कृष्ण भक्ति काव्य धारा की सामान्य प्रवृत्तियों या विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
कृष्ण भक्ति काव्य धारा की सामान्य प्रवृत्तियाँ
कृष्ण भक्ति काव्य धारा की प्रमुख सामान्य प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं-
(1) विषयवस्तु में मौलिक उद्भावना- हिन्दी कृष्ण भक्ति साहित्य की रचना से पूर्व संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में कृष्ण सम्बन्धी काव्य की रचना प्रचुर मात्रा में हो चुकी थी और इसके साथ-साथ विविध कृष्ण-भक्ति संप्रदायों की भी प्रतिष्ठा हो चुकी थी। इस सकल कृष्ण काव्य का उपजीव्य भागवत पुराण है। मध्यकालीन हिन्दी कृष्ण भक्ति काव्य भी वैष्णव धर्म के अक्षय स्रोत भागवत का आधार लेकर चला है, क्योंकि मध्यकाल में भागवत इतना लोकप्रिय था कि उसे आधार बनाये बिना कवि एवं आचार्य पद की पूर्ति असंभव थी। किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि मध्यकालीन कृष्ण भक्ति काव्य भागवत का अनुवाद मात्र है। मध्यकालीन कृष्ण भक्ति कवि ने पर्याप्त मौलिक उद्भावना से भी काम लिया है। उदाहरणार्थ भागवतकार के कृष्ण निर्लिप्त हैं। वे गोपियों की प्रार्थना पर लीला में शरीक होते हैं जबकि हिन्दी कवियों के कृष्ण गोपियों की ओर स्वयं उन्मुख होते हैं और अपनी हृदयहारी लीलाओं से उनके हृदयों को जाते हैं। भगावत में आदि से अन्त तक कृष्ण का ब्रह्मत्व और उनके चरित्र अलौकिक बने रहते हैं जबकि हिन्दी कवियों के कृष्ण में बहुत कम स्थानो पर अलौकिकता है- वे बाल रूप में बाललीलाएं और युवा रूप में प्रणय लीलाएँ करते हैं। भागवत में कृष्ण के साथ प्रेम करने वाली एक गोपी का वर्णन है। उसमें राधा का नामोल्लेख नहीं है जबकि सूरदास आदि कवियों ने राधा की कल्पना द्वारा प्रणय-चित्रण में एक अलौकिक भव्यता ला दी है। भागवत में गोपियों के प्रेम की पवित्रता निष्कलंक नहीं रहती। कृष्ण की अनुपस्थिति में मदिरोन्मत्त बलराम उनसे व्यवहार करने लगते हैं, किन्तु हिन्दी काव्य में गोपियों को सर्वत्र एकोन्मुख दिखाया गया है। हिन्दी कवियों ने जयदेव तथा विद्यापति का आधार लेते हुए भी यथेष्ट कल्पना शक्ति से काम लिया है। विद्यापति में राधा और कृष्ण के प्रेम वर्णन में जहाँ स्थूलता और उद्दमता है वहां इनमें नवीन रूप-रंग भर कर उसे उभार तथा निखार दिया है। इन्होंने लोक प्रचलित कृष्ण लीलाओं का सदुपयोग करके कृष्ण भक्ति की अभिवृद्धि में एक नवीन योगदान दिया। अपने युग तथा समाज के वातावरण के अनुसार इन कवियों ने अनेक नवीन प्रसंगों की उद्भावना भी की है।
(2) भक्ति भावना – कृष्ण भक्ति के मूल में एकमात्र भगवदरति काम कर रही है जो कि पात्र के स्वभाव के अनुसार वात्सल्य, सख्य और कान्ता भाव में परिणत हो जाती है। कृष्ण भक्ति काव्य की यह प्रेमलक्षणा भक्ति वैधी भक्ति से भिन्न है। कृष्ण प्रेम के सामने सामाजिक विधि-निषेध लोक वेद और शास्त्र की मर्यादा सभी नगण्य है। यहाँ तक कि उल्लंघनीय है जबकि वैधी भक्ति में मर्यादा की सत्ता अक्षुण्ण है। यह ठीक है कि भक्ति श्रद्धा और प्रेम पर आधारित होती है और प्रेम वैधी भक्ति में भी उपलब्ध होता है किन्तु