिलन-सुख से नहीं क्योंकि मिलन में एक प्रकार की जड़ता है और विर में क्रियाशीलता है। सच तो यह है कि शृंगार का रसराजत्व कदाचित उसके वियोग पक्ष से है।
सौभाग्यवश सूरदास ने विशाल आयु प्राप्त की, अतः उनके साहित्य पर नाना प्रभाव पड़े। पुष्टिमार्गी प्रभाव के कारण जहाँ उन्होंने वात्सल्य और सख्य भावों को निरूपण किया वहाँ चैतन्य और हरिवंश के संप्रदायों से प्रभावित होकर उन्होंने राधा-कृष्ण के प्रणयात्मक जीवन के सरस पद भी लिखे। कहीं-कहीं तो सूर पर हरिवंश जी का इतना प्रभाव है कि दोनों के पदो को पथक करना भी कठिन हो गया है। चैतन्य संप्रदाय में राधा-कृष्ण के प्रेम का चित्रण परकीया भाव से किया गया है किन्तु सूरदास ने अपनी मौलिकता को अक्षुण्ण रखते हुए राधा कृष्ण के प्रेम का चित्रण स्वकीया भाव से किया है।
सूर के विरह वर्णन पर एक आक्षेप – आचार्य शुक्ल सूर के विरह वर्णन के सम्बन्ध में लिखते हैं-“सूर का वियोग वर्णन के लिए ही है, परिस्थिति के अनुरोध से नहीं। कृष्ण गोपियों के साथ क्रीड़ा करते-करते किसी कुंज या झाड़ी में जा छिपते हैं, या यों कहिए कि थोड़ी देर के लिए अन्तर्धान हो जाते हैं, बस गोपियाँ मूर्च्छित होकर गिर पड़ती हैं। उनकी आँखों में आंसुओं की धारा उमड़ चलती है। पूर्ण वियोग दशा उन्हें आ घेरती है। यदि परिस्थिति का विचार करें तो ऐसा विरह-वर्णन असंगत प्रतीत होता है।” आगे चलकर वे लिखते हैं-“सूर की गोपियों का विरह ठालो बैठे का सा कार्य दिखाई होता है।” उनके विरह में गंभीरता नहीं है। चार कोस पर मथुरा में बैठे हुए कृष्ण से गोपियाँ क्यों नहीं मिल आती ” हमारे विचारानुसार आचार्य शुक्ल का यह आक्षेप आक्षेप के लिए है और कदाचित् सूर के भक्ति सिद्धांत को न समझने का परिणाम है। यह आक्षेप कदाचित तुलसी को सूर से अधिक प्रश्रय देने के लिए भी हो सकता है। दूसरे, शुक्ल की आलोचना के मानदण्ड रामचरित मानस पर आधारित हैं। वे तुलसी की नैतिकता, मर्यादा और लोक संग्रह की भावना को सूर में भी देखना चाहते हैं जबकि ऐसा करते समय सूर के कविता सम्बन्धी दृष्टिकोण को भूलना नहीं चाहिए। वस्तुतः मानस और सागर भिन्न-भिन्न वातावरण में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करते हैं। अतः सागर को सूर के दृष्टिकोण से देखना समीचीन होगा।
सूरदास में रहस्यात्मकता और आध्यात्मिकता है जिसे शुक्ल भी स्वीकार करते हैं। आत्मा परमात्मा का अंश होने के कारण उसमें लोन होने के लिए छटपटाती है। जलविन्दु नाना रूपों में सागर में मिलते हैं। कृष्ण परमात्मा है और गोपियाँ जीवात्माएँ । कृष्ण के ओझल हो जाने पर गोपियों का मूर्च्छित हो जाना इसी बात का द्योतक है। जायसी के वियोग-वर्णन में भी इसी प्रकार की आध्यात्मिकता है।
कृष्ण बिना किसी आश्वासन के मथुरा चले जाते हैं। गोपियों की आशालता छिन्न-भिन्न हो जाती है। कृष्ण का इस प्रकार जाना गोपियों के आत्म-विश्वास और श्रद्धा की न्यूनता का सूचक है। गोपियों के हृदय में स्त्री-सुलभ मान की भी कमी नहीं। वे अपनी जिद पर अड़ी है- क्यों जावें हम वह क्यों न आये। यह मान नारी जाति के लिए कोई नवीन वस्तु नहीं है। गुप्त की यशोधरा के शब्दों में-
