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घनानन्द के काव्य में संयोग-शृंगार

घनानन्द के काव्य में संयोग-शृंगार
घनानन्द के काव्य में संयोग-शृंगार

घनानन्द के काव्य में संयोग-शृंगार के निरूपण की समीक्षा कीजिए। 

घनानन्द वियोग, वेदना और अनुभूति के कवि हैं। संयोग की क्रीड़ाओं और गहराई के उनके जीवन में अधिक दिन नहीं रहे। उन्होंने प्रेयसी से प्रेम किया, उसके सौन्दर्य, हाव-भाव और मुद्राओं पर अपने को लुटा बैठे; परन्तु परिस्थितिवश प्रेयसी से उपेक्षा, पाकर कृष्ण की शरण में आ गये। परन्तु सुजान का जो मादक सौन्दर्य उनके नेत्रों में बस गया था. उसे वे न भुला सके और वही उनकी अनुभूति में अभिव्यक्ति बनकर बिखर पड़ा ।

घनानन्द जी का प्रेम रूप-लिप्सा-जन्य हैं।

रूप माधुरी ही उनके संयोग- शृंगार का आधार हैं। शरीर के स्थूल सौन्दर्य की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। हाव-भाव और चेष्टाएं ही सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप में उनके काव्य में चित्रित हुई हैं। राधा का अंग-अंग चंचलता और चेष्टाओं से भरा हुआ है। उसकी मधुर मुस्कान से रस की वर्षा होती है। उसके अंग-प्रत्यंग से छवि की तरंग उठ रही है। ऐसा लगता है, मानो सौन्दर्य उसके शरीर से पृथ्वी पर चू रहा है:

लाजनि लपेटि चितवन भेद-भाव भरी,

लसति ललित लोल चख तिरछीन में>

छवि को सदन, गोरो बदन, रुचिर भाल,

रस निचुरत मीठी मृदु मुस्क्यान में ।।

झलकै अति सुन्दर आनन गौर,

छके द्ग राजत कानन छूवै ।

हँसि बोलनि में छवि फूलन की,

बरसा उर ऊपर जाति है ह्वै ।

लट लोल कपोल कलोल करै,

कलकंठ, बनी जलजावलि द्वै।

अंग-अंग तरंग उठै छवि की,

परिहै मनो रूप अब घर च्चै ॥

घनानन्द का संयोग-वर्णन रीति-कालीन कवियों के वर्णन की तरह अश्लील और अस्वाभाविक नहीं है- उसमें अनुभूति की गहराई और मार्मिकता है। कवि सौन्दर्य के उदात्त रूप तथा स्वस्थ हाव-भाव और शृंगारिक चेष्टाओं को ही स्थान देता है। उनकी नायिका न तो क्रिया-विदग्धा बनकर गुरुजनों की आँखों में धूल झोंककर नैन सैनों में बात करती है, न अनुशयना सहेट के उजड़ने से व्याकुल होती है और अभिसार के लिये जमीन आसमान के कुलाबे मिलाती हुई देखी जाती है। उनकी नायिका अपने प्रियतम से पा में इतनी अधिक खोई हुई है कि उसे प्रियतम की रूप माधुरी में ही आनन्द आता है। उसका मन प्रियतम को इसलिये चाहता है, क्योंकि वे सुजान हैं और उसके प्राण बावरे बने हुए उन्हीं की आशा लगाये हुए हैं। वह तो उनके लिए, चातक की रटनि और विश्वास लिये हुए हैं :

मन जैसे कछु तुम्हें चाहत है सु,

बखानिए कैसे सुजान ही हौ।

इन प्राननि एक सदा गति रावरे,

बाबरे लौ लगिहैं तनि लौं ।

बुधि औ सुधि नैनन में,

करि वास निरन्तर अन्तरगौ।

उधरो जग छाड़ रहे घनआनन्द,

चातकि लौं तकियै अब धौ ।

घनानन्द की नायिका की सुन्दरता को देखकर छवि भी लज्जित है। अन्य कवियों की नायिकायें ‘लाड़’ पाकर लाड़ली बनती हैं, किन्तु घनानन्द की नायिका का शरीर ही लाड़ से बना है।

तेरी निकाई निहारि छकै,

छबि हु को अनुपम रूप कढ़यौ है।

इठि है दीठि पै नीठि कटाछनि,

आप मनोज के ओज बढ़यो है।

आनन्द के घन राग सों पागि

सुजानुगुहाहि योग गढ़यो है।

लाड़ से लाड़िली होती हैं और,

पै तो तन लाड़हि लाड़ चढ्यौ है।

नायक और नायिकाओं के प्रेम-लीला सम्बन्धी अनेकों चित्र घनानन्द के संयोग- शृंगार वर्णन में मिलते हैं। रीतकालीन कवियों ने नायक और नायिका के मिलाने में दूतियों का जमघट इकट्ठा किया, किन्तु घनानन्द का प्रेम और उसका मार्ग सर्वधाः सीधा और सरल है; उसने किसी प्रकार के दुराव और चतुरता और प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है। वह तो आत्मा की पुकार है। घनानन्द अपने इस सरल और निष्कपट प्रेम के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं :

अति सू धो सने ह को मारंग है,

जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।

तहाँ साँचे चलें तजि आपुन पै,

झिझकै कपटी जे निसांक नहीं ।।

‘घनआनन्द’ प्यारे सुजान सुनो,

इत एक ते दूसरो आँक नहीं।

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला,

मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं ।।

संयोग क्रीड़ाओं के चित्र

घनानन्द के संयोग-शृंगार वर्णन में प्रेम-क्रीड़ाओं के चित्र अधिक नहीं हैं, किन्तु जो हैं वे अनूठे और अनुपम । दधि-दान- लोला, झूला और होली, वंशी-वादन, गोचारण और वृन्दावन-सौन्दर्य के सुन्दर चित्र मिलते हैं। वंशी का जादू घनानन्द के सम्पूर्ण काव्य में भरा हुआ है :

कैसे धीरज रहै हाय,

हमें मुरली धुनि बौरति है।

वृन्दावन की शोभा की रमणीयता को कृष्ण का सौन्दर्य और अधिक बढ़ा देता है। कृष्ण भी अकेले ही नहीं है। राधा का सौन्दर्य भी विराजमान है :

स्याम यामें बसै ? यह बसै स्याम हिये सदा,

बामें अब राधा बसै क्यों अब सो निहारिये ।।

घनानन्द ने यौवनागम के साथ-साथ आनन्द, उत्साह आदि भावनाओं को भी दिखाया है। नीचे के उदाहरण में नेत्रों के क्रिया-कलापों का चित्र उपस्थित हो जाता है। दृगों का “दौरि-दौरि” के बधाई देना, अंग-प्रत्यंग रोमांचित होना, कुंचकी का तरकना आदि सभी कुछ सुन्दर और स्वाभाविक है :

ललित उमंग बेली आल बाल अन्तर में,

आनन्द के घन सीधी रोग है चढ़ी।

आगम उमाह चाह छायौ सु उछाह रंग,

अंग-अंग फूलनि दूकूलनि परै कढ़ी ।।

बोलत बधाई दौरि-दौरि के छबीले दृग,

दसा सुभ सगुनौती नीकै इनपै चढ़ी।

कंचुकी तरकि मिलै, सरकि उरोज भुज,

फटकि सुजान, चोप ‘चुहल महा बढ़ी ॥

दधि-दान-लीला

गोपी और कृष्ण की छेड़-छाड़ एवं दधि-दान के प्रसंग में प्रेमिकाओं की मनोवृत्ति का सुन्दर निरूपण हुआ है। कृष्ण गोपी है को रास्ते में घेर लेते हैं और दधि-दान माँगने लगते हैं। वह कड़ी प्रेम-पूर्ण फटकार में कहती है :

छैल नये नित रोकत मैल सु फैलत,

कापै अरैल भये हौ ।

लै लकुटी हँसि नैन नचावत,

वैन रचावत मैन तये हौ ।

लाज अंचै बिन काज खगौ,

तिनहीं सी पगौ जिन रंग रये हौ।

ऐंड़ सबै निकसैगी अबै,

घनआनन्द आनि कहा उनये हौ

कृष्ण झट से उत्तर देते हैं कि वे आज बिना दधि-दान लिये हुए जाने वाले नहीं हैं। पहल बचकर निकल गई, सो निकल गई, किन्तु आज तो वह हाथ आ ही गई है :

हे उनए सु नए न कछू

उघटै कत ऐंड़ अमैंड़ अयानी ।

बैन बड़े-बड़े नैनन के बल,

बोलति क्यों हैं इतैं इतरानी ॥

दान दिये बिन जान न पाइहौ,

आई हो जो चलि खोरि बिरानी ।

आगे अछूती गई सो गई,

घनआन्नद आजु भई मनमानी ॥

यहाँ व्यंग्यात्मक रूप में प्रेम की मार्मिक व्यंजना कवि ने की है।

होली का वर्णन

संयोग- शृंगार के अन्तर्गत घनानन्द ने होली का बड़ा आकर्षक वर्णन किया है। राधा-कृष्ण साथ-साथ होली खेल रहे हैं। गोपियाँ देखकर पुलकित हो रही हैं।