स्मरण रखना होगा कि दोनों के प्रेम में आनुपातिक अन्तर है। वैधी भक्ति में भगवान के ऐश्वर्यमय रूप की प्रधानता रहती है जबकि प्रेमाभक्ति में उसके सौन्दर्यमय रूप की। वैधी भक्ति में लोक संग्रह ही चिन्ता अधिक बनी रहती है। साधना क्षेत्र में वैधी भक्ति प्रथम सोपान है जबकि रागानुगा भक्ति अन्तिम सोपान । कृष्ण भक्ति के सभी संप्रदायों में कान्ताभाव की भक्ति को अत्यंत महत्व दिया गया है। निम्बार्क संप्रदाय में स्वकीया भाव पर बल दिया गया है और चैतन्य संप्रदाय में परकीया प्रेम में माधुर्य भाव की चरम परिणति मानी गई है। आगे चलकर वल्लभ संप्रदाय में परकीया भाव की भक्ति का प्रचलन हो गया। राधावल्लभ संप्रदाय में परकीया भाव की अस्वीकृति है। कृष्ण भक्तों ने इस परकीया भाव में किसी प्रकार की अश्लीलता तथा अनैतिकता की शंका करना व्यर्थ है। वस्तुतः परकीया भाव आदर्श प्रेम का प्रतीक मात्र है। भक्ति की इन विधाओं के अतिरिक्त कृष्ण भक्ति काव्य में दास्य भाव की भक्ति तथा नवधा भक्ति के अन्य अंगों का भी चित्रण • मिलता है किन्तु प्रधानता रागानुगा भक्ति को ही दी गई है।
(3) कृष्ण लीला वर्णन- अगर देखा जाय तो कृष्ण के चरित्र में उत्तरोत्तर धार्मिकता और भक्ति भावना का समावेश होता गया। कृष्ण के तीन रूपों धार्मेपदेष्टा ऋषि, नीतिविशारद क्षत्रिय नरेश तथा गोपालकृष्ण एवं गोपलीवल्लभ कृष्ण में से अंतिम रूप 15वीं सोलहवीं शताब्दी में प्रधान हो गया। मध्यकालीन कृष्ण भक्त भाषा कवियों ने लोकरंजनकारी कृष्ण की लीलाओं का उन्मुक्त गान किया। उनकी लीला का प्रयोजन लीलानन्द के अतिरिक्त और कुछ नहीं। लीला का उद्देश्य अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की अभिव्यंजना करना है। इस लीला के उन्होंने अनेक रूप कल्पित किये। बालगोपाल की वात्सल्यपूर्ण लीलायें, सख्य रूप लीलायें तथा माधुर्य भावपूर्ण लीलायें ही समस्त मध्यकालीन हिन्दी कृष्ण भक्ति काव्य में व्याप्त हैं। कवियों ने उस अखण्ड आनन्द का चरम रूप स्त्री पुरुष के रतिभाव में कल्पित किया। निम्बार्क चैतन्य हरिवंश और इतिहास इन सभी कृष्ण भक्ति संप्रदायों में माधुर्य भाव का सर्वाधिक महत्त्व है। राधा-कृष्ण और गोपी-कृष्ण की प्रेम लीलाओं का श्रवण, स्मरण, चिन्तन एवं गायन ही कविकर्म की इतिश्री बन गया। इस प्रकार समूचा कृष्ण भक्ति काव्य माधुर्य भाव में ही केन्द्र भूत हो गया और वल्लभ संप्रदाय भी इनसे अप्रभावित न रह सका। सूर काव्य में कृष्ण की प्रेम-लीलाओं का सबसे अधिक विस्तार है। राधावल्लभी चैतन्य के गौड़ीय और हरिदास के सखी संप्रदाय के सभी कवि कृष्ण के प्रणय लीलागान में लीन रहे। सूरदास ने कृष्ण की प्रणय लीला वर्णन में एक निश्चित विवेक, एक निश्चित एवं सूक्ष्म आध्यात्म भावना, मानसिक वीतरागत्व तथा स्वरूप संयम से काम लिया, जो कि बाद में कृष्ण भक्त कवियों ने भुला से दिये। इन कवियों के प्रेम-वर्णन कुछ चुने हुए प्रसंगों तक सीमित रह गये। कृष्ण का क्रीडास्थल केवल यमुना कुंज लता निकुंज और अन्तःपुर प्रकोष्ठ ही रह गया। उनमें सूक्ष्मता के स्थान पर स्थूलता और आध्यात्मिकता के स्थान पर इहलौकिकता आ गई। परिणामतः कृष्ण-भक्ति दीपक की उज्ज्वल आभा से कल की प्रभूत कालिमा ही एकत्रित हुई। कृष्ण की प्रणय लीलायें आगे चलकर रीतिकाल में घोर लौकिक शृंगारिकता में परिणत हो गई ।
