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कविवर बिहारी का जीवन-परिचय
कविवर बिहारी रीतिकालीन कवियों में अत्यन्त विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं। रीतिकाल की रीतिबद्ध काव्यधारा के तो कविवर बिहारी सर्वोच्च कवि माने जाते हैं। कविवर बिहारी की सर्वोच्चता और उनकी असाधारण कीर्ति का आधार उनकी एकमात्र सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ ‘सतसई’ ही है, इसके दोहों को पढ़ने और अनुभव करने से उनका महत्व सहज ही स्पष्ट हो जाता है।
जीवन-परिचय- कविवर बिहारी के जीवन-परिचय सम्बन्धित कई मत हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनके जन्म समय को निश्चित रूप से न मानते हुए लगभग माना है, इनमें जन्म-स्थान और जीवनकाल के विषय में निम्नलिखित दोहा अधिक लोकप्रिय है-
जनम ग्वालियर जानिए खंड बुंदेल बाल।
तरु नाई आई सुघर, मथुरा बसि ससुराल ।।
अर्थात् जन्म ग्वालियर में, बुंदेल खंड में बाल्यावस्था और युवावस्था ससुराल मथुरा में ही व्यतीत हुई थी। इस दोहे के अर्थ की कितनी सच्चाई है, इस सम्बन्ध में साहित्य-अध्येता ही सच्चा निष्कर्ष निकाल सकते हैं, फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनका जन्म ग्वालियर में और मथुरा (ससुराल में युवावस्था व्यतीत हुई थी। इस तथ्य को स्वीकारने के पीछे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का ही अभिमत आधारस्वरूप है।
कविवर बिहारी ने अपनी जाति, अपने पिताश्री का नाम, कुल-स्थान आदि का सुपरिचय देते हुए लिखा है-
“जनम लियो द्विजराज कुल, सुबस बसे बज आई।
मेरो हरो कलेस सब के सब केसवराय ।।”
अर्थात् बिहारी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे, ये बृजवासी थे, इनके पिताश्री केशवराय थे। इस मत के अनेक विद्वान पक्षधर हैं।
कविवर बिहारी के अपने मातामह और पिता के सुकवि होने का उल्लेख निम्नलिखित दोहे में इस प्रकार किया गया है-
कविवर मातामह सुमिरि केसो केसोराड़।
कहाँ कथा भारत्य की भाषा छन्द बनाइ ॥
इस दोहे को कुलपति मिश्र ने ‘संग्राम-सार’ में लिखा है। कविवर बिहारी के जातीय सम्बन्धित धारणाओं में श्री राधाचरण गोस्वामी और राधाचरण दास के भी नाम उल्लेखनीय हैं। श्री राधाचरण गोस्वामी ने उन्हें राय कहकर सम्बोधित किया है जबकि श्री राधाचरण दास ने उन्हें ‘सनादय मिश्र’ कहा है। चूंकि बिहारी के पिता केशवराय थे। इस मत को मानने वाले अनेक विद्वान् है हैं। इसलिए राधाचरण गोस्वामी का बिहारी को राय कहना अधिक संगत और उचित लगता है।
बिहारी की शिक्षा दीक्षा के विषय में यहाँ कहा जाता है कि ये अपने वंशस्थान ग्वालियर को बचपन में ही छोड़कर जब ओरछा बस गए थे तभी उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की। इसके उपरान्त उन्होंने महाकवि केशव के साहित्य का “विधिवत् अध्ययन किया था। अपने गुरु नाम का स्पष्टोल्लेख तो नहीं किया लेकिन नरहरिदास नाम के किसी महात्मा के प्रति श्रद्धा अर्पित करते हुए उनकी कृपादृष्टि एवं महिमा का महत्व इस प्रकार प्रकट किया-
“जम-करि, मुँह नरहरि पर्यो, इहि धरहरि चित लाउ ।
विषय-तृषा परिहरि अजौ, नरहरि के गुन गाउ ।।”
