हिन्दी गद्य के विकास पर संक्षिप्त निबन्ध लिखिए ।
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हिन्दी गद्य का विकास
आधुनिक काल से पूर्व जो गद्य का स्वरूप दिखाई पड़ता है, वह अव्यवस्थित है। उसकी भाषा अपरिमार्जित है। इस प्रकार के गद्य की रचना बजभाषा में हुई। इसके बाद गद्य का जो व्यवस्थित और परिनिष्ठित रूप सामने आया वह खड़ी बोली गद्य के नाम से जाना गया।
हिन्दी खड़ी बोली गद्य का विधिवत् विकास यद्यपि 19वीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है परन्तु इससे पूर्व भी हिन्दी गद्य का अस्तित्व मुख्यतः तीन रूपों में विद्यमान मिलता है-
1. राजस्थानी गद्य – राजस्थानी गद्य की परम्परा बहुत पुरानी है। कुछ विद्वान् इसका प्रारम्भ 10वीं शताब्दी से मानते हैं। इसका रूप दानपत्र, धार्मिक उपदेश, टीकाओं, अनुवाद ग्रन्थों आदि में सुरक्षित है। राजस्थानी गद्य के उदाहरण के लिए चौदहवीं शती विक्रमी में लिखित निम्न पंक्तियाँ पर्याप्त होंगी-
“पहिलऊं त्रिकालु अतीत अनागत वर्तमान बहित्तरि तीर्थकर सर्वपाप क्षमेकर हउं नमस्कारऊं।”
2. व्रजभाषा गद्य- राजस्थानी गद्य के पश्चात् ब्रजभाषा गद्य का रूप हमारे सामने आता है, संवत् 1400 के आसपास गोरखपंथी ग्रन्थों में ब्रजभाषा गद्य का सबसे पुराना रूप मिलता है। ये उदाहरण गोरखपंथी योगियों के धार्मिक उपदेश हैं। यद्यपि इन्हें गोरखनाथ का गद्य मानने में विद्वान् सन्देह की दृष्टि से देखते हैं तथापि इसका एक उदाहरण दे देना अनुचित न होगा ‘श्री गुरु परमानन्द तिनको दण्डवत् हैं। कैसे परमानन्द आनन्द स्वरूप हैं जिनके नित्य गाये ते सरीर चेतनि अरु आनन्दमय होतु है। मैं जो हौ गोरिष सो मछन्दरनाथ को दण्डवत करत हो। हैं कैसे वे मछन्दरनाथ आत्मज्योति निश्चल हैं अन्तकरन जिनके अंश मूल द्वारे ते छहचक्र जिनि नीकी तरह जानें। “
भक्तिकाल में ब्रजभाषा गद्य में कुछ भाष्य और वार्ताएँ लिखी गई। महाप्रभु बल्लभाचार्य ने ‘अनुभाष्य’ और ‘सुबोधिनी’ टीका’ लिखी। इनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने ‘शृंगार रस मण्डन’ नाम का ग्रन्थ ब्रजभाषा गद्य में लिखा। 17 वीं शताब्दी विक्रमी में लिखित ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ आदि में बजभाषा गद्य का अच्छा रूप पाया जाता है। इनमें बोलचाल की ब्रजभाषा का रूप दिखलाई देता है-
“सो श्री नन्दगाम में रहतो सो खण्डन ब्राह्मण शास्त्र पाठ्यौ हतो, सो जितने पृथ्वी पर मत हैं, सबको खण्डन करतो ऐसे बाको नैम हतो।”
वार्ता साहित्य का गद्य कुछ व्यवस्थित और चला हुआ है। सन् 1090 वि० के लगभग नाभादास के ‘अष्टछाप में ब्रजभाषा-गद्य का निखरा हुआ रूप मिलता है। बजभाषा गद्य की इन पुस्तकों के अतिरक्त सं० 1280 कि० के लगभग बैकुठ मणि शुक्ल ने अगहन माहास्य और ‘वैखाख माहात्म्य’ सूरत मिश्र ने संo 1767 वि० में ‘वैताल पच्चीसी’, हीरालाल ने स० 1852 में ‘आइने अकबरी की भाषा वचनिका’ लिखी। इस प्रकार बजभाषा गद्य में इधर-उधर कुछ पुस्तकें और भी मिलती हैं। परन्तु उनमें भाषा का परिष्कृत और व्यवस्थित रूप नहीं मिलता और न कोई विकास ही प्रकट होता है। वार्ता साहित्य में बृजभाषा गद्य का जो परिष्कृत रूप मिलता है, उसका आगे विकास न हो सका। रीति-काल में कुछ टीकाएँ अवश्य लिखी गई किन्तु उनका गद्य सर्वथा अनगढ़ और अव्यवस्थित है।
