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जायसी के दार्शनिक सिद्धान्तों की विवेचना करते हुए उनके रहस्यवाद को स्पष्ट कीजिए।
रहस्यवाद का अर्थ
रहस्यवाद अंग्रेजी के ‘कस्टिसिज्म’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। रहस्यवाद को किसी सुनिश्चित पारिभाषिक शब्दावली में आबद्ध नहीं किया जा सकता। फिर भी मनीषियों और चिन्तकों ने रहस्यवाद के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
“रहस्यवादी वह है जो ज्ञानातीत सत्ता की आध्यात्मिक अनुभूति में विश्वास करता है।” -आक्सफोर्ड डिक्शनरी
“रहस्यवाद साहित्यिक धारणाओं और मान्यताओं के अनुसार उस मनःवृत्ति का प्रकाशन है जो अव्यक्त और सर्वव्यापी ब्रह्मवाद से परिचित होने के लिए प्रयास करती है। यह प्रवृत्ति मन का गुण है; इसका प्रकाशन काव्य में होता है। यह प्रयास जिस भाव साधना के सोपानों से अग्रसर होता है, वह एक उच्च स्तर की मानसिक स्थिति होती है। यह स्थिति साधारण जन के लिए रहस्य है।” -डा० मुन्शीराम शर्मा
“रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अन्तर नहीं रह जाता है।” -डा० रामकुमार वर्मा
“रहस्यवाद हृदय की वह दिव्य अनुभूति है जिसके भावावेश में प्राणी अपने समीप और पार्थिव स्थित उस असीम एवं स्वर्गिक महा-अस्तित्व के साथ एकात्मकता का अनुभव करने लगता है।” – गंगाप्रसाद पाण्डेय
“साधना के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है काव्य के पक्ष में वही रहस्यवाद है।” -आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
उपर्युक्त मनीषियों के कथनों या परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मा और परमात्मा का जब प्रत्यक्ष सम्बन्ध काव्यमयी भाषा में अभिव्यक्त होता है तब उसे साहित्य में रहस्यवाद के नाम से अभिहित किया जाता है। इस प्रकार का यह एक स्वतन्त्र अनुभूति का विषय है जिसमें दिव्य रहस्यों का उद्घाटन किया जाता है।
रहस्यवाद के प्रकार
रहस्यवाद दो प्रकार का होता है- भावात्मक रहस्यवाद और साधनात्मक रहस्यवाद। साधनात्मक रहस्यवाद के अन्तर्गत योग, तन्त्र तथा रसायन आदि तत्वों का समावेश होता है, परन्तु भावात्मक रहस्यवाद में भावना के सूक्ष्म एवं स्थूल (प्रतीक) रूपों के चित्रण किये जाते हैं।
कुछ प्रमुख हिन्दी समीक्षकों ने रहस्यवाद को पांच भागों में विभाजित किया है-
(1) आध्यात्मिक रहस्यवाद, (2) प्रकृतिमूलक रहस्यवाद, (3) प्रेममूलक रहस्यवाद, (4) अभिव्यक्तिमूलक रहस्यवाद, (5) साधनात्मक रहस्यवाद ।
(1) आध्यात्मिक रहस्यवाद- रहस्यवाद के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए विलियम जेम्स ने कहा है कि रहस्यवाद रहस्यानुभूति की अवस्था नहीं वरन् एक प्रकार ज्ञान की दशा भी है। इस प्रकार जब रहस्य-भावनायें गूढ़ आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों की व्यंजना को प्रधानता देने लगती हैं तब उसको आध्यात्मिक रहस्यवाद में रहस्यवादी भक्त परमात्मा को अपने साध्य और प्रिय की छवि के रूप में देखता है। जायसी की निम्नलिखित पंक्तियों में रूप सौन्दर्य के माध्यम से उस अलौकिक शक्ति की ओर संकेत किया गया है जिसके कारण सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ ज्योतित और आभासित है।
जेहि दिन दसन जोति निरमई। बहुत जोति ओहि भई ॥
रवि ससि नखत दिपहि ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती ।।
जहं जहं विहँसि सभावहि हँसी तहँ तहँ छिटकि जोति परगसी ।।
दामिनि दमकि न सरवरि पूजी। पुनि ओहि जोति और को दूजी ।।
(2) प्रकृतिमूलक रहस्यवाद- इस रहस्यवाद में प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध निरूपित किया जाता है। इस पद्धति का आश्रय लेकर प्रकृति के अपूर्व सौन्दर्य को देखकर उसमें परमतत्व का आभास पाता है। मानसरोवर वर्णन में कवि ने उसी ज्योति का साक्षात्कार किया है और चारों ओर उल्लास ही उल्लास है।