(4) पात्र एवं चरित्र-चित्रण- राम काव्य में पात्रों के चरित्र के जैसे विविध पक्ष हैं वैसे कृष्ण भक्ति काव्य में नहीं। तुलसी ने राम के समूचे जीवन को प्रबन्ध काव्य का विषय बनाया जबकि कृष्ण कवियों ने कृष्ण-जीवन के कोमलतम अंशों को अपने काव्य का विषय बनाया जिसमें प्रेम की बहुविध झाँकियाँ नहीं आ सकीं। कृष्ण-कथा के नायक श्रीकृष्ण में मानव और अतिमानव के विरोधी तत्त्वों का सम्मिश्रण है। इन भक्तों के कृष्ण महाभारत के नीति कुशल, व्यवहारवादी योद्धा कृष्ण नहीं हैं, वे हैं बालगोपाल तथा सांवले-सलोने छलिया कृष्ण कृष्ण के साथ सम्बद्ध पात्र हैं नन्द-यशोदा, गोप-गोपी, जो कि कृष्ण के प्रति वात्सल्य और सख्य रूप में प्रेम को दर्शाते हैं। कृष्णावतार का उद्देश्य लीला है और इन पात्रों का उद्देश्य है लीला में शामिल होना। राधा रस रूपिणी है जिसके चरित्र के दो पक्ष हैं- वास्तव में वह कृष्ण से अभिन्न है, किन्तु व्यवहार में उसे कृष्ण प्रेम को उत्तरोत्तर विकसित करने के लिए चित्रित किया गया है। कृष्ण के सखाओं में उद्धव का चरित महत्वपूर्ण है। इन भक्त कवियों ने उद्धव के माध्यम से बुद्धि और तर्क पर भाव की, मस्तिष्क पर हृदय की, ज्ञान पर भक्ति की और निर्गुण पर सगुण की विजय दिखलाई है।
कृष्ण-भाव के इन पात्रों के चित्रण की एक विशेषता है-प्रतीकात्मकता। राधा माधुर्य-भाव की भक्ति का उच्चतम प्रतीक । वह आनन्द-स्वरूप कृष्ण से अभिन्न है और उन्हीं की ह्लादिनी शक्ति है। माधुर्य-भाव से प्रेम करने वाली गोपियां भी कृष्ण से अभिन्न हैं। वामन पुराण में गोपियों को वेद भगवान की ऋचाएं कहा गया है। श्रीकृष्ण ने अपने आनन्दमय रूप का परिचय देने के लिए नित्य वृन्दावन का एक दृश्य दिखाया है और भविष्य में गोपिका बनकर उस लीला में भाग लेने का वरदान दिया। श्रीकृष्ण परमात्मा हैं और गोपियाँ जीवात्मायें। वे निरंतर प्रेम से व्याकुल होकर परम आनन्दधाम कृष्ण में लीन होने के लिए व्याकुल रहती हैं। किन्तु स्मरण रखना होगा कि समस्त कृष्ण काव्य की व्याख्या प्रतीकात्मकता के आधार पर संभव है क्योंकि उसका आधार लोक विश्रुत कथायें तथा पुराण है और उसके उपकरण इन्द्रियमाह्य हैं।
(5) रस-चित्रण- हिन्दी कृष्ण काव्य में एक ही रस है और वह है बजरस या भक्तिरस । इस दृष्टि से इस साहित्य में रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। यदि शास्त्रीय शब्दावली में इस रस को संज्ञा देना चाहे तो वात्सल्य, शांत तथा शृंगार रस कह सकते हैं। भले ही इन रसों में विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों का पृथक्-पृथक् रूप से विन्यास न हुआ हो पर इससे रस चर्वण में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। रस की दृष्टि से कृष्ण-साहित्य अत्यंत भव्य बन पड़ा है। सूर और मीरा में यत्र-तत्र निवेंद का चित्रण हुआ है। कुछ अन्य कवियों ने भी संसार माया, भ्रम-अविद्या, अज्ञान अंधकार की विगर्हणा की है। ऐसे स्थलों पर शांत रस की अभिव्यक्ति हुई