3. खड़ी बोली गद्य- खड़ी बोली दिल्ली और मेरठ के आसपास की उतनी ही पुरानी बोली है जितनी बज या अवधी। अपभ्रंश साहित्य से लेकर वीरगाथाकालीन साहित्य तक बिखरे हुए उदाहरण खड़ी बोली के पद्य में मिल जाते हैं परन्तु गद्य के उदाहरण नहीं मिलते। अपभ्रंश का एक उदाहरण लीजिए-
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि म्हारा कन्तु ।
लज्जेजु तु वयंसु अहू जइ भग्या घरू एंतु ।।
हे बहिन, अच्छा हुआ जो हमारा पति रण में मारा गया। यदि भागकर लौट आता तो मैं अपनी उमर की साखियों में लज्जा को प्राप्त होती ।
इस पद्य में ‘भल्ला’, ‘हुआ’, ‘मारिया’ आदि शब्दों से खड़ी बोली के प्राचीन रूप की झलक मिलती है। हेमचन्द्र ने कुछ उदाहरण अपने पूर्ववर्ती कवियों के भी दिये हैं। इससे यह बात और भी दृढ़ हो जाती है कि खड़ी बोली का अस्तित्व इससे पूर्व भी पाया जाता था।
हेमचन्द्र के पश्चात् हिन्दी का सर्वप्रथम ग्रन्थ ‘बीसलदेवरासो’ है जो सं० 1212 वि० में कवि नरपति नाल्ह द्वारा लिखा गया था। हेमचन्द्र सूरि के समान इसमें भी खड़ी बोली की आकारान्त प्रवृत्ति देखने को मिलती है। इसमें बृजभाषा के साथ ही खड़ी बोली के शब्दों के ऐसे रूप मिलते हैं जिससे इस बात का परिचय मिलता है कि कोई अपभ्रंश खड़ी बोली के रूप में अवश्य विकसित होना चाहती थी।
तेरहवीं शताब्दी में अमीर खुसरो की रचनाओं में भाषा का एक ऐसा रूप देखने को मिलता है जो खड़ी बोली से बिल्कुल मिलता-जुलता है। देखिए-
एक कहानी मैं कहूँ, तू सुन ले मेरे पूत ।
बिन परों वह उड़ गया, बाँध गले में सूत ।
पं० रामचन्द्र शुक्ल आदि विद्वानों ने खड़ी बोली गद्य का प्रारम्भ अकबरी दरबार के कवि गंग से माना है। गंग को एक रचना है – चन्द छन्द बरनन की महिमा। उसमें प्रयुक्त गद्य का रूप निम्नांकित उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा-
“सिद्धि श्री 108 श्री श्री पातिसाहि जी श्री दलपति जी अकबर साह जी आम खास में तख्त ऊपर विराजमान हो रहे और आमखास भरने लगा है जिसमें तमाम उमराव आय आय कुर्निस बजाय जुहार करके अपनी-अपनी बैठक पर बैठ जाया करे. अपनी-अपनी मिसल से। जिनकी बैठक नहीं सो रेसम की रस्से में रैसम की लूएं पकड़ के खड़े ताजीम में रहे। “
गंग की उपर्युक्त पुस्तक के पश्चात् रीतिकाल में संवत् 1798 में रामप्रसाद निरंजनी कृत ‘भाषा योग्य वशिष्ठ’ का नाम उल्लेखनीय है । यह ग्रन्थ खड़ी बोली गद्य का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें भाषा का प्रौढ रूप देखने को मिलता है।
जहाँगीर के समय में जटमल लिखित ‘गोरा बादल की कथा’ नामक एक पुस्तक मिलती है। इसमें खड़ी बोली का पर्याप्त विकसित रूप मिलता है। इसके पश्चात् संवत् 1818 वि० में पं० दौलतराम ने जैन पद्मपुराण’ का खड़ी बोली गद्य में सुन्दर अनुवाद किया है। इस ग्रन्थ की भाषा पर बज का भी प्रभाव कहीं-कहीं लक्षित होता है।
