आदिकाल में अपभ्रंश की प्रमुख रचनाओं पर प्रकाश डालिए।
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आदिकाल में अपभ्रंश की कतिपय प्रमुख रचनाएँ
आदिकाल में अपभ्रंश की कतिपय प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
सन्देश रासक- ‘सन्देश रासक’ अद्दहमाण संभवतः अब्दुर्रहमान द्वारा रचित एक खण्डकाव्य है। कबीर की भाँति अब्दुर्रहमान भी जुलाहा परिवार से सम्बद्ध हैं। वे अपने संबंध में स्वयं लिखते हैं-“मैं म्लेच्छ देशवासी तन्तुवाय मीरसेन का पुत्र हूँ।” अब्दुर्रहमान मुल्तान के निवासी थे तथा संस्कृत और प्राकृत के अच्छे पण्डित थे। उनकी भारतीय साहित्य तथा संस्कृत में गहन आस्था थी।
सन्देश रासक के निर्माण काल के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। डा० कत्रे ने इसका रचना काल 11वीं शताब्दी तथा 14वीं शताब्दी के मध्य माना है। मुनि जिनविजय ने 12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर 13वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक इस रचना का समय माना है। अगरचन्द नाहट इसे सं० 1400 के आसपास रचना मानते हैं परन्तु डॉ० हजारीप्रसाद ने इसे 11वीं शती की रचना स्वीकार किया है, कारण हेमचन्द ने अपनी रचना में सन्देश रासक के पद्यों को उद्धृत किया है। हेमचन्द का जन्म सं० 1145 में तथा मृत्यु 1229 में हुई। अतः अब्दुर्रहमान को 11वीं शती का मानना युक्तियुक्त है।
सन्देश रासक विरह का एक खंडकाव्य है जो कि एक कल्पित लोकजीवनमय कथा पर आधृत है। यह रचना कालिदास के मेघदूत के समान कथात्मक होते हुए भी विभिन्न मुक्तकों की एक मणिमाला है। इसमें विरह की सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। हिन्दी साहित्य में बीसलदेव रासो भी इसी प्रकार का काव्य है। सन्देश रासक मध्यकालीन शृंगारी परम्परा पर लिखे हुए विरह साहित्य में प्रतिनिधि काव्य है। इसमें विरहिणी की शत-शत भावपूर्ण प्रेम के ज्वार भाटे से विह्वल और करुण कातर हृदय की भावनाओं की अतीव मार्मिक कलात्मक अभिव्यक्ति हुई है। उसके सन्देश में एक गहरी टीस, सुप्त दर्प, प्रेम की संघनता, उपालम्भ एवं आत्मसमर्पण का विलक्षण समन्वय है। ‘प्रिय तुम मेरे हृदय में स्थित हो और तुम्हारे रहते हुए विरह मुझे कष्ट दे रहा है। क्या आपके लिए यह लज्जास्पद नहीं ? क्या यह आपके पौरुष को चुनौती नहीं ? “
डा० हजारीप्रसाद इस संबंध में लिखते हैं- “इस सन्देश रासक में ऐसी करुणा है जो पाठक को बरबस आकृष्ट कर लेती है। उपमायें अधिकांश में यद्यपि परम्परागत और रूढ़ ही है तथापि बाह्यवृत्त की वैसी व्यंजना उसमें नहीं है जैसी आंतरिक अनुभूति की । ऋतु वर्णन प्रसंग में बाह्य प्रकृति इस रूप में चित्रित नहीं हुई है जिसमें आंतरिक अनुभूतियों की व्यंजना दब जाये प्रिय के नगर से आने वाले अपरिचित पथिक के प्रति नायिका के चित्त में किसी प्रकार के दुराव का भाव नहीं है। वह बड़े सहज ढंग से अपनी कहानी कह जाती है। सारा वातावरण विश्वास और घरेलूपन का है।”