है। सांसारिक जीवन के प्रति वैराग्य जगाना ही उनका लक्ष्य है। प्रायः सभी कृष्ण-भक्त कवि संसार को त्याग कर या कम से कम मानसिक सन्यास का संकल्प लेकर अपनी साधना में प्रवृत्त हुए थे। सामूहिक रूप से कृष्ण भक्ति साहित्य में निर्वेद की भावना को कोई प्रत्यक्ष महत्व नहीं दिया गया है। भक्ति में दैन्य भावना का पाया जाना आवश्यक होता है। सूर के प्रारंभिक पदों में दैन्य भावना मिल जाती है। मीरा के कतिपय पदों में भी उच्च भावना उपलब्ध होती है, किन्तु समूचे रूप से कृष्ण भक्ति साहित्य में इसकी उपेक्षा की गई है, क्योंकि अतुल सौन्दर्य राशि आनन्द के परमधाम कृष्ण के रूप के साथ इसकी संगति नहीं बैठती। दूसरे, प्रेम में जो आत्मीयता है वह दैन्य में नहीं। कदाचित यही कारण है कि वल्लभ, चैतन्य, हितहरिवंश और हरिदास आदि ने दैन्य को कृष्ण भक्ति के अनुकूल नहीं माना। कृष्ण भक्ति साहित्य में दैन्य स्थायीभाव की अपेक्षा संचारी रूप में अधिक आया है पर यह एक दूसरी बात है कि उस संचारी भाव में एक विशेष प्रकार की निरन्तरता है ।
वात्सल्य और शृंगार के चित्रण में कृष्ण-भक्त कवि अद्वितीय हैं। सूर वात्सल्य और वात्सल्य सूर है। वात्सल्य के चित्रण में जितने विविध प्रसंगों और उनके संदर्भ में उठने वाले नाना भावों की उद्भावना सूर ने की है, उनका साहित्यशास्त्रीयों द्वारा परिगणित संचारियों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। सूर की निम्नांकित पंक्तियों- ‘मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायो” “मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी”, “संदेशो देवकी सो कहियो” में जो मार्मिकता है वह अकथनीय है।
वात्सल्य की नहीं सख्य भाव के चित्रण में भी कृष्ण-भक्त कवियों ने अद्वितीय कौशल दिखाया है। केवल वात्सल्य ही नहीं बल्कि सख्य चित्रण में भी सूर अप्रतिम हैं कृष्ण भक्ति के अन्य संप्रदायों की अपेक्षा वल्लभ संप्रदाय के कवियों ने सख्य भाव का अत्यंत मनोविज्ञान सम्मत वर्णन किया है। कृष्ण भक्ति काव्य का सर्वाधिक लोकप्रिय क्षेत्र है-माधुर्य रति का चित्रण, जिसे काव्यशास्त्र की भाषा में शृंगार की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। माधुर्य भाव या शृंगार का कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो सूर की दृष्टि से बच पाया हो। राधा और कृष्ण तथा कृष्ण और गोपियों के प्रणय का विकास मनोविज्ञान के धरातल पर अत्यंत सहज रूप में हुआ है। सूर को मनुष्य के भाव लोक का इतना गहन परिचय है कि शायद ही किसी अन्य कवि को हो । शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन अतीव मनोरम बन पड़ा है। कृष्ण भक्ति काव्य में संयोग की अपेक्षा वियोग-वर्णन उत्कृष्ट बन पड़ा है। सूरदास तथा हितहरिवंश ने तो इस दिशा में कमाल ही कर दिया है। सूर और मीरा को मिलन में भी वियोग का आभास होता है। उदाहरण के लिए सूर के कुछ पद देखिये-
अंखियां हरि दरशन की भूखीं। तथा
हरि विछुरत फाट्यो न हियो ।
भयो कठोर वज्र ते भारी, रहिके पापी कहा कियो ।
इन रसों के अतिरिक्त प्रासंगिक रूप से कृष्ण भक्ति काव्य में वीर, अदभुत तथा हास्य रस आदि का भी चित्रण हुआ है।
