जायसी के सौन्दर्य निरूपण की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।
सूफी मत में परमात्मा को सौन्दर्य एवं प्रेम स्वरूपी माना गया है। यद्यपि यह सौन्दर्य और प्रेम सर्वथा अलौकिक आध्यात्मिक तथा असीम होता है। कवियों को उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति के लिए लौकिक साधनों एवं प्रतीकों का आश्रय लेना पड़ता है यही कारण है कि सूफियों के काव्य में प्रत्यक्ष रूप से लौकिक प्रेम एवं सौन्दर्य का वर्णन मिलता है।
पद्मावत में एक नायक और दो नायिकाओं की प्रेम कथा वर्णित है। नागमती प्रारम्भ से ही स्वकीया नायिका है और पद्मावती प्रारम्भ में परकीया रहती है तथा बाद में स्वकीया हो जाती है। जायसी ने पद्मावती के रविभाव के रूप में लौकिक संयोग श्रृंगार के चित्र खींचे हैं।
शृंगार का प्रमुख कारण सौन्दर्य होता है। इस सौन्दर्यं वर्णन प्रसंग में ही नख-शिख वर्णन की परम्परा पाई जाती है। कवि लोग नायक-नायिका के सौन्दर्य वर्णन के लिए नख से शिख तक का वर्णन करते हैं। जायसी ने इस परम्परा का पूर्ण निर्वाह किया है। जायसी के पद्मावत में हमें नख-शिख वर्णन कई स्थलों पर मिलता है। जन्म खण्ड, सिंहलद्वीप, वर्णन खण्ड, मानसरोदक खण्ड, पद्मावती रूप चर्चा खण्ड, नख-शिख वर्णन के लिए प्रसिद्ध है। जायसी की वृत्ति नख-शिख वर्णन में इतनी अधिक रची थी कि उन्होंने पद्मावत में एक पूरा खण्ड नख-शिक्ष वर्णन खण्ड के नाम में लिखा है। इसके अन्तर्गत वेणी, माँग, ललाट, भौंह, नेत्र, नासिका, मुख, कपोल, अधर, केश, पीठ, दाँत, कुच, कलाइयाँ तथा कटि का वर्णन किया है। नख-शिख खण्ड में जायसी की सौन्दर्यानुभूति पराकष्ठा पर पहुँच गई है।
जायसी ने अपना सौन्दर्य वर्णन शिखा से प्रारम्भ किया है, जबकि भारतीय पद्धति में यह वर्णन नख से शिख तक लिया जाता है। जायसी मुसलमान सूफी कवि थे। इसीलिए उन्होंने मुसलमानी पद्धति के अनुसार शिखा से नख का सौन्दर्य चित्रण किया है। मुसलमानी पद्धति हिन्दू पद्धति से विपरीत अर्थात उलटी चलती है इसीलिए जायसी ने भी अपना सौन्दर्य शिखा से प्रारम्भ किया है।
जायसी ने पद्मावती के केशों को कस्तूरी के समान बताया है। यथा-
“प्रथम सीस कस्तूरी केसा बलि वासुकि का और नरेसा।”
पद्मावती की माँग का वर्णन करते हुए आयसी ने कहा कि उसकी मांग पर अभी सिन्दूर नहीं बढ़ा है और बिना सिन्दूर के वह माँग ऐसी प्रतीत होती है जैसे दिया जल रहा हो-
“हरनी माँग सीस उपराही, सेंदुर अवहिं चढ़ा जेहि नाही।
बिनु सेंदूर अस जान उजियर पथ रेनि मह कीआ ।।”
यहाँ पर जायसी ने बिना सिन्दूर की कहकर पद्मावती की कौमार्यावस्था की ओर संकेत किया है।
भौहों के वर्णन में कवि का चमत्कार देखने लायक है। ‘पद्मावती रूप चर्चा खण्ड में राघवचेतन अलाउद्दीन से कहता है कि उसकी भौहें बढ़े हुए धनुष के समान हैं जो देखने वाले व्यक्ति को बोध करती है-
भी साम धनुष जनु चढ़ा, बेझ करें मानुस कह गढ़ा।”
भौंहों के उपरान्त कवि नेत्रों का वर्णन करता है। नेत्रों के लिए कवि ने समुद्र का उपमान लिया है। दूसरा उपमान लाल कमलों पर मंडराते हुए भौरों का दिया है। यहाँ लाल रंग नेत्रों के कोए हैं तथा काली पुतलियों भौरों के समान है-
राते कंवल करहि अलि भवाँ, धूमहि माति चहहि अपरयो।
‘पद्मावती रूप चर्चा खण्ड’ में यही वर्णन इस प्रकार है-
जैन चित्र एहि रूप चितेरा, केवल पत्र पर मधुकर फेरा।
