कार्यालयी पत्राचार क्या हैं? कार्यालयी पत्राचार की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
कार्यालयी पत्राचार से आशय- ‘कार्यालय सम्बन्धी’ काम-काज निपटाने के लिए किया जाने वाला विविध प्रकार का पत्राचार कार्यालयी पत्राचार कहलाता है। ‘कार्यालय’ के लिए अंग्रेजी शब्द ‘ऑफिस’ प्रचलित है। बोलचाल में इसके लिए हम-आप हिन्दुस्तानी का शब्द ‘दफ्तर’ का प्रयोग करते हैं।
‘ऑफिस’ का विशेषण रूप ‘ऑफिशियल’ है जिसका अर्थ प्रायः ‘सरकारी’ लिया जाता है। इसी प्रकार ‘ऑफिशियल लेटर’ का अभिप्राय है— ‘सरकारी पत्र’ (ऑफिस या दफ्तर (कार्यालय) का पत्र नहीं)। ‘ऑफिशियल’ का एक अन्य अभिप्राय ‘राजकीय’ या ‘प्रशासकीय’ भी है।
इस प्रकार कार्यालयीय का सामान्य अथवा सीमित अर्थ तो हआ दफ्तरी अर्थात दफ्तर (कार्यालय) से सम्बन्धित परन्तु इसका व्यापक अर्थ है सरकारी, राजकीय, प्रशासनिक इत्यादि। इस दृष्टि से ‘कार्यालयी पत्र वे पत्र हैं, जो सरकारी, प्रशासनिक या राजकीय काम काज को सुचारु रूप से चलाने के लिए प्रयुक्त होते हैं।’
‘कार्यालय’ केवल ‘सरकारी’ या ‘राजकीय’ ही नहीं होते। प्रत्येक व्यापारिक, वाणिज्यिक, व्यावसायिक, औद्योगिक संस्थान का अपना एक कार्यालय होता है, जहाँ कार्मिकों की नियुक्ति से लेकर उत्पादन सामग्री, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पाद-विक्रय, जन सम्पर्क, विज्ञापन प्रचार, लेखा प्रबन्ध आदि सभी प्रकार के कामकाज संचालित और नियन्त्रित होते हैं। बड़े-बड़े उद्योगों, कारखानों, संस्थाओं, विद्यालयों-महाविद्यालयों, चिकित्सालयों, पुस्तकालयों, प्रकाशन-केन्द्रों, मुद्रणालयों आदि का एक अलग प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) अनुभाग या विभाग होता है। वहाँ भी सरकारी कार्यालयों के समान एक निश्चित, नियमित और मान्य प्रविधि के अनुसार कार्यकलाप, पत्राचार आदि होता है। अतः इनका पत्राचार भी कार्यालयी पत्राचार कहलाता है। जायदादी कारोबार का व्यवस्थित कार्यालय होना आवश्यक माना जाता है। इसी प्रकार बैंकों और बीमा कम्पनियों आदि का तो समग्र स्वरूप ही एक बड़े कार्यालय-सा होता है।
यह तथ्य सर्वज्ञात है कि कार्यालयीय काम-काज की सम्पूर्ण प्रक्रिया का मूल आधार यहाँ होने वाला पत्राचार ही है। वहाँ मौखिक शब्दों की अपेक्षा लिखित शब्दों का वर्चस्व होता है। ये लिखित शब्द अधिकांशतः विविध प्रकार के पत्रों के रूप में होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि ‘कार्यालयीय पत्र लेखन’ एक प्रकार से कार्यालय संचालन की केन्द्रीय धुरी है।
कार्यालयी पत्रों की विशेषताएँ-
कार्यालयी पत्रों की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-