खड़ी बोली गद्य का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित विकास- रामप्रसाद निरंजनी विरचित ‘भाषा योग वशिष्ठ’ की भाषा, आधुनिक गद्य की भाषा के बहुत कुछ निकट थीं। परन्तु उसकी रचना के पश्चात 62 वर्ष तक खड़ी बोली का गद्य अविकसित ही पड़ा रहा। इस 62 वर्ष की कालावधि में किसी ऐसे ग्रन्थ की रचना नहीं हुई जो उसके विकास क्रम को व्यवस्थित रूप में आगे बढ़ाता।
खड़ी बोली गद्य का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप प्रथम चार आचार्यों की रचनाओं के साथ अग्रसर होता है। इनके नाम हैं- मुंशी सदासुखलाल, ईशाअल्ला खाँ, लल्लूलाल तथा सदल मिश्र अन्तिम दो महानुभावों ने अंग्रेजों की प्रेरणा से गद्य रचना की थी। अंग्रेजों द्वारा पुस्तकें लिखने की व्यवथा के एक-दो वर्ष पहले प्रथम दो आचार्यों ने स्वतन्त्र रूप से ही गद्य-रचना आरम्भ कर दी थी। इससे भी यही सिद्ध होता है कि खड़ी बोली गद्य के विकास में यद्यपि अंग्रेज शासकों ने महत्वपूर्ण योग प्रदान किया है, तथापि उसका विकास स्वतन्त्र रूप से ही हुआ है।
हिन्दी खड़ी बोली गद्य के प्रथम चार आचार्य –
1. मुंशी सदासुखलाल- इन्होंने अपने हृदय की प्रेरणा से विष्णुपुराण से कोई उपदेशात्मक प्रसंग लेकर संवत् 1875 में ‘सुखसागर’ की रचना की। मुंशी जी भगवद्भक्त थे और वे किसी से नहीं डरते थे। – मुंशी जी की भाषा में संस्कृत के शब्दों का बाहुल्य है और उसमें यत्र-तत्र ब्रजभाषा का भी प्रभाव दिखाई देता है। आचार्य शुक्ल ने इसको ‘पण्डिताऊपन’ कहा है। मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’ नाम से उर्दू में कविता भी करते थे ।
2. इंशाअल्ला खाँ – इंशाअल्ला खाँ ने अपनी प्रसिद्ध ‘रानी केतकी की कहानी’ लिखी। ईशाअल्ला खाँ उर्दू के प्रसिद्ध शायर थे। मुसलमान तो वह थे ही अतः उनकी भाषा के ऊपर फारसी का गहरा रंग होना स्वाभाविक ही था। इंशाअल्ला खाँ की भाषा बोलचाल के एकदम निकट है। इसमें प्रवाह है तथा कहावतों एवं मुहावरों से पूर्ण है। इनकी भाषा कई स्थानों पर पद्यात्मक हो गई है। इसमें उर्दूपन का प्रभाव स्पष्ट है।
‘रानी केतकी की कहानी’ के आरम्भ के वाक्यों से एक बहुत ही महत्व की बात प्रकट होती है। खड़ी बोली काव्य के प्रारम्भ काल में ही इंशाअल्ला खाँ का ध्यान इस बात की ओर चला गया था कि भाषा जनता से अधिक दूर न होकर उसके निकट की ही होनी चाहिए।
3. लल्लूलाल – कलकत्ता के फोर्ट विलियम कालेज के अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से इन्होंने खड़ी बोली गद्य में ‘प्रेम सागर’ लिखा जिसमें श्रीमद्भागवत् के दशम स्कन्ध की कथा का वर्णन किया गया है। लल्लूलाल ने अरबी-फारसी के शब्दों से बचने का भरसक प्रयत्न किया है। वे आगरा के रहने वाले थे। अतः इनकी भाषा में यथास्थान आगरापन झाँकता हुआ दिखाई देता है। शुक्ल जी के शब्दों में-
“लल्लूलाल की भाषा कृष्णोपासक व्यासों की-सी ब्रज-रंजित खड़ी बोली है।”
एक उदाहरण देखिए-
