हिन्दी साहित्य

‘जायसी का वियोग वर्णन हिन्दी साहित्य की एक अनुपम निधि है’

'जायसी का वियोग वर्णन हिन्दी साहित्य की एक अनुपम निधि है'
‘जायसी का वियोग वर्णन हिन्दी साहित्य की एक अनुपम निधि है’

‘जायसी का वियोग वर्णन हिन्दी साहित्य की एक अनुपम निधि है’ इस कथन की पुष्टि कीजिए।

“जायसी कृत पद्मावत के विरह-वर्णन में गम्भीरता है। इनकी अत्युक्तियाँ बात की करामात नहीं जान पड़ती, हृदय की अत्यन्त तीव्र वेदना का शब्द संकेत प्रतीत होती है। उनके अन्तर्गत जिन पदार्थों का उल्लेख हुआ है, वे हृदयस्थ ताप की अनुमति देने वाले होते हैं। बाहर-बाहर से ताप मात्रा नापने वाले मानदण्ड मात्र नहीं हैं। जाड़े के दिनों में भी पड़ोसियों तक् पहुँच उन्हें बेचैन करने वाले, शरीर पर रखे हुए कमल के पत्तों को भूनकर पापड़ बना डालने वाले, बोतल का गुलाब जल सुखा डालने वाले ताप से कम ताप जायसी का नहीं है।”

नागमती की विरह-व्यथा सर्वोपरि है। वह भारतीय रमणी अपने पति के विछोह मेंअत्यन्त करूणा के साथ अपनी विरह व्यथा प्रकट करती है तथा उसके पुनीत आँसुओं की धारा में सभी भावुक हृदय निमग्न होकर अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं। इसीलिए नागमती के वियोग वर्णन को हिन्दी साहित्य की अद्वितीय वस्तु कहा गया है और विरह निवेदन की दृष्टि से उसे हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि ठहराया गया है। सामूहिक रूप से विचार करने पर जायसी के विरह वर्णन की अग्रलिखित विशेषतायें प्रतीत होती हैं-

1. विरह ताप की अतिशयता- जायसी ने नागमती के विरह की आग में न केवल उस विरहिणी को ही जलता हुआ दिखाया है, अपितु सृष्टि के अन्य पदार्थों को भी जलता हुआ चित्रित कर विरह ताप की अतिशयता को प्रकट किया है।

“अस परिजरा विरह कर गठा।

मेघ साम भए धूम जो उठा दाढ़ा राहु केतुगा दाघा।

सूरज जरा, चाँद जरि आघा॥

जरै सो धरती ठाँहि ठाऊँ।

दहकि पलास जरै तेहि दाऊँ।।”

2. रूदन का प्रधान्य- जायसी के विरह वर्णन में रूदन की प्रधानता है। उनके विरह व्यथित पात्रों के आँसुओं में कहीं-कहीं तो पर्वत के शिखर भी डूब जाते हैं, समुद्र अपनी मर्यादा तोड़ देता है तथा सारी सृष्टि विरह के आँसुओं में डूब जाती है।

जैसे-

“गगन मेघ जस बरसै भला।

पुहुमी परि सलिल बह चला ॥

सायर टूट सिखर गा पाटा।

सूझ न बार पार कहुँ घाटा॥”

3. विरह की सर्वव्यापकता- सृष्टि का कोई पदार्थ ऐसा नहीं है, जो विरह की अग्नि में न जल रहा हो। सूर्य, आकाश, पाताल, स्वर्ग आदि ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थ निरन्तर विरह की अग्नि में जलते रहते हैं

“बिरह के आगि सूर जरि काँपा।

राति दिवस जरा ओहि तापा।”

खिनहिं सरग खिन जाइ पारा।

थिर न रहै एहि आगि अपारा॥”

4. प्रकृति की संवेदना- जायसी के विरह वर्णन में प्राकृतिक पदार्थ विरही जनों के निकट सम्बन्धी बन गये हैं। नागमती के विरह-संदेश को सुन-सुन कर पक्षी उसके विरह की आग से जलने लगते हैं, वृक्ष अपने पत्ते गिराने लगते हैं।

“जेहि पंखी के निअर होइ, कहै बिरह के बात।

सोइ पंखी जाइ जरि, तखिर होड़ निपात।”

इतना ही नहीं एक पक्षी तो नागमती का संदेश लेकर सिंहलद्वीप तक जाता है और राजा रत्नसेन को नागमती की विरह कथा सुनाकर ही चैन लेता है