यह तीन प्रक्रमों में विभाजित 223 छन्दों की एक छोटी सी रचना है। प्रथम में मंगलाचरण, कवि का व्यक्तिगत परिचय, ग्रन्थ रचना का उद्देश्य तथा कुछ आत्म-निवेदन है। दूसरे प्रक्रम से मूल कथा का आरंभ होता है। कथासूत्र इतना ही है विजय नगर की एक प्रोषितपतिका अपने प्रिय के वियोग में रोती हुई एक दिन राजमार्ग से जाते हुए एक बटोही को देखती है और दौड़कर उसे रोकती है। उसे पता चलता है कि वह पथिक सामोर से आ रहा है और स्तम्भ तीर्थ को जा रहा है। वह पथिक से निवेदन करती है कि अर्थ-लोभ के कारण उसका प्रिय उसे छोड़कर स्तम्भ तीर्थ चला गया है, इसीलिए कृपा करके मेरा सन्देश लेते जाओ। पथिक को सन्देश देकर नायिका ज्यों ही विदा करती है कि दक्षिण दिशा से उसका प्रिय आता हुआ दिखाई देता है। तीसरे प्रक्रम में मन्थ का अंत करते हुए कवि कहता है कि जिस प्रकार उसका कार्य अचानक सिद्ध हो गया है. उसी प्रकार इसको पढ़ने-सुनने वालों का भी सिद्ध हो जो अनादि और अनन्त है, उसकी जय हो।
सन्देश रासक के कथासूत्र से स्पष्ट है कि कवि को कथा से कोई विशेष मतलब नहीं। उसका उद्देश्य है सामोर नगर के जीवन, पेड़-पौधों तथा षड् ऋतु वर्णन के साथ प्रोषितपतिका की विरह-वेदना का वर्णन करना। इन सब बातों के लिए उसने पथिक की अवतारणा की है।
काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से सन्देश रासक का अपभ्रंश साहित्य में विशेष स्थान है। सन्देश-कथन में नारी हृदय की परवशता, आकुलता और विदग्धता एकसाथ मुखरित हो उठी है। वह कहती है, जिन अंगों के साथ तुमने विलास किया है, आज वे ही अंग विरह द्वारा जलाये जा रहे हैं। सचमुच तुम्हारे पौरुष को यह एक सबल चुनौती है-
गवड परिहदु कि न सहड, पौरिस निलएण ।
जिहि अंगिहि तू बिलसिया ते दद्वा विरहेण ।।
शरद ऋतु का वर्णन करती हुई नायिका कहती है कि क्या देश में ज्योत्सना का निर्मल चन्द्र नहीं उगता ? क्या वहाँ अरविन्दों के बीच हंस कल-कल ध्वनि नहीं करते ? क्या वहाँ कोई ललित ढंग से प्राकृत काव्य नहीं पढ़ता ? क्या वहां कोकिल पंचम स्वर से नहीं गाती ? क्या वहाँ सूर्योदय के कारण खिले हुए कुसुमों से वातावरण महक नहीं उठता ? होता तो यह सब होगा लेकिन लगता है कि प्रिय ही अरसिक है जो इस शरद काल में भी घर का स्मरण नहीं करता-
किं तहि देस शरह फुरइ जुन्ह निसि णिम्मल चन्द्रह ।
यह कलरउ न कुणति हंस फल सेवि रविदह ।
अह पायउ पहु पढ़ड़ कोइ सुललिय पुण राइण ।
अह पंचड णहु कुणई कोई कावालिय भाइण ।
डॉ० हजारीप्रसाद इस काव्य की पृथ्वीराज रासो से भिन्नता प्रकट करते हुए कहते हैं- “पृथ्वीराज रासो प्रेम मिलन पक्ष का काव्य है और सन्देश रासक विरह पक्ष का रासो काव्य-रूढ़ियों द्वारा वातावरण तैयार करता है और सन्देश रासक हृदय की मर्म वेदना के द्वारा ! रासो में घर के बाहर का वातावरण प्रमुख है और सन्देश रासक में भीतर का। रासो नये-नये रोमांस प्रस्तुत करता है और सन्देश रासक पुरानी प्रीति को निखार देता है। “