भक्त नहीं जाते कहीं, आते हैं भगवान्।
यशोधरा के अर्थ है अब भी यह अभिमान ||
गोपियों का प्रेम सर्व प्रकार से पवित्र है। वे अपने प्रेम का ढोल नहीं पीटतीं। वे उद्धव को कृष्ण का अभिन्न सखा मानकर उनसे अपना हाल कृष्ण तक पहुंचाने के लिए कहती हैं। स्त्री अन्य किसी पर पुरुष से अपने रतिजन्य भावों को भूलकर भी नहीं कहती हैं। गोपियों ने कृष्ण की चिट्ठी के प्रत्युत्तर में किसी प्रकार की पत्रिका नहीं भेजी। भेजे अपने आँसू, आई और “संचित मधुर स्मृतियाँ, जो कि एक सच्चा प्रेमी अपने प्रियतम के पास भेज सकता है। गोपियों के प्रेम में किसी प्रकार की कृत्रिमता नहीं बल्कि स्वाभाविकता है। प्रेम में दो मील की दूरी और हजार मील की दूरी एक सी होती है। दूरी आखिर दूरी है। स्वच्छ और स्वच्छंद प्रेम एक वह नशा है जो सदा एक-सा रहता है। संयोग दशा में जब कृष्ण उनके जीवन के आधार हैं तो वियोग-दशा में उनके लिए शेष था ही क्या विरहोद्गारों में अपने प्यारे को देखना। गोपियों के मथुरा न जाने का कारण स्पष्ट है- उन्हें कंस की मथुरा से उत्कट घृणा है। वे उस ओर मुंह भी करना नहीं चाहतीं। निपट गंवार अहीरनियों का महाराज कृष्ण के पास जाने में सुदामा के समान संकोच स्वाभाविक था। सुदामा पुरुष है। स्त्री द्वारा धकेले जाने पर वे यथाकथित चले भी जाते हैं पर ग्वालिनें कैसे जा सकती हैं। आज के युग और उस युग में आखिर भेद है ही। गोपियों का मथुरा न जाने का सबसे प्रधान कारण है सौतिया डाह । सौत से डाह मनोवैज्ञानिक घरेलू सत्य है। कुब्जा गोपियों के लिए एक जहर की बेली है। कृष्ण कुब्जा के रंग में मस्त होकर उन्हें और सता रहे हैं। उनका उद्धव को भेजना जले पर नमक छिड़कना है। गोपाल के पास नहीं, ऐसे निष्ठुर और राजा कृष्ण के पास जाकर गोपियों के लिए अनुनय-विनय करना और न्याय की भीख मांगना, उनके स्वभाव के प्रतिकूल था और उनके आत्म सम्मान को एक चुनौती ।
गोपियों की लरिकाई का प्रेम यौवन में परिणित हो गया। यह प्रेम एक झटके से टूटने वाला नहीं था। यह वह प्रेम था जो नाना धाराओं में फूट निकला, जिससे कदाचित् सूरदास को ब्रज के डूबने की आशंका नहीं हुई होगी, किन्तु आधुनिक आलोचक अपेक्षाकृत अधिक चिन्तित और शांकित हो उठा है। अस्तु । सूर के विरह-वर्णन में “इन्तहाय लांगरी” और बिहारी की पेंडुलम जैसी नायिका वाली अतिरंजना, अतिशयोक्ति या हास्यास्पदता नहीं है और न ही इसमें कटारों के चलने तथा रक्त बहने आदि के बीभत्स दृश्य हैं।
गोपियों का प्रेम लौकिक या अलौकिक होते हुए भी न्यायसंगत, लोक व्यवहार की दृष्टि से सुन्दर तथा अभिनन्दनीय है। गोपियों के प्रेममय साम्राज्य में भारत के नवीन संविधान की धाराओं और ताजीराते हिन्द के कानूनों को लागू करना भूल होगी।