“लेई सो संदेश बिहंगय चला।

उठी आगि संगरी सिंघला।

कहि संदेश विंहगम चला।

आगि लागि सगरौ सिंघला। “

5. विरह वेदना के मर्मस्पर्शी चित्र- जायसी ने विरही जनों की पीड़ा, वेदना, कसक एवं टीस का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। नागमती के हृदय में व्यापक विरह वेदना के कारण उसकी दयनीय स्थिति दर्शनीय है, जो अत्यधिक प्रभावशाली है।

‘विरह बान तस लाग न डोली।

रक्त पसीज, भीजि गई चोली ।।

सूखहि हिया हार भा भारी।

हरे-हरे प्रान तजहिं सब नारी।।”

6. विरही जनों की अत्यधिक कृशता- जायसी ने विरही जनों की कृशता को अत्यधिक बढ़ा चढ़ाकर दिखाया है। विरह में बेचारी नागमती जलकर कोयला हो जाती है, उसके शरीर में तोले भर भी माँस नहीं रहता। विरह में उसका सारा शरीर गल-गलकर क्षीण हो जाता है।

‘दहि कोइला भई कंत सनेहा।

तोला माँसु रही नहीं देहा।

रक्त न रहा, विरह तन गरा।

रती-रती होइ नैनन ढरा।”

7. त्यौहारों पर विरह का आधिक्य- प्रायः संयोग के सुखद उत्सव तीज त्यौहार पर्व आदि जब आते हैं, उन अवसरों पर विरही जन अत्यन्त उग्र एवं बेचैन देखे जाते हैं। पद्मावत में भी तीज त्यौहारों का उल्लेख करके नागमती की तीव्रतम पीड़ा को इस प्रकार व्यक्त किया गया है

“अबहूँ निठुर आउ एहि बारा ।

परब दिवारी होइ संसारा॥

सखि झूमक गावै अंग मोरी हौं झुरावँ बिछुरी मोरि जोरी॥”

8. सम्पन्न पात्रों की भी साधारण स्थिति जायसी के विरह-निरूपण में राजा रानी जैसे उच्च एवं सम्पन्न पात्र भी साधारण पुरूष एवं स्त्री की भाँति विरह की पीड़ा सहन करते हुए दिखाये गये हैं। इसी कारण चित्तौड़ की महारानी नागमती को वर्षा ऋतु सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि प्रियतम के बिना उसके घर का छप्पर कौन छवायेगा। इसीलिए वह कहने लगती है।

‘तपै लागि अब जेठ-आसाढ़ी। मोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी ॥

बरसै मेर चुबहिं नैनाहां। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहां।

कौरौं कहा ठाट नव साजा? तुम बिनु कन्त न छाजनि छाजा॥’

नागमती रानी हुए भी एक साधारण स्त्री की भाँति भरि तथा काग से अपने, प्रियतम के समीप सन्देश ले जाने की बात करती है-

“पिउ सो कहेउ संदेशड़ा, हे भारा, हे काग।

सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग॥”

9. विरह वेदना में सात्विकता का प्राधान्य- जायसी के विरह निरूपण में भोग विलास की नहीं अपितु सात्विकता की प्रधानता है। सभी विरही वियोगाग्नि में जलकर इतने पवित्र शुद्ध तथा सात्विक बन गये हैं कि उनमें गर्व, अहंकार लेशमात्र भी नहीं रहता, केवल सतोगुण की प्रबलता ही दिखाई देती है। विरहिणी नागमती भोगों के प्रति अपनी अरूचि प्रकट करती हुई कहती हैं-

“मोहि भोग सों काज न बारी। सहि दीठि की चाह न हारी॥”

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि नागमती के वियोग वर्णन के रूप में जायसी ने अपनी भावुकता का सुन्दर परिचय दिया है। रानी नागमती विरहावस्था में अपना रानीपन बिल्कुल भूल जाती है, यही कारण है कि उसके विरह वाक्य उच्च तथा निम्न सभी वर्ग के प्राणियों को समान रूप से प्रभावित करते हैं। यदि जायसी विरहावस्था में नागमती के लिए स्वर्ण-सेज रत्नजड़ित आभूषण तथा संगमरमर के महलों की बात करते तो कदाचित उनका विरह वर्णन इतना प्रभावशाली न हो पाता। अन्ततः कहा जा सकता है कि जायसी ने विरह के गीत इतनी मर्मस्पर्शी वाणी में गाये हैं कि वे सामान्य जन जीवन को ही नहीं, अपितु पशु पक्षी तथा प्रकृति के उपादानों पर भी अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहते। अतएव यह निस्संकोच कहा जा सकता। कि जायसी के विरह वर्णन में जड़ चेतन सभी को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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