(6) प्रकृति-चित्रण- कृष्ण भक्ति साहित्य भावात्मक काव्य है। बाह्य प्रकृति का चित्रण इसमें या तो भाव की पृष्ठभूमि में हुआ है या उद्दीपन के लिए अथवा अलंकारों के अप्रस्तुत विधान के रूप में। प्रकृति के स्वतंत्र रूप का चित्रण प्रायः न के बराबर है। परन्तु यह निःसंकोच रूप से कहा जा सकता है कि प्रकृति के मनोरम और अनुकूल, भयानक और प्रतिकूल रूपों के चित्रण में कृष्ण भक्त कवियों ने अपने अद्भुत कौशल का परिचय दिया है। डॉ० बजेश्वर के शब्दों में- “दृश्यमान जगत् का कोई भी सौन्दर्य उनकी आँखों से छूट नहीं सका। पृथ्वी, अन्तरिक्ष, आकाश, जलाशय, बन, प्रान्त, यमुना कूल तथा कुंज भवन की संपूर्ण शोभा इन कवियों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में निःशेष कर दी है। इन कवियों ने मानव-प्रकृति-चित्रण में भी अपनी सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का परिचय दिया है- “मानव हृदय के अमूर्त सौन्दर्य चित्रण, अर्थात् रस-निरूपण में भी कृष्ण भक्त कवियों की भावना और कल्पना जिन मधुमती वीथियों में विचरण करती है उनमें से अनेक ऐसी हैं जिनका पूर्ववर्ती कवियों को परिचय भी नहीं था।”
(7) रीति तत्त्व का समावेश- कृष्ण भक्ति काव्य में शृंगारिक चित्रणों के साथ-साथ रीति-तत्त्व का भी उल्लेख मिलता है। सूरदास तथा नन्ददास की कृतियाँ इसका प्रमाण हैं। सूरदास की साहित्य-लहरी में नायिका भेद तथा अलंकारों का वर्णन मिलता है। यद्यपि कुछ आलोचकों ने इसे भक्त कवि सूरदास की रचना न मानने का आग्रह किया है किन्तु हमारा निजी विश्वास है। कि यह कृति कदाचित् सूरदास ने रीति-शिक्षा के उद्देश्य से लिखी होगी। उन्होंने इसका प्रणयन शायद नन्ददास अथवा कृष्णदास के निमित्त किया था। सूरदास के समय में ही विट्ठल जी ने श्रृंगार रस में उन्हीं जैसा रीतिपरक ग्रंथ लिखा। उस समय चैतन्य-संप्रदाय में भक्ति को काव्यशास्त्र का सांगोपांग रूप देने के लिए ‘भक्ति रसामृत सिन्धु’ और ‘उज्जवलनीलमणि’ की रचना हो चुकी थी। चैतन्य संप्रदाय का पुष्टिमार्गी कवियों पर असंदिग्ध प्रभाव है। नन्ददास की रसमंजरी में नायिका भेद, हाव-भाव, हेला, रति आदि का विस्तृत विवेचन है। विरह-मंजरी में यद्यपि किसी प्रकार के काव्यशास्त्रीय भेदों का तो उल्लेख नहीं है पर उसमें भी परोक्ष में वयःसन्धि तथा प्रथम समागम आदि की दशाओं का वर्णन है। अष्टछाप के अन्य कवियों में भी नायिका भेद के उदाहरण देखे जा सकते हैं।
(8) प्रेम की अलौकिकता- कतिपय विद्वानों ने कृष्ण भक्ति साहित्य में चित्रित रति को चिदुन्मुख कहकर इसे शृंगार रस से भिन्न मधुर रस की कोटि में रखा है तथा इसके प्रेम की अलौकिकता घोषित की है किन्तु स्मरण रखना होगा, मधुर या उज्ज्वल रस शृंगार रस से भिन्न नहीं हैं। उज्ज्वल नीलमणि में प्रतिपादित उज्जवल रस के आलम्बन, आश्रय, नायक-नायिका, उनका सहायता वर्ग आदि सब बातें हैं और शृंगार रस को उज्जवल नाम से भी अभिहित किया है। हमारा विचार है कि मधुर रस की स्थापना कदाचित् कृष्ण और राधा के प्रेम-व्यापारों के उन्मुक्त वर्णन के व्याज से की गई है। यदि कृष्ण और भक्ति-काव्य में चित्रित शृंगारी वर्णनों में