“इतना कह महादेवजी गरिजा को साथ ले गंगा तीर पर जाय नीर में न्हाय न्हिलाय, अति लाड़ प्यार से लगे पार्वती को वस्त्रभूषण पहिराने।’
लल्लूलाल की भाषा में ब्रजभाषा का गहरा रंग भी है और साथ ही स्थान-स्थान पर परम्परागत काव्य भाषा की पदावलो का भी समावेश है।
4. सदल मिश्र- ये कलकत्ता के फोर्ट विलियम कालेज में कार्य करते थे। इन्होंने भी लल्लूलाल की भाँति अंग्रेज अधिकारियों की प्रेरणा से ‘नासिकेतोपाख्यान’ की रचना की थी। इन्होंने भाषा को व्यवहारोपयोगी और शुद्ध खड़ी बोली रखने का प्रयत्न किया है। परन्तु फिर भी यह स्थानीय प्रयोगों से बच नहीं पाए हैं। ये बिहार के निवासी थे। इनकी भाषा में पूर्वी बोली के शब्दों का प्रयोग स्थान-स्थान पर मिलता है। इनकी भाषा में पूर्वीपन का पुट है।
मूल्यांकन- खड़ी बोली गद्य के इन आरम्भिक चार आचार्यों का तुलनात्मक मूल्यांकन इस प्रकार है-
” गद्य की एक साथ परम्परा चलाने वाले उपर्युक्त भार लेखकों में से आधुनिक हिन्दी का पूरा-पूरा आभास मुंशी सदासुखलाल और सदल मिश्र की भाषा में ही मिलता है। इन दो में भी मुंशी सदा सुखलाल की साधुभाषा अधिक महत्व की है। चारों में लेखनी भी मुंशी सदासुखलाल ने पहले उठाई। इस कारण गद्य का प्रवर्तन करने वालों में उनका विशेष स्थान समझना चाहिए।”
हिन्दी गद्य के विकास में अन्य सहायक परिस्थितियाँ- आर्य समाज ने हिन्दी गद्य के प्रचार में बहुत कुछ सहयोग प्रदान किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की भाषा काफी साफ-सुथरी है।
हिन्दी गद्य के स्वरूप की प्रतिष्ठा का सर्वाधिक लाभ ईसाई पादरियों ने उठाया। उन्होंने हिन्दी के माध्यम से ईसाई धर्म का खूब प्रचार किया। इस माध्यम से भी हिन्दी गद्य के प्रचार प्रसार को पर्याप्त प्रोत्साहन एवं बल प्राप्त हुआ। ईसाई पादरियों ने शिक्षा सम्बन्धी कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की। इन पुस्तकों के प्रकाशन के लिए इन्होंने सं० 1890 वि में आगरा में ‘स्कूल बुक सोसाइटी’ की स्थापना की। इस संस्था ने कई पुस्तकों के अनुवाद हिन्दी गद्य में प्रस्तुत किए।
इन्हीं दिनों हिन्दी और उर्दू का झगड़ा उत्पन्न हो गया। अनेक लोग हिन्दी का विरोध करने लगे। वे इसे गंवारों की बोली बता कर हिन्दी भाषा भाषियों का अपमान कर रहे थे। सर सैयद अहमद इस विरोध के नेता थे। उनका सरकार में बहुत मान था।
हिन्दी के प्रेमी हिन्दी का समर्थन कर रहे थे। उर्दू यद्यपि अदालत की भाषा थी, तथापि हिन्दी को शिक्षा-विधान के अन्तर्गत स्थान मिल गया था। इस प्रकार इन दिनों गद्य की भाषा को लेकर एक प्रकार की खींचातानी प्रारम्भ हो गई। इस समय हिन्दी के दो प्रबल समर्थक राजा शिवप्रसाद और लक्ष्मणसिंह मैदान में आए ये दोनों भी अंग्रेजी सरकार के कृपापात्र थे।