1. सुस्पष्टता – कार्यालयी पत्रों की सर्वप्रमुख विशेषता उसकी सुस्पष्टता है। पत्र चाहे किसी भी प्रकार का हो, उसमें स्पष्टता होनी चाहिए। पत्र प्राप्तकर्ता यदि पत्र-प्रेषक के आशय 1 को स्पष्ट रूप से ग्रहण नहीं कर पाता तो पत्र का उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा। जैसे यदि पत्र-प्रेषक अपने किसी परिजन को पत्र द्वारा किसी बात की विशेष कार्यक्रम की अथवा निजी या पारिवारिक स्थिति की सूचना देना चाहता है, तो वह सूचना स्पष्ट होनी चाहिए। कार्यालयी पत्रों में तो स्पष्टता का गुण सर्वोपरि माना जाता है। निविदा-पत्र में यह स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि किस कार्य, किस अवधि के लिए किस विधि के अनुसार निविदाएँ जा रही हैं, आवेदनकर्ता की आर्थिक अथवा अनुभव-सम्बन्धी अर्हता क्या है आदि। निविदाएँ आमंत्रित करने वालों ने जो-जो तथ्य माँगें हों उनका स्पष्ट ब्यौरा देना चाहिए। इसी प्रकार शिकायती पत्र में शिकायत का मूल विषय सम्बद्ध प्रसंग या सन्दर्भ आदि सभी बाते स्पष्ट रूप से उल्लिखित होनी आवश्यक है।
किसी पत्र को पढ़ने पर यदि प्राप्तकर्ता यह कहता है कि पता नहीं यह क्या कहना चाहता है तो इसका कारण पत्र की अस्पष्टता है। पत्र को इस दोष से सर्वथा मुक्त होना चाहिए।
स्पष्टता का दूसरा पक्ष उसकी सुवाच्यता से सम्बन्धित है। लिखावट साफ-स्पष्ट होने पर ही प्राप्तकर्ता उसे पढ़ और समझ सकता है। इसी तथ्य को सम्मुख रखकर अधिकांश सरकारी और व्यावसायिक संस्थाओं में पत्रों का टंकित होना अनिवार्य माना जाता है, किन्तु अनेक स्थितियों में कुछ पत्र हस्तलिखित ही होते हैं। उनका सुवाच्य होना आवश्यक है। उल्लेखनीय है कि हर कार्यालयी पत्र का पहले प्रारूप (कच्चा खाँका) तैयार किया जाता है, जिसमें स्पष्टता और सुवाच्यता अनिवार्य रूप से अपेक्षित है।
2. एकात्मकता या एकान्विति – एक पत्र में प्रायः किसी एक ही विषय, सन्दर्भ अथवा उद्देश्य की पूर्ति सम्भव है। पत्र प्रेषक पत्र प्राप्तकर्ता तक जो बात पहुंचाना चाहता वही मुख्य होनी चाहिए। अभिवादन, अनुशंसा अथवा उत्तर पाने की इच्छा आदि तो पत्र के औपचारिक अंग हैं, इनसे पत्र की एकॉन्विति भंग नहीं होती; किन्तु यदि किसी पत्र में व्यावसायिक पूछताछ की जा रही है और वर्णन राजनीतिक गतिविधियों का होने लगे तब एकान्वित भंग होगी, पत्र का मूल सम्बन्ध आशय रह जायेगा। कार्यालयी पत्र में अभीष्ट विषय से सम्बन्धित बातें ही एकसूत्रता या तारतम्य के अनुसार प्रस्तुत की जानी चाहिए। व्यावसायिक और सरकारी पत्रों में विषय प्रायः निश्चित रहता है और मूलवृत्त लिखना आरम्भ करने से पहले शीर्षक के रूप में उस विषय का निर्देश भी कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति में पत्र के भीतर का सारा ब्यौरा शीर्षस्थ विषय से ही सम्बद्ध होना चाहिए।