सूर का भ्रमर गीत- सूर सागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमर गीत है। जहां कवित्त और शास्त्र एकाकार हो गये हैं। भ्रमर गीत में सगुण ने निर्गुण पर, सरसता ने शुष्कता पर, प्रेम ने दर्शन पर, भक्ति ने ज्ञान पर, राग ने वैराग्य पर, आसक्ति ने अनासक्ति पर और संयोग ने वियोग पर विजय पाई है। आचार्य द्विवेदी के शब्दों में भक्तों में मशहूर हैं सूरदास उद्धव के अवतार थे। यह उनके भक्त कवि जीवन की सर्वोत्तम आलोचना है। सूर ने अपने काव्य में एक ही जगह भगवान का साथ छोड़ा है- भ्रमर गीत में। और इस बात में कोई संदेह नहीं कि इस अवसर पर सूरदास को दूना रस मिला था।” आचार्य शुक्ल का कहना है कि- “ऐसा सुन्दर उपालम्भ काव्य दूसरा नहीं मिलता। उसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। गोपियों की वियोग दशा का जो धारा प्रवाह वर्णन है उसका तो कहना ही क्या है। न जाने कितनी मानसिक दशाओं का संचार उसके भीतर है, कौन गिन सकता है ? सूर ने ऐसे भावों का वर्णन किया है जिनकी गणना आचार्यो ने संचारी आदि भावों में नहीं की है। इसके लिए अलग नामों के आविष्कार की आवश्यकता है। शृंगार रसराज कहलाता है, इस दृष्टि से यदि सूरदास को रस सागर कहें, तो बेखटके कह सकते हैं।”
उद्भव कृष्ण भक्त होने के साथ निर्गुण मार्ग के अनुयायी भी थे। कृष्ण ने उनके ज्ञान को दूर करने के लिए उन्हें गोपियों के पास अपना सन्देश कहने को भेजा। वे उद्धव को भक्ति और प्रेम की तीव्रता का अनुभूत कराना चाहते थे। उद्धव कृष्ण का सन्देश लेकर गोपियों के पास पहुंच गये। वे अपने निर्गुण ब्रह्म पर व्याख्यान देने लगे। उद्धव और गोपियों के बीच अनेक मान-मिलाप, नोक झोंक और तर्क-वितर्क हुए। अन्त में उद्भव निराश हृदय से हारे हुए योद्धा के समान सौटकर कृष्ण को गोपियों के अनन्य प्रेम की करुण कहानी सुनाते हैं। पर इस छोटे से स्थल मे जो वचन वक्रता, वाग्वैदग्ध्य और कलात्मकता है वह अत्यंत सुन्दर है। सूर ने इस प्रसंग में अनेक मौलिक उदभावनाओं से काम लिया है। भागवत में उद्भव यशोदा और नन्द को सन्देश देने आते हैं। गोपियां उन्हें एकान्त में बुलाकर कुछ सुनती और सुनाती है। किन्तु सूर ने नवीन कल्पना की है। उदव गठरी को संभाले ही आ रहे थे कि उनके रथ को दूर से देखकर गोपियां सरपट भागी जाती हैं और उद्धव से अपने प्रियतम के कुशल अनामय का प्रश्न पूछती हैं। उन्हें यह पता ही नहीं था कि उनके हृदय पर निराकार और योग को गाज इतने निर्मम रूप में पड़ेगी। यहाँ गोपियों और उद्धव के बीच नन्द और यशोदा का व्यवधान नहीं है। सूरदास की अलि, भ्रमर और धुप आदि की योजना अत्यंत मनोहारिणी है। उद्धव गोपियों के अतिथि और प्रियतम के सन्देशवाहक थे। आदरणीय अतिथि को बुरा-भला कहना आतिथ्य धर्म के प्रतिकूल था। अतः भरमर के ब्याज से उन्होंने अपने अरमान निकाले। उद्धव और कृष्णा दोनों अर व्रतधारी हैं। ऊपर से तो काले थे ही, भीतर से भी काले थे- “यह मथुरा काजर की कोठरी जे आवदि ते कारे।” भ्रमर प्रेम की रोटि नहीं जानता। यह रस-लोभी होता है। कृष्ण भी गोपियों को छोड़कर कुब्जा में रम गये थे। अतः वे भ्रमर ही हैं। सूरदास ने अपने इस गोपी उद्भव संवाद में राधा को तटस्थ दिखाया है।
सूर के इस भ्रमरगीत- काव्योद्यान का अपना वैभव और एक अपना लावण्य है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-
विवशता- “ऊधौ मन ही हाथ हमारे।” “ऊधौ मन नाही दस बीस।”
सारल्य- “उर में माखन चोर गड़े।” “निर्गुन कौन देश को बासी ?”
