जायसी के प्रकृति-चित्रण का सोदाहरण विवेचन कीजिए।
कवि सौन्दर्य प्रेमी होता है और सौन्दर्य का दर्शन प्रकृति में होता है। मानव का जन्म भी प्रकृति के प्रांगण में होता है। जन्म से मृत्युपर्यन्त तक मानव के कार्य व्यापार का स्थल भी प्रकृति ही रहती है। जिसके कारण मानव और प्रकृति का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है। इसीलिए आदिकाल से कविगण प्रकृति का चित्रण करते चले आये हैं। आदि कवि वाल्मीकि को लिखने की सहज प्रेरणा ही प्रकृति के प्रांगण में हुई। कवियों ने प्रकृति को विभिन्न रूपों में चित्रित कर अपने काव्यों को सौन्दर्य से पूर्ण किया है। जायसी ने भी पद्मावत में प्रकृति को निम्न रूपों में चित्रित किया है-
(1) आलम्बन रूप में, (2) उद्दीपन रूप में, (3) अलंकार रूप में, (4) वस्त्र परिगणनात्मक रूप में, (5) प्रतीक रूप में, (6) मानवीकरण के रूप में, (7) रहस्यवाद के रूप में।
(1) आलम्बन के रूप में प्रकृति-चित्रण- आलम्बन के रूप में प्रकृति-चित्रण में प्रकृति ही कवि की साध्य बन जाती है। जायसी ने प्रकृति के शान्त एवं भयंकर दोनों चित्र चित्रित किए हैं। ‘पद्मावत’ के ‘सिंहलद्वीप वर्णन खण्ड में प्रकृति के शान्त रूप को चित्रित किया गया है-
‘मानसरोदक बरनौ कहा। भरा समुद अस अति अवगाहा ।
पानि मोति अस निरमल तासू । अग्रित आनि कपूर सुबासू ।’
लेकिन ‘सात समुद्र खण्ड’ के अन्तर्गत सरोवर के भयंकर स्वरूप का चित्रण हुआ है। यथा-
‘पुनि किलकिला समुद महुँ आए ! गा धीरज देखत डर खाए।
भा किलकिल अस उठे हिलोरा। जनु अकास टूटै चहुँ ओरा ।।’
(2) उद्दीपन रूप में प्रकृति-चित्रण – जब पात्रों की विभिन्न मनोदशाओं के अनुरूप प्रकृति चित्रण किया जाता है, तब उसे उद्दीपन रूप में प्रकृति-चित्रण कहा जाता है। पद्मावती और रत्नसेन विवाहोपरान्त रति क्रीड़ा में पूर्ण रूपेण डूब चुके हैं, उनके चारों और आनन्द और उल्लास की वर्षा हो रही है। पावस ऋतु ने उनके जीवन को और अधिक मादक, मोहक और उल्लासमय बना दिया है। उदाहरणार्थ-
‘रंगराती प्रीतम संग जागी। गरजे गगन चौकि गर लागी ।
सीतल बूँद ऊँच चौपरा । हरियर सब देखाई संसार ।।
(3) अलंकार के रूप में प्रकृति-चित्रण- अलंकारों के माध्यम से पद्मावत में प्रकृति-चित्रण बड़े सुन्दर ढंग से किया गया है। यथा-
वरनौ माँग सीस उपराही, सेंदुर अवहिं चढ़ा जेहि नाहीं ।
बिनु सेंदुर अस जानहु दीआ उजियर पंथ रैनि मह कीआ ।।’
एक अन्य हृदयस्पर्शी उपमा देखिए-
तोर जीवन जस समुद हिलोरा देखि देखि जिय बड़े मोरा ।।’
उत्प्रेक्षा अलंकार की छटा देखिये-
‘सूरज किरिन जन गगन बिसेषी। जमुना माह सरसुती देखी ॥’
(4) वस्तु परिणगनात्मक रूप में प्रकृति-चित्रण- प्राकृतिक वस्तुओं का सूचीबद्ध वर्णन काव्य की एक प्राचीन परिपाटी है। इस प्रकार के प्रकृति-चित्रण को वस्तु परिगणनात्मक चित्रण कहते हैं। पद्मावत में कई स्थलों पर इस प्रकार का प्रकृति-वर्णन हुआ है। उदाहरण के लिए ‘वाटिका वर्णन’ की निम्न पंक्तियों का अवलोकन करिये –
लवंग सुपारी जायफल, सब फर फरे अपूर
आस-पास धन इमिली, और धन तार खजूर ।।
(5) प्रतीक (संकेत) रूप में प्रकृति-चित्रण- प्रकृति के विभिन्न उपादानों को जायसी ने प्रतीक या संकेत रूप में ग्रहण किया है। प्रतीक के उत्तम उदाहरण हमें सिंहलद्वीप वर्णन तथा समुद्र वर्णन में मिलते हैं। यथा-
‘दस यह एक जाइ कोइ करम धरम तप नेम |
बोहित पार होइ जब, तवहिं कुसल औ खेम ॥
(6) मानवीकरण के रूप में प्रकृति-चित्रण- प्रकृति में जब चेतना, संवेदना और भावना को आरोपित कर दिया जाता है तो मानवीकरण कहलाता है, यथा-
‘सरवर रूप विमोहा हिये हिलोरहि लेइ।’
(7) रहस्यवाद अथवा आध्यात्मिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रकृति-चित्रण- रहस्यवादी कवि प्रकृति के कण-कण में ईश्वरीय सत्ता का अनुभव करता है, इस प्रकार प्रकृति स्वयं विश्वात्मा के दर्शन का माध्यम बन जाती है। जायसी प्रियतम से मिलने को व्याकुल हैं-
“पिउ हिरदय महँ भेंट न होई। को रे मिलाव कहीं केहि रोई।
वे अपने हृदय में ही परमात्मा की खोज नहीं करते हैं, परन्तु इस निखिल सृष्टि में उसका दर्शन करते हैं।
रवि-ससि नखत दिपहि ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती ॥
निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि जायसी के काव्य में प्रकृति-चित्रण अपने विभिन्न रूपों में विद्यमान है। जायसी के प्रकृति वर्णन में आलम्बन, उद्दीपन एवं अलंकार रूप का प्रकृति-चित्रण श्रेष्ठ कोटि का है, परन्तु दूसरे प्रकार का प्रकृति वर्णन अपेक्षाकृत कम है।
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