3. सहजता – इस गुण के दो पक्ष हैं। एक तो यह कि पत्र में लिखी गयी हर बात सहज रूप में, अकृत्रिम रूप में कही गयी हो। ध्यान रहना चाहिए कि किसी के द्वारा लिखा गया पत्र-विद्वता, भाषा-निपुणता अथवा लेखन प्रतिभा से अधिक उसके कथ्य का वाहक होता है। पत्र पाठक किसी शब्द, वाक्यांश, वाक्य या सन्दर्भ का स्पष्टीकरण मांगने नहीं आ सकता। सहज, स्वाभाविक रूप में लिखी गयी बात पत्र के उद्देश्य को तत्काल पूर्ण कर देने में समर्थ होगी।
सहजता का दूसरा पक्ष भाषा प्रयोग से सम्बन्धित है। आलंकारिक, लाक्षणिक एवं ध्वन्यात्मक भाषा का प्रयोग कुछ विशिष्ट साहित्यिकों के पत्राचार में तो चल सकता है, कार्यालयी पत्रों में वह सर्वथा परिहार्य है। कार्यालयी पत्रों की शब्दावली प्रायः निर्धारित सी होती है, उससे हटकर अपनी बहुज्ञता का प्रकाशन पत्रों में अपेक्षित नहीं।
4. यथार्थता – इस गुण का सम्बन्ध अधिकतर व्यवसायी कार्यालयों के पत्रों से हैं, क्योंकि उनमें तथ्य प्रस्तुति परम आवश्यक है। कार्यालयी पत्रों में सम्बद्ध विषय के सभी पक्षोंअथवा तथ्यों की जानकारी न रहने पर अनावश्यक विलंब हो सकता है, बनती हुई बात बिगड़ सकती है, मिलता हुआ क्रयादेश (Purchase Order) रुक सकता है। सरकारी पत्रों में तो यथार्थता से तनिक भी शिथिलता एक प्रकार से अपराध मानी जाती है। बीमा, बैंक, शिकायत, आवेदन, नियुक्ति, पूछताछ, निमंत्रण आदि से सम्बन्धित पत्र भी यथार्थ तथ्यों की अपेक्षा रखते हैं।
5. संक्षिप्तता – एक बार एक महाशय को कई पत्र खोल-खोलकर बिना पढ़े ही रद्दी की टोकरी में फेंकते देखकर जब कारण पूछा गया तो उन्होंने उत्तर दिया-ये पत्र हैं या द्रौपदी के चीर ! कौन इन्हें पढ़ने में समय नष्ट करे। न जाने लोगों को पत्रों में मतलब की हाँकने की फुरसत कैसे मिल जाती है, आदि। सम्भवतः वे महाशय किसी बड़े संस्थान के कोई वरिष्ठ अधिकारी थे, जिन्हें केवल विषय से सम्बद्ध तथ्यों (Only Relevant Matter) से ही सरोकार रहता होगा। उनके स्थान पर चाहे कोई भी हो, तात्पर्य यह है कि बहुत लम्बे पत्रों को पढ़ने का समय और धैर्य आज किसी के पास नहीं; अतः संक्षिप्तता आदर्श पत्र लेखन का मूलभूत गुण है। लम्बे पत्रों को लिखने के लिए भी तो पर्याप्त समय सामग्री और धैर्य चाहिए, किन्तु जब हम पत्र लेखन को एक कुला कहते हैं, तो उस कला की कुशलता संक्षिप्तता में ही निहित है। संक्षिप्त पत्र अभीष्ट सिद्धि और तुरन्त प्रभाव में विशेष सहायक होता है।