राजा शिवप्रसाद फारसी अरबी बहुल हिन्दस्तानी के हिमायती थे और राजा लक्ष्मणसिंह संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के समर्थक थे। उन्होंने अरबी-फारसी के शब्दों का सजग बहिष्कार किया। राजा लक्ष्मणसिंह ने कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तल’ तथा ‘मेघदूत’ के सुन्दर अनुवाद प्रस्तुत किए। राजा शिवप्रसाद ने भी कई पाठ्यक्रमोपयागी कहानियाँ लिखीं, जिनमें राजा भोज का सपना बहुत प्रसिद्ध है। राजा शिवप्रसाद ‘आमफहम’, ‘खास पसन्द’, ‘इल्मी जरूरत’ आदि शब्द के प्रयोग द्वारा हिन्दी को जनता की भाषा से बहुत दूर ले जा रहे थे।’
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का उदय और आधुनिक गद्य-साहित्य की परम्परा का प्रवर्तन- उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी गद्य का रूप स्थिर एवं स्पष्ट नहीं हो पाया था। मुंशी सदासुखलाल की भाषा में पण्डिताऊपन था, लल्लूलाल की भाषा में ब्रजभाषापन था, सदल मिश्र की भाषा में पूर्वीपन था, राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा में आगार का पुट था तथा राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही सीमित न था, अपितु वाक्य विन्यास तक में घुसा हुआ था। हिन्दी गद्य को एक सामान्य, सर्वग्राही एवं प्रामाणिक स्वरूप की अपेक्षा थी। इस आवश्यकता की पूर्ति भारतेन्दु के उदय के साथ पूरी हुई। भाषा का निखरा हुआ शिष्ट सामान्य रूप भारतेन्दु की कला के साथ प्रकट हुआ। भारतेन्दु ने हिन्दी गद्य को उपर्युक्त ‘पदों’ से मुक्त करके उसे परिमार्जित किया तथा उसे बहुत ही चलता हुआ एवं स्वच्छ रूप प्रदान किया।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने निबन्ध ‘हिन्दी भाषा में हिन्दी के नाम पर प्रचलित बारह शैलियों के उदाहरण दिए हैं। उनकी हिन्दी के रूप का उदाहरण यह है-
“पर मेरे प्रीतम अब तक घर न आए। क्या उस देश में बरसात नहीं होती या किसी सौत के फेर में पड़ गए कि इधर की सुध ही भूल गये ? कहाँ तो वह प्यार की बातें कहाँ एक संग ऐसा भूल जाना कि चिट्ठी भी न भिजवाना ___।” आदि।
भारतेन्दु द्वारा प्रस्तुत उक्त हिन्दी गद्य ही क्रमशः विकिसत होता आया है अतः हम भारतेन्दु के साथ ही हिन्दी गद्य की परम्परा का प्रवर्तन मानते हैं।
भारतेन्दु ने स्वयं हिन्दी गद्य का शृंगार करने के अतिरिक्त अपने चारों ओर लेखकों का एक मण्डल भी तैयार किया था। इसमें प्रमुख थे – बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, और बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ ।
आधुनिक हिन्दी गद्य-साहित्य का काल-विभाजन- विज्ञान के प्रसार-प्रचार के साथ लेखकों का दृष्टिकोण अधिकाधिक बुद्धिवादी एवं विश्लेषणात्मक होता गया। इस स्थिति का प्रभाव हिन्दी गद्य के परिष्कार एवं परिमार्जन पर भी पड़ा। हिन्दी गद्य की शैली के विकास क्रम के अनुसार हम उसके इतिहास को निम्न विभागों में विभक्त करते हैं-
(i) भारतेन्दु युग (सन् 1867 से सन् 1900 तक),
(ii) द्विवेदी युग (सन् 1900 से सन् 1920 तक),
(iii) शुक्ल युग (सन् 1920 से सन् 1947 तक),
(iv) स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से अब तक) ।