सौंधे सनी अलकै बगरी मुख,

जोबन जोति सों चन्दहि चोरति ।

अंगनि रंग-तरंग बढ़ी सु,

किती उपमान के पानिप ढोरति ।।

मोहन सों रस फाग मची,

सु भली भई हौं कवते ही निहोरति ।

आनन्द के घन रीझनि भीजि,

भिजै पठई कहा चीर निचोरति ।।

होली खेलने का एक सजीव चित्र और देखिए । नायिका प्रेम की खिलाड़िन है। वह डफ बजाकर गाली गा रही है। वह इतनी सुकुमार है कि मन्द गति से चलती हुई उरोजों के भार से उसकी कटि लचक जाती है। उसके पैरों के टखनों के सौन्दर्य को देखकर दृग पायल बनकर वहीं रह जाते हैं:

पिय के अनुराग सुहाग भरी,

रति हेरें न पावत रूप रफै।

रिझवारि महा रस- रासि खिलार,

सु गावत गारि बजाय डफै ।

अति ही सुकुमारि उरोजनि भार,

भरै मधुरी डग लंक लफै ।

लपटे घन घनानन्द पायल ह्वै।

दृग-पायल छ्वै गुजरी गुलफै ॥

प्रेम की तन्मयता का भी घनानन्द ने बड़ा स्वाभाविक वर्णन किया है। गोपी गोरस बेचते-बेचते प्रेम की अतिशयता में गोपाल को ही बेचने लगती है।

एक डौलै बेचति गोपालहि दहेंडी धरे,

नैननि समान्यो सोई बैननि जनात है।

गोकुल बघून की बिकानि पै बिकाय रहे,

गोरस है गली-गली मोहन बिकात है।

संयोग एवं विलास का चित्रण

घनानन्द के काव्य में संयोग और विलास का चित्रण भी मिलता है। किन्तु इन वर्णनों में कवि की दृष्टि भावानुभूति पर ही अधिक रही है। नायिका नायक के साथ रात्रि भर विलास करके सबेरे उठी है। उसके सौन्दर्य को देखते ही बनता है। प्रेमातिरेक के कारण उसके नेत्रों के पलक झुक रहे हैं। वह कभी अंगड़ाई लेती है और कभी जँभाई लेकर अपनी तृप्ति का आभास देती है, उसके मुख पर बच्चों की सी सरलता खेल रही है। यहाँ बाह्य स्थूल चित्रण न होकर आन्तरिक भावनाओं, हावों और चेष्टाओं का वर्णन हुआ है : :

रस आरस भोय उठी कछु सोय,

लगी लसें पीक पगी पलकें ॥

घनआनन्द ओप बढ़ी मुख और,

सुफैल गई सुवरी अलकै ॥

अंगराति जंभाति लसै सब अंग,

अनंगहि अंग दिये झलकै ।

अधरानि में आधिय बात घरे,

लरकानि की आन पर छलकैं ।।

घनानन्द बड़े कौशल से संयोग श्रृंगार की सारी सामग्री उपस्थिति कर देते हैं। संयोग में प्रेम-तल्लीनता और विभोरता का उन जैसा चित्रण अन्य कवि न कर सका। सारा दृश्य शृंगार का वृक्ष वन कर नेत्रों के समक्ष फूल उठता है। चारों ओर आनन्द और उल्लास ही दृष्टिगोचर होता है। निम्न उदाहरणों में देखिए :

मुख स्वेद कनी मुखचन्द बनी,

बिथुरी अलकावलि भाँति भली ।

मद जोवन रूप छकी अंखियाँ,

अवलोकनि आरस रंग रखी।

घनआनन्द ओपति ऊंचे उरोजनि,

चोज मनोज के ओज दली।

गति ढीली लजीली रसीली लसीली,

सुजान मनोरथ बेलि फली ।।

सोये हैं अंगनि अंग समोये,

सुभोए अलंग के रंग निस्यौ करि ।

केलि कला रस आरस आवस,

पान छकै घनआनन्द याँ करि ।।

प्रेम-निसा मधि रागत-पागत

लागत अंगनि जागत ज्यों करि।।

ऐसे सुजान विलास निधान हौ,

सोए जगे कहि ब्यौरियो क्यों करि ।।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संयोग-शृंगार के परिपाक में घनानन्द ने आलम्बन की चेष्टाओं और हाव-भावों को जिस सूक्ष्म दृष्टि से अंकित किया है, वह सर्वथा मार्मिक और अनुभूति पूर्ण है। संयोग-शृंगार का जो भी वर्णन घनानन्द जी के काव्य में मिलता है, वह सुन्दर और अनुपम है।

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Anjali Yadav

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