तर्क-वितर्क- काहे को रोकत मारग ऊधो
सुन मधुप निर्गुन कंटक से राज पथ को संधौ ।
व्यंग्य, हास, उपालंभ-“यह मथुरा काजर की कोठरी जे आवहिं ते कारे।”
“आयौ घोष बड़ो व्यापारी।” “जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहैं।”
“सूर श्याम जब तुम्हें पठाये तब नैकहु मुसकाने ।”
गोपियों की विजय- “मौन है रह्यो ठगौ सौ सूर सबै मति नासी।”
“उनौ कर्म कियौ मातुल वधि मदिरा मत्त प्रसाद ।
सूरश्याम एते अवगुन ते, निर्गुन ते अति स्वाद ।”
सच यह है कि सूर ने भ्रमर गीत में गोपियों के माध्यम से अपने हृदय के समस्त मधुर रस को द्राक्षारस के समान निचोड़कर रख दिया है जहाँ सब ओर रस ही रस और माधुर्य ही माधुर्य है। आचार्य द्विवेदी के शब्दों में- जिसने सूरमागर नहीं पढ़ा उसे यह बात सुनकर कुछ अजीब सी लगेगी, शायद वह विश्वास ही न कर सके पर बात सही है। काव्य गुणों की इस विशाल वनस्थली में अपना सहज सौन्दर्य है। वह उस स्मरणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाया करता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में ही घुल-मिल गया है। ” सूरदास का यह भ्रमर गीत चाहे भागवत का आधार लेकर चला है फिर भी अपनी मौलिकता और नवीनता के कारण ‘बिहारी की सतसई’ और कालीदास के ‘मेघदूत’ के समान अनेक भ्रमर गीतों की परम्परा का कारण बना है।
नन्ददास के अमर गीत में तर्क प्रमाण एवं बुद्धित्व की अधिकता है। वहाँ गोपियां एक चतुर वकील हैं। उनमें और उद्धव में एक बड़ा विवाद ही चल पड़ता है। उद्धव- “जो उनके गुन होय वेद क्यों नेति बखाने ।” गोपिया “जो उनके गुन नाहि और गुन भये कहाँ ते।” इसमें उद्धव का उद्देश्य उपदेश है- “ऊधौ का उपदेश सुनो ब्रज नागरी” “कहि सन्देसों नन्दलाल को बहुरि मधुपुरी जाऊं।” इसमें परिहास और भर्त्सनामयी उक्तियों भी हैं-“यह नीची पदवी हुती गोपी नाथ कहाय।” नन्ददास के जडिया होने के कारण इनका यह भ्रमर गीत भाषा की दृष्टि से उत्तम बन पड़ा है। भावों के क्षेत्र में सुर का भ्रमरगीत बहुत आगे है। रत्नाकर में सूरदास की भावुकता, नन्ददास का तर्क और रीतिकालीन अलंकारिता का सम्मिश्रण है। इनके उद्भव शतक का आरंभ भी बड़ा विचत्र हुआ है। भावपेशलता में ये सूर को नहीं पहुंच सके। उपाध्याय जी के प्रियवास में चाहे भ्रमादाम का उल्लेख नहीं फिर भी गोपी-उद्धव संवाद अवश्य है। यहाँ नन्द और यशोदा को नवीन रूप दिया गया है। राधा और कृष्ण से देशभक्ति का सन्देश दिलवाया गया है। सत्यनारायण कविरल में गोपी हैं ही नहीं यशोदा पर मातृभूमि का आरोप किया गया है और कंस वध के समान अंग्रेज वध की प्रार्थना की गई है। यह गोपियों का भ्रमर गीत न होकर भारत का करुण विलाप है। वात्सल्य और शृंगार के चित्रण के अतिरिक्त सूरसागर में प्रासंगिक रूप से वीर, करुण, हास्य, रौद्र, भयानक और बीभत्स रसों का भी चित्रण हुआ है पर वे रमें वात्सल्य और शृंगार के क्षेत्र में ही हैं। इन दोनों रसों के ये सम्राट हैं और हिन्दी का कोई भी कवि इनकी तुलना में नहीं ठहर सकता।