भारतेन्दु युग (सन् 1867 से 1900 तक) में हिन्दी गद्य- हिन्दुस्तानी और उर्दू का झगड़ा खड़ा हो जाने के कारण हिन्दी गद्य का विकास रुकने लगा था। हिन्दी के प्रचार के लिए ऐसे लेखकों की आवश्यकता थी जो इस पचड़े में पड़ कर हिन्दी को प्रोत्साहन दें। सौभाग्य से भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का उदय हुआ। उन्होंने समय, धन और प्रतिभा का प्रशंसनीय व्यय करके हिन्दी गद्य को नवीन शक्ति दी। उनके प्रयत्न से गद्य का नवीन युग प्रारम्भ हुआ। सौभाग्य से उनको अनेक सहयोगी भी मिल गये। सबने मिलकर गद्य साहित्य के बहुमुखी विकास का बीड़ा उठाया। निबन्ध, नाटक, उपन्यास, कहानी, समालोचना आदि सभी विषयों की ओर लेखकों का ध्यान गया। भारतेन्दु जी ने दो पत्रिकाएँ ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ और ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ भी निकाली। परिणामस्वरूप मासिक साहित्य भी हिन्दी पाठकों को मिलने लगा। भारतेन्दु जी की भाषा प्रान्तीय शब्दों से रहित और पण्डिताऊपन से दूर थी। अरबी और संस्कृत के बोझ से बोझिल भाषा उन्हें पसन्द न थी। आज की खड़ी बोली उसी का विकसित रूप है।
भारतेन्दु मण्डल के अन्य लेखकों में लाला श्रीनिवास दास, प्रतापनाराण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, अम्बिकादत्त व्यास, बालमुकुन्द गुप्त, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ आदि प्रसिद्ध हैं। विषयों और रुचि की भिन्नता के अनुसार इनका गद्य भी भिन्न है। यह युग प्रचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। भारतेन्दु ने अपने लाखों भाषणों द्वारा तथा गौरीदत्त और अध्योध्याप्रसाद खत्री ने हिन्दी प्रचार का झण्डा उठाकर चारों ओर घूम-घूमकर हिन्दी का प्रचार किया। दूसरी ओर देवकीनन्द खत्री, किशोरीलाल गोस्वामी और गोपालराम गहमरी अपने उपन्यासों द्वारा पाठकों की संख्या बढ़ा रहे थे। कहा जाता है कि खत्री जी के ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ उपन्यास पढ़ने के लिए असंख्य लोगों ने हिन्दी सीखी थी। ‘हिन्दी प्रदीप’ तथा ‘आनन्द कादम्बिनी’ पत्रिकाओं ने हिन्दी गद्य के विकास में पूर्ण योग दिया।
संक्षेप में, भारतेन्दु युग गद्य विकास की दृष्टि से प्रारम्भिक युग था। इसमें गद्य का विकास और विस्तार अवश्य हुआ किन्तु भाषा के परिमार्जन और शुद्धता की ओर ध्यान कम दिया गया।
द्विवेदी युग (सन् 1900 से 1920 तक) में हिन्दी गद्य- भारतेन्दु युग प्रयोग काल था। उसमें परिमार्जन और शुद्धता की कमी थी। इस कमी की ओर महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ध्यान दिया। उन्होंने अशुद्ध लिखने और बोलने वालों की कटु आलोचना करके शुद्ध लिखने की ओर प्रेरित किया। स्वयं शुद्ध भाषा के लेख लिखकर उनके सामने आदर्श उपस्थित किया। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ के सम्पादक के रूप में गद्य को स्थिरता प्रदान की। ‘सरस्वती’ के प्रकाशित लेखकों के द्वारा व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियों को दूर किया गया। हिन्दी गद्य में विरामचिन्हों तथा अवतरण प्रणाली का प्रयोग उन्होंने सर्वप्रथम किया। ऐसे शब्दों पर अधिक जोर दिया गया जो प्रायः सभी लोगों की समझ में आ सकते थे। इससे भाषा की व्यापकता बढ़ने लगी और शब्द भण्डार भी प्रचुर होने लगा। विषय की अनेकरूपता और साहित्यिक रूपों की दृष्टि से यह गद्य हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है।