सन्देश रासक के संबंध में यह उल्लेखनीय है कि नायिका के रूप-वर्णन में वासनात्मकता कहीं भी नहीं है। पथिक द्वारा साम्बरपुर के वर्णन में नागरिक जीवन की स्पष्ट प्रतिध्वनि है। वहां का वीर वनिताओं तथा विलक्षण रमणियों की भंगिमाओं का वर्णन परम्परानुमोदित है। नगरोद्यान, पादप एवं पुष्पों का सविस्तार अथवा नीरस वर्णन कथा की गति या उसकी प्रभावोत्पादकता में किसी प्रकार का योग नहीं देते। कवि को ऐसे वर्णनों में आनुपातिका से काम लेना चाहिए था। षड्ऋऋतु वर्णन प्रेम-काव्यों की परम्परा की एक महत्वपूर्ण रूढ़ि है, जिसका पालन सन्देश रासक में भी किया गया है। रासक का ऋतु वर्णन कामोद्दीपन है। और वह कालिदास के ऋतुसंहार की परम्परा में आता है। सच तो यह है कि इस प्रकार के प्रेम-प्रसंगों में जहां नायिका विरह व्यथा को कह सकने में असमर्थ है और पथिक अधिकाधिक त्वरा-सम्पन्न है वहाँ इस प्रकार के विस्तृत ऋतु वर्णन का अवकाश ही नहीं था।
सन्देश रासक में दोहा छन्द का सुंदर प्रयोग हुआ है। रासक छन्द इसका प्रमुख छन्द है। इस ग्रन्थ से हमें रासक के रोय रूपक का पता चलता है। भाषा विज्ञान तथा इतिहास की दृष्टि से यह प्रन्थ अत्यंत महत्वपूर्ण है। आदिकालीन काव्य रूपों के है समझने में यह प्रन्थ अत्यंत सहायक सिद्ध होता है। यह मसृण शैली में रचित गेय रूपक है। भाषा की दृष्टि से यह संक्रान्तिकालीन भाषा का परिचायक है। इसमें हमें एक नया विचार बिन्दु मिलता है कि भारतीय साहित्य में मुसलमानों का कितने समय से काव्य से संबंध चला आ रहा है। कुछ विद्वानों ने रासक को प्राम्य अपभ्रंश में रचित माना है परन्तु डॉ० नामवरसिंह का विचार है कि “यह समझना भ्रांति है कि वह माम्य अपभ्रंश में लिखा हुआ काव्य है। वस्तुतः इसके भाव और भाषा पर नागरिकता की छाप है। छन्द-विविधता और अलंकार सज्जा दोनों दृष्टियों से सन्देश रासक अत्यंत परिमार्जित रचना है।”
2. जैन कवि धनपाल रचित भविष्यदत्त कथा- यह अपभ्रंश साहित्य का कथा-काव्य है जिसकी रचना धनपाल (10वीं शताब्दी ई०) ने की। इसे भविष्यदत्त कथा’ तथा ‘सुय पंचमी’ के नाम से भी अभिहित किया जाता है क्योंकि यह सुय पंचमी माहात्म्य के लिए लिखी गई है। इसके प्रणयन का उद्देश्य धार्मिक शिक्षा है।
राहुल जी ने इसे 10वीं शती रचित माना है तथा इसकी भाषा को पुरानी हिन्दी कहा है। मोतीलाल मेनारिया ने जैन कवि धनपाल का समय सं० 1081 माना है तथा इसकी भाषा को पुरानी राजस्थानी माना है। हमारे विचार में इस ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक अपभ्रंश है।
इस प्रबन्ध काव्य में तीन प्रकार की कथायें जुड़ी हुई हैं। इसमें बाईस संधियां हैं। कथा का पहला भाग शुद्ध घरेलू ढंग की कहानी है, जिसमें दो विवाहों के दुःखद पक्ष को सामने रखा गया है। इसमें वणिकपुत्र भविष्यदत्त की कथा है जो अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त के द्वारा कई बार छले जाने पर भी अंत में जिन महिमा के कारण सुखी होता है। कथा का मुख्य अंश यही है और कवि ने इसे आराम से चौदह सन्धियों में कहा है।
