केशवदास का सामान्य परिचय देते हुए हिन्दी साहित्य में उनका स्थान निर्धारित कीजिए।
सामान्य परिचय- केशवदास का जन्म संवत् 1612 में मध्य प्रदेश के ओरछा नामक नगर में हुआ था। इनके पिता का नाम काशीनाथ था। ये सनाढ्य ब्राह्मण थे। इनका परिवार संस्कृत के पंडितों का परिवार था। केशवदास ओरछा के राजा इन्द्रजीत सिंह के दरबारी कवि एवं काव्य गुरु थे। इनकी मृत्यु संवत् 1780 के लगभग मानी जाती है। केशव दास गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन थे। गोस्वामी जी से इनकी भेंट भी हुयी थी। उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त कर इन्होंने रामचन्द्रिका जैसे महाकाव्य की रचना की। केशवदास जी के द्वारा प्रणीत नौ ग्रन्थ माने जाते हैं। वर्ण्य विषय की दृष्टि से जिनका वर्गीकरण निम्नवत् प्रकार से किया जा सकता है।
(अ) काव्यशास्त्र सम्बन्धी रचनाएँ अर्थात् रीतिग्रन्थ- 1. रसिक प्रिया, 2. कवि प्रिया, 3. नखशिख, 4. छन्द माला ।
(ब) प्रशस्ति काव्य- 5. वीर सिंह देव चरित, 6. रतन वावनी, 7. जहाँगीर जस चन्द्रिका ।
(स) धर्मशास्त्र पर आधारित भक्तिपरक काव्य – 8. विज्ञान गीता ।
(द) भक्ति प्रधान महाकाव्य- 9. रामचन्द्रिका ।
रचना-काल के अनुसार उक्त कृतियों का क्रम इस प्रकार है-रतन बावनी, रसिक प्रिया, नख-शिख, जहाँगीर जसचन्द्रिका, रामचन्द्रिका, कवि- प्रिया, छन्दमाला, वीर सिंह देवचरित तथा विज्ञान गीता।
रीतिकाल के प्रवर्तक-संस्कृत काव्यशास्त्र का गम्भीर ज्ञान केशवदास को उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। इन्होंने अपनी समसामयिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने युगानुरूप रीति ग्रन्थ की रचना की। यह मूलतः अलंकार सम्प्रदाय के अनुयायी थे तथा हिन्दी में रीति ग्रन्थ लिखने वाले प्रथम आचार्य कवि थे। यद्यपि विद्वानों का एक बहुत बड़ा वर्ग इनको रीतिकाव्य का प्रवर्तक नहीं मानता है। उनका तर्क यह है कि रीति ग्रन्थों की अविच्छिन्न परम्परा केशवदास के 50 वर्ष बाद चिन्तामणि त्रिपाठी से चली तथा रीतिकाल के समस्त आयाची ने रस सिद्धानत को स्वीकार किया। अलंकार सम्प्रदाय को मानने वाले अकेले केशवदास ही थे। हमारी मान्यता यह है कि भले ही केशव दास के पश्चात् अविच्छिन्न रूप से तथा उनके मार्ग पर प्रन्थों की रचना नहीं हुई, परन्तु सर्वप्रथम रीति ग्रन्थ लिखकर रीति-निरूपण का मार्ग प्रशस्त करने वाले आचार्य केशव ही थे। वैसे यह तथ्य निर्विवाद है कि रीतिकाल में केशवदास को पढ़े बिना कवि कर्म पूरा हो ही नहीं सकता था। केशवदास को भक्ति काल का फुटकर एवं हृदयहीन कवि घोषित करने वाले पं० आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी लिखा है कि- “काव्यांगों का विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिए रास्ता खोला।”
केशवदास का काव्य सिद्धान्त- सम्प्रदाय की दृष्टि से केशवदास अलंकारवादी थे, किन्तु कवि, शिक्षक और आचार्य के रूप में वे सर्वांग निरूपक आचार्य थे। अलंकार को उन्होंने बड़े व्यापक अर्थ में ग्रहण किया। कवि प्रिया के अन्तर्गत उन्होंने अलंकार निरूपण किया। उनकी दृष्टि में काव्य को विभूषित करने वाले सारे उपकरण अलंकार के अन्तर्गत आते हैं। केशवदास की अलंकारवादी मान्यता संस्कृत के प्राचीन आचार्य भामह, दण्डी और रुद्रट के समान है-
जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन, सरस सुवत्त।
भुपन बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्त् ।
इसकी तुलना निम्न से करें-
न कांतमपि निर्भूषं विभाति वनिता मुखम्।
केशव का कठिन काव्य- केशवदास अलंकारवादी सम्प्रदाय के अनुयायी एवं चमत्कार को काव्य का आवश्यक गुण मानते थे। इस कारण उनकी कविता अपेक्षाकृत दुर्बोध है। इस आधार पर कतिपय आलोचक उन्हें कठिन काव्य का प्रेत आदि कहते हैं।