कवियों के सूर आदि उपमानों को पृथक कर दिया जाये तो वे वर्णन निश्चित रूप से जयदेव, विद्यापति तथा रीतिकालीन शृंगारी परम्परा में परिगणित किये जा सकेंगे। कृष्ण भक्ति साहित्य में विपरीत रति जैसे प्रसंगों की बलात आध्यात्मिक व्याख्या बौद्धिक व्यायाम के सिवाय और कुछ भी नहीं है। कृष्ण भक्ति काव्य में घोर शृंगारी वर्णनों के कई कारण मौजूद थे- एक तो मंदिरों का वातावरण क्रियात्मक रूप से विलास-प्रधान होता गया। दूसरा अधिकारी वर्ग का दृष्टिकोण भी विलासोन्मुख हो गया था। भगवान कृष्ण के लिए सुन्दर भोजनों की व्यवस्था की जाने लगी। युवा कृष्ण के मनोरंजन के लिए रूपवती वेश्याएं बुलाई जाने लगीं। गोस्वामियों को भगवान का प्रतिरूप मानकर सेविकायें सर्वात्मना अपने आपको उन्हें अर्पण करने लगीं। कृष्ण भक्ति साहित्य पर चैतन्य, हितहरिवंश, हरिदास तथा राधास्वामी के संप्रदायों के प्रभाव ने भी राधाकृष्णाश्रित शृंगार के लौकिक चित्रणों की भूरि प्रेरणा दी। इस दिशा में जयदेव और विद्यापति तो पथ प्रशस्त कर ही चुके थे।
(9) सामाजिक पक्ष- यद्यपि कृष्ण भक्ति काव्य लीलापरक काव्य है और लीला लीला के लिए होती है, लोकमंगल भावना या समाज से कोई विशेष सरोकार नहीं होता, परन्तु फिर भी इस काव्य में उस समय की सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक दशा का यत्किचित् यथार्थ वर्णन मिल जाता है। सूर के पदों में जहाँ वे सांस्कृतिक विषय-वासना से अभिभूत अपने आपकी विगर्हणा करते हैं वहां परोक्ष रूप से समाज की भी झलक है। सूर ने परीक्षित के पश्चात्ताप तथा भागवत के कुछ अन्य प्रसंगों को चुनकर तत्कालीन जीवन की उद्देश्यहीनता एवं इन्द्रियपरायणता की आलोचना की है। उद्धव-गोपी संवाद में अलखवादी निर्गुणिया सन्तों, पांडित्याभिमानी, अद्वैत वेदान्तियों, निष्फल कायाकष्ट में निरत हठयोगियों आदि की अच्छी खबर ली है। कलियुग के प्रभाव का वर्णन करते हुए इन कवियों ने वर्णाश्रम धर्म-पतन, सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक विडम्बनाओं का चित्र प्रस्तुत किया है। कृष्ण भक्त कवियों की साधाना वैयक्तिक होते हुए भी लोकमंगल भावना से नितांत शून्य नहीं है।
(10) ऐतिहासिक पक्ष – निःसंदेह मथुरा और वृन्दावन में बैठे हुए कृष्ण भक्त कवि पर दिल्ली में होते राजनीतिक घात-प्रतिघात की छाया नहीं है किन्तु इसके साहित्य में उनके अपने ढंग की ऐतिहासिकता अवश्य है। भक्त की स्तुतियाँ और प्रशस्तियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से कोई कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। सूरदास के अतिरिक्त अष्टछाप के अन्य कवियों ने वल्लभ कुल का परिचय दिया। राधावल्लभी भक्तों ने हितहरिवंश को अवतार मानकर उनका यशोगान किया है। कई भक्त कवियों में उनके भक्तों के चरित्रों को अंकित किया है। इन सबका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व है। अष्टछाप के कवियों में तत्कालीन सुन्दर सांस्कृतिक झाँकी मिलती है।