समुद्र-तरंग उठहिं जनु राते, डोलहि औधूमिहिं रस माते ।।
नासिका का वर्णन कवि ने तलवार की धार और तोते की नासिका से किया है। प्रतीप और व्यतिरेक अलंकारों के सहारे से नासिका का वर्णन अत्यन्त सुन्दर हुआ है। पद्मावती की नासिका के सामने तलवार तथा तोता दोनों ही लज्जित हो जाते हैं-
नासिका खरग देउ का जोगू, खरग खीन वह बदल संजोगू।
नासिक देखि लजानेड सूआ, सूक आइ बेसरि होइ ऊआ ।।
पद्मावती के ललाट को जायसी ने द्वितीया के चाँद सदृश्य बताया है, लेकिन तुरन्त ही “चाँद कलकी वह निकलंक” कहकर ललाट के सामने चन्द्रमा को पराजित घोषित कर दिया।
जायसी ने पद्मावती के अधरों की उपमा बिम्बा फल से दो है। दाँतों की उपमा हीरों से दी है। कवि यह भी सिद्ध कर देता है कि पद्मावती के दांतों की कान्ति से ही बहुतों को ज्योति प्राप्त हुई है।
पद्मावती की रचना के लिए कवि ने बहुत से उपमान दिए हैं, जिनमें कोयल, चातक, तोता एवं वंशी प्रमुख हैं, कपोलों का वर्णन करता हुआ कवि लिखता है कि कपोल एक नारंगी के दो टुकड़ों के समान हैं, मानों नारंगी के दो टुकड़ों को कपोलों के स्थान पर लगा दिया गया है-
“पुनि बरनी का सुरंग कपोला, एक नारंग दुइ किए अमोला।”
जायसी ने पद्मावती के कानों की उपमा सीपियों से दी है। मीवा की उपमा क्रौंच पक्षी (सारस) एवं मयूर की गर्दन से दी है। भुजाओं को सोने के डण्डे के समान बताया है। दूसरी उपमा केले के खम्भे से दी है। कुचों का वर्णन करते हुए कवि ने उन्हें लड्डुओं से भरे हुए बाल के समान बतलाया है। इसी प्रकार पट के लिए चन्दन और कटि की उपमा सिंह को कमर से दी है।
पद्मावती का नख-शिख वर्णन जायसी ने सर्वप्रथम हीरामन तोते के द्वारा ‘नख-शिख खण्ड” में कराया है और बाद में उसके वर्णनगत सौन्दर्य का वर्णन राघव चेतन के द्वारा ‘पद्मावती रूप चर्चा खंड’ में कराया है। दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। नख-शिख खण्ड शिखा से लेकर नाखूनों तक का पूरा वर्णन है जबकि ‘पद्मावत रूप चर्चा खण्ड’ का वर्णन पूरा नहीं है। इस प्रकार जायसी ने पद्मावती के केशों को काले-काले नागों के समान सिद्ध किया है। ललाट को द्वितीय के चन्द्र के समान बताया है। भौहें चढ़े हुए धनुष के समान हैं, नेत्र खंजन पक्षी के समान कजरारे हैं। कुछ नारंगियों के समान हैं। अधर पान के पत्ते के समानपतले तथा लाल हैं। नासिका तोते के समान हैं। जायसी के सौन्दर्य निरूपण में कुछ उपमान परम्परागत आये हैं। और कुछ वे स्वयं अपनी प्रतिभा से लाये हैं। कुच नारंग मधुकर रस लेही की कल्पना अत्यन्त मधुर है।
निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं कि जायसी की वृत्ति सौन्दर्य निरूपण में अधिक रही है। उन्होंने सौन्दर्य के उद्घाटन में अपनी सारी कला-निपुणता लगा दी है। वे सौन्दर्य को ही परमात्मा मानते थे उनकी मधुर कल्पनायें पद्मावती में अनन्त रूपों में साकार हुई हैं। उनकी अधिकांश कल्पनायें सौन्दर्य से सम्बन्धित हैं। जायसी के सौन्दर्य निरूपण की यह विशेषता है कि उन्होंने नायिका के आभूषणों के माध्यम से, सोलह शृंगार के माध्यम से तथा कामशास्त्र एवं ज्योतिशास्त्र में बताये गए सौन्दर्य के लक्षणों के अनुसार ही सौन्दर्य निरूपण किया है। उनके नख-शिख वर्णन में भी लौकिकता एवं अलौकिकता का सामंजस्य हुआ है।
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