6. स्वतः पूर्णता – कोई भी पत्र अपने कथन या मंतव्य में स्वतः पूर्ण होना चाहिए। उसे पढ़ने के उपरान्त तद्विषयक किसी प्रकार की जिज्ञासा, शंका या स्पष्टीकरण की आवश्यकता शेष नहीं रहनी चाहिए। कई बार देखा गया है कि पत्र-लेखक जिस विचार से पत्र लिखना आरम्भ करता है, वह तो अप्रकट या अपूर्ण रह जाता है तथा अन्यान्य बातों से ही पत्र भर जाता है। कभी-कभी निमंत्रण पत्र में कार्यक्रम के लिए निर्धारित स्थान और समय आदि की पूरी सूचना नहीं होती। इसी प्रकार निविदा पत्र में उसे भरकर भेजने की अन्तिम तिथि और प्रेषणीये पते की भूलें तो प्रायः होती रहती हैं। इस प्रकार की असावधानी न होना ही स्वतः पूर्णता है। कार्यालय पत्र अपने आप में पूरे मसविदे का कार्य करते हैं; अतः उनकी स्वतः और भी आवश्यक है।
7. शालीनता— किसी पत्र में उसके लेखक के व्यक्तित्व, स्वभाव, पद-प्रतिष्ठाबोध और व्यावहारिक आचरण की झलक मिलती है। सरकारी, व्यावसायिक तथा अन्य कार्यालयी पत्रों की भाषा-शैली एक विशेष शिष्ट स्वरूप लिये होनी चाहिए। अस्वीकृति, शिकायत, खीझ या नाराजगी भी शिष्ट भाषा में प्रकट की जाय, तो उसका अधिक लाभकारी प्रभाव पड़ता है। उदाहरणतः किसी आवेदनकर्ता के आवेदन की अस्वीकृति दो रूपों में भेजी जा सकती है-
(क) ‘खेद है कि हम आपकी सेवाओं का उपयोग नहीं कर सकेंगे।’ अथवा ‘आपकी योग्यता का लाभ न उठा पाने का हमें हार्दिक खेद है।’
(ख) ‘आप जैसे अयोग्य/अकुशल/अनुभवहीन व्यक्ति के लिए हमारे पास कोई जगह नहीं’ अथवा ‘आपको सूचित किया जाता है कि आपका आवेदन पत्र अस्वीकृत कर दिया गया है।’
उपर्युक्त दोनों प्रकार के उदाहरणों का मंतत्वय एक ही है, किन्तु प्रथम उदाहरण में ‘शालीनता की छाप है, जबकि दूसरे में अशिष्टता झलकती है।
8. प्रभावात्मकता – आदर्श पत्र लेखन की अन्तिम और सर्वगुणसन्वित् विशेषता है उसकी समग्र प्रभावान्विति। यदि पत्र किसी मुद्रित पत्र-शीर्ष (Letter Head) वाले कागज पर लिखा गया है, तो उस पत्र-पर्णिका (लैटर-पैड) या पत्र-शीर्ष की साज-सज्जा नयनाभिराम, आकर्षक और प्रभावी होनी चाहिए। अनेक बहुरंगे और आकर्षक छपाई वाले पत्र-शीर्ष तुरन्त ध्यान आकृष्ट कर लेते हैं। यदि पत्र सादे कागज पर लिखा गया है, तो भी लिखावट सुन्दर, स्पष्ट और आकर्षक होनी चाहिए।
9. मौलिकता – पत्र लेखन के सन्दर्भ में मौलिकता का अभिप्राय नयापन और ताजगी से है। उसमें बातें तो प्रायः वही होती हैं, जो प्रतिदिन लिखी जाती हैं। कार्यालयी प्रक्रिया का ब्यौरा, आवेदन का आधार, योग्यता के आँकड़े, दर-भाव, तथ्यात्मक सूचना आदि। परन्तु उनका प्रस्तुतीकरण एक मौलिक ढंग से होना चाहिए। हर बार एक-सी, घिसी-पिटी, टी. रटायी शब्दावली का प्रयोग पत्र के प्रति रुचि को कम कर देता है। इसके विपरीत नये ढंग से कहीं गयी बात पत्र प्राप्तकर्ता के मन को छू लेती हैं और अधिक प्रभाव डालने में सहायक होती है।
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