कविवर बिहारी के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण और अद्भुत घटना सर्वसम्मति से यह कही जाती है कि ये जिस समय अपनी वृत्ति लेने के लिए जयपुर नरेश के दरबार में गए, उस समय राजा जयसिंह अपनी नई रानी के प्रेम में इतना अधिक व्यस्त रहा करते थे कि राजकाज देखने के लिए महलों से बाहर नहीं निकल पाते थे। उन्हें न तो किसी की चिन्ता थी और न ही किसी की इतनी हिम्मत थी कि उन्हें उचित सलाह दे सके। दरबारियों और सरदारों की सलाह से कविवर बिहारी ने राजा जयसिंह की आँखें खोलने के लिए निम्नलिखित दोहा लिखकर भेज दिया-
“नहिं पराग, नहि मधुर मधु नहिं विकास इहि काल ।
अली कली ही सौ बध्यौ, आगे कौन हवाल ।।”
कहते हैं कि इस अन्योक्तिपूर्ण दोहे का राजा जयसिंह पर जादू-सा असर पड़ा। उनका प्रेमोन्माद उतर गया। वे प्रेम-मोह-निद्रा से मुक्त हो गए। इस सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है-
“कहते हैं कि इस पर महाराज बाहर निकले और तभी से बिहारी का मान बहुत अधिक बढ़ गया। महाराज ने बिहारी को इस प्रकार के सरस दोहे बनाने की आज्ञा दी। बिहारी दोहे बनाकर सुनाने लगे और उन्हें प्रति दोहे पर एक अशरफी मिलने लगी। इस प्रकार सात सौ दोहे बने जो संगृहित होकर ‘बिहारी सतसई’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।”
‘सतसई’ रचने से पूर्व बिहारी ने महाराजा जयसिंह का पूर्ण आदेश प्राप्त किया था-
“हुकुम पाइ जयसिंह कौ, हरि राधिका प्रसाद ।
करौ बिहारी सतसई, भरी अनेकन स्वाद ।। “
पारिवारिक जीवन- कविवर बिहारी गृहस्थ थे। उनका विवाह मथुरा के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह कहा जाता है कि विवाह के उपरान्त वे अपनी ससुराल में ही स्थायी रूप से रहने लगे थे। बिहारी के एक भाई और एक बहिन थी। ग्वालियर से ओरछा उनके साथ ही उनके भाई-बहन भी आए थे। बिहारी की बहिन का विवाह वृन्दावन के एक मिश्र परिवार में हुआ था जिससे सुप्रसिद्ध रीतिकालीन आचार्य कुलपति मिश्र का जन्म हुआ था। कविवर बिहारी के भाई का विवाह मैनपुरी के किसी परिवार में हुआ था।
कविवर बिहारी के संतान के होने न होने के विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं। कोई इनके पुत्र के रूप में कृष्णलाल का उल्लेख करते हैं तो कोई इन्हें अपने भतीजे निरंजन कृष्ण को गोद लेने का मत देते हैं। इस विषय में अभी तक कोई सबल प्रमाण नहीं मिला है। कविवर बिहारी का जन्म संवत् 1660 और मृत्यु संवत् 1721 सर्वसम्मति से स्वीकार की जाती है।
स्वभाव- कविवर बिहारी का स्वभाव अधिक गंभीर और संयत रहा। इस विषय में यह कहा जा सकता है कि वे कोई मिथ्याप्रशंसक और चाटुकार नहीं थे। यद्यपि वे सामंती राजाओं के घोर प्रशंसक सिद्ध हुए हैं जिनमें राजा जयसिंह का विशेष उल्लेख है। वे उतने ही प्रशंसक और चाटुकार थे, जितने से किसी को क्षति या कष्ट न हो सके। दूसरे शब्दों में कविवर बिहारी ने अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह की प्रशंसा सर्वप्रथम उनके कल्याण और यश के ही विचार से की थी। इसके उपरान्त की गई प्रशंसा उनकी आज्ञानुसार ही हुई और धन-वैभव तथा सुविधा भी उनकी ही दी हुई थी। इस प्रकार से हम देखते हैं कि कविवर बिहारी अन्य रीतिकालीन कवियों के समान धन-लिप्सा और धन-लोलुपता की भावना से काव्य नहीं रचा। इस आधार पर वे एक स्वाभिमानी, नैतिक और सच्चरित्रवान् रचनाकार सिद्ध होते हैं। धन-लोलुपता की प्रवृत्ति का विरोध करते हुए उन्होंने कहीं लिखा भी है-
“मित्र न नीति गलित है।
जो रखिए धन जोरि ।।”