प्रकृति चित्रण- सूर काव्य का निर्माण बज मण्डल में प्रकृति के परिवेश में हुआ, अतः उनका प्रकृति चित्रण नैसर्गिक और विशद है। सूर ने प्रकृति-चित्रण स्वतंत्र रूप में न करके कृष्ण-लीलाओं की पृष्ठभूमि के रूप में किया है। वात्सल्य और शृंगार में इन्होनें प्रकृति को उद्दीपन रूप में ग्रहण किया। कृष्ण-जीवन के समान इन्हें प्रकृति का भी कोमल रूप अधिक प्रिय लगा है। इनके काव्य में प्रकृति और मानव हृदय के उद्गारों में सुन्दर सामंजस्य है। इसमें न तो केशव के समान पांडित्य का प्राबल्य है. और न ही तुलसी के समान नीति एवं दर्शन का आग्रह है। संस्कृति कवियों के समान प्रकृति के संश्लिष्ट चित्रों की आशा सूर से तो क्या हिन्दी के किसी भी कवि से नहीं की जा सकती है।
कलापक्ष- सूर का भावपक्ष तो उज्ज्वल है ही कला पक्ष भी पर्याप्त निखरा हुआ है। आचार्य द्विवेदी इस सम्बन्ध में लिखते हैं- “सूरदास जब अपने विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकारशास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है, उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है। संगीत के प्रवाह में स्वयं कवि वह जाता है। वह अपने आपको भूल जाता है। काव्य में इस तन्मयता के साथ शास्त्रीय पद्धति का निर्वाह विरल है। पद-पद पर मिलने वाले अलंकारों को देखकर भी कोई अनुमान नहीं कर सकता है कि कवि जान-बूझकर अलंकारों का उपयोग कर रहा है। पन्ने पढ़ते जाइए केवल उपमाओं और रूपकों की छटा, अन्योक्तियों का ठाठ, लक्षणा और व्यंजना का चमत्कार – यहाँ तक कि एक ही चीज दो-दो, चार-चार, दस-दस बार तक दुहराई जा रही है फिर भी स्वाभाविक और सहज प्रवाह कहीं भी आहत नहीं हुआ।”
सूर-काव्य चलती हुई ब्रज भाषा के साहित्यिक रूप का उत्तम नमूना है। उनकी भाषा समृद्ध, सुडौल, परिमार्जित, प्रगल्भ एवं काव्यांगपूर्ण है। भले ही उसमें लिंग और वाक्य व्यवस्था सम्बन्धी गड़बड़ है किन्तु भाषा के प्रवाह में कुछ खटकता नहीं और भावों की उदात्तता में पाठक आगे बहने सा लगता है। “वास्तव में सूर के शब्द प्रयोग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने शब्दों के निर्वाचन में साहित्यिक- असाहित्यिक अथवा शिष्ट- अशिष्ट का कोई विचार नहीं किया और परिस्थिति के विचार से जिन शब्दों को उन्होंने उपयुक्त समझा उनका प्रयोग करने में उन्हें इस बात का संकोच नहीं हुआ कि वे किस श्रेणी अथवा किस उद्गम के हैं। इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्द, खड़ी बोली, पूर्वी हिन्दी, बुन्देलखण्डी, राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, अरबी और फारसी शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनसे इनकी भाषा को और भी अधिक बल मिला है। इन्होंने वात्सल्य और श्रंगार रस के वर्णन में माधुर्य और प्रसाद गुणों का समुचित प्रयोग किया है। शब्द चयन भाषानुसार है। वाक्य व्यवस्था काफी सजीव है। लोकोक्तियों, मुहावरों और अलंकारों के सफल प्रयोग के अर्थ में सौन्दर्य एवं गंभीर गुणों का समावेश हुआ है।
सूर काव्य में भक्ति, कविता और संगीत की सुन्दर त्रिवेणी है। डॉ० रामकुमार वर्मा के शब्दों में– सूर की कविता में संगीत की धारा इतनी सुकुमार चाल से चलती है कि हमें यह ज्ञात होने लगता है कि हम स्वर्ग के किसी पवित्र भाग में ‘मन्दाकिनों की हिलती हुई लहरों’ का स्पर्शानुभव कर रहे हैं। सूरदास तो स्वाभावतः ही उत्कृष्ट गायनाचार्य थे। इस कारण उन्होंने जितने पद लिखे हैं। उनमें संगीत की ध्वनि इतनी सुमधुर रीति से समाई हैं कि वे पद संगीत के जीते-जागते अवतार से हो गये हैं।” सूर के गीत सहृदय-संवेद्य हैं। उनमें एक नमूना तन्मयता और भावानुभूति है।
भक्त नाभादास के भक्तमाल में उपलब्ध एक छप्पय सूर के काव्य की महत्ता को भली भाँति प्रदर्शित करता है-