देखि मानसर रूप सोहावा हिये हुलास पुरइन होई छावा ।
भा अंधियार-चैन मसि छूटी था भिनसार किरन रवि फूटी ॥
(3) प्रेम मूलक रहस्यवाद- जायसी प्रेमी कवि थे इसलिए उन्होंने प्रेमी की पीर को अत्यधिक महत्व दिया है। पद्मावत में विचित्र प्रेम लोकोत्तर है और लौकिक प्रेम के माध्यम से कवि ने अलौकिक सौन्दर्य की व्यंजना की है। पद्मावत में ऐसे अनेक प्रसंग हैं। जहाँ प्रेममूलक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति हुई है। पद्मावती के रूप सौन्दर्य को देखकर रत्नसेन के अचेत हो जाने की अवस्था का जायसी ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया।
आवत जग बालक जस सेवा उठ रोई हा ग्यान सो खोवा ।।
हौं तो अहा अमरतर जहाँ इहाँ मरनपुर आएउ कहाँ ।।
केइ उपकार मरन कर दीन्हा। सकति हकारि जोड हरि लीन्हा ।।
(4) अभिव्यक्ति मूलक रहस्यवाद- जब कवि सामान्य विचार को व्यक्त करने के लिए जटिल प्रतीकों का आश्रय लेता है। तो ऐसे समय में पाठक कवि के अभिव्यक्तिजनित चमत्कार में आबद्ध हो जाता है। डा० गोविन्द त्रिगुणायत ने इस प्रकार के रहस्यवाद को अभिव्यक्तिमूलक रहस्यवाद की संज्ञा दी है। पद्मावत में पद्मावती रत्नसेन भेद खण्ड में सखियाँ पद्मावती को छिपाकर रत्नसेन से व्यंग करती हैं- ‘ऐ रे चेले । तेरा गुरु कहाँ है ?’ आज चाँद के बिना सूर्य कहाँ है ? हे जोगी तूने कमाना तो सीखा हैं फिर आज इस समय घात रहित कैसे दिखाई दे रहा है ? इस प्रकार श्लेष के माध्यम से इस प्रसंग के ‘धातुपरक और ‘पद्मावती परक’ अर्थ लिए जा सकते हैं। इस प्रकार की अभिव्यक्ति, अभिव्यक्तिमूलक रहस्यवाद के अन्तर्गत आती है। पद्मावत में ऐसे और भी स्थल हैं।
(5) साधनात्मक रहस्यवाद – जायसी और नाथ पंथियों का और हठयोगियों का प्रभाव स्पष्ट है। साधनात्मक रहस्यवाद के अन्तर्गत जायसी ने अनहदनाद ब्रह्म रन्ध और नाथ पंथियों के उल्टा साधना की अभिव्यक्ति भी की है। शरीर के नव द्वारों और उसके बाद आने वाले दसवें द्वार तक का उल्लेख भी जायसी ने सिंहलगढ़ के सन्दर्भ में लिखा है। दसवाँ दरवाजा ब्रह्मरंध्र है।
दसवं दुआ गुप्त एक नौकी। अगम चढ़ाव बाट सुठि बाँकी |
भेदी कोइ जाइ ओहि घाटी। जौ ले भेद चढ़ होइ चोटी |
दसवं दुआर तार कै लेखा। उलटि दृष्टि जो लाव सो देखा ॥
इसी प्रकार अनहद नाद के सम्बन्ध में जायसी ने लिखा है-
घरी घरी घरियार पुकारा-पूजी बार सो आपनि मारा ॥
नौ पौरी पर दसवं दुआरा तेहि पर बाज राज घरियारा ॥
अन्ततः हम कह सकते हैं कि हिन्दी के कवियों में यदि कहीं रमणीय और सुन्दर अद्वैती रहस्यवाद है, तो जायसी में जिनकी भावुकता बहुत उच्चकोटि की है। वे सूफियों की भक्ति भावना के अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत् के नाना रूपों में उस प्रियतम के रूपमाधुर्य की छाया देखते हैं और कहीं सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों का ‘पुरुष’ के समागम के हेतु प्रकृति के शृंगार, उत्कण्ठा या विरह विकलता के रूप में अनुभव करते हैं।
जायसी के काव्य में रहस्यवाद की शैली का सफल प्रयोग हुआ है। उनके रहस्यवाद में सूफीमत एवं हठयोग दोनों का प्रभाव है। वे श्रेष्ठ रहस्यवादी कवि हैं। इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है-
‘रहस्यवाद का स्फुरण सूफियों में पूरा-पूरा हुआ। कबीरदास में जो रहस्यवाद पाया जाता है, वह अधिकतर सूफियों के प्रभाव के कारण। कबीर पर इस्लाम के कट्टर एकेश्वरवाद और वेदान्त के मायावाद का रूखा संस्कार भी पूरा-पूरा था। उनमें वाक्चातुर्य था, प्रतिभा थी, पर प्रकृति के संसार में भगवान की कला का प्रदर्शन करने वाली भावुकता न थी।
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