इस काव्य का वस्तु वर्णन हृदयग्राही है। इसमें शृंगार, वीर और शांत रस की प्रधानता है। काव्य में कई मार्मिक स्थल हैं जहां कि धनपाल की काव्य-प्रतिभा स्फुटित हुई है। तिलक द्वीप में अकेले छोड़े गये भविष्यदत्त की हृदय की व्याकुलता का चित्र देखिए जबकि वह एक गहरी चिन्ता में निमग्न हैं-
गयं विप्पुलं ताम सव्वं वणिज्जम् ।
हवं अम्ह गोतम्मि लज्जा वणिज्जम् ॥
नारी के रूप-वर्णन का भी चित्र देखिए-
णं वम्मह भल्लि विघण सील जुवाण जणि ।
धनपाल का नख-शिख वर्णन परम्परायुक्त है। कवि की दृष्टि नारी के बाह्य सौन्दर्य पर अधिक टिकी है, उसके आन्तरिक सौन्दर्य की ओर नहीं गई।
मुहावरों और लोकोक्तियों का भी सुन्दर प्रयोग हुआ है-
कि घिउ होई विरोलिए पाणि।
भविष्यदत्त कथा में उपमा, उत्प्रेक्षा, स्वाभावोक्ति, विरोधाभास और अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। भुजंगप्रयात, लक्ष्मीधर, मंदार, चामर, शंख, नारी, अडिल्ला, काव्य, प्लवंगल, सिंहावलोकन तथा कलहंस आदि वर्णिक तथा मात्रिक छन्दों का प्रयोग हुआ है।
संभव है भविष्यदत्त कथा जैसे चरित काव्य अपभ्रंश साहित्य में और भी लिखे गये हों। इन काव्यों का अध्ययन परवर्ती हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों के सम्यक् अवबोध के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैन कवियों द्वारा लिखे गये चरित काव्यों के संबंध में लिखते हैं-“इन चरित काव्यों के अध्ययन से परवर्ती काल के हिन्दी साहित्य के कथानकों, कथानक-रूढ़ियों, काव्यरूपों, कवि-प्रसिद्धियों, छन्द-योजना, वर्णन शैली, वस्तु-विन्यास, कवि-कौशल आदि की कहानी बहुत स्पष्ट हो जाती है। इसलिए इन काव्यों से हिन्दी साहित्य के विकास के अध्ययन में बहुत महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती हैं।
आचार्य शुक्ल ने जैन कवियों की रचनाओं में धर्म-भाव को देखते हुए इन्हें रागात्मक साहित्य की परिधि से बाहर कर दिया था किन्तु यह संगत नहीं। सूर, तुलसी, जायसी और मीरां का साहित्य धार्मिक होते हुए भी काव्य-वैभव से सम्पन्न है, यही दशा जैन कवियों के इन चरित काव्यों की है।
3. पाहुड़ दोहा – रामसिंह राजस्थान के रहने वाले थे। उनकी दो सौ बाईस दोहों की छोटी सी रचना है पाहुड़ दोहा। इस ग्रन्थ के सम्पादक श्री हीरालाल जैन के अनुसार जैनियों ने पाहुड़ शब्द का प्रयोग किसी विषय के प्रतिपादन के लिए किया है। कुन्द कुन्दाचार्य के सभी ग्रन्थ पाहुड़ कहलाते हैं। पाहुड़ शब्द का अर्थ अधिकार भी लिया गया है। कहीं-कहीं समस्त श्रुत ज्ञान को पाहुड़ कहा गया है। इससे विदित होता है कि धार्मिक सिद्धांत संग्रह को पाहुड़ कहते थे। पाहड़ शब्द का संस्कृत रूपान्तर प्राभृत किया जाता है जिसका अर्थ है उपहार। इसके अनुसार हम वर्तमान ग्रन्थ के नाम का अर्थ ‘दोहा का उपहार’ ऐसा ले सकते हैं।