उक्ति चीज अनुप्रास वरन् अस्थिति अति भारी।
वचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तक भारी ।।
प्रतिबिम्बित दिवि दृष्टि हृदय हरि लीला भासी।
जनम करम गुन रूप सबै रसना प्रकासी ॥
विमल बुद्धि गुन और की जो वह गुन खवननि करै ।
सूर कवित सुनि कौन जो नहि सिर चालन करै ।
इसी प्रकार-
किधौ सूर को सर लग्या, किधी सूर की पीर।
किधा सूर को पद सून्या, वेध्यो सकल शरीर ॥
सूर काव्य सहृदयों और संगीत रसिकों दोनों के लिए गले का हार है। भले ही उन्होंने कृष्ण के रंजनकारी रूप को चित्रित किया है जिसकी चित्रपटी में जीवन के सर्वांगीण चित्रण और लोक-मंगल का अंकन तुलसी जैसा नहीं हो सका, पर अपनी स्वीकृति परिमित पुण्य भूमि में जितने दूर तक इनकी वाणी ने संचरण किया है वहाँ तक तुलसी तो क्या हिन्दी का कोई भी कवि नहीं पहुंच सका। यह निश्चित है कि विशुद्ध काव्यात्मक दृष्टि से सूरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनके कृतित्त्व और महत्त्व की अनेक प्रशस्तियों से हिन्दी साहित्य भरा पड़ा है-
सूर-सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास।
अबके कवि खद्योत सम, जहुं हुं करत प्रकाश ।।
उत्तम पद कवि गंग के, कविता के बलवीर ।
केशव अर्थ गम्भीरता, सूर तीन गुन धीर ।।
(2) कुम्भनदास
विरक्तः धन मान मर्यादा से अनासक्त, ये भी अष्टछाप के भक्ति कवि थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा, जहाँ इनका बड़ा सम्मान था पर इसका इन्हें बराबर खेद रहा-जैसे कि इस पद से व्यंजित होता है-
“संतन को कहा सीकरी सों काम ?
आवत जात पनहियां टूटी, बिसर गयो हरि नाम।”
(3) नन्ददास
जीवन वृत्त— इनका जन्म संवत् 1570 के लगभग सूकर क्षेत्र (जि. एटा) के समीपवर्ती ग्राम रामपुर में हुआ। कहा जाता हैं कि गोस्वामी तुलसीदास इनके चचेरे भाई थे। माता-पिता का देहान्त हो जाने के कारण इनका लालन-पालन इनकी दादी के द्वारा हुआ। संस्कृत और संगीत में इन्होंने अभीष्ट दक्षता प्राप्त कर ली थी। एक स्त्री पर लट्ट होने की बात इनके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है हो। उसके पीछे ये गोकुल जा पहुंचे जहाँ विट्ठलनाथ ने अपने सदुपदेश से इन्हें पुष्टि मार्ग में दीक्षित किया। उस समय तक इनके हृदय में वासना के अंकुर थे और वैराग्य की दृढ़ता उत्पन्न नहीं हुई थी, अतः इन्हें सूरदास के सत्संग में रहने के लिए पारसौली भेज दिया गया था। सूरदास ने नन्ददास की तात्कालिक रुचि के अनुसार माधुर्य भक्ति द्वारा ही उनका विरोध करने के लिए रस-रीति के ग्रंथ साहित्य लहरी के पदों का प्रणयन किया था। कहते हैं कि सूरदास ने इन्हें विवाह कर लेने का परामर्श दिया था। फलस्वरूप इन्होनें अपने ग्राम रामपुर में कमला नाम की कन्या से विवाह कर लिया था। इनके एक कृष्ण दास नाम का पुत्र भी हुआ। कुछ काल तक गृहस्थ सुख भोगने के पश्चात् ये विरक्त होकर गोवर्धन पर आकर रहने लगे। इनका देहान्त सं. 1640 में हुआ। यह बड़े विचित्र संयोग और आश्चर्य की बात है कि अष्टछाप के अधिकांश कवियों की मृत्यु सं० 1640-42 के बीच हुई।