देश भक्ति की भावना – कविवर बिहारी में देश-भक्ति की भावना भरी हुई थी। वे मुगल शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे। इसी देश भक्ति की भावना से उन्होंने अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को सावधान करते हुए लिखा था-
“स्वास्थ सुकृत न स्वमु वृथा देखि विहंग विचारि ।
बाज पराए पानि पर, तू पच्छिन न मारि ।’
इस दोहे के द्वारा कविवर बिहारी ने राजा जयसिंह की अप्रत्यक्ष निंदा करते हुए सावधान किया है कि वे अपना कोई स्वार्थ न देखकर भी क्यों मुगल शासकों की इच्छापूर्ति के लिए ही महाराजा शिवाजी को पराजित कर रहे हैं। यही कारण है-
कि राजा जयसिंह ने बाद में महाराजा शिवाजी से सन्धि-वार्ता करने के लिए उत्सुक हो गए थे। इसी तरह से कविवर बिहारी ने राष्ट्र भक्ति और कर्त्तव्य भावना से प्रेरित एक कविता राजा जयसिंह के वंशधर राजा मानसिंह को इस प्रकार से लिखी थी-
“महाराज मानसिंह पूरब पठान मारे,
सोनित की सरिता अजी न सिपिटत है।
‘सुकवि बिहारी’ अजी उठत कबन्ध कृदि,
आज लगि रन तैं नोही ना मिटत है।
आज लौ पिसाचन की चहलन तें चौकि चौकि,
सची मघवा की छतियाँ सो लपटति है।
आजु लगि ओढ़े हैं कपाली आली आली-खाले,
आजु लगि काली मुख लाली ना मिटत है।”
इससे स्पष्ट हो जाता है कि राजा मानसिंह ऊपर से भले ही मुगल शासकों के कहने में थे किन्तु भीतर से वे राष्ट्र और देश के प्रति अपने कर्तव्य को भली-भाँति समझते थे और उसके निर्वाह में पूरा प्रयत्न करते थे।
रसिक प्रवृत्ति- कविवर बिहारी रसिक प्रवृत्ति के रचनाकार थे। इस तथ्य की पूरी छाप उनकी रचना पर दिखाई पड़ती है। वे व्यंग्य और विनोद दोनों ही रसों के मिश्रित प्रयोग करके अपनी काव्यधारा में अनेक रसिकों को डुबो दिया। उनके अनेक दोहे व्यंग्य और विनोद के गहरे सागर के समान हैं, इनका स्वभाव नगरीय-सा विनोदी स्वभाव रहा। इस तथ्य को गंभीरतापूर्वक समझ लेना चाहिए कि इनका काव्य और हास्य सामान्य और सस्ता न होकर एक विशिष्ट और उच्चस्तरीय था। कविवर बिहारी के हास्य-व्यंग्य विनोदी स्वभाव के विषय में किसी आलोचक का कहना वस्तुतः सार्थक ही लगता है-
“ये रसिक जीव थे, पर इनकी रसिकता नागरिक जीवन की रसिकता थी । यद्यपि इन्होंने काव्य के लिए वर्ण्य विषय जीवन की सामान्य लोकभूमि से ही लिया था, और यदि इनके अप्रस्तुत विधानों पर विचार किया जाए तो वे भी परम्परागत कुछ रूढ़ियों को छोड़कर सामान्य जीवन से ही संगृहीत हैं, तथापि इनका जीवन नागरिक था, क्योंकि साधारण जीवन के माधुर्य में इनकी वृत्ति रमती नहीं थी। ये नागरता के नाम पर बराबर रोते रहे। इनका स्वभाव भी (नागारिकों का-सा ही) विनोदी और व्यंग्यप्रिय था। “
रचना- कविवर बिहारी ने मात्र ‘सतसई‘ ही लिखा है जिसमें रीतिकालीन परम्परा और सिद्धान्त का सच्चा निरूपण प्रस्तुत किया है। इस प्रन्थ की श्रेष्ठता और महानता के विषय में आचार्य शुक्ल का यह अभिमत उल्लेखनीय है-
“बिहारी ने इस सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। यह बात साहित्य-क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रही है कि किसी कवि का वश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है। मुक्त कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरमोत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं।”
काव्यगत विशेषताएँ- कविवर बिहारी ने अपनी एकमात्र इस रचना में विविध प्रकार के जीवन चित्रों को रखने का अद्भुत प्रयास किया है। आपकी काव्यगत विशेषताएं इस प्रकार हैं –