पाहुड़ दोहा के रहस्यवाद पर विचार करते हुए श्री हीरालाल जैन ने लिखा है-“इन दोहों में जोगियों के आगम-अचित-चित, देह- देवली, शिव-शक्ति, संकल्प-विकल्प, सगुण-निर्गुण, अक्षर-बोध-विबोध, वाम दक्षिण मध्य, दो पथ, रवि, शशि, पवन, काल आदि ऐसे शब्द हैं और उनका ऐसे गहन अर्थ में प्रयोग हुआ है कि उनमें हमें योग और तांत्रिक ग्रन्थों का स्मरण आये बिना नहीं रहता है। इनकी भाषा संकेतिक है और सांकेतिकता में इनकी समानता बौद्ध सिद्धों के चर्यापदों और दोहा कोशों में दिखाई पड़ती है।” वस्तुतः वह युग ऐसा था जिसमें प्रत्येक धर्म के भीतर इसके उदारमना चिन्तक कवि पैदा हुए थे जो अपने मत और समाज की रूढ़ियों का विरोध करते हुए मानवता की सामान्य भाव-भूमि पर एकसाथ खड़े थे। इसका अन्य मतों से कोई विरोध नहीं था। ये सबके प्रति सहिष्णु थे और उनका विश्वास था कि सभी मत एक ही दिशा की ओर ले जाते हैं और एक ही परमतत्व को विविध नामों से पुकारते हैं।
पाहुड़ दोहाकर का कहना है कि यह देह-मन उपेक्षणीय वस्तु नहीं है। जब देह मन्दिर ही उस परमात्मा का निवास-स्थान हो तो अन्यत्र जाने की क्या आवश्यकता ? आवश्यकता तो इस बात की है कि परमात्मा के आवास इस देव-मन्दिर को स्वच्छ और पवित्र रखा जाय-
देहा देवलि जो वसई, सत्तिहि सहियउ देउ ।
को तहि जोइय सत्तसिउ, सिंधु गवेसहिं भेउ ।। (पा० दो 53)
समरसता का वर्णन करते हुए जिनमें आत्मा और परमात्मा में भेद नहीं रह जाता, आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है, और आत्मा तथा परमात्मा एक हो जाते हैं, रामसिंह लिखते हैं-
मणु मिलियड परमेसर हो, परमेसर जि मणस्स ।
विरिण वि समरसि हुइ रहिय, पुंज चढ़ावऊं कस्स ।।
पाहुड़ दोहा आदि प्रन्थों के रचयिता रामसिंह आदि जैन कवियों का परवर्ती हिन्दी साहित्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। संतों में धार्मिक एकता और रहस्यवाद की प्रवृत्तियाँ जैनों तथा नाथों का प्रभाव समझी जानी चाहिए। सूफियों की व्यापक समन्वयात्मकता के बीजांकुर भी जैन-साहित्य में बो दिये गये थे। कबीर आदि में मिलने वाली रूढ़ियों के प्रति प्रखरता भी पाहुड़ दोहा आदि ग्रन्थों में देखी जा सकती है।
4. प्राकृत पैंगलम् – यह प्रन्थ हिन्दी साहित्य के आदिकाल की रूढ़ियों, परम्पराओं और प्रवृत्तियों को समझने के लिए अत्यंत उपयोगी है। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से भी यह ग्रन्थ उपादेय है। इस ग्रन्थ में प्राकृत तथा अपभ्रंश के छन्दों का संग्रह है।
प्राकृत पैंगलम् में विद्याधर शरंग (2), उज्जल, बब्बर आदि कवियों की रचनाओं में कई प्रकार के विषय हैं-वीर, शृंगार, नीति, शिव स्तुति, विष्णु-स्तुति, ऋतु वर्णन आदि। डॉ० हजारीप्रसाद इन कवियों के संबंध में लिखते हैं-परन्तु ये सभी रचनाएँ और सन्देश रासक, पृथ्वीराज रासो, कीर्तिलता आदि के कवि उस श्रेणी के कवि नहीं थे जिन्हें आदिम मनोवृत्ति के कवि कहते हैं। वस्तुतः इन रचनाओं में एक दीर्घकालीन परम्परा का स्पष्ट परिचय मिलता है। ये कवि काव्य-लक्षणों के जानकार थे, प्राचीनतम कवियों की रचनाओं के अभ्यासी थे और अपने काव्य के गुण-दोष की तरफ सचेत थे।