रचनाएँ- नागरी प्रचारिणी सभा की खोज-पत्रिका के अनुसार इन्होंने १६ ग्रंथ तथा कुछ फुटकर पदों की रचना की, जिनमें से इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं- भंवरगीत, रास पंचाध्यायी, दशम स्कन्ध भागवत, विरह मंजरी और रस मंजरी। इनमें भी भंवर गीत और रास पंचाध्यायी प्रसिद्ध है। सूर और नन्ददास के भवरंगीत का विवेच्य विषय एक ही है किन्तु नन्ददास के भवरगीत में उपदेश, तर्क और बुद्धित्व की प्रधानता है। एक मित्र की प्रेरणा से इन्होंने रास पंचाध्यायी का निर्माण किया था। यहाँ इन्होंने पांच अध्यायों में कृष्ण की रास लीला कृष्ण, नख-शिख वर्णन, गोपियों के विलाप और उपालम्भ और प्रकृति के उन्मादक दृश्यों का अत्यंत भव्य चित्रण किया है। इसका आधार ग्रंथ भागवत ही है।
‘रस मंजरी’, ‘रूप मंजरी’ तथा ‘विरह मंजरी’ इनके रीति विषयक ग्रंथ कहे जा सकते हैं। रस मंजरी में रति, और नायिका आदि भेदों का निरूपण है। विरह मंजरी में विरह के अनेक प्रकार के काव्यशास्त्रीय भेदों का वर्णन है। उन्होंने इन ग्रंथों का निर्माण एक अपने मित्र को रस-रीति की शिक्षा देने के लिए किया था क्योंकि इसके जाने बिना रति की आस्वादन क्षमता आनी दुष्कर है। डॉ० हरिकांत श्रीवास्तव ने अपने शोध प्रबन्ध ‘भारतीय प्रेमाख्यान काव्य’ में रूप मंजरी को एक अन्योपदेशिक पंथ कहकर इसमें आध्यात्मिकता का आरोप किया है जो कि हमें सर्वथा अमान्य है। हमारा विश्वास है कि रूप मंजरी में नायक स्वयं नन्ददास हैं और नायिका उनकी प्रेमिका है जिसे इन्होंने रसिका मित्र कहा है जिसकी शिक्षा के लिए इन्होनें रीति सम्बन्धी ग्रंथों का प्रणयन किया।
काव्य-सौष्ठव- अष्टछाप के कवियों में सूरदास के पश्चात् नन्ददास का नाम विशेष प्रसिद्ध है। अष्टछाप के कवियों में सिर्फ नन्ददास ही ऐसे कवि हैं जिन्होंने पद रचना के अतिरिक्त कृष्ण चरित सम्बन्धी खण्ड काव्यों की रचना की और इन्हें इस कार्य में सफलता भी मिली। कारण, नन्ददास की वृत्ति कथात्मकता में विशेष रमती थी। भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष की ओर इन्होंने विशेष जागरूकता से काम लिया है, शब्दों के तो ये कुशल शिल्पी ही हैं और कदाचित इसीलिए इनके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है- ” अन्य कवि गढ़िया नन्ददास जड़िया।” कृष्णभक्ति कवियों में नन्ददास का नाम शैलीकार के नाते उल्लेखनीय है- “सुरदास की अधिकांश रचना पदों में है, भिन्न शैलियों में कम है। किन्तु नन्ददास की रचना पदों में कम और भिन्न शैलियों में अधिक है।” इन्होनें जायसी और तुलसी की चौपाई शैली में भी काव्य रचना की है। नन्ददास की काव्य-प्रतिभा में मौलिकता की मात्रा विशेष नहीं है। इनके अत्यंत प्रसिद्ध काव्यों भंवरगीत और रास पंचाध्यायी पर भागवत तथा सूरदास का विशेष प्रभाव है। नन्ददास में भक्ति और शृंगारी कवि के रूपों का सम्मिश्रण है। यहाँ इस विवाद में पड़ना अप्रासंगिक होगा कि यह पहले भक्त हैं या शृंगारी कवि है किन्तु इतना तो निश्चित है कि शृंगारी और भक्ति की वृत्तियों दोनों बराबर चलती रही हैं। बज भाषा के जड़ाव कार्य में नन्ददास निःसन्देह अग्रणी है। सूर ने स्वाभाविक चलती भाषा का ही अधिक आश्रय लिया है। अनुप्रास और चुने हुए संस्कृत पदविन्यास आदि की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई पर नन्ददास में ये बातें पूर्ण रूप में पाई जाती हैं। लोकोक्तियों तथा मुहावरों के प्रयोग से इनकी भाषा में प्रभावशीलता आ गई है। इनकी भाषा की आनुप्रासिकता, ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता और चित्रोपमता दर्शनीय है। ‘नन्ददास भक्त, उच्चकोटि के कवि, प्रकांड पंडित, रीतितत्वज्ञ संगीतज्ञ, जड़िया और शैलीकार हैं।’ कृष्ण भक्ति काव्यों की साम्प्रदायिकता अष्टछाप के कवियों में से इनमें सबसे अधिक है। वियोग हरि के शब्दों में इनकी रास पंचाध्यायी को हिन्दी का गीत गोविन्द कहा जा सकता है।