भक्ति-भावना- कविवर बिहारी की भक्ति भावना राधा-कृष्ण की है। उनकी सतसई में अनेक स्थल इसी के हैं। भक्ति भावना का एक उदाहरण देखिए-
“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परै, स्याम हरित दुति होइ ॥ “
कविवर बिहारी ने सामाजिक जीवन से सम्बन्धित कई प्रकार अनूठी उक्तियाँ भी पेश की हैं, जैसे-
बहु धन ले, अहसानु के, पारो देत सराहि।
वैद वधू हँसि भेद सौं, रही, नाह मुँह चाहि ॥”
संयोग वर्णन – नायिका और नायक के परस्पर ‘बतरस-लालच’ के प्रसंग सम्बन्धित दोहों का कविवर बिहारी ने बखूबी से प्रस्तुत किया है। यहाँ पर दिए गए कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस प्रकार नायक और नायिका एक-दूसरे पर रीझते-खीझते हैं; पहले दोहे में इसी का उल्लेख है जबकि दूसरे दोहे में नायक की बंकिम छटा मोहित नायिका के हृदय की टीस का स्वाभाविक वर्णन है। इसी प्रकार से तीसरे दोहे में नायक को चलते हुए देखकर नायिका अपने उत्पन्न हुए प्रेम को जमुहाई लेने के बहाने में बदलने का सुन्दर और रोचक चित्र खींचा गया है-
1. “कहत नटत, रीझत खीझत-मिलते जुलते लजियात।
भरै मौन में करत हो, नैनन ही सो बात ।।”
2. “नासा मोरि, नवाइ दग, करी कका की साह।
कॉट-सी कसके हिए, गड़ी कंटीली माह ॥”
3. “ललन-चलन सुनि पलन में, अंसुवा झलके आइ।
भई लखाइ न सखिन्ह हैं, झूट ही जमुहाई ॥”
वियोग-वर्णन – कविवर बिहारी ने न केवल संयोग शृंगार का ही अतिभावपूर्ण चित्र खींचा है अपितु विप्रलम्भ (वियोग) गंगार का भी अधिक स्वाभाविक दृश्य अंकित किया है-नायिका का विरहस्वरूप किस तरह अतिशयोक्तिपूर्ण हो गया है, इसके उल्लेख के लिए नीचे चार दोहे दिए जा रहे हैं जिनमें क्रमश: पहले दोहे में नायिका के सुकुमारपूर्ण विरहमय बदन को गुलाब के समान, दूसरे दोहे में विरहिणी के अतिशय कमजोर होकर हिंडोरे-सी पड़ी रहने का, तीसरे दोहे में विरहिणी को ग्रीष्मकालीन दिन-सा और चौथे दोहे में विरहिणी को जाड़े की भी रात में अधिक संतप्त बनी रहने का मार्मिक चित्रांकन किया गया है-
1. “छाले परिवे के इरन, सकै न हाथ छुवाई।
झिझकति हिंए गुलाब की, ‘भवा भवावति पाइ ।।”
2. “इत आवति चलि जात उत चढ़ी छ-सातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरे-सी रहे, लगी उसासन साथ ।।”
3. “सीरे जतननि सिसिर ऋतु सहि विरहिनि तन ताप।
बसियो को ग्रीष्म दिनन, परयो पड़ोसिन पाप ।”
4. “आड़े दै आड़े बसन, जाड़े हूँ की राति।
साहस के के नेवस, सखी सबै डिंग जाति ।। “
बिहारी लाल जीवन एवं साहित्यिक परिचय
साहित्यिक महत्व- बिहारी की अनूठी काव्य क्षमता के संदर्भ में प्रिय, डॉ० ग्रियर्सन के उद्गार हैं कि उनकी टक्कर का कवि समग्र यूरोपीय साहित्य में खोजना कठिन ही है-
“मैं नहीं समझता कि इसकी तुलना का कोई भी काव्य यूरोप की किसी भी भाषा में उपलब्ध है।”
इसी प्रकार डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने बिहारी सतसई को रसिकों का गलहार बताते हुए उचित ही यह मत व्यक्त किया है।
“बिहारी सतसई सैकड़ों वर्षों से रसिकों का हृदय हार बनी हुई है और तब तक बनी रहेगी जब तक इस संसार में सहृदयता है।”
अन्ततः कवि द्वारा बिहारी को दी गई निम्नांकित श्रद्धांजलि अवलोकनीय है-
“व्रजभाषा वरती सबै कविवर बुद्धि विशाल ।
सबकी भूषण सतसई, रची बिहारी लाल ।।”
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