केशवदास के काव्य का क्लिष्टत्व वस्तुतः सैद्धान्तिक होने के कारण उनकी सफलता का द्योतक है, असफलता का पर्याय नहीं वे तो वस्तुतः क्लिष्टत्व का संकल्प लेकर ही काव्य-रचना में प्रवृत्त हुए थे। केशवदास कवि नहीं, आचार्य थे। उनके काव्य में भावुकता की खोज करना विशेष उपयोगी नहीं हो सकता है।
केशवदास का जन्म संस्कृत के पण्डितों के परिवार में हुआ था। परिस्थितिवश उन्हें संस्कृत छोड़कर हिन्दी में कविता लिखनी पड़ी थी। इसके लिए उन्हें आत्मग्लानि रही-
भाषा बोलि न जानही, जिनके कुल के दास ।
भाषा कवि भी मतमंद तिहिं कुल केशव दास ।
ऐसा व्यक्ति यदि संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट भाषा लिखे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। क्लिष्टता केशव के काव्य का भूषण है। दूषण नहीं। जहाँ-कहीं भी केशव दास चमत्कार का आग्रह छोड़ देते हैं, वहाँ उनकी भावाभिव्यक्ति अत्यन्त सरल एवं सरस हो गई है।
केशवदास ने एक विशेष वर्ग के पाठकों के लिए काव्य-रचना की थी। केशव को कठिन काव्य का प्रेत वे ही लोग कहते हैं, जिनके लिए वस्तुतः उन्होंने काव्य-रचना की ही नहीं थी।
केशव की सहृदयता बनाम हृदयहीनता- कतिपय आलोचकों के मतानुसार केशवदास हृदयहीन कवि थे। इनमें पं० रामचन्द्र शुक्ल प्रमुख हैं। इनके मतानुसार- “केशव दास को कवि हृदय नहीं मिला था, उनमें कविजनोचित सहृदयता एवं भावुकता का अभाव था। ये जीवन भर पाण्डित्य का प्रदर्शन करने में ही लगे रहे।”
रामकथा के सन्दर्भ में भावुकता की परीक्षा प्रायः गोस्वामी जी के आधार पर की जाती है। प्रश्न यह है कि क्या यह आवश्यक है कि प्रत्येक कवि का चित्त उन्हीं स्थलों पर रमा जिनमें तुलसी का मन रमा है। केशवदास का मन उन स्थलों पर रमा है, जहाँ चमत्कारप्रदर्शन के अवसर अधिक थे। इसके अतिरिक्त वाल्मीकि एवं तुलसी का पिष्टपेषण न करके केशव ने नवीन दृष्टि से विचार किया और मौलिक उद्भावना का परिचय दिया।
केशवदास ने प्रन्बध-निर्वाह के लिए मार्मिक स्थलों की अपनी दृष्टि से चुना है। यह चयन वीर रस की प्रधानता की दृष्टि से किया गया है। इन स्थलों के प्रति उन्होंने पूर्ण न्याय किया है। संस्कृत के कवियों का चयन करुण रस की दृष्टि से है तथा तुलसी के लिये विशेष स्थान शोक एवं करुणा से पूरित स्थल है। केशव ने वे स्थल लिए हैं जो श्रीराम के उत्कर्ष विधायक हैं तथा जो उन्हें एक आदर्श राजा के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले हैं। केशवदास के वर्णन की एक यह भी विशेषता है कि वे विस्तार में न जाकर प्रायः भाव की गहराई का परिचय देते हैं। चित्रकूट में राम-भरत मिलन, मेघनाद वध, लक्ष्मण शक्ति आदि ऐसे प्रसंग हैं, जहाँ केशव के द्वारा प्रस्तुत शब्द-चित्रों में न जाने कितने भाव एक साथ मुखर हो उठते हैं। केशवदास ने कहीं-कहीं तो बहुत ही सामान्य प्रतीत होने वाले स्थलों को अतिशय मार्मिक बना दिया है। सीता के वियोग में भटकने वाले श्रीराम वन के लता – वृक्षों एवं जलाशयों के प्रति समस्त करुणा उड़ेलते हुए दिखाई देते हैं। वे उनसे इस प्रकार बातें करते हुए दिखाई देते हैं, मानों वे सहृदय एवं सजीव प्राणी हों। लक्ष्मण तालाब को समझाते हुए कहते हैं कि तुम तो श्रीराम के ससुराल पक्ष के हों, तुम क्यों उनकी वियोग-व्यथा बढ़ा रहे हो। “दुख-देत तड़ाग तुम्हें न बने, कमलाकर हैं कमलापतिकों।” तथा श्रीराम करना नामक वृक्ष से सीता का पता इस प्रकार पूछते हैं- ‘सुनि साधु तुम्हें हम बूझन आए रहे मन मौन कहा धरिके। सिय को कछु सोधु कहौ करुनामय है करना, करुना करके।” ऐसे वर्णनों में भी यदि किसी को कवि की सहृदयता का दर्शन न हो, तो उसका क्या उपचार है ?