(11) काव्य रूप- कृष्ण कवियों का साहित्य प्रमुख रूप से गेय मुक्तक रूप में लिखा गया है। इन कवियों ने कृष्ण के जीवन के जिस अंश को अपने काव्य के लिए चुना है वह सर्वथा मुक्तक के उपयुक्त था। संपूर्ण कृष्ण काव्य में प्रबन्ध रचना बहुत कम पाई जाती है। फिर भी कृष्ण भक्त कवियों में कृष्ण जीवन के किसी विशेष अंश की क्रमबद्ध कल्पना अवश्य मिल जाती है भले ही उस कथा का प्रत्येक पद अपने-आप में स्वतंत्र भी है। सूरदास के काव्य में ब्रजभाषी कृष्ण की संपूर्ण कथा देने का प्रयत्न दृष्टिगोचर होता है। कृष्ण की संपूर्ण कथा देने का प्रयत्न बजरलदास ने अपने बज़विलास में किया है। नन्ददास के भंवरगीत, रुक्मिणी मंगल और रास पंचाध्यायी आदि में कथात्मक की मनोवृत्ति देखी जा सकती है। इस दिशा में हित वृन्दावनदास का लाड़ सागर भी उल्लेखनीय है। संपूर्ण कृष्ण काव्य पर दृष्टिपात करने के अनन्तर हमें उसमें इन कथात्मक सूत्रों-कृष्ण जन्म, गोकुल आगमन, शिशु लीला, नामकरण, अन्नप्राशन, वर्षगांठ आदि संस्कारों तथा जागने, कलेऊ करने, खेलने, हठ करने, भोजन करने, सोने आदि का पता चलता है।
इस काव्य में ब्रजभाषा गद्य का भी थोड़ा-बहुत प्रयोग हुआ है। चौरासी वैष्णवन की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता इस बात के प्रमाण हैं। राधावल्लभी भक्त अनन्य अली का ‘स्वप्न प्रसंग’, ध्रुवदास का सिद्धान्त विचार तथा प्रियादास का ‘राघानेह’ गद्य की रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में गद्य का स्वरूप शिथिल और अशक्त है।
(12) शैली- कृष्ण भक्ति काव्य में मुख्य रूप से गीतिशैली का व्यवहार किया गया है। इन कवियों के साहित्य में गीति शैली के सभी तत्त्व- भावात्मकता, संगीतात्मकता, वैयक्तिकता, संक्षिप्तता तथा भाष्य की कोमलता आदि पूर्ण रूप में मिलते हैं। राधा-कृष्ण की प्रेम कहानी के वर्णन में यद्यपि इन कवियों के लिए वैयक्तिकता, अभिव्यंजना के लिए कोई विशेष क्षेत्र नहीं था फिर भी इन्होंने गोपियों की अनुभूतियों के माध्यम से वैयक्तिकता का कलात्मक रूप से समावेश कर लिया है। कृष्ण भक्त कवियों में अनेक अभिव्यंजना शैलियों के दर्शन होते हैं। अकेले सूरसागर में भावव्यंजना की अनेक शैलियां मिल जाती हैं। डॉ. बृजेश्वर वर्मा के शब्दों में- ‘जहाँ एक ओर वर्णनात्मक प्रसंगों में विषय के अनुकूल सरल ग्रामीण अथवा धार्मिक पदावली में वाच्यार्थ ही प्रधान है, वहां दूसरी ओर गंभीर भाव चित्रण में विशेष रूप से विरह के प्रसंग में लाक्षणिकता की भरमार है तथा अत्यंत सरल और ठेठ शब्दों में भी ऐसी गूढ़ और मार्मिक व्यंजनायें की गई हैं कि कवि की अनुभूति की गंभीरता तथा उसके भाषा अधिकार पर आश्चर्य होता है।” नेत्रादि अंगों के न जाने इन्होंने कितने नवीन से नवीन उपमान जुटा दिये हैं। शब्द-शक्ति, अलंकार, काव्य गुण आदि सभी काव्य के उपकरणों से कृष्ण साहित्य संपन्न है। सूरदास के दृष्टकूटों को इस बात का अपवाद समझना होगा। संभव है कि विषय की गोपनीयता एवं गृढ़ता के कारण सूरदास ने ऐसा किया हो। डॉ० वर्मा सामूहिक रूप से इस काव्य के शिल्प-विधान की चर्चा करते हुए लिखते हैं- “उनके द्वारा भाषा की मधुरता, अर्थ-व्यंजकता और काव्योपयुक्त चित्रण-शक्ति की अतीव वृद्धि हुई है। उन्होंने भाव, भाषा, अलंकार, उक्ति-वैचित्र्य, छंद योजना, संगीतात्मकता आदि की ऐसी अनूठी