(4) कृष्णदास
कृष्णदास- ये भी वल्लभाचार्य के शिष्य और अष्टछाप के कवियों में एक थे। यद्यपि ये जाति से शूद्र थे, किंतु आचार्य के स्नेहपात्र थे। ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ में इनका वृत्तान्त दिया गया है। एक बाद गोसाई विट्ठलनाथ से किसी बात पर अप्रसन्न होकर इन्होनें उनकी ड्योढ़ी बन्द कर दी। महाराज बीरबल (जो विठ्ठलजी के कृपापात्र थे) ने इन्हें कैद कर लिया। गोसाई जी इस पर दुःखी हुए। उन्होंने उन्हें मुक्त कर प्रधान के पद पर फिर ज्यों का त्यों प्रतिष्ठित कर दिया। जुगलमान-चरित्र इनका एक ग्रन्थ मिलता है। दो अन्य ग्रन्थ हैं-भ्रमरगीत और प्रेमतत्व निरूपण । फुटकल पदों के संग्रह यत्र-तत्र मिलते हैं। सूरदास और नन्ददास की तुलना में उनका कवित्त्व साधारण स्तर का ही है।
(5) चतुर्भुजदास
ये कुम्भनदासजी के पुत्र और गोसाई विट्ठलनाथजी के शिष्य थे। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थिति है। इनके बनाये तीन ग्रंथ मिलते हैं-
द्वादशयश, भक्तिप्रताप, हितजू मंगल।
इनके पदों में कवित्व की साधारण कोटि ही परिलक्षित होती है। इनका एक पद देखिए-
यशोदा ! कहाँ कहाँ हो बात ?
तुम्हारे सुत के करतब जो पै कहत कहे नहिं जात।
भाजन फोरि ढारि सब गोरस लै माखन-दधि खात ।
जो बरनों तौ आँखि दिखावै, रचहु नाहि सकात
और अटपटी कहँ लौ वरनी, छुवत पानि सो गात।
(6) परमानन्द दास
सवंत् 1606 के आस-पास कन्नौज में इनका अधिवास था। कुछ लोगों के मतानुसार वे कान्यकुब्ज ब्राम्हण कहे जाते हैं। इनके एक पद को सुनकर आचार्य कई दिनों तक मूर्छित रहे थे। इनके फुटकल पद प्रायः कृष्ण भक्त के मुखों पर रहते हैं। ‘परमानन्द सागर’ नाम से उन पदों का संकलन प्रसिद्ध है। इनके पदों में भक्ति की तड़प है।
एक बानगी देखिए-
कहा करी बैकुण्ठहि जाय,
जह नहिं नन्द, जहाँ न यशोदा जहँ गीपी ग्वाला ना गाय।
(7) छीतस्वामी
ये विट्ठलनाथ जी के शिष्य और अष्टछाप के अन्तर्गत थे। ये मथुरा के सम्पन्न एंडा थे। राजा बीरबल जैसे लोग इनके यजमान थे। आरम्भ में इनका स्वभाव अक्खड़, उदण्ड और उप था, बाद में भक्तिरस में डूबकर शान्त हो गया। ब्रजभूमि के प्रति इनका बड़ा अनुराग था-
‘हे विधना तो सो अंचरा ।
पसारि माँगों जनम-जनम दीजो या ही बज बसिहो।’
इनकी कविता बड़ी ही सरल एवं सरस समझी जाती है-
“भोर भए नवकुंज सदन में आवत लाला गोवर्धन धारी।
लट पर पाग मरगजी माता, सिथिल अंग डगमग गति न्यारी।”
(8) गोविन्दस्वामी
ये अन्तरी के रहने वाले सनाढ्य ब्राम्हण थे, जो विरक्त की भाँति महावर में रहने लगे। पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य हो गये। ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे। उसके पास ही इन्होंने कदम्बों का अच्छा बाग लगाया। उसे आज भी ‘गोविन्द स्वामी की कदम्बखण्डी’ कहते हैं। इनकी रचना-काल संवत् 1600 और 1625 के भीतर ही माना जाता है। कविता के साथ इनका कंठ भी बहुत सुन्दर था। ये उच्चकोटि के गवैये थे। तानसेन भी इनका गाना सुनने आया करते थे।
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