केशवदास की कठिनाई यह थी कि अपने काव्यादर्श के सम्मुख उनके लिए रसात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति कुछ दूर की वस्तु हो जाती थी, परन्तु फिर भी जहाँ अवसर मिला है, उन्होंने अपने अन्तस में प्रवाहित सरसता के स्रोत को प्रकट कर दिया है।
चमत्कार प्रियता एवं अलंकार योजना- केशवदास ने अलंकार-सज्जा, पाण्डित्य प्रदर्शन, उक्ति-वैचित्र्य, वाग्वैदग्ध्य, संवाद-योजना आदि को प्रधानता प्रदान की है। इन अवयवों के फलस्वरूप उनका काव्य चमत्कारवादी हो गया है। कतिपय अलंकारों के भेद-विस्तार में वे दण्डी एवं भोज के एकदम निकट पहुँच जाते हैं।
पांडित्य प्रदर्शन- केशवदास ने वस्तु, दृश्य अथवा घटना का वर्णन करते समय अलंकार योजना के माध्यम से ऐसी-ऐसी कल्पनाएं की हैं कि पाठक आश्चर्यचकित होकर रह जाता है। उनकी ये कल्पनाएँ पाठक को अभिभूत कर देती हैं। रामचन्द्रिका में केशवदास ने दर्शनशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, काव्यशास्त्र, नीति आदि विविध विषयों की जानकारी देकर अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन किया है। छन्द विधान में तो केशव प्रायः बेजोड़ हैं। ‘रामचन्द्रिका’ में उन्होंने 116 प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। इनमें कई छन्द तो ऐसे हैं जिनका उल्लेख द्वारा प्रयुक्त संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट भाषा भी उनके पाण्डित्य की द्योतिका है। पारिभाषिक शब्दावली एवं अप्रचलित शब्दों के प्रयोग भी उनके भाषाधिकार के परिचायक हैं। ‘गीत गोविन्दकार के समान केशवदास सम्भवतः यह कहना चाहते हैं कि यदि कला विकास के प्रति आपका कुतूहल है और साथ ही आप राम का नाम भी लेना चाहते हैं तो अनेक छन्दों की छटा से भरी, अलंकारों से आवृत्त केशव की सरस्वती का अवलम्बन ग्रहण कीजिए।
भाषा शैली – काव्य भाषा की दृष्टि से केशव की भाषा ब्रज भाषा है। उसमें संस्कृत तथा अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग पाया जाता है। संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग के अतिरिक्त उसमें संस्कृत के व्याकरण का भी प्रभाव है। केशव ने बुंदेली भाषा के ठेठ शब्दों का भी प्रयोग किया है। कुछ शब्दों को उन्होंने तोड़ा मरोड़ा भी है। चमत्कार प्रदर्शन के लिए उन्होंने अप्रचलित शब्दों का भी प्रयोग किया है। समग्र रूप में केशव की भाषा पर्याप्त क्लिष्ट है। इस सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन दृष्टव्य है-
“अशक्त फालतू शब्दों के प्रयोग और सम्बन्ध के अभाव के कारण भाषा अप्रांजल और ऊबड़-खाबड़ हो गई है और तात्पर्य भी स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं हो पाया है। केशव की कविता जो कठिन कही जाती है, उसका प्रधान कारण उनकी यह त्रुटि है। “