द्विवेदी युग में नाटक, निबन्ध, कहानियाँ, उपन्यास इत्यादि साहित्य के सभी अंगों का विकास हुआ। गोविन्दनारायण मिश्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, श्यामसुन्दरदास, बाबू गुलाबराय, जयशंकर प्रसाद बालमुकुन्द गुप्त, माधवप्रसाद मिश्र, अध्यापक पूर्णसिंह आदि इस युग के प्रमुख लेखक हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि द्विवेदी युग भाषा-परिष्कार और साहित्य के बहुमुखी विकास का युग था ।
शुक्ल युग (सन् 1920 से 1947) में हिन्दी गद्य- महावीरप्रसाद द्विवेदी के बाद हमें महारथी साहित्यकार के रूप में पं. रामचन्द्र शुक्ल दिखाई पड़ते हैं। शुक्ल जी प्रमुख रूप में निबन्धकार और समालोचक हैं, किन्तु उनका अपने युग पर व्यापक प्रभाव हैं। उन्होंने अपने युग की साहित्यिक गतिविधि को विशेष रूप से प्रभावित किया । अतः उनके साहित्य रचना काल को हिन्दी-गद्य का उत्कर्ष-काल माना जाता है। इस युग में हिन्दी गद्य की सभी विधाओं को उत्कर्ष प्राप्त हुआ । निबन्ध के क्षेत्र में शुक्लजी ने महान कार्य किया। उपन्यास के क्षेत्र में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का प्रादुर्भाव हुआ। कहानी के क्षेत्र में प्रसाद, प्रेमचन्द, सुदर्शन, कौशिक जी, जैनेन्द्रकुमार आदि प्रमुख कहानीकारों ने उच्चकोटि के कहानी – साहित्य की रचना की। नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक नाटक लिखकर महत्वपूर्ण कार्य किया। समीक्षा के क्षेत्र में डॉ. श्यामसुन्दरदास, रामचन्द्र शुक्ल, गुलाबराय आदि प्रमुख समालोचकों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की। इस प्रकार हिन्दी गद्य की सभी विधाओं को इस युग में विशेष उत्कर्ष प्राप्त हुआ ।
स्वातंत्र्योत्तर युग (सन् 1947 से आज तक) में हिन्दी गद्य- वर्तमान स्वातंत्र्योत्तर युग में हिन्दी गद्य अपनी चरम विकास की अवस्था को प्राप्त हो चुका है। गद्य शैलियों का विविध रूपी विकास हुआ है। सैकड़ों समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं ने हिन्दी गद्य के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया है। गद्य की विविध विधाओं का भी विकास हुआ है। नाटक के क्षेत्र में सेठ गोविन्ददास, हरिकृष्ण प्रेमी, गोविन्दवल्लभ पन्त, उपेन्द्रनाथ अश्क, जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द, लक्ष्मीनारायण मिश्र आदि प्रमुख लेखक हैं। नाटक के एक नवीन रूप ‘एकांकी नाटक’ का प्रारम्भ इसी युग में हुआ है। एकांकी नाटककारों में डॉ० रामकुमार वर्मा सेठ गोविन्ददास, उपेन्द्रनाथ अश्क, उदयशंकर भट्ट, भुवनेश्वरप्रसाद मिश्र आदि प्रमुख हैं। हिन्दी कहानी की विविध शैलियाँ इस युग में विकास को प्राप्त हुई ।
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