विद्याधर काशी कान्यकुब्ज दरबार के एक कुशल विद्वान मन्त्री थे तथा जयचन्द के अत्यंत विश्वासपात्र थे। कविता करने के साथ-साथ ये कविता के परम पारखी भी थे। शुक्ल जी का कहना है कि “यदि विद्याधर को समसामयिक कवि माना जाये तो उसका समय विक्रम की 13वीं शताब्दी समझा जा सकता है।” प्राकृत पैंगलम् में इनके पद्यों को देखकर यह सहज में अनुमान लगाया जा सकता है कि जयचन्द के दरबार में जहाँ संस्कृत का मान था वहाँ देशी भाषा का भी काफी आदर था।
शारंगधर शकम्भरीश्वर रणथम्भौर के प्रसिद्ध शासक हम्मीर देव के सभासद थे। हमीर देव का निधन संवत् 1357 है। अतः इनका रचना काल विक्रम की चौदहवीं शताब्दी का अंतिम चरण माना जा सकता है। इनका आयुर्वेद संबंधी शारंगधर संहिता नामक संस्कृत ग्रन्थ अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त इनकी दो रचनाएँ और भी हैं- (1) शारंगधर पद्धति, इसमें सुभाषितों का संग्रह है तथा बहुत से शावर मन्त्र (2) हम्मीर रासो – यह प्रन्थ देशी भाषा का वीरगाथात्मक महाकाव्य बताया जाता है। यह रचना आज तक उपलब्ध नहीं हुई है। आचार्य शुक्ल का अनुमान है कि “प्राकृत पिंगल सूत्र में कुछ पद्य असली हम्मीर रासो के हैं।”
विद्याधर तथा शारंगधर के अतिरिक्त प्राकृत पैंगलम् में कुछ अन्य कवियों के पद्यों का भी संग्रह है। इस प्रन्थ के संग्रहकर्ता लक्ष्मीधर बब्बर 11वीं शती के कवि हैं और उज्जवल 13वीं शती के कवि हैं। इन कवियों की रचनाओं का संग्रह भी उक्त मन्थ में उपलब्ध होता है। राहुल जी ने इन कवियों की हिन्दी को पुरानी हिन्दी कहा है जो कि हमारे विचारानुसार ठीक नहीं है। बब्बर राजा कर्ण कलचुरी के दरबारी कवि थे। इनका निवासस्थान त्रिपुरी (आधुनिक जबलपुर, मध्य प्रदेश) था। इनका कोई विशिष्ट पन्थ नहीं मिलता, स्फुट रचनाएं ही प्राप्त होती हैं। आचार्य शुक्ल उज्जवल को एक पात्र मानते हैं जबकि राहुल जी ने उन्हें एक कवि स्वीकार किया है।
लौकिक साहित्य
ढोला मारू रा दूहा- यह सन्देश रासक के समान लोककाव्य है और बीसलदेव रासो की तरह विरह गीत है। इस काव्य की कथा इस प्रकार है। सयानी होने पर मारू जी अपने बचपन के पति ढोला की चर्चा सुनती है और विरह में व्याकुल हो जाती है। वह अपने पति का पता लगाने के लिए कई सन्देश वाहक भेजती है, लेकिन कोई वापस लौटकर नहीं आता। सभी सन्देश वाहक उसकी सौत मानवजी द्वारा मरवा दिये जाते हैं। अंत में मारवणी लोकगीतों के गायक एक ढाढी को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती है और उसे अपने उद्देश्य में सफलता मिलती है। ढाढी के प्रयत्न से ढोला और मारवणी का पुनर्मिलन होता है। बीच में मारवणी की मृत्यु करा दी जाती है और अंत में फिर मारवणी मालव जी तथा ढोला को इकट्ठा मिला दिया जाता है। इस प्रन्थ का मुख्य सन्देश मारवणी का ढोला के प्रति विरह-निवेदन है।
काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से भी यह काव्य अनुपम बन पड़ा है। इसमें सन्देश-रासक तथा बीसलदेव रासो के अधिक स्थानीय रंग है। इस प्रन्थ में मारवाड़ देश वास्तविक रूप से प्रतिबिम्बित हो उठा है। सन्देश रासक में सन्देश कथन एक सवर्था अपरिचित व्यक्ति से किया गया है। बीसलदेव रासो में इस कार्य के लिए दरबार के एक पंडित का उपयोग किया गया है, लेकिन ढोला में क्रोंच पक्षी से लेकर ढाढियों तक से अपनी विरह-वेदना कही गई है। अतः इसमें अधिक मार्मिकता आ सकी है। जायसी के पद्मावत में सन्देश-प्रणाली निश्चित रूप से ढोला से प्रभावित है। ढोला लोकगीत के सबसे अधिक निकट है। अतः इसमें साधारणीकरण की मात्रा प्रचुर रूप में है। प्रस्तुत काव्य में श्रृंगार के संयोगकालीन वर्णन मर्यादित हैं और उनमें सांकेतिकता से काम लिया गया है। मिलन के उपरान्त प्रेमी दंपती मत्त-गत दम्पत्ती के समान रतिशय्या की ओर जाते हैं। इस दिशा में उक्त काव्य सन्देश रासक की कोटि में आता है। ढोला-मारू रा दूहा में विप्रलंभ शृंगार का अतीव उच्च एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन है। नख – शिख वर्णन परम्परा युक्त है। वियोग-वर्णन में हृदय की सच्चाई का स्वाभाविक एवं प्रभावशाली वर्णन है। विरह-वर्णन में कहीं भी हास्यास्पद ऊहात्मकता नहीं है।
भारवणी का ढाढी को दिया गया सन्देश अनुपम बन पड़ा है। इसमें नारी हृदय की वेदना सचमुच इठला रही है-
ढाढी, एक संदेसइड, प्रीतम कहिया जाइ।
सा धण बलि कुइला भई भसम ढंढोलिसि आइ ।
ढाढी जे प्रीतम मिलई, यूँ कि दाखवियाह ।
उजर नाहिं छई प्राणियड या दिस झल रहियाह ||
धनि जलकर कोयला हो गई है, अब आकर उसकी भस्म ढूंढना। अब पंजर में प्राण नहीं है केवल उसकी लौ तुम्हारी ओर झुक-झुककर जल रही है। जायसी की ‘सो धन जारि’ से इसकी कितनी समानता है।
मारवणी की मनःस्थिति का एक और चित्र देखिए- जब ढोला के आने की खबर उसे मिलती है तो उसका हृदय हर्षेद्रिक से हिमगिरि जैसा विशाल हो गया है। वह अनुभव करती है कि अब यह तन पंजू में समायेगा ही नहीं-
हियड़ा हेमांगिरि भयऊ, तन पंजरे न माई ।।
इस प्रकार मारवाड़ देश में जहाँ एक ओर चारण काव्यों का प्रणयन हो रहा था वहीं दूसरी ओर जनसाधारण के कवि स्वान्तः सुखाय लोक-सामान्य जीवन को सहज में ही अपने काव्य में उंडेल रहे थे। ढोला इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं। सूफी कवि जायसी का पद्यमावत ढोला के बहुत से अंशों से प्रभावित हैं।
डॉ० रामकुमार वर्मा इस ग्रन्थ के काल आदि के संबंध में लिखते हैं-“यह सोलहवीं शताब्दी की रचना है और इसके रचयिता कुशल लाभ कहे जाते हैं-इसे ‘ढोला मालवजी री बात’ के नाम से भी अभिहित किया जाता है। “
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