मुहावरों और लोकोक्तियों का भी केशव ने खूब प्रयोग किया है। प्रसाद, ओज तथा माधुर्य गुणों का यथास्थान समावेश, ध्वन्यात्मकता, संवादों में व्यंग्यात्मक, लक्षणा का सफल प्रयोग तथा गागर में सागर भरना- वे केशव की भाषा के सामान्य गुण है।
केशवदास की शैली की सबसे बड़ी विशेषता है, इनका संवाद-सौष्ठव। फड़कती हुई सजीव भाषा में पात्रों के अनुकूल क्रोध, उत्साह आदि भावों की व्यंजना इनके संवादों की बहुत बड़ी विशेषता है। इनके संवाद बहुत ही सरस, रोचक एवं आकर्षक हैं। दरबारों की शैली पर लिखे गये इनके संवादों में उपलब्ध प्रत्युत्पन्नता तथा व्यंग्य देखते ही बनता है। रामचन्द्रिका के प्रमुख संवाद ये हैं- 1. सुमति-विमति संवाद, 2. रावण-बाणासुर संवाद, 3. राम-परशुराम संवाद, 4. राम-जानकी संवाद, 5. राम-लक्ष्मण संवाद, 6. सूर्पणखा संवाद, 7. सीता-रावण संवाद, 8. सीता-हनुमान संवाद, 9. रावण-अंगद संवाद तथा 10. लवकुण संवाद । इस संबंध में समालोचक एकमत हैं कि केशवदास की रामचन्द्रिका के समान संवाद अन्यत्र दुर्लभ हैं।
केशव की प्रकृति वर्णन- केशवदास ने भावोद्रेक के लिए नहीं, अपितु अलंकारों की छटा दिखाने के लिए प्रकृति का सहारा लिया है। हमें इसी दृष्टि से इनके प्रकृति-चित्रण पर विचार करना चाहिए। केशवदास ने प्रकृति वर्णन के लिए हर्ष, बाण, माघ आदि कवियों की चमत्कारवादी शैली को अपना आदर्श माना है। विरह की ‘उन्माद’ दशा के अन्तर्गत केशव ने प्रकृति पर मानवीय भावनाओं का आरोप भी कर दिया है। “भोहैं सुर चाप प्रमुदित पंयोधर” वाले वर्णन में वर्षा का मानवीकरण द्रष्टव्य है।
भक्ति एवं दर्शन- केशव ने श्रीराम को ब्रह्म मानकर उनके प्रति भक्ति निवेदित की है, परन्तु इनकी भक्ति में भी आचार्यत्व झाँकता है क्योंकि तुलसी भक्त कवि थे, केशव कवि भक्त ।
हैं केशव ने ब्रह्म, जीव, मोक्ष आदि से सम्बन्धित छन्द लिखे हैं। उनका दृष्टिकोण समन्वयवादी है, वैसे वे अद्वैतवाद के पोषक हैं।
केशव का महत्व – केशवदास रीतिकाल के प्रवर्तक एवं प्रतिनिधि आचार्य कवि हैं। इन्होंने रीति काव्य की समस्त प्रवृत्तियों का समावेश अपने काव्य में किया।
केशवदास के आविर्भाव तक हिन्दी साहित्य वीरगाथा एवं भक्तिकाल के दो चारण पार कर चुका था। केशवदास इन दोनों कालों की प्रमुख प्रवृत्तियों को लेकर श्रेष्ठ रचनाएँ प्रस्तुत की। ‘वीर सिंहदेव चरित’ वीर रस पूर्ण काव्य हैं तथा ‘विज्ञान गीता’ एवं ‘रामचन्द्रिका’ में भक्तिकालीन भावाभिव्यक्ति की गई है। संस्कृत के काव्यशास्त्र का हिन्दी में प्रस्तुतीकरण करके केशवदास ने कदाचित् आधुनिक काव्य की प्रयोगशीलता की भविष्यावाणी की।
परवर्ती कवियों पर केशव का गहरा प्रभाव पड़ा। यहाँ तक कि आधुनिक काल के महाकाव्यों साकेत, प्रिय प्रवास, कामायनी तक पर केशव के काव्य का प्रभाव देखा जा सकता हैं।
काव्य-चातुरी में केशव का स्थान सूर और तुलसी के बाद लिया जाता है-‘सूर-सूर तुलसी शशि उड्गन केशवदास। वैसे कवि आचार्य की श्रेणी में वे काव्य-संसार के शीर्ष स्थान के अधिकारी हैं।
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