संपत्ति अपने बाद की पीढ़ियों के लिए इकट्ठी की कि जिसके अंश मात्र को लेकर कितने ही महान कवि बन गए। परवर्ती रीतिकाल की समस्त कवि चातुर्य नखशिख-वर्णन, अलंकार योजना, नायिकाभेद, ऋतु वर्णन, सूक्ति सौष्ठव, सभी कुछ कृष्ण भक्ति काव्य की देन है। अंतर केवल यही है कि जहाँ भक्ति काव्य में यह विषय भावाश्रित हैं, जहाँ रीतिकाल में उन्हीं की प्रधानता है, कृष्ण काव्य के कलापक्ष की विशेषताएँ ब्रजभाषा के कवियों की अविरल परम्परा में आधुनिक काल तक चली आई हैं।
(13) छन्द- भावात्मक काव्य होने के नाते अधिकतर इस साहित्य में गीति-पदों का प्रयोग हुआ है। कलात्मक प्रसंगों में चौपाई, चौबोला, सार तथा सरसी छंदों का प्रयोग किया है। नन्ददास ने रूप-मंजरी तथा रासमंजरी आदि ग्रंथों में दोहा और चौपाई दोनों का प्रयोग किया है।’ दोहा-रोला और रोला-दोहा का मिश्रित रूप भी इस काव्य में प्रयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त कृष्ण भक्ति काव्य में कवित्त, सवैया, छप्पय, डलियाँ, गीतिका, हरिगीतिका, अरिल्ल तथा कुछ और छंदों का भी प्रयोग मिलता है।
(14) भाषा – इस काव्य में ब्रजराज की जन्म भूमि ब्रज की लोक प्रचलित भाषा प्रयुक्त हुई और वह इतनी लोकप्रिय हुई कि समस्त उत्तरी भारत में साहित्य भाषा के रूप में स्वीकृत हुई। उसने सुदूर बंगाल की भाषा को भी प्रभावित किया। परवर्ती रीतिकाल में ब्रजभाषा का निरंतन प्रयोग हुआ और यहाँ तक कि आधुनिक युग के भारतेन्दु काल के कवियों का इस भाषा के प्रति अगाध मोह बना रहा परन्तु एक बात इस सम्बन्ध में स्वीकार करनी होगी कि भाषा के परिमार्जन, रूप-निर्धारण, स्थिरीकरण और व्याकरण-व्यवस्था की ओर न तो कृष्ण भक्त कवियों ने ध्यान दिया और न ही रीतिकालीन कवियों ने। ब्रजभाषा के अच्छे से अच्छे कवियों में शब्दों की तोड़-मरोड़, लिंग-सम्बन्धी गड़बड़, अर्थभेद, अप्रयुक्त एवं ग्राम्य प्रयोग आदि मिल जाते हैं, भले ही नन्ददास आदि एक-दो कवि इसके अपवाद हों। अस्तु । इस भाषा की आश्चर्यजनक व्यापकता को देखते हुए यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि ‘बिना किसी आन्दोलन के साहित्यकार किसी भाषा की प्रतिष्ठा में किस प्रकार अभिवृद्धि कर सकते हैं।”
कृष्ण भक्ति साहित्य आनन्द और उल्लास का साहित्य है। इसमें सर्वत्र बजरंस व्याप्त है जो कि एकदम अद्भुत और विलक्षण है। शुद्ध कलात्मक दृष्टि से यह साहित्य अनुपम है। इस साहित्य की अपनी विशेषताएँ भी हैं और अपनी परीसीमायें भी। आचार्य द्विवेदी इस साहित्य के गुणों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-‘मनुष्य की रसिकता को उद्भुद्ध करता है, उसकी अन्तर्निहित अनुराग लालसा को ऊर्ध्वमुखी करता है और उसे निरंतर रससिक्त बनाता रहता है।” आगे चलकर वे इस साहित्य की परिसीमा का उल्लेख करते हुए लिखते हैं- “यह प्रेम-साधना एक ऐकान्तिक है। वह अपने भक्त को जागतिक द्वन्द्व और कर्तव्यगत संघर्ष से हटाकर भगवान के अनन्यगामी प्रेम की शरण में ले जाती है। यही उसका दोष है क्योंकि जीवन केवल प्रेम-निष्ठा तक ही सीमित नहीं, यह केवल उसका पक्ष है।”
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